पूंजीवाद - अर्थ, परिभाषा, विशेषता, गुण और दोष
पूँजीवादी क्या है? ( What is capitalism? )
पूंजीवाद : यह बात पूरी तरह साफ है कि पूँजीवाद पूँजीवादी व्यवस्था का पोषक दर्शन है अतः उसकी अब धारणा स्पष्ट करने के लिए हमें इस व्यवस्था के अर्थ और इसके लक्षणों ( विशेषताओं ) की विवेचना करनी होगी । मोटे तौर पर हम यही कह सकते हैं कि मानव जाति के आदिम व्यवस्था के पश्चात् अपनी सभ्यता के विकास के प्रारम्भ में निजी सम्पत्ति की जिस ' अर्थव्यवस्था ' को जन्म दिया , ' पूँजीवादी व्यवस्था उसकी आज तक की सबसे विकसित अवस्था है ।यह व्यवस्था मालिक दास प्रथा के रूप में प्रारम्भ हुई जो मार्क्सवाद के अनुसार उसके विरोधाभास ने सामंती व्यवस्था को जन्म दिया । मूलतः कृषि और ग्रामीण कुटीर उद्योग - धंधों पर आधारित थी अथवा आज भी उसके विशुद्ध अथवा मिश्रित स्वरूप के वे ही आधार हैं । उसने राजनीतिक प्रणाली के रूप में मूलतः राजतंत्र और आगे चलकर अन्य सर्वाधिकारवादी तंत्रों तथा सामाजिक व्यवस्था के रूप में सामंती समाज एवं संस्कृति को जन्म दिया ।
काल और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में उसके विरोधाभास ने बड़ी मशीनों पर आधारित जिस औद्योगिक आर्थिक प्राणाली की स्थापना की , उसने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था तथा उससे प्रभावित सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था को जन्म दिया । पूँजीवादी व्यवस्था का कोई स्थायी स्वरूप नहीं रहा है । प्रारम्भ में यह यथेच्छारिता ( Laissez faire ) के सिद्धान्त पर आधारित थी , वहीं इसने उसकी विकृतियों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए नवव्यक्तिवाद को आधार बनाया ।
काल और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में जो भी व्यवस्था औद्योगिक निजी सम्पत्ति और मुनाफे की प्रणाली की रक्षा एवं उसके पोषण के लिए अपरिहार्य होगी , पूँजीवाद उसका समर्थक होगा । 18 वीं एवं 19 वीं शताब्दी अर्थात् 1750 से 1850 के बीच वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति के फलस्वरूप , बड़ी मशीनों पर आधारित उद्योगों की स्थापना के रूप में जो औद्योगिक क्रान्ति हुई , उसने सामन्ती , आर्थिक एवं सामाजिक - सांस्कृतिक प्रणाली का अंत कर पूँजीवादी व्यवस्था को जन्म दिया ।
जहाँ सामंती व्यवस्था कृषि भूमि पर सामन्तों के स्वामित्व और उनके सामाजिक - राजनीतिक प्रभुत्व का समर्थन करती , वहीं पूँजीवादी प्रणाली औद्योगिक उत्पादन के साधनों तथा उससे उत्पन्न पूँजी और सम्पत्ति के निजीकरण तथा पूँजीपतियों अर्थात् उद्योगपतियों के सामाजिक एवं आर्थिक प्रभुत्व की व्यवस्था करती है । यह राजनीतिक सत्ता पर भी उनके अप्रत्यक्ष प्रभुत्व का मार्ग प्रशस्त करती है ।
पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक ही नहीं अपितु सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में भी क्रांतिकारी परिवर्तन करती है -
यह पूँजीवादी संस्कृति से प्रभावित समाज का निर्माण करती है । राजनीतिक प्रणाली के रूप में यह मूलत , लोकतन्त्र का समर्थन करती है परन्तु जब वह अपनी विकृतियों के कारण इसके लिए घातक होने लगता है तो यह आर्थिक एवं सामाजिक अनुशासन के नाम पर फासीवाद और नाजीवाद जैसे सर्वाधिकारवादी तंत्रों का सहारा लेने में भी नहीं हिचकती है । यह गैर मार्क्सवादी समाजवाद के उस किसी भी प्रकार का विरोध नहीं करती जो इसके मूलभूत आधारों लिए घातक नहीं सिद्ध या हो सकते हैं ।
( 1 ) निजी स्वामित्व —
निजी स्वामित्व की प्रणाली केवल पूँजीवादी व्यवस्था की विशेषता नहीं है । सभी गैर समाजवादी व्यवस्थाएँ किसी न किसी रूप में इसकी पक्षधर हैं । जहाँ सामंती व्यवस्था कृषि के निजी स्वामित्व पर आधारित होती है , वहीं पूँजीवादी प्रणाली औद्योगिक सम्पत्ति एवं साधनों तथा पूँजी के व्यक्तिगत मालिकानें में विश्वास करती है । इसकी मूलभूत मान्यता है कि निजी स्वामित्व से तकनीकी और औद्योगिक विकास करने की प्रेरणा मिलती है । | 83 काल और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए यह एक सीमा तक उत्पादन एवं आय के साधनों पर सरकारी नियंत्रण का भी समर्थन करती रहती है । समाज की पूरी अर्थव्यवस्था पर पूँजीपति वर्ग का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करना इसका मूलभूत लक्ष्य है ।
