शिक्षा आयोग (1964-1966) - कोठारी आयोग

शिक्षा आयोग (1964-1966) - कोठारी आयोग - 1964-66 [EDUCATION COMMISSION (KOTHARI COMMISSION): 1964-66]

स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त भारत सरकार ने अपने देश की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुसार उच्च शिक्षा के पुनर्गठन के लिए सर्वप्रथम 1948 ई. में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन किया, तत्पश्चात् सन् 1952 में माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन हेतु माध्यमिक शिक्षा आयोग गठित किया। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (राधाकृष्णन आयोग) ने विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रशासन, संगठन व स्तर को ऊँचा उठाने सम्बन्धी अपने ठोस सुझाव दिये, जिनमें से कुछ सुझावों के क्रियान्वयन द्वारा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कुछ सुधार भी हुआ, परन्तु वांछित उद्देश्य प्राप्त न हो सके।


शिक्षा आयोग (1964-1966) - कोठारी आयोग

सन् 1952 में गठित मुदालियर शिक्षा आयोग ने भी तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा के दोषों को उजागर करते हुए, उसके पुनर्गठन हेतु अनेक ठोस सुझाव दिये, परन्तु इन सबसे भी वांछित आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हो सकी, क्योंकि दोनों आयोग एकांगी अर्थात् शिक्षा के एक ही पक्ष की ओर ध्यान देने वाले थे।


अतः ऐसे आयोग के गठन की आवश्यकता अनुभूत की गई जो विविध स्तरों पर शिक्षा के समस्त पहलुओं से सम्बन्धित हो और शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन करके देश की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुरूप शिक्षा सम्बन नीतियों, शिक्षा के राष्ट्रीय प्रतिमान एवं शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र में विकास की सम्भावनाओं पर महत्वपूर्ण एवं उपयोगी सुझाव एवं संस्तुतियाँ प्रस्तुत करें।


अतः भारत सरकार ने शिक्षा के पुनर्गठन पर सम्पूर्ण रूप में सोचने समझने व देश भर के लिए समान शिक्षा नीति को निश्चित करने के उद्देश्य से 14 जुलाई, सन् 1964 ई. को डॉ. डी. एस. कोठारी, जो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष थे, की अध्यक्षता में 17 सदस्यीय राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का गठन किया, ताकि दी गई अनुशंसाओं का अनुसरण करके मनुष्य के वैयक्तिक व सामाजिक विकास की दिशा सुनिश्चित की जा सके।


इसके व्यापक उद्देश्य म्वरूप और महत्व के आधार पर इसे शिक्षा आयोग 1964-66 तथा राष्ट्रीय शिक्षा आयोग सन् 1964-66 के नाम से जाना जाता है। इस आयोग को इसके अध्यक्ष दौलत सिंह कोठारी के नाम पर कोठारी आयोग भी कहा जाता है। आयोग में कुल 14 सदस्य थे जिनमें 5 विदेशी शिक्षा विशेषज्ञ भी सम्मिलित थे।


आयोग के गठन के उद्देश्य एवं कार्यक्षेत्र (OBJECTIVE AND SCOPE OF ORGANIZATION COMMISSION)


आयोग ने शिक्षा को राष्ट्र के विकास का मूल आधार मानते हुए, राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में शिक्षा के उद्देश्य, लक्ष्य अथवा कार्य निश्चित किए और इन्हें पंचमुखी कार्यक्रम की संज्ञा दी। आयोग ने इनमें से प्रत्येक की प्राप्ति के लिए अनेक अन्य कार्य भी निश्चित किए जो अग्रलिखित हैं-


आयोग के गठन का सर्वप्रमुख उद्देश्य शिक्षा द्वारा उत्पादन में वृद्धि करना था। स्वतन प्राप्ति के बाद राष्ट्र ने राष्ट्रीय विकास के एक नये युग में प्रवेश किया था। अतः जनता की निर्ध को दूर करने का दृढ़ संकल्प व सभी के लिए एक उचित जीवन स्तर सुनिश्चित करना, कृषिको आधुनिकीकरण व उद्योगों का तीव्र विकास, आधुनिक विज्ञान व प्रौद्योगिकी का अभिग्रहण तथ परम्परागत आध्यात्मिक मूल्यों के साथ उनका सामंजस्य आदि लक्ष्यों की पूर्ति हेतु शिक्षा को उत्पादन परक बनाने पर जोर दिया गया व इसके लिए निम्नलिखित सुझाव दिये गये-


1. विज्ञान शिक्षा को प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर अनिवार्य करना तथा इस शिक्षा का उपयोग उत्पादन कार्यों में करना। कार्यानुभव (Work Experience) को विद्यालयी शिक्षा का अनिवार्य अंग बनाना तथा माध्यमिक शिक्षा को व्यवसायपरक बनाना।


2. देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास में शिक्षा के महत्वपूर्ण योगदान के विचार से एक सच्चे प्रजातांत्रिक समाज का निर्माण, राष्ट्रीय एकता व अखण्डता की उन्नति हेतु अनवरत प्रयास को ध्यान में रखते हुए एक सुसंगठित व उचित राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली को सुनिश्चित करना।


3. शिक्षा द्वारा सच्चे लोकतन्त्रीय समाज का निर्माण, राष्ट्रीय एकता, व्यक्ति को श्रेष्ठता एवं पूर्णता की खोज हेतु शिक्षा के सम्पूर्ण क्षेत्र की जाँच करना, ताकि कम से कम समय में एक ऐसी सुसन्तुलित एवं सुसंगठित राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली विकसित की जा सके, जो राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों को महत्वपूर्ण योगदान दें।


4. शिक्षा के सभी स्तरों पर असाधारण विस्तार के बावजूद शिक्षा के अनेक अंगों के सम्बन्ध में व्याप्त असन्तोष को दूर करने के लिए माध्यमिक विद्यालयी एवं विश्वविद्यालयो शिक्षा के क्षेत्रों में पर्याप्त उन्नयन करने हेतु पाठ्यक्रम में विभिन्नीकरण (Diversification of Courses) की योजना का विस्तार करना ताकि उद्योगों व व्यवसायों हेतु प्रशिक्षित व्यक्ति मिल सकें तथा शिक्षकों के वेतनों व कार्य-दशाओं में वांछनीय परिवर्तन लाना अर्थात् शिक्षा की संख्यात्मक (Quantitative) उन्नति के अनुपात में गुणात्मक (Qualitative) उन्नति को सुनिश्चित करना।


5. शिक्षा के क्षेत्र मे विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के सब साधनों के उत्तम प्रयोग हेतु शिक्षा का आधार उत्तम व प्रगतिशील बनाने का दृढ़ संकल्प करना।


6. भारत में राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के विकास हेतु शिक्षा के सम्पूर्ण क्षेत्रों की जाँच करना, क्योंकि शिक्षा प्रणाली के सब अंग एक दूसरे पर शक्तिशाली प्रतिक्रिया करते हैं और प्रभाव भी डालते हैं।


उपर्युक्त कारणों तथा प्रयोजन के लिए 14 जुलाई 1964 ई. को भारत सरकार ने निम्नलिखित सदस्यों से युक्त एक शिक्षा आयोग के गठन का निर्णय लिया था। भारत सरकार ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष डॉ. दौलत सिंह कोठारी को शिक्षा आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया था। इसीलिए इस आयोग को कोठारी आयोग भी कहा जाता है। आयोग में कुल 17 सदस्य थे, जिसमें 6 सदस्य अन्य देशों के शिक्षा विशेषज्ञ थे। इन सदस्यों की सूची अग्रवत् है-


