स्वामी दयानन्द सरस्वती और आर्य समाज
हिन्दू धर्म और समाज में व्याप्त बुराइयों को समाप्त करने में आर्य समाज ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आर्य समाज की स्थापना महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा सन् 1875 में की गई थी। उन्नीसवीं शताब्दी का समय समाज में घोर असमानता और अन्याय का युग था ।
भारतीय अनेक रूढ़ियों और आडम्बरों के कारण पत्तन की ओर उन्मुख हो रहे थे । ऐसे समय में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना कर, उनका उद्धार किया । उन्होंने हिन्दुओं को प्रेम, स्वतन्त्रता, सच्ची ईश्वर भक्ति एवं हिन्दू संस्कृति के प्रति सम्मान का भाव रखने की शिक्षा दी ।
जीवन-परिचय- स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म सन् 1824 में काठियावाड़ के एक समृद्ध ब्राह्मण परिवार में हुआ था । वे बचपन से ही घर - द्वार छोड़कर साधु-संन्यासियों के साथ रहने लगे थे । उन्हीं के मध्य रहकर ये संस्कृत भाषा के विद्वान बने । स्वामी जी ने पंजाब, महाराष्ट्र , उत्तर प्रदेश आदि अनेक दूरस्थ स्थानों का भ्रमण किया ।
इस भ्रमण का उद्देश्य, शास्त्रार्थ और व्याख्यानों के माध्यम से वैदिक धर्म की श्रेष्ठ बातों का प्रचार करना था । महर्षि दयानन्द ने हिन्दुओं को उपदेश देकर उन्हें अत्यन्त सरलता से प्राचीन धर्म चित्र —दयानन्द सरस्वती । की विशेषताओं , भारतीय संस्कृति की अच्छाइयों और सात्त्विक जीवन के लाभों से परिचित कराया तथा उनकी सुप्त चेतना को जाग्रत किया ।
वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के लिए उन्होंने सन् 1875 में आर्य समाज की स्थापना की । कालान्तर में भारत के प्रत्येक कोने में इस संस्था की शाखाएँ स्थापित हुई । ' सत्यार्थप्रकाश ' इनके द्वारा लिखा गया प्रसिद्ध ग्रन्थ है । भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान के इस महारथी का देहावसान 30 अक्टूबर , 1883 ई ० को हो गया ।
प्रसिद्ध चिन्तक अरविन्द घोष के अनुसार, " वे परमात्मा की इस विचित्र सृष्टि के अद्वितीय योद्धा तथा मनुष्य और मानवीय संस्थाओं का सत्कार करने वाले अद्भुत शिल्पी थे। "
आर्य समाज के सिद्धान्त
आर्य समाज के दस मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
1. समस्त सत्य, विद्या और पदार्थ आदि का मूल परमेश्वर है। इन सभी को विद्या के आधार पर जाना जाता है ।
2. ईश्वर निराकार, न्याय रूप, दयालु और सर्वशक्तिमान है। यही एक ईश्वर अजन्मा, अमर, सबका रूपक, अजेय एवं अनन्त सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है । यही पालनकर्त्ता और विनाशकर्त्ता भी है ।
3. वेद ही सत्य और ज्ञान के स्त्रोत है; अतः वेदों का पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना प्रत्येक आर्य का परम धर्म एवं कर्तव्य है।
4. सदा सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने के लिए तत्पर रहना चाहिए ।
5. सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहिए ।
6. संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् समाज को मानव को शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करने में सहयोग देना चाहिए।
7. सबसे प्रेमपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए।
8. विद्या की वृद्धि और अविद्या के नाश का सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिए।
9. प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिए, वरन् सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए ।
10. सभी मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियमों का पालन करने में पूर्ण निष्ठा होनी चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम का पालन करने में सभी को स्वतन्त्र होना चाहिए ।
आर्य समाज की सेवाएँ
स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज ने सामाजिक सुधार से सम्बन्धित अनेक कार्य किए । इस संस्था ने छुआछूत , बाल विवाह एवं जाति - पाँति का डटकर विरोध किया । विवाह की आयुः लड़कों के लिए 25 वर्ष और लड़कियों के लिए 16 वर्ष निश्चित की ।
स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए विशेष प्रबन्ध किए । आर्य समाज ने शुद्धि आन्दोलन चलाकर उन हिन्दुओं को पुनः हिन्दू बनाने हेतु आन्दोलन चलाया , जिन्होंने दूसरे धर्म को अपना लिया था । सन् 1908 में आर्य समाज ने दलित जातियों के उद्धार के लिए भी आन्दोलन चलाया था । इसी समाज ने भारत के अनेक स्थानों पर डी ० ए ० वी ० ( दयानन्द एंग्लो - वैदिक ) कॉलेजो की स्थापना की ।
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