( 3 ) श्रम का विशेषीकरण -
उत्पादन की गुणवत्ता के विकास तथा तकनीकी ज्ञान के क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्ति की दृष्टि से पूँजीवादी व्यवस्था श्रम के विशेषीकरण का मार्ग प्रशस्त करती है । शिक्षा तथा तकनीकी एवं प्रबन्धकीय प्रशिक्षण के जरिए श्रम के विशेषीकरण की व्यवस्था होती है
( 6 ) उपभोक्ता को माल चयन की स्वतंत्रता
पूँजीवादी व्यवस्था में उपभोक्ता को माल के चयन और उसे खरीदने की पूरी छूट होती है । प्रतियोगिता की व्यवस्था उसे इसके लिए पूरा अवसर देती है ।
( 7 ) स्वतंत्र प्रतियोगिता -
पूँजीवादी व्यवस्था स्वतंत्र प्रतियोगिता में विश्वास करती है उसकी मान्यता है कि इससे उत्पादन में अधिक से अधिक वृद्धि होती है । तथा उसकी गुणवत्ता का विकास होता है ।
( 8 ) मुनाफा लक्ष्य
इस व्यवस्था में उत्पादन मूलतः लाभ की दृष्टि से किया जाता है । उसके लिए कम से कम लागत से अधिक से अधिक उत्पादन तथा माल की गुणवत्ता का विकास करने का प्रयास किया जाता है ।
प्रगतिशील सामाजिक जीवन को जन्म दिया । गाँवों से अलग होकर नगरों में बसने • वाले लोग अपने साथ - साथ अपने बच्चों एवं अपनी पत्नियों को अच्छा जीवन स्तर प्रदान करते हैं । नगरीकरण के कारण आधुनिकता तथा शिक्षा का प्रसार हुआ । संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि पूँजीवाद आर्थिक , सामाजिक , सांस्कृतिक मार्ग प्रशस्त करता और राजनीतिक दृष्टि से एक प्रगतिशील व्यवस्था की स्थापना है । यह मानव मस्तिष्क को रूढ़िवादिता एवं प्रतिक्रियावाद से मुक्त कर उसे वैज्ञानिक और प्रगतिशील बनाता है । पूँजीवाद व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए यह वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर प्रकृति के रहस्य के उद्घाटन की पृष्ठभूमि तैयार करता है ।
उसमें भी आम आदमी का जीवन कष्टमय होता है । पूँजीवादी व्यवस्था उसे अपेक्षाकृत अधिक अच्छा भौतिक जीवन तो प्रदान करती है परन्तु उसे अनेक आर्थिक , सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं का शिकार भी बनाती है । यह शोषण के साथ - साथ बेरोजगारी , गरीबी और समाज के बड़े वर्ग की आर्थिक विपन्नता की व्यवस्था है । सामंती व्यवस्था का ग्रामीण जीवन सादगी की मानसिकता के कारण उतना अधिक कष्टप्रद नहीं प्रतीत होता जितना भौतिकवाद में विश्वास करने वाली पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था । इसमें मजदूर जीवित मशीन से अधिक कुछ भी नहीं समझा जाता है ।
यह सामंती व्यवस्था के सरल सामाजिक सम्बन्धों तथा उसकी भावना प्रधान संस्कृति का अंत कर देती है । पूँजीवादी व्यवस्था सभी लोगों को प्रतियोगिता के जरिए विकास करने का अवसर देने का दावा करती है परन्तु वास्तविकता यह है कि यह एक छोटे से वर्ग को ही समृद्ध एवं विकसित होने का मौका देती है । तकनीकी प्रगति के जरिए यह लोगों को बड़ी संख्या में बेरोजगार बनाने वाली व्यवस्था है । यह अनेक विकट एवं जटिल सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याएँ पैदा करती है । आज पूरी दुनिया में पूँजीवादी समाज गम्भीर सामाजिक समस्याओं का गढ़ बना हुआ है ।
काल और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में उसके विरोधाभास ने बड़ी मशीनों पर आधारित जिस औद्योगिक आर्थिक प्राणाली की स्थापना की , उसने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था तथा उससे प्रभावित सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था को जन्म दिया । पूँजीवादी व्यवस्था का कोई स्थायी स्वरूप नहीं रहा है । प्रारम्भ में यह यथेच्छारिता ( Laissez faire ) के सिद्धान्त पर आधारित थी , वहीं इसने उसकी विकृतियों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए नवव्यक्तिवाद को आधार बनाया ।
और पढ़े - आधुनिकीकरण क्या हैं ?