1. प्रो. दौलत सिंह कोठारी- अध्यक्ष, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग

2. श्री जे. पी. नायक-सदस्य एवं सचिव, अध्यक्ष शिक्षा नियोजन, गोखले संस्थान, पूना 3. श्री जे. एफ. मैकडूगल-सह-सचिव, संचालक शिक्षा विभाग यूनेस्को, पेरिस

4. श्री ए. आर. दाऊद-सदस्य, निदेशक, अन्तर्राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा कार्यक्रम, नई दिल्ली 

5. श्री एच. एल. एलविन-सदस्य, शिक्षा संस्थान, लन्दन विश्वविद्यालय, लन्दन

6. श्री सदातोशीदूहारा - सदस्य, टोकियो

7. श्री आर. ए. गोपाल स्वामी - सदस्य

8. डॉ. बी. एस. झा-सदस्य, निदेशक निदेशालय, कामनवेल्थ, लन्दन

9. डॉ. एम. बी. माथुर-सदस्य, कुलपति राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर

10. डॉ. पी. एन. कृपाल-सदस्य, शिक्षा सचिव, भारत सरकार

11. डॉ. वी. पी. पाल-सदस्य, निदेशक भारतीय कृषि संस्थान, नई दिल्ली

12. कु. एस. पानंदिकर-सदस्य, अध्यक्ष शिक्षा विभाग, कर्नाटक विश्वविद्यालय, धारवाड़

13. प्रो. रोजल रेवेल-सदस्य, निदेशक हावर्ड विश्वविद्यालय, केम्ब्रिज

14. डॉ. के. जी. सैयदेन-सदस्य, निदेशक एशियन शिक्षा संस्थान, नई दिल्ली

15. डॉ. टी. सेन-सदस्य, उपकुलपति जादवपुर, विश्वविद्यालय

16. प्रो. एस. ए. शुभोवस्की-सदस्य, प्रोफेसर मास्को विश्वविद्यालय, मास्को

17. श्री. एम. जीन थॉमस सदस्य, निदेशक शिक्षा, फ्रांस पेरिस


इस आयोग ने भारत सरकार को राष्ट्रीय शिक्षा के प्रारूप को विकसित करने का सुझाव दिया, जिसके लिए निर्धारित उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए सामान्य अधिनियम व नीतियों को विकसित किया। उसके कार्यक्षेत्र को और अधिक स्पष्ट रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है-


1. तत्कालीन भारतीय शिक्षा प्रणाली का गहराई से अध्ययन करना, उसकी तत्कालीन कमियों व व्याप्त असन्तोष के कारणों का पता लगाना व उसमें सुधार के लिए सुझाव देना।


2. पूरे देश के लिए शिक्षा के आयोजन और प्रशासन सम्बन्धी तत्व निश्चित करना व इस सम्बन्ध में सरकार को सुझाव देना।


3. पूरे देश के लिए समान शिक्षा प्रणाली प्रस्तावित करना तथा शिक्षा में गुणात्मक सुधार लाने हेतु ऐसी शिक्षा प्रणाली का विकास करना, जो देश के सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक विकास में सहायक हो और यह प्रणाली ऐसी हो, जो भारतीय शिक्षा के परम्परागत गुणों को सुरक्षित रखते हुए वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति करे व भविष्य के निर्माण में सहायक हो।


4. पूरे देश में किसी भी स्तर की किसी भी प्रकार की शिक्षा के प्रसार एवं उसमें गुणात्मक सुधार के लिए उपायों की खोज करना व इस सम्बन्ध में सरकार को सुझाव देना।


कोठारी आयोग का प्रतिवेदन (COMMISSION'S REPORT)


आयोग के सदस्यों ने सम्पूर्ण देश के राज्यों एवं केन्द्रशासित प्रदेशों का भ्रमण किया और विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, विद्यालयों तथा तकनीकी व अन्य संस्थानों का निरीक्षण करके, छात्रों तथा शिक्षकों से साक्षात्कार व प्रशासकों व शिक्षाविदों से विचार विमर्श करने के बाद, अपने कार्यक्षेत्र की व्यापकता को ध्यान में रखते हुए 13 कार्यदलों (Task Forces) व 7 कार्य समितियों (Working Groups) का संगठन किया, जिन्होंनें 21 माह तक शिक्षा के सभी क्षेत्रों के सम्बन्ध में सभी प्रकार की सूचनायें संग्रहीत कीं।


इसके अतिरिक्त आयोग ने शिक्षा की विभिन्न समस्याओं से सम्बन्धित एक लम्बी प्रश्नावली तैयार कराकर इसे शिक्षा से जुड़े विभिन्न वर्ग के लगभग 5,000 व्यक्तियों के पास भेजा। 2,400 व्यक्तियों से प्राप्त आंकड़ों का सांख्यिकीय विश्लेषण करने के बाद 29 जून 1966 ई. को अपना प्रतिवेदन 'शिक्षा एवं राष्ट्रीय प्रगति' (Education and National Development) साका को भेजा।


यह प्रतिवेदन 692 पृष्ठों का एक वृहद दस्तावेज है जो तीन खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड में 6 अध्याय है, जिनमें सभी स्तरों की शिक्षा व्यवस्था के पुननिर्माण का सामान्य विवेचन किया गया है, राष्ट्रीय लक्ष्य एवं शिक्षा का स्वरूप, संरचनात्मक पुनर्संगठन, शिक्षकों की समृद्धि, विद्यालयों में प्रवेश सम्बन्धी नीति व शिक्षा के अवसरों की समानता की चर्चा की गई है। द्वितीय खण्ड में शिक्षा के विभिन्न स्तरों एवं क्षेत्रों का समावेश किया गया है। और तृतीय खण्ड में आयोग ने जो सुझाव व सिफारिशें दी हैं, उनको क्रियान्वित करने की समस्याओं पर प्रकाश डाला गया है।


आयोग के सुझाव व संस्तुतियाँ (RECOMMENDATIONS AND SUGGESTIONS OF COMMISSION)


कोठारी शिक्षा आयोग ने अपनी संस्तुतियों को आठ खण्डों में प्रस्तुत किया है, जो इस प्रकार हैं-


1. राष्ट्रीय शिक्षा के लक्ष्य (Aims of National Education),


2. शिक्षा के प्रशासन, वित्त व नियोजन सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Administration, Finance and Planning). विद्यालयी शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा व विश्वविद्यालयी शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में -


3. कृषि शिक्षा, व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Agricultural Education, Vocational and Technical Education),


4. दस वर्ष के लिए समान पाठ्यक्रम (Common Curriculum for 10 years).

अथवा शिक्षा की नवीन संरचना व स्तर (New Educational Structure and Standard),


5. शिक्षक स्तर या शिक्षक की स्थिति व सेवा शर्तों सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Teacher's Status and Service Conditions).


6. शिक्षक शिक्षा सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Teacher Education),


7. शैक्षिक अवसरों की समानता सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Equalisation of Educational Opportunities),


8. स्त्री शिक्षा प्रौढ़ व समाज शिक्षा सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Women Education, Adult and Social Education).


