जनजातियों में वस्तु विनिमय ( Barter among tribes )
जनजातियों में आर्थिक सिद्धान्त वस्तु - विनिमय प्रणाली पर आधारित होता है -
( 1 ) आर्थिक सम्बन्ध वस्तु - विनिमय तथा अदला - बदली पर आधारित है ।आधुनिक युग की भाँति आदिम जातियाँ अपने पास मुद्रा एकत्र नहीं करती हैं । उनके आदान - प्रदान के साधन तथा मूल्य भी आधुनिक युग की भाँति काम में नहीं लाये जाते हैं ।बैंक , संस्थाएँ तथा साख समितियाँ नहीं पायी जाती हैं ।
( 2 ) आदिकालीन अर्थव्यवस्था प्रचलित सामाजिक प्रथाओं , भौतिक परिस्थितियों तथा पूर्वजों में विश्वास पर आधारित है ।कोई भी आदिम मनुष्य अपनी सीमा के बाहर नहीं जा सकता है ।अर्थव्यवस्था में साधारणत : लाभ का उद्देश्य नहीं होता ।प्रोत्साहन का कार्य पारस्परिक अहसानों तथा एकता द्वारा पूरा नहीं होता है ।किसी से कुछ लेकर उसे समय पर वापस लौटाना यह क्रिया ही अर्थव्यवस्था का केन्द्र है ।
( 3 ) परस्पर सहयोग तथा सामूहिक प्रयत्न आदिवासियों की एक प्रमुख भावना है ।थर्नवाल्ड के अनुसार भारत में वन्य जातियाँ एक उच्च सामुदायिक भावना को प्रदर्शित करती है ।
( 4 ) सभ्य समाज की भाँति दैनिक बाजार आदिम आर्थिक - व्यवस्था विद्यमान नहीं है ।कभी - कभी साप्ताहिक या त्यौहार पर जनजातियाँ मिलकर दुकानें लगाती हैं ।वस्तुओं पर एकाधिकार तथा मनुष्यों में आपस में आर्थिक प्रतिस्पर्द्धा की भावना नहीं पायी जाती है ।वे साधारण रूप में क्रय - विक्रय करते हैं 1 संस्था आदिवासियों में
( 5 ) व्यक्तिगत सम्पत्ति नामक अनुपस्थित है । समस्त भूमि पर समुदाय का अधिकार होता है ।भूमि का विभिन्न परिवारों में वितरण किया जाता है तथा प्रत्येक परिवार अपने - अपने भाग में खेती करता है ।उत्पादन की जगह उपभोग अधिक होता है ।भोजन , वस्त्र तथा आश्रय तीनों ही उपभोग के अन्तर्गत आते हैं ।
( 6 ) आर्थिक मूल्यों में परिवर्तन काफी समय बाद आता है । अधिकतर स्थिरता , समता और सरलता ये तीनों आदिम आर्थिक व्यवस्था में व्याप्त है ।उत्पादन की पद्धतियों में समानता और सरलता रहती है ।आदिम अर्थव्यवस्था में विशेषीकरण नहीं होता , श्रम - विभाजन पाया जाता है ।किन्तु वह भी लिंग पर आधारित होता है ।
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