आगे चलकर काल और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में यह अपने दार्शनिक आधारों तथा अपने स्वरूप में परिवर्तन करती रही है परन्तु इसने अपने को कभी अपने मूलाधारों से कभी अलग नहीं होने दिया । और उन्हें बचाने के लिए हो तो इसके पोषक और संरक्षक चिंतक नये - नये चिंतनों ( वादों ) का प्रतिपादन करते रहे हैं । मार्क्सवाद अथवा समाजवाद के प्रहार से रक्षा के लिए ही तो लोककल्याणकारी राज्य समाजवादी समाज तथा इन्हीं की तरह की अन्य समाजवादी अवधारणाओं का प्रतिपादन किया गया ।काल और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में जो भी व्यवस्था औद्योगिक निजी सम्पत्ति और मुनाफे की प्रणाली की रक्षा एवं उसके पोषण के लिए अपरिहार्य होगी , पूँजीवाद उसका समर्थक होगा । 18 वीं एवं 19 वीं शताब्दी अर्थात् 1750 से 1850 के बीच वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति के फलस्वरूप , बड़ी मशीनों पर आधारित उद्योगों की स्थापना के रूप में जो औद्योगिक क्रान्ति हुई , उसने सामन्ती , आर्थिक एवं सामाजिक - सांस्कृतिक प्रणाली का अंत कर पूँजीवादी व्यवस्था को जन्म दिया ।
जहाँ सामंती व्यवस्था कृषि भूमि पर सामन्तों के स्वामित्व और उनके सामाजिक - राजनीतिक प्रभुत्व का समर्थन करती , वहीं पूँजीवादी प्रणाली औद्योगिक उत्पादन के साधनों तथा उससे उत्पन्न पूँजी और सम्पत्ति के निजीकरण तथा पूँजीपतियों अर्थात् उद्योगपतियों के सामाजिक एवं आर्थिक प्रभुत्व की व्यवस्था करती है । यह राजनीतिक सत्ता पर भी उनके अप्रत्यक्ष प्रभुत्व का मार्ग प्रशस्त करती है ।
और पढ़ें - बुद्धि का अर्थ।
पूँजीवादी व्यवस्था मूलतः एक आर्थिक व्यवस्था है जो उद्योग एवं व्यापार में पूँजी के विनियोजन तथा उससे मुनाफे और पूँजी निर्माण का मार्ग प्रशस्त करती है । यह कृषि और कुटीर उद्योग - धंधों के क्षेत्र में भी क्रांतिकारी परिवर्तन कर उन्हें औद्योगिक प्रकृति का बनाने की व्यवस्था करती है । इसका जितना ही विकास होता जायेगा , कृषि तथा कुटीर उद्योग - धन्धों का उतना ही आधुनिकीकरण होता जायेगा । पिछड़े तथा विकासशील देशों में जब तक यह व्यवस्था पूरी तरह विकसित नहीं हो जाती तब तक वे आर्थिक , सामाजिक , सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्रों में सामंती व्यवस्था के लक्षणों से काफी हद तक अथवा अर्द्ध रूप में युक्त होते हैं ।पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक ही नहीं अपितु सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में भी क्रांतिकारी परिवर्तन करती है -
यह पूँजीवादी संस्कृति से प्रभावित समाज का निर्माण करती है । राजनीतिक प्रणाली के रूप में यह मूलत , लोकतन्त्र का समर्थन करती है परन्तु जब वह अपनी विकृतियों के कारण इसके लिए घातक होने लगता है तो यह आर्थिक एवं सामाजिक अनुशासन के नाम पर फासीवाद और नाजीवाद जैसे सर्वाधिकारवादी तंत्रों का सहारा लेने में भी नहीं हिचकती है । यह गैर मार्क्सवादी समाजवाद के उस किसी भी प्रकार का विरोध नहीं करती जो इसके मूलभूत आधारों लिए घातक नहीं सिद्ध या हो सकते हैं ।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की विशेषताएं-