राष्ट्रीय शिक्षा के लक्ष्य (Aims of National Education)


आयोग का विचार है कि शिक्षा को लोगों के जीवन आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं से सम्बन्धित होना चाहिए, ताकि उनका आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक विकास करके राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। आयोग ने राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में 'शिक्षा का पंचमुखी कार्यक्रम' निश्चित करके इनमें से प्रत्येक को प्राप्ति के लिए कार्य निश्चित किए। यह पाँच सूत्रीय कार्यक्रम इस प्रकार


1. शिक्षा द्वारा उत्पादकता में वृद्धि करना।

2. शिक्षा द्वारा सामाजिक तथा राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करना।

3. शिक्षा द्वारा लोकतन्त्रीय गुणों का विकास करना।

4. शिक्षा द्वारा राष्ट्र का आधुनिकीकरण करना।

5. शिक्षा द्वारा सामाजिक, नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करना।


1. शिक्षा द्वारा उत्पादकता में वृद्धि करना (Increase Productivity by Education)


शिक्षा का सम्बन्ध उत्पादकता से जोड़ने के लिए निम्नलिखित कार्यक्रम आवश्यक हैं-


(i) विज्ञान शिक्षा को प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर अनिवार्य किया जाए और इस शिक्षा का उपयोग उत्पादन कार्यों में किया जाए।


(ii) कार्य अनुभव (Work Experience) को सभी प्रकार की शिक्षा के एक अभिन्न अंग के रूप में प्रारम्भ किया जाए, जिसमें शिल्पविज्ञान तथा औद्योगीकरण हेतु उत्पादक प्रक्रियाओं में विज्ञान के उपयोग का हर सम्भव प्रयास किया जाए।


(iii) माध्यमिक शिक्षा को व्यवसायपरक बनाया जाए।


(iv) उच्च शिक्षा में कृषि विज्ञान व तकनीकी शिक्षा पर बल देने के साथ ही विज्ञान व तकनीकी क्षेत्र में शोध कार्यों को विकसित किया जाए।


2. शिक्षा द्वारा सामाजिक तथा राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करना (To Strengthen Social and National Unity by Education)


आयोग ने अपनी जाँच में पाया कि तत्कालीन शिक्षा प्रणाली राष्ट्रीय एकता तथा एकीकरण को कायम रखने में विफल रही है। अत: देश की प्रगति हेतु सामाजिक व राष्ट्रीय एकीकरण की आवश्यकता का अनुभव करते हुए आयोग ने निम्न सुझाव दिये-


(i) गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने हेतु एक समान स्कूल प्रणाली की स्थापना की जाए, जिसमें शिक्षा सबके लिए समान रूप से उपलब्ध हो और अच्छी शिक्षा आर्थिक आधार पर नहीं बल्कि योग्यता के आधार पर उपलब्ध हो।


(ii) शिक्षा के सभी स्तरों पर समाजसेवा व राष्ट्रसेवा कार्य अनिवार्य हों।


(iii) सभी संघीय भाषाओं का विकास किया जाए तथा राष्ट्र भाषा हिन्दी के विकास हेतु विशेष प्रयत्न किए जायें।


(iv) सभी बच्चों में राष्ट्रीय चेतना को प्रोत्साहित करने हेतु ऐसे कार्यक्रमों का विद्यालयों में आयोजन किया जाए, जिससे बच्चे अपनी राष्ट्रीय परम्पराओं को समझ सकें व इसके प्रति उनमें सकारात्मक प्रवृत्ति का विकास हो।


3. शिक्षा द्वारा लोकतन्त्रीय गुणों का विकास करना (Establishment of Democratic Values by Education)


आयोग के विचार में लोकतन्त्र की सफलता हेतु शिक्षा आवश्यक है, क्योंकि शिक्षा ही समाज में लोकतन्त्रीय मूल्यों की स्थापना कर सकती है। अतः देश के नागरिकों में लोकतन्त्रीय मूल्यों के विकास हेतु निम्न सुझाव दिये-


(i) प्राथमिक शिक्षा अर्थात् 6 से 14 वर्ष तक के बालकों के लिए अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाए।


(ii) विद्यायलों में समानता, धर्म निरपेक्षता, राष्ट्रीय एकता, सहिष्णुता, भाईचारा व सहयोग की भावना का वातावरण उत्पन्न किया जाए।


(iii) सभी बच्चों को शिक्षा के समान अवसर दिये जायें।


(iv) प्रौढ़ शिक्षा का अधिक से अधिक प्रचार व प्रसार किया जाए।


(v) विद्यालयों में ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाए, जिनसे बच्चों में लोकतन्त्रीय मूल्यां में आस्था उत्पन्न हो तथा वे तदनुकूल व्यवहार करें।


4. शिक्षा द्वारा राष्ट्र का आधुनिकीकरण करना (Modernization of Nation by Education)


राष्ट्र के आधुनिकीकरण से आयोग का तात्पर्य विज्ञान एवं तकनीकी के प्रयोग से देश का आर्थिक विकास करने और जनसाधारण के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने से है। इसके लिए उसने निम्नलिखित सुझाव दिये-


(i) विज्ञान के इस युग में ज्ञान की तीव्रता व प्रसार की गति के साथ शिक्षा को भी गतिशील बनाये रखने का प्रयास करना।


(ii) देश के सभी बालकों (6 से 14 वर्ष तक के) को अनिवार्य रूप से शिक्षा प्रदान करना।


(iii) जनसाधारण के शैक्षिक स्तर को ऊँचा उठाया जाए।


(iv) उच्च स्तर पर विज्ञान व तकनीकी शिक्षा की उचित व्यवस्था की जाए तथा छात्रों में स्वतन्त्र चिन्तन व निर्णय लेने की शक्ति का विकास किया जाए।


(v) छात्रों में प्रगतिशील वातावरण की ओर सचेत रहने की उत्सुकता पैदा करना।


5. शिक्षा द्वारा सामाजिक, नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करना (Development of Social, Moral and Spiritual Values)


आयोग के अनुसार निम्न कार्यों द्वारा छात्रों का नैतिक, चारित्रिक व आध्यात्मिक विकास किया जा सकता है-


(i) शिक्षा में नैतिक, चारित्रिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना करने वाली गति- विधियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।


(ii) छात्रों को सामाजिक सेवा के कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।


(iii) प्राथमिक शिक्षा में महान व्यक्तियों, सन्तों और आदर्श चरित्रों की जीवनी पढ़ाई जानी चाहिए।


(iv) माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा में मूल्य आधारित शिक्षा (Value Based Education) प्रदान की जानी चाहिए।


शिक्षा के प्रशासन, वित्त व नियोजन सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Administration, Finance and Planning)


चूँकि आयोग का कार्यक्षेत्र पूर्व प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालयी स्तर तक की शिक्षा में सकारात्मक परिवर्तन लाना था, इसलिए उसने सभी स्तरों की शिक्षा के पुनर्गठन हेतु निम्न सुझाव दिये-


1. विद्यालयी शिक्षा के प्रशासन व निरीक्षण सम्बन्धी सुझाव (Suggestions regarding administration and inspection of School Education)-


(i) केन्द्र में 'राष्ट्रीय विद्यालयी शिक्षा बोर्ड' (National Board of School Education) और 'भारतीय शिक्षा सेवा' (Indian Education Service) का गठन किया जाय।


(ii) कक्षा 1 से कक्षा 8 तक प्राथमिक शिक्षा के दो स्तर बना दिये जायें। पहले भाग में कक्षा-। से 5 तक तथा दूसरा भाग कक्षा 6 से 8 तक होना चाहिए।


(iii) राज्य सरकारों द्वारा राज्य शिक्षा सेवा (State Education Service) तथा 'राज्य विद्यालय शिक्षा परिषद्' (State Board of School Education) का गठन किया जाना चाहिए।


(iv) देश के समस्त विद्यालयों-सरकारी, गैर सरकारी, स्थानीय निकायों द्वारा संचालित, सहायता प्राप्त, गैर सहायता प्राप्त, की भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रबन्ध समितियों को समाप्त कर 'सामान्य विद्यालय प्रबन्ध पद्धति' का विकास किया जाए और इनकी प्रबन्ध समितियों में शिक्षा विभाग के व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए।


