लघु और वृहद परम्परा क्या है? लघु और वृहद परंपरा में अंतर- What is the Minor and the Great Tradition?

लघु और वृहद परम्परा क्या है? लघु और वृहद परंपरा में अंतर ( What is the Minor and the Great Tradition? difference between minor and major traditions )

मैकिम मैरिएट ने भारतीय संस्कृति की जटिलता तथा विविधता को लघु एवं वृहद परम्पराओं के आधार पर स्पष्ट करने के लिए स्थानीयकरण तथा सर्वव्यापीकरण की प्रक्रिया विस्तार से उल्लेख किया है । इस सम्बन्ध में रॉबर्ट रेडफील्ड का योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण है । उन्होंने भारत में सांस्कृतिक परिवर्तनों की प्रक्रिया को समझाने के लिए ' परम्परा ' की अवधारणा को विशेष महत्व दिया । 


इसका विचार है कि प्रत्येक संस्कृति का निर्माण परम्पराओं से होता है । यह परम्पराएँ दो मुख्य भागों में विभाजित होती हैं — एक ओर वे परम्पराएँ हैं जिनका सम्बन्ध थोड़े से चिन्तनशील अभिजात वर्ग के लोगों से होता है तथा दूसरी परम्पराएँ वे हैं जिनके पोषक लघु समुदाय अथवा कृषक समाज की बड़ी संख्या वाले लोग होते हैं । 


इन दोनों परम्पराओं में प्रथम श्रेणी की परम्परा को हम वृहत् परम्परा ( great tradition ) तथा दूसरी श्रेणी की परम्परा को लघु परम्परा ( little tradition ) कहते है । रेडफील्ड ने यह स्पष्ट किया है कि लघु और वृहत् परम्पराओं की अवधारणा का किसी भी समाज के संगठन से विशेष सम्बन्ध है ।

What is the Minor and the Great Tradition?


लघु परम्परा का अर्थ ( Laghu Parampara Kya Hai )


रॉबर्ट रेडफील्ड ने लघु परम्परा को जिस रूप में स्पष्ट किया है उसके आधार पर सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सांस्कृतिक अथवा धार्मिक जीवन से सम्बन्धित यदि किसी परम्परा का मूल धर्म ग्रन्थों से कोई सम्बन्ध न हो , वह परम्परा एक छोटे से क्षेत्र में प्रचलित हो तथा अधिकांश व्यक्ति उसके वास्तविक अर्थ को न समझते हों , तब ऐसी परम्परा को हम लघु परम्परा कहते हैं । 


इसका तात्पर्य है कि लघु परम्परा का एक स्थानीय क्षेत्र होता है । एक छोटे से क्षेत्र के अन्दर ही जो विश्वास धीरे - धीरे विकसित होते हैं उन्हें कुछ समय पश्चात् एक धार्मिक कृत्य का रूप मिल जाता है । इसके फलस्वरूप ऐसे विश्वास और धार्मिक कृत्य ही लघु परम्परा का रूप ग्रहण कर लेते हैं । 


रेडफील्ड का कथन है कि साधारणतया निरक्षर किसानों की परम्परा को लघु परम्परा के रूप में समझा जाता है । यह परम्परा अशिक्षित कृषकों के समुदाय में विकसित होती है और यहीं उसे स्थायित्व प्राप्त होता है । इसका तात्पर्य है कि लघु परम्परा के अन्तर्गत ऐसे सभी देवी - देवता , धार्मिक , अनुष्ठान , त्यौहार , रीति - रिवाज , मेले , लोक - गाथाएँ तथा अन्य सांस्कृतिक तत्व आते हैं जिनका प्राचीन धर्म ग्रन्थों में न तो कोई उल्लेख होता है और न ही उनका सम्बन्ध किन्हीं स्पष्ट नियमों तथा आदेशों से होता है । यह परम्परा मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है । 


भारत में ग्रामीण जीवन की यह विशेषता है कि यहाँ लघु परम्परा से सम्बन्धित क्षेत्रीय कर्मकाण्डों की संख्या बहुत अधिक है । लघु परम्पराओं की क्षेत्रीय भिन्नता के कारण ही विभिन्न क्षेत्रों की ग्रामीण संस्कृति में भी एक स्पष्ट भिन्नता देखने को मिलती है । इस दृष्टिकोण से लघु परम्परा की प्रकृति को स्पष्ट रूप से समझने के लिए आवश्यक है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में पूरे किये जाने वाले कर्मकाण्डों की विविधता को समझ लिया जाए । 


इन कर्मकाण्डों को हम मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं -- 


( क ) वे कर्मकाण्ड जो भारत के अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में पूरे किये जाते हैं तथा जिनका हमारे मूल धर्म - ग्रन्थों में उल्लेख है ।