पूँजीवादी व्यवस्था की अवधारणा स्पष्ट करने के लिए हमें इसके लक्षणों ( विशेषताओं ) की विवेचना करनी होगी । एल . एम . हैकर के अनुसार , “ पूँजीवाद मूलतः एक आर्थिक व्यवस्था है जो मुनाफा कमाने की मनोवृत्ति पर आधारित होता है । " इसके प्रमुख लक्षण हैं - उत्पादन के साधनों का निजी स्वामित्व , आर्थिक लाभ की दृष्टि से उनका संचालन , उन पर निजी उद्यमियों का नियंत्रण तथा भरण एवं वेतन की प्रणाली । पूँजीवादी व्यवस्था की विवेचना से इसके जो आधारभूत लक्षण सामने आते हैं वे इस प्रकार हैं( 1 ) निजी स्वामित्व —
निजी स्वामित्व की प्रणाली केवल पूँजीवादी व्यवस्था की विशेषता नहीं है । सभी गैर समाजवादी व्यवस्थाएँ किसी न किसी रूप में इसकी पक्षधर हैं । जहाँ सामंती व्यवस्था कृषि के निजी स्वामित्व पर आधारित होती है , वहीं पूँजीवादी प्रणाली औद्योगिक सम्पत्ति एवं साधनों तथा पूँजी के व्यक्तिगत मालिकानें में विश्वास करती है । इसकी मूलभूत मान्यता है कि निजी स्वामित्व से तकनीकी और औद्योगिक विकास करने की प्रेरणा मिलती है । | 83 काल और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए यह एक सीमा तक उत्पादन एवं आय के साधनों पर सरकारी नियंत्रण का भी समर्थन करती रहती है । समाज की पूरी अर्थव्यवस्था पर पूँजीपति वर्ग का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करना इसका मूलभूत लक्ष्य है ।
( 2 ) बाजार की अर्थव्यवस्था
पूँजीवादी व्यवस्था बाजार की अर्थव्यवस्था में विश्वास करती है । इसका तात्पर्य यह है कि इसमें आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं बल्कि मुनाफे के लिए उत्पादन किया जाता है । अपने माल की खपत तथा अधिक से अधिक मुनाफे के लिए उद्योगपति बाजारों की खोज करता है । जो जितना अधिक उत्पादन करता है , वह उतनी ही बड़ी बाजार की खोज करता है । उस पर नियंत्रण के लिए उत्पादन के क्षेत्र में विभिन्न दृष्टियों से प्रतियोगिता चलती रहती है । बाजार की खोज ने ही मूलत : उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद को जन्म दिया ।( 3 ) श्रम का विशेषीकरण -
उत्पादन की गुणवत्ता के विकास तथा तकनीकी ज्ञान के क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्ति की दृष्टि से पूँजीवादी व्यवस्था श्रम के विशेषीकरण का मार्ग प्रशस्त करती है । शिक्षा तथा तकनीकी एवं प्रबन्धकीय प्रशिक्षण के जरिए श्रम के विशेषीकरण की व्यवस्था होती है
( 4 ) मालिक -
मजदूर सम्बन्ध की व्यवस्था पूँजीवादी व्यवस्था मालिक मजदूर सम्बन्ध पर आधारित होती है । उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व के कारण उद्योगपति अपने को मजदूरों का मालिक समझता है । मालिक दास प्रथा के समय से प्रारम्भ यह मानसिकता आज भी बनी हुई है । सामंती व्यवस्था में सामंत अपने को लोगों का मालिक समझता था तथा उनके साथ ऐसा व्यवहार करता था जैसे वे उसकी सम्पत्ति हों । लोकतांत्रिक प्रणाली के कारण पूँजीपति अपने मजदूरों को प्रत्यक्षतः तो अपनी सम्पत्ति होने का दावा नहीं करता परन्तु वह उन्हें अपना नौकर और अपने को उनका मालिक समझता है ।( 5 ) मजदूर को काम करने या न करने की छूट
पूँजीवादी व्यवस्था में मजदूर की किसी उद्योग विशेष में कार्य करने को बाध्यता नहीं होती है । वह अपनी इच्छा और अपने हित की दृष्टि से ही किसी उद्योग में कार्य करता है । वह उसे छोड़ने के लिए स्वतंत्र होता है । उसे छोड़ते समय वह सरकार द्वारा निर्धारित शर्तों का पालन करने के लिए बाध्य होता है । मालिक भी सरकारी नियमों का पालन करते हुए किसी भी मजदूर को किसी भी समय काम से अलग कर सकता है । सामंती व्यवस्था में आम आदमी की नहीं बल्कि सामंत की मर्जी चलती है ।( 6 ) उपभोक्ता को माल चयन की स्वतंत्रता