(v) विद्यालयों में जिला विद्यालय निरीक्षक द्वारा नियमित निरीक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए।


(vi) प्रशासन से निरीक्षण कार्य को अलग रखा जाना चाहिए। जिले के विद्यालयों का प्रशासन कार्य जिला विद्यालय बोर्ड के हाथों में हो और उनके निरीक्षण का कार्य 'जिला शिक्षा अधिकारी' के हाथों में हो। परन्तु दोनों में सहयोग अवश्य होना चाहिए।


2. पाठ्यक्रम सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Curriculum)


आयोग ने प्राथमिक विद्यालयों के सभी स्तरों की पाठ्यचर्या निर्माण हेतु सिद्धान्त निश्चित किया। तत्पश्चात् इन सिद्धान्तों के आधार पर पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक, उच्च प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक, शिक्षा की पाठ्यचर्या की रूपरेखा प्रस्तुत की। इसके साथ ही आयोग ने त्रिभाषा सूत्र को संशोधित रूप में प्रस्तुत किया। आयोग के अनुसार विद्यालयी पाठ्यचर्या का निर्माण बेसिक शिक्षा के सिद्धान्तों (उत्पादन व सहसम्बन्ध) आदि के आधार पर किया जाय, परन्तु किसी भी स्तर की शिक्षा को बेसिक शिक्षा न कहा जाय। प्राथमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या सरल होनी चाहिए तथा इसमें मातृभाषा और पर्यावरण के अध्ययन पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। माध्यमिक शिक्षा हेतु एक आधारभूत पाठ्यचर्या के साथ व्यावसायिक वर्ग की पाठ्यचर्या स्थानीय विशेष आवश्यकताओं पर आधारित होनी चाहिए। विशिष्टीकरण की व्यवस्था उच्च माध्यमिक स्तर पर ही की जानी चाहिए।


विभिन्न स्तरों पर पाठ्यचर्या की रूपरेखा निम्नवत् है-


(1) पूर्व प्राथमिक स्तर


(i) खाने व पहनने के कौशल, 

(ii) सफाई, 

(iii) बातचीत, सामाजिक व्यवहार, 

(iv) खेलकूद, 

(v) सृजनात्मक कार्य।


(2) प्राथमिक स्तर


(i) मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा), 

(ii) व्यावहारिक गणित, 

(iii) भौतिक पर्यावरण का अध्ययन, 

(iv) सृजनात्मक क्रियाएँ, 

(v) कार्यानुभव, 

(vi) समाजसेवा, 

(vii) स्वास्थ्य, शिक्षा, खेलकूद व व्यायाम आदि।


(3) उच्च प्राथमिक अथवा निम्न माध्यमिक स्तर- 


(i) मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा), 

(ii) हिन्दी अथवा अंग्रेजी, 

(iii) गणित, 

(iv) विज्ञान, 

(v) सामाजिक अध्ययन, 

(vi) कला,

(vii) कार्यानुभव (शिल्पकार्य), 

(viii) समाज सेवा, 

(ix) स्वास्थ्य शिक्षा, 

(x) धार्मिक शिक्षा। 


(4) माध्यमिक स्तर


(i) मातृभाषा (श्रेत्रीय भाषा), 

(ii) हिन्दी अथवा कोई अन्य संघीय भाषा, 

(iii) कोई यूरोपीय भाषा, 

(iv) गणित, 

(v) सामान्य विज्ञान, 

(vi) सामाजिक विज्ञान, 

(vii) कला, 

(viii) कार्यानुभव (कृषि कार्य आदि), 

(ix) समाज सेवा, 

(x) स्वास्थ्य शिक्षा,

( xi) नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा। 


(1) उच्चतर माध्यमिक स्तर


(i) मातृभाषा 

(ii) आधुनिक भारतीय संघीय भाषा, आधुनिक विदेशी भाषा तथा शास्त्रीय भाषा में से कोई दो भाषाएँ; 

(iii) तीसरी भाषा, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, कला, भौतिक शास्त्र, रसायनशास्त्र, गणित, जीवविज्ञान, भूगर्भशास्त्र व गृहविज्ञान में से कोई तीन विषय, इसके अतिरिक्त (vi), (vii), व (viii) विषय के अन्तर्गत कार्यानुभव, समाज सेवा व स्वास्थ्य शिक्षा होंगे।

(vi) त्रिभाषा सूत्र का संशोधित स्वरूप-


आयोग ने प्रस्तावित त्रिभाषा सूत्र में संशोधन कर उसे निम्नलिखित रूप में लागू करने का सुझाव दिया-


(i) मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा अथवा प्रादेशिक भाषा)

(ii) संघ की राज भाषा हिन्दी अथवा अंग्रेजी

(iii) कोई आधुनिक भारतीय भाषा या कोई आधुनिक यूरोपीय भाषा या कोई शास्त्रीय भाषा, जो प्रथम दो में न दी गई हो।


3. विद्यालयी शिक्षा की शिक्षण विधियों सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Teaching Methods in School Education)


शिक्षण विधियों के सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये-


(i) शिक्षण पद्धति में हो रहे निरन्तर परिवर्तनों के अनुसार शिक्षण विधियाँ भी लचीली, गतिशील, क्रियाप्रधान व रोचक होनी चाहिए।


(ii) शिक्षा को आधुनिक व प्रगतिशील बनाने हेतु शिक्षकों को नवीन शिक्षण विधियों के प्रयोग लिए प्रोत्साहन देना चाहिए। इस दिशा में कार्यशालाओं व संगोष्ठियों का आयोजन करना चाहिए। के


(iii) शिक्षकों को शिक्षण सम्बन्धी सहायक सामग्री उपलब्ध कराने के साथ ही उचित निर्देशन भी मिलना चाहिए। इस निर्देशन प्रक्रिया में शिक्षण सहायक सामग्री निर्माण करने का प्रशिक्षण भी शामिल होना चाहिए, ताकि शिक्षक समुचित सहायक सामग्री का प्रयोग करने में सक्षम हों।


(iv) शिक्षण विधियाँ बाल मनोविज्ञान पर आधारित होनी चाहिए तथा इन विधियों द्वारा उन्हें अपनी सृजनात्मक प्रतिभा के विकास हेतु अवसर मिलने चाहिए।


(v) आकाशवाणी व दूरदर्शन के माध्यम से पाठों का प्रसारण किया जाना चाहिए।


(vi) विद्यार्थियों के लिए इन पाठों का प्रसारण विद्यालय समय में किया जाय तथा शिक्षकों के लिए विद्यालय समय से पहले या बाद में।


4. पाठ्यपुस्तकों से सम्बन्धित सुझाव (Suggestions Regarding Textbooks)


आयोग ने पाठ्यपुस्तकों के निर्माण हेतु राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक योजना बनाये जाने व राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) के सिद्धान्तों को अपनाये जाने का सुझाव दिया व इन पाठ्यपुस्तकों के निर्माण, परीक्षण व मूल्यांकन हेतु राज्य सरकारों की जिम्मेदारी सुनिश्चित की। इसके साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर पाठ्यपुस्तकों के लेखन हेतु प्रतिभावान व्यक्तियों को पारिश्रमिक दिये जाने की भी व्यवस्था का सुझाव दिया गया, विशेषकर विज्ञान व तकनीकी की पाठ्यपुस्तकों के निर्माण हेतु एक स्वायत्त संस्था के गठन का सुझाव दिया गया।


5. विद्यालयी शिक्षा में निर्देशन एवं परामर्श सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Guidance and Counselling in School Education)


