ऐतिहासिक भौतिकतावाद ( Historical Materialism )
ऐतिहासिक भौतिकवाद
इतिहास की जो व्याख्याएँ की गयी है वे राजा-रानियों और प्रशासकों के जन्म, मृत्यु, आक्रमण, विजय और पराजय तक ही सीमित रही है। इतिहास की व्याख्या को मार्क्स परम्परात्मक और दकियानूसी कहता है । उसके अनुसार इतिहास की व्याख्या सामाजिक सन्दर्भ में की जानी चाहिए। मार्क्स ने इतिहास की नयी व्याख्या की है । उसके अनुसार मनुष्य की आवश्यकतायें होती है वह इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए साधन जुटाता है और प्रयास करता है। आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है—
( क ) अपने आप स्वयं के द्वारा आवश्यकताओं की पूर्ति करना।
( ख ) आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संघर्ष का सहारा लेना।
( ग ) अन्य व्यक्तियों से सहयोग करके आवश्यकताओं की पूर्ति करना।
जब व्यक्ति आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरे व्यक्तियों का सहयोग लेता है तो इसके परिणामस्वरूप वह उसको उत्पादन कार्यों में लगाता है । इस प्रकार मार्क्स का विचार है कि उत्पादन प्रक्रिया ( Process of Production ) इतिहास का निर्धारण करती है।
उत्पादन ( Production )
मार्क्स ने उत्पादन को समस्त मानवीय क्रियाओं का आधार मानते हुए लिखा है— " और वास्तव में यह एक ऐतिहासिक क्रिया है , सम्पूर्ण इतिहास की आधारभूत अवस्था जिसकी पूर्ति हजारों वर्ष पहले की भाँति भी प्रतिदिन प्रति घण्टा मानव जीवन को कायम रखने के लिए आवश्यक है । "
4 व्यक्ति अकेले उत्पादन नहीं कर सकता है, अर्थात् उत्पादन व्यक्तिगत न होकर सामाजिक होता है । कार्ल मार्क्स ने लिखा है " उत्पादन करने के लिए उन्हें परस्पर मिलना पड़ता है तथा निश्चित सम्बन्ध स्थापित करने पड़ते हैं और केवल इन्हीं सामाजिक मिलन और सम्बन्धों के अन्तर्गत उत्पादन कार्य सम्पन्न हो पाता है । "
उत्पादन के तत्व
उत्पादन में निम्नलिखित तत्व महत्वपूर्ण होते हैं-
( क ) यन्त्र-यन्त्रों के अभाव में उत्पादन की कल्पना नहीं की जा सकती है। ये यन्त्र कुशल और अकुशल दोनों प्रकार के होते हैं । इन यन्त्रों की सहायता से उत्पादन करने में मदद मिलती है और इनसे आवश्यकताओं की पूर्ति होती है ।
( ख ) प्राकृतिक साधन प्राकृतिक साधन उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं । जिस प्रकार के प्राकृतिक साधन होंगे, उसी प्रकार का उत्पादन होगा ।
( ग ) परिवर्तनशीलता उत्पादन प्रणाली अधिक समय तक स्थिर न होकर परिवर्तित और विकसित होती रहती है । जब उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन हो जाता है तो सामाजिक और राजनैतिक अवस्थाएँ अपने आप परिवर्तित हो जाती ।
( घ ) अनुभव एवं प्रशिक्षण उत्पादन में अनुभव और प्रशिक्षण ( Experience and training ) -महत्वपूर्ण होते हैं । उत्पादन की प्रकृति इसी अनुभव और प्रशिक्षण पर आधारित होती है ।