पूँजीवादी व्यवस्था में उपभोक्ता को माल के चयन और उसे खरीदने की पूरी छूट होती है । प्रतियोगिता की व्यवस्था उसे इसके लिए पूरा अवसर देती है ।
( 7 ) स्वतंत्र प्रतियोगिता -
पूँजीवादी व्यवस्था स्वतंत्र प्रतियोगिता में विश्वास करती है उसकी मान्यता है कि इससे उत्पादन में अधिक से अधिक वृद्धि होती है । तथा उसकी गुणवत्ता का विकास होता है ।
( 8 ) मुनाफा लक्ष्य
इस व्यवस्था में उत्पादन मूलतः लाभ की दृष्टि से किया जाता है । उसके लिए कम से कम लागत से अधिक से अधिक उत्पादन तथा माल की गुणवत्ता का विकास करने का प्रयास किया जाता है ।
पूंजीवाद के गुण और दोष
18 वीं शताब्दी में यूरोपीय देशों के औद्योगीकरण के साथ जन्मी पूँजीवादी व्यवस्था तथा उसके समर्थक आर्थिक एवं राजनीतिक दर्शन पूँजीवाद के निम्न लिखित गुण हैं -पूंजीवाद के गुण ( Properties of capitalism )
( 1 ) सामंती व्यवस्था की मानसिकता से मुक्ति पूँजीवादी व्यवस्था तथा पूँजीवादी दर्शन ने मानव समाज को सामंती व्यवस्था की उस मानसिकता से मुक्त किया जो प्रतिक्रियावादी थी । वह अवैज्ञानिक मानसिकता थी जो वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति में नहीं बल्कि रूढ़िवादिता तथा सामाजिक और धार्मिक कट्टरता में विश्वास करती थी । वह व्यक्ति की वैज्ञानिक सोच पर रोक लगाती तथा उसका विरोध करती थी । वह एक ऐसी व्यवस्था थी जो व्यक्ति को ग्रामीण जीवन से आगे जाने की प्रेरणा ही नहीं देती थी । पूँजीवादी व्यवस्था और दर्शन ने लोगों को वैज्ञानिक सोच तथा अधिक से अधिक वैज्ञानिक , तकनीकी और भौतिक प्रगति करने को प्रेरित किया । आज की वैज्ञानिक , तकनीकी और भौतिक प्रगति पूँजीवाद की ही देन है ।( 2 ) सांस्कृतिक परिवर्तन वैज्ञानिक सोच तथा वैज्ञानिक , तकनीकी और भौतिक प्रगति का मार्ग
प्रशस्त कर पूँजीवाद ने ग्रामीण के स्थान पर औद्योगिक एवं शहरी संस्कृति को जन्म दिया । यह एक प्रगतिशील संस्कृति थी जिसने व्यक्तियों को रूढ़िवादिता से मुक्त कर उनके भौतिक जीवन को सार्थक बनाने की भूमिका तैयार की । इसने समाज में लोकतंत्रीय मूल्यों को मान्यता प्रदान किये जाने का मार्ग प्रशस्त किया । यह रूढ़िवादी आध्यात्मिकता के स्थान पर भौतिकवादी मूल्यों को मान्यता प्रदान करने वाली संस्कृति है ।( 3 ) प्रगतिशील अर्थव्यवस्था की स्थापना -
पूँजीवादी व्यवस्था एक प्रगतिशील अर्थव्यवस्था के रूप में सामने आयी क्योंकि इसने कुटीर उद्योग - धन्धों के स्थान पर बड़ी मशीनों पर आधारित उद्योगीकरण को जन्म दिया । सामंती अर्थव्यवस्था कृषि और कुटीर उद्योग - धन्यों पर आधारित होने के कारण सीमित थी । वह मनुष्य को अच्छा भौतिक जीवन उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं थी । वह उसकी बढ़ती हुई भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में समर्थ नहीं थी , उसमें आम आदमी का जीवन पशुवत था । सुखी जीवन बिताने का अधिकार केवल सामंतों और व्यापारियों को था । आज पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रों में सामंती अर्थव्यवस्था का ही प्रभाव देखने को मिलता है ।( 4 ) वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति-