प्राथमिक स्तर पर छात्रों को विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जो विद्यालय में मन न लगना, कोई विषय समझ में न आना, विद्यालय में समायोजन न कर पाना आदि। अत: इन शैक्षिक समस्याओं के निदान हेतु शैक्षिक निर्देशन व परामर्श की आवश्यकता होती है। अतः इस सम्बन्ध में आयोग ने निम्न सुझाव दिये हैं-


(i) छात्र-छात्राओं हेतु शैक्षिक निर्देशन व परामर्श की व्यवस्था प्राथमिक स्तर से ही की जानी चाहिए।


(ii) सभी जिलों में कम से कम एक विद्यालय में निर्देशन की समुचित व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए।


(iii) शिक्षकों को सेवामध्य कार्यक्रम (Inservice Program) के अन्तर्गत निर्देशन व परामर्श में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।


(iv) शैक्षिक निर्देशन द्वारा विशिष्ट बालकों हेतु विशेष शिक्षा की उपयुक्त व्यवस्था की जानी चाहिए।


(v) निर्देशन में प्रशिक्षण कार्यक्रम की व्यवस्था, राजकीय मार्गदर्शन ब्यूरो व प्रशिक्षण महाविद्यालयों में की जानी चाहिए।


6. विद्यालयी शिक्षा में मूल्यांकन (Evaluation in School Education)


आयोग के अनुसार शिक्षा प्रत्येक स्तर पर मूल्यांकन हेतु सतत् प्रक्रिया होनी चाहिए, जिसमें छात्रों का मूल्यांकन पूरे वर्ष चलना चाहिए। इसमें भी आन्तरिक मूल्यांकन को विशेष महत्व देना चाहिए। कक्षा 1 से 4 तक के छात्रों का मूल्यांकन केवल आन्तरिक होना चाहिए तथा प्राथमिक स्तर के अन्त में जिला स्तर पर बाह्य परीक्षा की व्यवस्था जिला शिक्षा अधिकारी द्वारा की जानी चाहिए। छात्रों की जिन उपलब्धियों का मूल्यांकन लिखित परीक्षाओं द्वारा सम्भव न हो, उनका मापन मौखिक एवं प्रायोगिक परीक्षाओं द्वारा किया जाना चाहिए। आन्तरिक मूल्यांकन में संचयी अभिलेख को तथा बोर्ड की परीक्षा में ग्रेड प्रणाली को महत्व देना चाहिए।


7. विद्यालयी शिक्षा के प्रसार हेतु सुझाव (Suggestions for Expansion of School Education)


आयोग ने विद्यालयी शिक्षा के भिन्न-भिन्न स्तरों के प्रसार (संख्यात्मक वृद्धि) हेतु विभिन्न सुझाव दिये हैं-


(i) पूर्व प्राथमिक शिक्षा का प्रसार (Expansion of Pre-Primary Education)

इस स्तर पर पर्याप्त प्रचार व प्रसार हेतु प्रत्येक राज्य के प्रत्येक जिले में 'पूर्व प्राथमिक शिक्षा प्रसार केन्द्र' स्थापित किये जायें जो अपने-अपने क्षेत्र में पूर्व प्राथमिक शिक्षा के प्रसार हेतु उत्तरदायी हों तथा पूर्व प्राथमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण व प्रशिक्षित शिक्षकों के लिए अभिनव पाठ्यक्रमों (Refresher Courses) की व्यवस्था करें, ताकि अधिक से अधिक प्राथमिक स्कूलों में पूर्व प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की जाय। इस दिशा में व्यक्तिगत संस्थाओं को अनुदान हेतु भी प्रेरित किया जाय।


(ii) प्राथमिक शिक्षा का प्रसार (Expansion of Primary Education)

इस स्तर पर 6 से 14 वर्ष की आयु के बालकों हेतु अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु अधिक तेजी से प्राथमिक स्कूल खोले जाने तथा अपव्यय व अवरोधन की समस्या को रोकने का सुझाव दिया गया है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु सभी बच्चों को एक किमी. की दूरी के अन्दर प्राथमिक व 3 किमी. की दूरी के अन्दर उच्च प्राथमिक स्कूल उपलब्ध कराये जायें तथा जो बच्चे प्राथमिक शिक्षा के बाद पढ़ने की स्थिति में नहीं हैं, उन्हें किसी हस्तकार्य में निपुण बनाये जाने की आवश्यकता है। पिछड़ी व अनुसूचित जनजातियों के बच्चों के लिए प्राथमिक विद्यालय खोलने व मंद बुद्धि व विकलांग बच्चों के लिए अलग से स्कूल खोलने का भी आयोग ने सुझाव दिया।


(iii) माध्यमिक शिक्षा के प्रसार सम्बन्धी सुझाव ( Suggestions Regarding Expansion of Secondary Education)

माध्यमिक शिक्षा के प्रसार हेतु आयोग ने निम्न सुझाव दिये हैं-


(i) प्रत्येक जिले में आवश्यकतानुसार माध्यमिक शिक्षा के प्रसार की योजना बनाकर उसे 10 वर्षों की अवधि में पूरा किया जाए। इस हेतु प्रत्येक जिले में आवश्यकतानुसार माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना की जाय तथा इस दिशा में किये गये व्यक्तिगत प्रयासों को प्रोत्साहन दिया जाय।


(ii) लड़कियों के लिए और अधिक माध्यमिक विद्यालय खोलें जायें, दूर से आने वाले लड़‌कियों के लिए छात्रावास बनाए जायें उनके लिए माध्यमिक स्तर की शिक्षा निःशुल्क की जाए और निर्धन छात्राओं को छात्रवृत्तियाँ भी दी जाएँ। 


(iii) माध्यमिक स्तर पर होने वाले अपव्यय व अवरोधन को रोका जाय। अनुसूचित जाति व जनजाति के बच्चों की माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था हेतु विशेष योजनायें बनाई जायें।


(iv) अंशकालिक माध्यमिक शिक्षा की भी आवश्यकतानुसार व्यवस्था की जाय विशेषकर व्यावसायिक वर्ग की।


(v) सह-शिक्षा के लिए लोगों को तैयार किया जाय।


8. विश्वविद्यालयी शिक्षा के सन्दर्भ में आयोग के सुझाव (Commission Suggestions in Reference of University Education)


कोठारी आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा पर भी विस्तार से विचार किया तथा विश्वविद्यालयी शिक्षा के सन्दर्भ में निम्न सुझाव दिये- 


(A) विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रशासन सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Administration of University Educations)


आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रशासन को अधिक प्रभावी बनाने हेतु निम्न सुझाव दिये-


(i) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का पुनर्गठन करके इसे और अधिक सशक्त बनाया जाय तथा इसे उच्च शिक्षा संस्थाओं को अनुदान देने के साथ-साथ उनके निरीक्षण का अधिकार व उच्च शिक्षा के स्तर को बनाए रखने का उत्तरदायित्व भी सौंपा जाय।


(ii) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, विश्वविद्यालयों को उदारतापूर्वक अनुदान दें, विशेषकर 'उच्च अध्ययन केन्द्रों' (Centers of Advanced Studies) की स्थापना के लिए।


(iii) सभी विश्वविद्यालयों को अपने शिक्षण व अनुसंधान कार्य में सुधार लाने हेतु अधिक स्वायत्तता प्रदान की जाय तथा इन्हें 'अन्तर्विश्वविद्यालय परिषद्' (Inter University Council) का सदस्य बनाया जाय। (iv) विश्वविद्यालयों के प्रशासन तन्त्र का भी पुनर्गठन करके 50% सदस्य विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि व 50% बाह्य सदस्य रखे जायें। कार्यकारिणी परिषद् में 15 से 20 सदस्य हों तथा कुलपति इसका अध्यक्ष हो। 