( ङ ) सहयोग — उत्पादन के लिए सहयोग अनिवार्य है । यह सहयोग दो प्रकार का होता है प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षा इस प्रकार उत्पादन की प्रक्रिया व्यक्तिगत क्रिया न होकर सामाजिक क्रिया के रूप में परिवर्तित हो जाती है । मार्क्स ने लिखा है , " " उत्पादन में मनुष्य केवल प्रकृति के प्रति ही नहीं , परन्तु एक - दूसरे के प्रति भी क्रियाशील रहते हैं । "
मार्क्स ने अपने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर ऐतिहासिक और सामाजिक विकास की व्याख्या की है , इस सिद्धान्त के आधार पर उसने इतिहास की जो व्याख्या की है , उसने इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या ' कहा है । उसके इस दूसरे महत्वपूर्ण सिद्धान्त के विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या का सीधा अर्थ है इतिहास की आर्थिक व्याख्या ( Economic Interpretion of History ) ।
अपने इस सिद्धान्त के प्रतिपादन में उसने उत्पादन शक्तियों को ऐतिहासिक विकास का निर्णायक तत्व माना है । उसके इस सिद्धान्त का विश्लेषण करते हुए वेबर ने कहा है इसके अन्तर्गत मार्क्स ने जो बातें कही हैं , उनके लिए इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या नाम भ्रमपूर्ण है ।
भौतिक शब्द चेतनहीन पदार्थ के लिए प्रयुक्त होता है , जबकि मार्क्स इसके अन्तर्गत चेतनहीन पदार्थ की कोई बात नहीं करता है । इसके अन्तर्गत उसने कहा है कि आर्थिक कारणों से सामाजिक परिवर्तन होता है , अतः उसके इस सिद्धान्त को ' इतिहास की आर्थिक व्याख्या ' कहना चाहिए ।
आधारभूत तत्व
इसके निम्नलिखित आधारभूत तत्व हैं-
( 1 ) भोजन की आवश्यकता —
व्यक्ति को जीवित रहने के लिए भोजन चाहिए और इसके लिए उसे उत्पादन करना पड़ता है । उत्पादन प्रणाली हमेशा एक - सी नहीं रहती । मनुष्य का पूरा जीवन इस बात पर निर्भर करता है कि यह जीवित रहने के लिए किस प्रकार वस्तुओं का उत्पादन करता है । मार्क्स के अनुसार उत्पादन प्रणाली ही मानव जीवन की आधारशिला है । इसी के अनुसार राजनीतिक , सामाजिक और सांस्कृतिक ढाँचे का निर्माण होता है । इसके परिवर्तन के साथ ही इनमें भी परिवर्तन हो जाता है ।
( 2 ) उत्पादन की शक्तियां-
अपने जीवन के लिए प्रकृति से वस्तुएँ प्राप्त करने हेतु मनुष्य जो उत्पादन करता है , इसकी तीन शक्तियाँ है-
( 1 ) प्राकृतिक साधन,
( 2 ) मशीन यन्त्र एवं उत्पादन कला,
( 3 ) मनुष्य के मानसिक और नैतिक गुण ।
सबसे पहले प्राकृतिक साधन होना चाहिए । इसके अभाव में उत्पादन का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । मशीन यन्त्र एवं उत्पादन कला दूसरी अनिवार्यता है । इसके अभाव में प्राकृतिक साधनों का उपयोग नहीं हो सकता है । इसका स्वरूप ही उत्पादन प्रणाली के स्वरूप का निर्धारण करता है । इसके अतिरिक्त मानसिक और नैतिक गुण भी आवश्यक है ।
उत्पादन प्रणाली के स्वरूप निर्धारण में इनका महत्वपूर्ण हाथ होता है । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि समस्त ऐतिहासिक और सामाजिक विकास में इन शक्तियों का समवेत हाथ होता है , ये उत्पादन प्रणाली का स्वरूप निर्धारण करती हैं तथा वह ऐतिहासिक विकास के रूप का निर्धारण करती हैं ।
( 3 ) परिवर्तनशील उत्पादन शक्तियों का सामाजिक सम्बन्ध पर प्रभाव-