( ख ) वे कर्मकाण्ड जो काफी बड़े क्षेत्र में देखने को मिलते हैं लेकिन जिनका हमारे मूल धर्म - ग्रन्थों से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है । देव उठान , एकादशी , हरियाली तीज तथा करवा चौथ आदि इसी प्रकार के कर्मकाण्ड हैं । 


( ग ) वे कर्मकाण्ड जिनका प्रसार एक बड़े क्षेत्र में नहीं होता बल्कि एक छोटे से ग्रामीण क्षेत्र के अन्दर ही उन्हें मान्यता दी जाती है । तीसरी क्षेत्र के कर्मकाण्डों को ही हम संक्षेप में लघु परम्परा कहते है जबकि दूसरी श्रेणी के कर्मकाण्डों को अर्द्ध - लघु परम्परा ( quasi - little traditions ) कहा जाता है जिसमें लघु और वृहत् दोनों प्रकार की परम्पराओं के तत्वों का समावेश होता है । 


भारत में लघु परम्परा का महत्व कितना अधिक है , इसे स्पष्ट करने के लिए अण्डरहिल ( Underhill ) ने अपने एक अध्ययन में भारत के कुल 270 कर्मकाण्डों का उल्लेख किया है । इनमें से अधिकांश कर्मकाण्ड क्षेत्रीय कर्मकाण्ड ही है । 


इसका तात्पर्य है कि व्यावहारिक रूप से भारतीय ग्रामों में पाये जाने वाले अधिकांश कर्मकाण्डों का भिन्न - भिन्न क्षेत्रों में और कभी - कभी एक ही क्षेत्र में भिन्न - भिन्न अर्थ लगाया जाता है । हमारे यहाँ होली , दशहरा तथा दीपावली जैसे त्योहारों की वृहत् परम्पराओं का भी एक क्षेत्रीय स्वरूप विकसित हो गया है जिसके अनुसार विभिन्न क्षेत्रों में इनके अर्थों एवं गाथाओं को भिन्न - भिन्न प्रकार से स्पष्ट किया जाता है । 


वृहत् परम्परा का अर्थ ( Vrihad Parampara Kya Hai )


मैकिम मैरिएट ने अपने अध्ययन के आधार पर वृहत् परम्परा को परिभाषित करते हुए कहा है कि " यदि कोई परम्परा प्राचीन धर्म - ग्रन्थों में बताये गये व्यवहारों के अनुरूप होती है तथा उसका प्रसार सम्पूर्ण समाज में होता है तो उसे हम वृहत् परम्परा कहते हैं । 


" डॉ . दुबे का विचार है कि " वृहत् परम्पराओं का तात्पर्य विश्वासों , कर्मकाण्डों तथा सामाजिक प्रतिमानों की उस संयुक्तता से समझा जाता है जो नियमबद्ध और पवित्र ग्रन्थों से सम्बन्धित होते हैं । " इन दोनों कथनों से स्पष्ट होता है कि भारत में आज ऐसे देवी - देवता , धार्मिक अनुष्ठान , त्यौहार , मेले तथा सांस्कृतिक तत्व जिनका उल्लेख लिखित रूप में यहाँ के मूल धार्मिक ग्रन्थों में पाया जाता है वृहत् परम्परा के उदाहरण हैं । 


रेडफील्ड ने यह स्पष्ट किया है वृहत् परम्पराओं का पोषण अभिजात वर्ग के थोड़े से चिन्तनेशील व्यक्तियों के द्वारा होता है जबकि धीरे - धीरे इसे अन्य वर्गों और सभी क्षेत्रों लोगों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है । उदाहरण के लिए भारत में दशहरा , दीपावली , रामनवमी , शिव रात्रि तथा होली इत्यादि ऐसे त्यौहार हैं जिनका उल्लेख हमारे प्राचीन धर्म - ग्रन्थों में है तथा भारत के सभी क्षेत्रों में , सभी जातियों और सभी वर्गों के लोग इन्हें मानते हैं । 


इसी प्रकार राम , कृष्ण , विष्णु , लक्ष्मी , दुर्गा , शिव , हनुमान तथा सरस्वती आदि ऐसी देवी - देवता हैं जिन्हें सभी क्षेत्रों के ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों में मान्यता प्राप्त है और सभी हिन्दू अधिक या कम मात्रा में इन पर विश्वास करते हैं । इस दृष्टिकोण से यह सभी त्यौहार तथा देवी - देवता वृहत् परम्परा के उदाहरण हैं । 


लघु परम्परा और वृहद् परम्परा में अंतर ( difference between small tradition and great tradition )


लघु तथा वृहत् परम्परा की अवधारणा से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन दोनों परम्पराओं की प्रकृति एक - दूसरे से अत्यधिक भिन्न है , यद्यपि इनके बीच एक पारस्परिक निर्भरता भी देखने को मिलती है । जी.वी. मुनेबॉम ( G.V. Grunebaum ) का कथन है कि वृहत् परम्पराओं का निर्माण अभिजात वर्ग के द्वारा होता है, इसलिए उन्हें साधारणतया व्यापक मान्यता प्राप्त हो जाती है । 