(v) विश्वविद्यालयों की शैक्षिक परिषद् में छात्रों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए तथा इसे पाठ्यक्रम निर्माण व शैक्षिक विषयों पर निर्णय लेने का अधिकार भी होना चाहिए।


(vi) विश्वद्यिालयों को और अधिक स्वायत्तता देने की दिशा में उन्हें कुलपतियों के चुनाव की स्वतन्त्रता पाठ्यक्रम निर्माण, शिक्षकों की नियुक्ति, छात्रों के चयन व अनुसंधान कार्य में स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए।


(B) विश्वविद्यालयी शिक्षा का संगठन (Organisation of University Education)


आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा की उचित व्यवस्था हेतु चार प्रकार की उच्च शिक्षा संस्थाओं-सामान्य विश्वविद्यालय, वरिष्ठ विश्वविद्यालय, सामान्य महाविद्यालय और स्वायत्त महाविद्यालयों की स्थापना का सुझाव दिया। इनमें से नए विश्वविद्यालयों की स्थापना आवश्यकतानुसार तथा उच्च शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने हेतु की जाए तथा कई स्नातकोत्तर महाविद्यालय को संगठित करके नए विश्वविद्यालय का रूप देने का सुझाव भी दिया गया।


वरिष्ठ महाविद्यालयों के अति मेधावी छात्रों को प्रवेश देना, छात्रवृत्तियों की विशेष व्यवस्था, राष्ट्रीय व अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर शिक्षकों की नियुक्ति व उन्हें शोध कार्य हेतु विशेष सुविधाएँ उपलब्ध कराना तथा सम्पूर्ण वित्तीय भार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा लेने का सुझाव दिया।


इसी प्रकार आयोग ने नए महाविद्यालयों की स्थापना स्वायत्त महाविद्यालयों की स्थापना, अंशकालिक शिक्षा व पत्राचार पाठ्यक्रम सम्बन्धी सुझाव के अतिरिक्त, उच्च शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश सम्बन्धी उपयोगी सुझाव भी दिये। शोध कार्य के लिए केवल योग्य, प्रतिभा- शाली व परिश्रमी व्यक्तियों का चयन किये जाने की अनुशंसा भी की गई।


(C) विश्वविद्यालयी शिक्षा के उद्देश्य (Aims of University Education)


आयोग द्वारा निर्धारित भारतीय विश्वविद्यालयों के लक्ष्य को ही उच्च शिक्षा के उद्देश्य माना जा सकता है, जिनका क्रमिक वर्णन अग्र प्रकार है-


1. पुराने ज्ञान एवं विश्वासों का मूल्यांकन करने के पश्चात् नवीन ज्ञान की प्राप्ति एवं नए तथ्यों (सत्य) की खोज करना।


2. सामाजिक न्याय को प्रोत्साहन देकर मूल्यों का विकास करना तथा छात्रों व शिक्षकों में उचित मान्यताओं व दृष्टिकोणों का विकास करना।


3. प्रतिभाशाली युवकों की खोज करना तथा उनकी प्रतिभाओं के विकास में सहायता करना।


4. कृषि, चिकित्सा, विज्ञान, तकनीकी एवं अन्य क्षेत्रों के लिए कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों का निर्माण करना।


(D) पाठ्यक्रम सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Curriculum)


पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में आयोग के सुझाव निम्नवत् हैं-


1. प्रथम स्नातक पाठ्यक्रम तीन वर्ष का किया जाय तथा इस स्तर पर सामान्य तथा ऑनर्स दोनों प्रकार के पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जाय।


2. स्नातक स्तर पर पाठ्यक्रम में नए-नए विषयों का समावेश करके उन्हें विषयों के चयन हेतु पर्याप्त अवसर दिये जायें।


3. परास्नातक स्तर पर पाठ्यक्रम 2 वर्ष का हो तथा इस स्तर पर भी विषयों के चुनाव हेतु पर्याप्त अवसर हो।


4. पी. एच. डी. उपाधि के लिए छात्र को 2 से 3 वर्ष तक का शोध कार्य करने का अवसर दिया जाय तथा मूल्यांकन प्रणाली के स्तर को भी ऊँचा उठाया जाय।


5. स्नातक कक्षाओं में एक या दो विषयों के गहन अध्ययन की व्यवस्था के साथ ही अंग्रेजी, रूसी आदि समृद्ध विदेशी भाषाओं के अध्ययन की भी व्यवस्था की जाय।


(E) शिक्षण में सुधार व शिक्षण विधियाँ (Improvement in Teaching and Teaching method )


1. विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों को आधुनिक शिक्षण विधियों अपनाकर शिक्षण में सुधार करना चाहिए।


2. शिक्षण प्रक्रिया में सुधार हेतु विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में एक विशेष समिति का ग किया जाय तथा मौलिक चिन्तन को इस स्तर पर महत्व दिया जाय।


3. समय सारिणी (Time-Table) में क्रियाप्रधान विधियों को प्रमुखता दी जाय तथा छात्रों के स्वतन्त्र विचारों की अभिव्यक्ति लेखन कार्य, समस्या समाधान व लघु शोध कार्यों में संलग्न किय जाय।


4. किसी शिक्षक को सत्र के बीच में संस्था छोड़ने की स्वीकृति न दी जाय तथा 7 दिन से अधिव का अवकाश स्वीकृत न किया जाय।


5. कक्षा शिक्षण को कुछ कम करके उसके स्थान पर स्वाध्याय, विचार विमर्श, समस्या समाधान और लेखन को महत्व देने हेतु सम्पन्न पुस्तकालयों और संगोष्ठी भवनों की उचित व्यवस्था की जाय।


(F) शिक्षा का माध्यम (Medium of Instruction)


शिक्षा के माध्यम के विषय में आयोर ने निम्न संस्तुतियाँ कीं -


1. स्नातक स्तर की शिक्षा क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से तथा परास्नातक स्तर पर अंग्रेजो माध्यम से होनी चाहिए।


2. शिक्षकों को यथासम्भव द्विभाषी होना चाहिए अर्थात् उन्हें क्षेत्रीय भाषा व अंग्रेजी भाषा दोने का ज्ञान होना चाहिए।


3. वरिष्ठ विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए। 


4. उच्च शिक्षा में अंग्रेजी के अतिरिक्त उर्दू व रूसी भाषा के शिक्षण की भी व्यवस्था होनी चाहिए।


(G) छात्र संघ व छात्र कल्याण कार्यक्रम सम्बन्धी सुझाव (Suggestions about Student's Federation and Student's Welfare Programmes)


आयोग ने विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों में छात्र संघों के गठन एवं संचालन हेतु शिक्षकों व छात्रों की एक संयुक्त समिति का निर्माण किए जाने, छात्र संघों के पदाधिकारियों का अप्रत्यक्ष विधि से चुनाव किए जाने तथा छात्र संघ की स्वयमेव (Automatic) सदस्य का भी सुझाव दिया। छात्रों के कल्याण हेतु, उन्हें समुचित रोजगार देने हेतु रोजगार कार्यालयों की स्थापना, पर्याप्त मात्रा में सुविधासम्पन्न छात्रावासों का निर्माण व छात्र कल्याण की योजनाओं को क्रियान्वित करने हेतु छात्र कल्याण अधिष्ठाता (Dean of Student's Welfare) की स्थापना का सुझाव दिया गया।


(H) शैक्षिक वित्त व नियोजन (Educational Finance and Planning)