मानवीय क्रिया - कलापों से तात्पर्य है राजनीतिक, सामाजिक , वैज्ञानिक और सांस्कृतिक क्रिया-कलाप । मार्क्स के अनुसार उत्पादन प्रणाली के ही अनुरूप राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक संस्थाओं का जन्म होता है, अर्थात् जिस प्रकार की उत्पादन प्रणाली होती है, उसी के अनुसार राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक तथा वैधानिक विकास होता है । इसी को ऐतिहासिक और सामाजिक विकास की संज्ञा प्रदान की गयी है ।
सामाजिक, राजनीतिक, वैधानिक और सांस्कृतिक संस्थाओं के साथ-साथ आर्थिक विश्वास एवं दर्शन का स्वरूप भी उत्पादन प्रणाली के अनुरूप ही विकसित होता है । उत्पादन प्रणाली में जिसमें वितरण प्रणाली भी शामिल है, परिवर्तन के साथ - साथ ही राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक संस्थाओं अर्थात् ढाँचे में भी परिवर्तन होता है ।
( 4 ) पारस्परिक सम्बन्धों का निर्धारण-
उत्पादन प्रणाली के आधार पर जो राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक ढाँचा तैयार होता है, वह मनुष्य के पारस्परिक सम्बन्धों का निर्धारण करता है । इसे मार्क्स ने ' उत्पादन का राजनीतिक , सामाजिक , सांस्कृतिक और धार्मिक ढाँचे का निर्माण होता है और सम्बन्ध ' ( Relation of production ) कहा है , क्योंकि उत्पादन प्रणाली के मनुष्य के पारस्परिक सम्बन्धों का निर्धारण ढाँचे के अनुसार होता है ।
( 5 ) उत्पादन की शक्तियाँ परिवर्तनशील होती हैं - उत्पादन को शक्तियाँ-
प्राकृतिक साधन , उसके उपयोग की मशीनें एवं यन्त्र और उत्पादन कला तथा मानसिक और नैतिक गुण सदैव परिवर्तित होते हैं । उदाहरणार्थ हस्तचालित यन्त्रों के युग में स्नामन्ती व्यवस्था की तथा वाष्पचालित यन्त्रों के युग में पूँजीवादी व्यवस्था की स्थापना हुई ।
( 6 ) उत्पादन शक्तियों का विकास सदैव चलता रहता है -
जब कभी कृत्रिम साधनों के माध्यम से उसे रोकने का प्रयास किया जाता है तो आर्थिक संकट पैदा हो जाता है । विकास की गति निरन्तर अबाध रूप से चलती रहे , इसके लिए समाजवादी व्यवस्था उपयुक्त है , क्योंकि उसमें इस प्रकार के संकट की कोई आशंका नहीं होती है ।
( 7 ) उत्पादन प्रणाली में द्वन्द्वात्मक स्थिति के कारण परिवर्तन होता है-
यह तब तक चलता रहता है जब तक उत्पादन की सर्वश्रेष्ठ अवस्था न प्राप्त हो जाय । उत्पादन की प्रत्येक अवस्था में द्वन्द्वात्मक स्थिति है और तब तक बनी रहती है जब तक सर्वश्रेष्ठ अवस्था न प्राप्त कर ली जाय । समाजवाद और अन्ततः साम्यवाद को वह समाज की ओर ले जा रहा है ।
( 8 ) धर्म दोषपूर्ण आर्थिक व्यवस्था-
ऐतिहासिक और सामाजिक विकास की व्याख्या के सन्दर्भ में उसने धार्मिक विकास की चर्चा करते हुए कहा है कि धर्म दोषपूर्ण आर्थिक व्यवस्था का प्रतिबिम्ब मात्र है । वह अफीम के नशे के समान है । जिस प्रकार अफीम के नशे में लोग अपना दुःख - दर्द भूल जाते हैं , उसी प्रकार धर्म के नशे में भी यही होता है ।
( 9 ) उत्पादन प्रणाली के अनुरूप उत्पादन सम्बन्ध का निर्माण —