औद्योगिक दृष्टि से सामंती व्यवस्था कुटीर उद्योग - धन्धों पर आधारित थी अतः उसके लिए वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं थी । मनुष्य की बढ़ती आवश्यकताओं ने बड़ी मशीनों पर आधारित उद्योगीकरण का मार्ग प्रशस्त किया । उसने वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति को आवश्यक बना दिया । इन दोनों क्षेत्रों की प्रगति के बिना बड़े एवं विकसित उद्योगों की स्थापना नहीं हो सकती है । कम से कम लागत से अधिक से अधिक उन्नत उत्पादन के अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए पूँजीवादी व्यवस्था वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति को दिन - प्रतिदिन तेज करती जाती है ।( 5 ) नगरीय सामाजिक जीवन -
पूँजीवादी व्यवस्था ने आर्थिक और सांस्कृतिक ही नहीं अपितु सामाजिक जीवन को भी प्रगतिशील बनाया । उद्योगीकरण के कारण बड़े औद्योगिक केन्द्रों तथा नगरों का जन्म हुआ । उन्होंने प्रगतिशील सामाजिक जीवन को जन्म दिया । सामंती व्यवस्था के अन्तर्गत ग्रामीण जीवन रूढ़िवादी एवं प्रतिक्रियावादी था अथवा होता है । नगरीय समाज नेप्रगतिशील सामाजिक जीवन को जन्म दिया । गाँवों से अलग होकर नगरों में बसने • वाले लोग अपने साथ - साथ अपने बच्चों एवं अपनी पत्नियों को अच्छा जीवन स्तर प्रदान करते हैं । नगरीकरण के कारण आधुनिकता तथा शिक्षा का प्रसार हुआ । संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि पूँजीवाद आर्थिक , सामाजिक , सांस्कृतिक मार्ग प्रशस्त करता और राजनीतिक दृष्टि से एक प्रगतिशील व्यवस्था की स्थापना है । यह मानव मस्तिष्क को रूढ़िवादिता एवं प्रतिक्रियावाद से मुक्त कर उसे वैज्ञानिक और प्रगतिशील बनाता है । पूँजीवाद व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए यह वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर प्रकृति के रहस्य के उद्घाटन की पृष्ठभूमि तैयार करता है ।
पूंजीवाद के दोष ( Defects of Capitalism )
यह सही है कि पूँजीवाद ने रूढ़िवादी एवं प्रतिक्रियावादी सामंती व्यवस्था के स्थान पर एक प्रगतिशील आर्थिक , सामजिक , सांस्कृतिक और राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना की परन्तु इसी के साथ इसने अपने दोषों के कारण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनेक विकृतियाँ और समस्याएँ भी पैदा कीं । पूँजीवादी व्यवस्था जितना हो अधिक विकसित होती जाती है , वह मानव जीवन को उतना ही अधिक विकृत और समस्याग्रस्त बनाती है । पूँजीवाद तथा पूँजीवादी व्यवस्था के दोष अथवा उनसे होने वाली हानियाँ निम्नलिखित हैं( 1 ) पूंजीवाद के आर्थिक दोष
पूँजीवादी व्यवस्था आय एवं उत्पादन के साधनों तथा सम्पत्ति को पूँजीपति वर्ग के हाथ में केन्द्रित कर देती है परिणामस्वरूप यह वर्ग आर्थिक दृष्टि से दिन - प्रतिदिन सम्पन्न तथा आम आदमी गरीब होता जाता है । अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की अपनी प्रकृति तथा धन के केन्द्रीकरण के परिणामस्वरूप प्राप्त सुदृढ़ स्थिति के कारण पूँजीपति मजदूरों का शोषण करने का प्रयास करता है । सामंती व्यवस्था में भी धन और सम्पत्ति का केन्द्रीकरण कुछ ही लोगों अर्थात् सामंतों के हाथ होता है ।