शैक्षिक वित्त के सम्बन्ध में आयोग के सुझाव निम्नलिखित हैं-


1. आयोग ने स्पष्ट किया कि सन् 1965-66 की अपेक्षा सन् 1985-86 में छात्रों की संख्या कम-से-कम दो गुनी हो जाने से प्रति छात्र व्यय भी 12 रु. के स्थान पर 54 रु. तक हो जाएगा। अतः शिक्षा बजट में प्रति वर्ष वृद्धि करनी आवश्यक है। इस दिशा में केन्द्र सरकार अपने बजट में शिक्षा के लिए कम-से-क्रम 6 प्रतिशत का प्रावधान करें।


2. राज्य सरकारें भी अपने बजटों में शिक्षा के लिए और अधिक धनराशि आवंटित करें।


3. राज्यों में स्थानीय संस्थाओं (ग्राम पंचायतों और नगरपालिकाओं) को उनके क्षेत्र की प्राथमिक शिक्षा संस्थाओं का वित्तीय भार सौंपा जाय।


4. व्यक्तिगत स्त्रोतों से अधिक से अधिक धन प्राप्त किया जाय।


5. शिक्षा हेतु आय के स्त्रोत बढ़ाने के उपायों को खोज की जाय व इस क्षेत्र में अनुसंधान किये जायें।


6. अगले दो या तीन दशकों में शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में शैक्षिक व्यय उपलब्ध संसाधनों का 2/3 भाग विद्यालय शिक्षा पर और 1/3 भाग उच्च शिक्षा पर होगा।


7. सन् 1965 से 1975 तक स्कूल शिक्षा के अधिकतम व्यय का प्रयोग स्कूल शिक्षकों के वेतनमान को समृद्ध करने में, पूर्व विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम और विश्वविद्यालय से इण्टरमीडिएट कक्षाओं को स्कूल स्तर के लिए स्थानान्तरण, तथा माध्यमिक शिक्षा के व्यावसायीकरण हेतु किया जाय।


8. सन् 1975 से 1985 तक, सात वर्षीय प्रभावपूर्ण प्राथमिक शिक्षा, स्कूल स्तर पर एक वर्ष की वृद्धि व माध्यमिक शिक्षा के व्यावसायीकरण पर बल दिया जायेगा।


9. सन् 1985 के उपरान्त उच्च शिक्षा के विकास व अनुसंधान पर बल देने हेतु धन का प्रयोग किया जायेगा।


उपर्युक्त वित्तीय योजनाओं हेतु आयोग ने विभिन्न शैक्षिक वित्त के स्त्रोतों की भी व्याख्या की है, जो इस प्रकार हैं-


(i) यद्यपि शिक्षा के अनुपोषण के लिए अधिकतम दायित्व राजकीय निधियों (केन्द्र व राज्य) पर नियत किया जायेगा, परन्तु इस वित्तीय दायित्व को पूर्णरूपेण सरकार पर न सौंपा जाकर, स्थानीय समुदायों, स्वैच्छिक संगठनों और स्थानीय निकायों से योगदान लेने के प्रयास किये जाने चाहिए।


(ii) स्थानीय समुदाय की सहायता, विद्यालय निधियों का सृजन और विद्यालयों में भौतिक सुविधाओं की उन्नति व विद्यालय सुधार सम्मेलनों की व्यवस्था द्वारा गतिशील होनी चाहिए।


(iii) जिला विद्यालय परिषदों द्वारा जिला परिषदों को वित्तीय सहायता प्रदान करने की दिशा में भूमि राजस्व (मालगुजारी) पर कर लगाकर शिक्षा के लिए कोष विकसित किए जाने चाहिए। कोषों के संकलन को प्रोत्साहित करने हेतु सरकार, जिला परिषदों द्वारा इस प्रकार के संकलित अतिरिक्त राजस्व की आनुपातिक सहायता अनुदान दे।


(iv) शिक्षा की लागत का एक निश्चित अनुपात पालिकाओं द्वारा वहन करना अनिवार्य होना चाहिए।


कृषि शिक्षा, व्यावसायिक व तकनीकी शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव (Suggestions about Agricultural Education, Vocational Education and Technical Education)


(i) विद्यालयी स्तर पर कृषि शिक्षा आयोग ने प्राथमिक स्तर पर कृषि सम्बन्धी सामान्य जानकारी को पाठ्यचर्या का अनिवार्य अंग बनाये जाने की अनुशंसा करते हुए, माध्यमिक स्तर पर कृषि विद्यालयों की स्थापना व कृषि को कार्यानुभव का महत्वूपर्ण अंग बनाने का सुझाव दिया। इसके साथ ही उच्चतर माध्यमिक स्तर पर कृषि विषय में विशिष्टीकरण की व्यवस्था किये जाने की अनुशंसा भी की।


(ii) पॉलिटेक्निक स्तर पर कृषि शिक्षा- आयोग ने माध्यमिक शिक्षा उत्तीर्ण सामान्य अने के लिए प्रत्येक प्रान्त में पर्याप्त पॉलिटेक्निक कॉलेज खोले जाने व उनमें आवश्यकतानुसार कृषि शिक्षा की व्यवस्था कर इन्हें कृषि विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध किये जाने का भी सुझाव दिया। इन कॉलेजों में कृषकों और कृषि में विशेष रुचि रखने वाले व्यक्तियों के लिए सघन व संक्षिप्त कार्यक्रम चलाए जाने का भी सुझाव दिया गया।


(iii) महाविद्यालय स्तर पर कृषि शिक्षा-महाविद्यालय स्तर पर कृषि शिक्षा हेतु आयोग ने प्रत्येक कृषि महाविद्यालय के पास कम से कम 200 एकड़ कृषि योग्य भूमि का फार्म होने तथा कृषि स्नातक पाठ्यक्रम के स्थान पर उच्च कृषि तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था किये जाने का सुझाव दिया। इस हेतु वर्तमान कृषि महाविद्यालयों की दशा सुधारने का भी सुझाव दिया गया। इन सभी कृषि महाविद्यालयों का हर पाँच वर्ष बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् द्वारा संयुक्त रूप से निरीक्षण किए जाने की आवश्यकता भी अनुभव की गई।


(iv) विश्वविद्यालय स्तर पर व अन्य कृषि संस्थाओं में कृषि शिक्षा- विश्वविद्यालय स्तर पर कृषि शिक्षा हेतु आयोग ने प्रत्येक प्रान्त में कम से कम एक शिक्षण कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना का सुझाव दिया, जिसमें कम से कम 1000 एकड़ कृषि योग्य भूमि का फार्म हो तथा स्नातक एवं परास्नातक शिक्षा व कृषि में अनुसंधान कार्य की उत्तम व्यवस्था के साथ ही कृषि प्रसार कार्यक्रमों की भी व्यवस्था की जाय। इन कृषि विश्वविद्यालयों में 25% छात्रों को छात्रवृत्तियाँ दी जाय तथा उपाधि देने से पूर्व फार्म पर एक वर्ष कृषि कार्य करना अनिवार्य किया जाय। इस स्तर पर कृषि शिक्षा प्रदान करने हेतु भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) भारतीय पशु अनुसंधान (IVRI) और राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान अपने-अपने क्षेत्र में परास्नातक शिक्षा की व्यवस्था और शोध कार्य के लिए उत्तरदायी हैं। इनमें भी भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) कृषि शिक्षा के विस्तार व उन्नयन के लिए उत्तरदायी है।


व्यावसायिक व तकनीकी शिक्षा (VOCATIONAL AND TECHNICAL EDUCATION)


आयोग के गठन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य शिक्षा को उत्पादकता से जोड़ता था। अतः आयोग की राय में माध्यमिक शिक्षा का व्यावसायीकरण शिक्षा व उत्पादन में सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। इस सन्दर्भ में आयोग ने निम्न सुझाव दिये-