जिस प्रकार की उत्पादन प्रणाली होगी उसी प्रकार का उत्पादन स्वरूप ( व्यक्तियों के बीच पारस्परिक सम्बन्धों का स्वरूप ) निश्चित है । उसके निर्धारण में मनुष्य का केवल इतना हाथ है कि वह उसमें कुछ देर अथवा शीघ्रता कर सकता है । वह उसे रोक नहीं सकता।
( 10 ) इतिहास का काल -
विभाजन उत्पादन प्रणाली के अनुसार ज ऐतिहासिक और सामाजिक विकास हुआ है , उसे मार्क्स के अनुसार पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है ---
( 1 ) आदिम अथवा प्राचीन साम्यवादी युग ( Primitive communism ),
( 2 ) दासता का युग ( Slave - society ),
( 3 ) सामन्तवादी युग ( Feudal society ),
( 4 ) पूँजीवादी युग ( Capitalistic society ),
( 5 ) समाजवादी युग ( Socialistic society ) ।
आदिम साम्यवादी युग और समाजवादी युग को छोड़कर शेष तीन ( दासता , सामन्तवादी और पूँजीवादी ) में वर्ग संघर्ष रहता है । अभी तक का सामाजिक इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है । इन तीन युगों में परस्पर दो विरोधी वर्ग होते हैं जिनमें संघर्ष होता रहता है । इस संघर्ष के कारण समाज में परिवर्तन और विकास होता रहता है । वर्ग संघर्ष के कारण अन्ततः समाजवाद की स्थापना निश्चित है । वर्ग संघर्ष को भी मार्क्स ने एक सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित किया है।
ऐतिहासिक भौतिकवाद की आलोचना
मार्क्स ने इतिहास अर्थात् ऐतिहासिक एवं सामाजिक विकास की जो भौतिकवादी अर्थात् आर्थिक व्याख्या प्रस्तुतः की है , उसकी निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है—
( 1 ) सामाजिक परिवर्तन में आर्थिक कारक महत्वपूर्ण नहीं-
परिवर्तन में केवल आर्थिक कारक को महत्व देना तथा समस्त मानवीय कार्यों की केवल उसी के आधार पर व्याख्या करना न केवल अनुचित, अपितु अतिशयोक्तिपूर्ण भी है । केवल राजनीतिक परिवर्तन की घटनाओं के विश्लेषण से स्पष्ट है कि वे अनेक भौतिक अवस्थाओं और मानवीय मनोभावों के परिणामस्वरूप घटित होती है ।
इतिहास की अनेक ऐसी घटनाएँ जिनकी आर्थिक व्याख्या सम्भव नहीं है । उन्हें अन्य व्याख्याओं के आधार पर ही समझा जा सकता है । किसी भी परिवर्तन के पीछे अनेक गैर आर्थिक कारण भी होते हैं जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है । आर्थिक के साथ - साथ धार्मिक , नैतिक , दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक कारक भी सामाजिक परिवर्तन एवं विकास में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं ।
( 2 ) धर्म सम्बन्धी मान्यता-
इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या के अन्तर्गत मार्क्स ने धर्म को जिस हेय दृष्टि से देखा है , वह सर्वथा उचित नहीं है . क्योंकि इतिहास इस बात का सबूत है कि धर्म ने आध्यात्मिक और मानवीय मूल्यों के विकास में महान योगदान किया है, जो कि अनेक दृष्टियों से उसका अन्धकार पक्ष भी है ।
अपने प्रभावकारी योगदान के कारण ही रूस तथा अन्य साम्यवादी देशी में आज भी उसका अस्तित्व है । मनुष्य भौतिक सुख के साथ आत्मिक सुख भी चाहता है जो धर्म के माध्यम से ही सम्भव है ।
( 3 ) अपनी इस व्याख्या के अन्तर्गत उसने कहा है -