उसमें भी आम आदमी का जीवन कष्टमय होता है । पूँजीवादी व्यवस्था उसे अपेक्षाकृत अधिक अच्छा भौतिक जीवन तो प्रदान करती है परन्तु उसे अनेक आर्थिक , सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं का शिकार भी बनाती है । यह शोषण के साथ - साथ बेरोजगारी , गरीबी और समाज के बड़े वर्ग की आर्थिक विपन्नता की व्यवस्था है । सामंती व्यवस्था का ग्रामीण जीवन सादगी की मानसिकता के कारण उतना अधिक कष्टप्रद नहीं प्रतीत होता जितना भौतिकवाद में विश्वास करने वाली पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था । इसमें मजदूर जीवित मशीन से अधिक कुछ भी नहीं समझा जाता है ।
( 2 ) पूंजीवाद के सामाजिक दोष
पूँजीपति वर्ग आर्थिक व्यवस्था पर अपने वर्चस्व तथा अपनी सम्पन्नता के कारण प्रत्यक्षतः अथवा अप्रत्यक्षतः सामाजिक जीवन को भी प्रभावित करता है । उसका भौतिकवादी जीवन सामान्यजन उपभोक्तावाद की तरफ आकर्षित कर उसके लिए अनेक आर्थिक , सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याएँ पैदा करता है । यह व्यवस्था मानव जीवन को सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से जटिल बनाती है ।यह सामंती व्यवस्था के सरल सामाजिक सम्बन्धों तथा उसकी भावना प्रधान संस्कृति का अंत कर देती है । पूँजीवादी व्यवस्था सभी लोगों को प्रतियोगिता के जरिए विकास करने का अवसर देने का दावा करती है परन्तु वास्तविकता यह है कि यह एक छोटे से वर्ग को ही समृद्ध एवं विकसित होने का मौका देती है । तकनीकी प्रगति के जरिए यह लोगों को बड़ी संख्या में बेरोजगार बनाने वाली व्यवस्था है । यह अनेक विकट एवं जटिल सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याएँ पैदा करती है । आज पूरी दुनिया में पूँजीवादी समाज गम्भीर सामाजिक समस्याओं का गढ़ बना हुआ है ।
( 3 )पूंजीवाद के राजनीतिक दोष —
इस व्यवस्था में पूँजीपति वर्ग आर्थिक एवं सामाजिक ही नहीं अपितु राजनीतिक जीवन पर भी प्रत्यक्षतः अथवा अप्रत्यक्षतः अपना वर्चस्व स्थापित कर लेता है । सामान्यतः वह राजनीति में प्रत्यक्षतः भागीदारी तो नहीं करता परन्तु धन के जरिए वह राजनेताओं तथा शासक वर्ग को अपने प्रभाव क्षेत्र में रखने का हर सम्भव प्रयास जारी रखता है । पश्चिम का पूँजीपति वर्ग तो राष्ट्रीय ही नहीं अपितु अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को भी अप्रत्यक्षतः प्रमाणित करता रहता है । पूँजीवादी व्यवस्था उपनिवेशवाद का मार्ग प्रशस्त करती है । बाजार की खोज में यूरोपीय देशों ने एशिया और अफ्रीका में अपने उपनिवेशों की स्थापना की । यह भयंकर और विनाशकारी युद्धों अथवा महायुद्धों को जन्म देती है ।( 4 ) पूंजीवाद के मनोवैज्ञानिक दोष -
पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक , सामाजिक और सांस्कृतिक ही नहीं अपितु मनोवैज्ञानिक समस्याएँ भी पैदा करती है क्योंकि इसमें व्यक्ति हमेशा असुरक्षा की भावना से ग्रस्त होता है । आज का पूँजीवादी समाज इस भावना के कारण ही अनेक सामाजिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं का शिकार है । उसका युवा वर्ग शांति और सुखमय जीवन के लिए लालायित है । इसमें पारिवारिक और सामाजिक जीवन तेजी से विघटित होता जा रहा है । मानवीय मूल्यों का तेजी से हास हो रहा है ।और पढ़े-
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