इसके विपरीत लघु परम्परा लोक-जीवन की विशेषता है और इसलिए इसका प्रसार एक सीमित क्षेत्र में पाया जाता है । वास्तव में दोनों ही परम्पराएँ विश्वासों से सम्बन्धित हैं लेकिन वृहत् परम्परा को जहाँ तक 'विश्वास' कहा जा सकता है वहीं लघु परम्परा को एक 'अन्ध-विश्वास' के रूप में देखा जाता है । 


वृहत् परम्परा में कर्मकाण्डों की पूर्ति के साथ ही तर्क और उपयोगिता का पक्ष भी निहित होता है जबकि लघु परम्परा से सम्बन्धित व्यक्ति कभी भी इसके उपयोगिता मूलक पक्ष को समझने का प्रयास नहीं करते । 


रेडफील्ड ने लघु और वृहत् परम्पराओं के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहा है कि " भारत में लघु परम्पराओं की प्रकृति बहु - देवत्ववादी, अदार्शनिक और जादूवादी है जबकि वृहत् परम्पराओं के अन्तर्गत बौद्धिक तथा नैतिक दृष्टिकोण का भी समावेश है । " डॉ. चौहान ने राजस्थान के एक गाँव का अध्ययन करते बताया है कि वृहत् परम्पराओं की प्रकृति राष्ट्रीय होती है जबकि लघु परम्पराओं का क्षेत्र स्थानीय होता है, वृहत् परम्पराएँ लिखित, शास्त्रीय प्रकृति की, अधिक व्यवस्थित तथा अधिक चिन्तनशील होती है जबकि लघु परम्पराएँ अलिखित, अशास्त्रीय, कम व्यवस्थित तथा कम चिन्तनशील होती हैं । 


यह कंथन लघु एवं वृहद् परम्परा के अन्तर को काफी सीमा तक स्पष्ट कर देता है लेकिन एक सामान्यीकरण के रूप में इनके बीच पाये जाने वाले कुछ प्रमुख अन्तरों को संक्षेप में इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है 


( i ) वृहत् परम्पराओं का उल्लेख कुछ प्राचीन एवं मौलिक धर्म-ग्रन्थों में होता है । लघु परम्पराएँ सदैव अलिखित होती हैं तथा एक विश्वास के रूप में ही इनका एक क्षेत्र के व्यक्तियों के द्वारा पालन किया जाता है । साधारणतया इन परम्पराओं का किसी मूल धर्म-ग्रन्थ से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता । 


( ii ) वृहत् परम्पराओं का स्वरूप राष्ट्रीय होता है अर्थात् सभी वर्गों , जातियों एवं सम्प्रदायों के व्यक्ति इनका किसी न किसी रूप में पालन अवश्य करते हैं । लघु परम्पराओं का विस्तार केवल एक सीमित क्षेत्र में होता है । यही कारण है कि विभिन्न क्षेत्रों की लघु परम्पराएँ एक दूसरे से काफी भिन्न होती हैं । 


( iii ) वृहत् परम्पराएँ मूल रूप से कुछ चिन्तनशील अभिजात वर्ग के व्यक्तियों से सम्बद्ध होती हैं । लघु परम्पराओं का विकास मुख्य रूप से ग्रामीण तथा अशिक्षित व्यक्तियों के द्वारा होता है , इसलिए इन परम्पराओं में अक्सर वृहत् परम्पराओं के तत्वों का भी समावेश हो जाता है । 


( iv ) वृहत् परम्पराएँ अत्यधिक व्यवस्थित रूप में देखने को मिलती हैं । इनसे सम्बन्धित नियमों , कर्मकाण्डों तथा निषेधों का स्वरूप बहुत स्पष्ट होता है । लघु परम्पराएँ इस अर्थ में अव्यवस्थित हैं कि इनसे सम्बन्धित व्यवहारों के नियम पूर्णतया सुनिश्चित और निर्धारित नहीं होते । इनमें सुविधा का तत्व प्रधान होता है । 


( v ) वृहत् परम्पराओं की विषय - वस्तु शास्त्रीय होती है । इस दृष्टिकोण से ये परम्पराएँ अत्यधिक प्राचीन एवं पौराणिक होती हैं । इसके विपरीत लघु परम्पराएँ इस आधार पर अशास्त्रीय मानी जाती हैं कि इनका स्वरूप न तो पौराणिक होता है और न ही इसका प्रभाव वाध्यमूलक होता है । 


( vi ) वृहत् परम्पराएँ लिखित रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती हैं जबकि आगामी पीढ़ियों के लिए लघु परम्पराएँ मौखिक रूप से हस्तान्तरित होती हैं ।


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