कि पूँजीवादी युग में पूँजीपति और श्रमिकों के बीच कटुता में वृद्धि होती जायेगी तथा पूँजीपति अधिक अमीर और श्रमिक अधिक निर्धन होता जायेगा । अमेरिका तथा अन्य पूँजीपति देशों की स्थिति के अवलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि मार्क्स का यह कथन सत्य नहीं सिद्ध हुआ है ।
( 4 ) मानवशास्त्रियों की दृष्टि में मार्क्स का काल -
विभाजन - मार्क्स ने इतिहास का जो काल - विभाजन किया है , उसको मानवशास्त्रियों ने गलत बतलाया है । वे आदिम साम्यवाद की अवस्था से सहमत नहीं हैं ।
( 5 ) पदार्थ की गतिशीलता और परिवर्तनशीलता का प्रश्न
मार्क्स ने पदार्थ की गतिशीलता और परिवर्तनशीलता में विश्वास व्यक्त किया है , परन्तु उसका यह भी कहना है कि राज्यविहीन समाज की स्थापना के साथ इतिहास की धारा रुक जायेगी । प्रश्न उठता है कि निहित गतिशीलता एवं परिवर्तनशीलता का गुण क्या समाप्त हो जायेगा ? मार्क्स के विचारों में यह गहरा विरोधाभास है ।
वर्ग्रहीन समाज का क्या प्रतिपाद नहीं होगा ? यदि उसका होना निश्चित है तो साम्यवादी युग का भी अन्त होगा । यदि ऐसा नहीं तो फिर गतिशीलता की धारणा का क्या अर्थ है ? इस विरोधाभास के निराकरण के मामले में मार्क्स मौन है ।
( 6 ) इस व्याख्या के अन्तर्गत मार्क्स ने कहा कि जिनके पास आर्थिक शक्ति होती है , वही राजनीतिक शक्ति भी प्राप्त करता है । ऐतिहासिक तथ्यों से इस मान्यता का स्पष्ट रूप से खण्डन होता है । लोग अनेक गैर - आर्थिक कारणों से भी शक्ति प्राप्त करते हैं , जैसे बुद्धिमत्ता, साहस, कपट, स्वाभिमान तथा आत्मसम्मान आदि।
( 7 ) आर्थिक कारक ही सब कुछ नहीं होता है -
उत्पादन प्रणाली के अनुरूप राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा वैधानिक संस्थाओं के निर्माण तथा उसमें परिवर्तन के साथ इनमें भी परिवर्तन की मार्क्सवादी मान्यता की आलोचना की जाती है । इसके आलोचकों का कहना है कि एक ही आर्थिक पृष्ठभूमि के दो या दो से अधिक भिन्न-भिन्न समाजों में भिन्न-भिन्न राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संस्थाएँ पायी जाती है । इससे स्पष्ट है कि केवल आर्थिक ही सब कुछ नहीं होता है।
इसके अतिरिक्त भी अनेक कारक होते हैं । कारक मार्क्स का यह सिद्धान्त इतिहास की कई अस्पष्ट गुलियों और घटनाओं को स्पष्ट कर देता है, किन्तु हमें मार्क्स की इस बात को सत्य नहीं मान लेना चाहिए कि केवल आर्थिक परिस्थितियों ही व्यक्ति के सामाजिक संगठन को प्रभावित करती हैं ।मार्क्स राज्यविहीन व तर्कविहीन समाज की कल्पना करता है, जो केवल कल्पना में ही सम्भव नहीं हो सकी है और न कभी भविष्य में सम्भव हो सकेगी।
मानवीय कार्य इतने जटिल होते हैं कि उनको केवल आर्थिक परिस्थितियों के आधार पर ही नहीं समझा जाता ।इतिहास के विकास में आर्थिक तत्व के साथ - साथ देश की भौगोलिक अवस्था और जलवायु , व्यक्तियों की महत्वाकांक्षाएँ आदि अनेक तत्व का भी देश की राजनीतिक अवस्था पर प्रभाव पड़ता है ।फिर भी यह व्याख्या इतिहास का एक सर्वथा नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है , अतः यह महत्वपूर्ण है ।
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