(i) माध्यमिक शिक्षा का व्यावसायीकरण किया जाय और 20 वर्ष के अन्दर माध्यमिक स्तर पर 25% व उच्चतर माध्यमिक स्तर पर 50% छात्रों को व्यावसायिक वर्ग में लाया जाए।


(ii) ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित पॉलिटेक्निक कॉलेजों में कृषि व कृषि से सम्बन्धित उद्योगों की शिक्षा दी जाय तथा नए पॉलिटेक्निक कॉलेज केवल औद्योगिक क्षेत्र में ही खोले जायें। इन कॉलेजों में महिलाओं की रुचि के उद्योगों की शिक्षा की व्यवस्था भी की जाय।


(iii) जूनियर टेक्निकल स्कूलों को टेक्निकल हाई स्कूलों में बदल दिया जाय। 


(iv) इन विद्यालयों के पाठ्यक्रम अपने आप में पूर्ण होने चाहिए अर्थात् ये व्यवसायपरक होने चाहिए।


(v) इन पाठ्यक्रमों में सैद्धान्तिक ज्ञान की अपेक्षा व्यावहारिक प्रशिक्षण पर अधिक बल दिया जाय तथा इसके लिए अनुभव प्राप्त शिक्षकों की नियुक्त की जाय।


उच्च इंजीनियरिंग शिक्षा सम्बन्धी सुझाव (SUGGESTIONS ABOUT HIGHER ENGINEERING EDUCATION)


(i) घटिया किस्म के इंजीनियरिंग कॉलेजों को बन्द कर दिया जाय व नए इंजीनियरिंग कॉलेजों की स्थापना मानव शक्ति की माँग के आधार पर की जाय।


(ii) ये सभी कॉलेज तकनीकी शिक्षा संस्थान (Technical Education Institute, (TEI) द्वारा मान्यता प्राप्त हों तथा जो इंजीनियरिंग कॉलेज उच्च स्तर की शिक्षा प्रदान नहीं कर रहे हैं, उनमें सुधार किया जाय।


(iii) इंजीनियरिंग की कुछ शाखाओं, जैसे-विद्युत-अणु-सम्बन्धी (Electronics) और उपकरण सम्बन्धी (Instrumentation) शिक्षा के लिए योग्य एवं प्रतिभाशाली बी. एस. सी. पास छात्रों को चुना जाय।


(iv) परिवर्तित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पाठ्यक्रमों को विभिन्न प्रकार से अद्यतन (Up-to-Date) बनाया जाय व इनमें विमान तकनीकी, नक्षत्र विज्ञान, रासायनिक तकनीकी आदि नए पाठ्यक्रम शुरू किए जायें।


(v) व्यावहारिक प्रशिक्षण पर अधिक बल दिया जाय तथा इसके लिए औद्योगिक संस्थानों का सहयोग लिया जाय।


(vi) इंजीनियरिंग कॉलेजों के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में केवल उन्हीं छात्र-छात्राओं को प्रवेश दिया जाए, जो इंजीनियरिंग की स्नातक शिक्षा प्राप्त करने के बाद किसी उद्योग में । वर्ष कार्य कर चुके हों।


(vii) जहाँ आवश्यकता हो, पत्राचार पाठ्यक्रम शुरू किए जायें।


(viii) शिक्षकों को अपने-अपने क्षेत्र के अद्यतन ज्ञान से अवगत कराने के लिए 'ग्रीष्मकालीन संस्थानों' (Summer Institutes) की व्यवस्था की जाय।


विज्ञान शिक्षा व अनुसंधान (SCIENCE EDUCATION AND RESEARCH)


आयोग के अनुसार देश के आर्थिक विकास, उसकी सुरक्षा और उसके आधुनिकीकरण के लिए विज्ञान की शिक्षा अति आवश्यक है और साथ ही इस क्षेत्र में निरन्तर अनुसंधान की आवश्यकता है। अतः आयोग ने देश में विज्ञान शिक्षा के विकास के सम्बन्ध में निम्न सुझाव दिये-


(i) राष्ट्रीय विज्ञान संस्थान (National Institute of Science) का पुनर्गठन किया जाय तथा वैज्ञानिक शोधों पर व्यय धनराशि के प्रतिशत में वृद्धि की जाय।


(ii) विज्ञान की शिक्षा प्रारम्भिक कक्षाओं से ही शुरू की जाय और इसके लिए क्षेत्रीय भाषाओं में वैज्ञानिक शब्दावली का विकास किया जाय।


(iii) विज्ञान तथा गणित के उच्च अध्ययन केन्द्रों की स्थापना की जाय। इन केन्द्रों में योग्य व प्रतिभाशाली व्यक्तियों को शिक्षक नियुक्त किया जाय। यदि सम्भव हो तो कुछ व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हों।


(iv) कुछ विजिटिंग प्रोफेसर्स (Visiting Professors) की संविदा के आधार पर 2 से 3 वर्ष को अवधि के लिए नियुक्त किया जाय।


(v) विज्ञान के स्नातक, स्नातकोत्तर और विशेष पाठ्यक्रमों में सुधार कर उन्हें अद्यतन व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का बनाया जाय।


(vi) विज्ञान में दो वर्षीय स्नातकोत्तर शिक्षा के अतिरिक्त एक वर्षीय विशेष पाठ्यक्रम भी तैयार किए जायें, जिनमें विज्ञान की अद्यतन जानकारी दी जाय।


(vii) विश्वविद्यालय तथा इंजीनियरिंग संस्थान योग्य औद्योगिक कार्यकर्ताओं को पत्र-व्यवहार द्वारा शिक्षा तथा सायंकालीन कक्षाओं के लिए भर्ती करें। इन संस्थानों में डिप्लोमा तथा डिग्री कोसाँ के अतिरिक्त मिस्त्रियों (Mechanics), प्रयोगशाला शिल्पियों (Laboratory Technicians) तथा अन्य कुशल कार्यकर्ताओं (Skilled Operators) के लिए विशेष व लघुकोर्स आयोजित करें।


(viii) विज्ञान की शिक्षा हेतु योग्य व अनुभवी शिक्षक नियुक्त किए जायें तथा इन शिक्षकों को विज्ञान क्षेत्र को अद्यतन जानकारी हेतु ग्रीष्मकालीन संस्थाओं (Summer Institutes) में भेजा जाय। यहाँ विदेशी वैज्ञानिकों और विदेशों में कार्यरत भारतीय वैज्ञानिकों को व्याख्यान के लिए आमान्त्रित किया जाय।


(ix) विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र-छात्राओं के मूल्यांकन हेतु सैद्धान्तिक परीक्षा को अपेक्षा प्रायोगिक कार्य को महत्व दिया जाय।


(x) विश्वविद्यालय के गुणात्मक पक्ष में सुधार हेतु सामूहिक कार्य (Team work) का विकास किया जाय।


शिक्षा की नवीन संरचना व स्तर (New Structure of Education and Standard) आयोग ने शिक्षा में एकरूपता लाने हेतु, शिक्षा के विभिन्न स्तरों तथा उपस्तरों हेतु 'एक समान शिक्षा प्रणाली' का प्रारूप बताया है, जो इस प्रकार है-


शिक्षा प्रणाली का नवीन प्रारूप


1. पूर्व प्राथमिक शिक्षा-कक्षा से पहले तक

2. प्राथमिक शिक्षा (कक्षा से VII या VIII तक)


(i) अवर प्राथमिक कक्षा I-IV या II से V तक

(ii) उच्च प्राथमिक - कक्षा V-VII या VII से VIII तक


3. माध्यमिक शिक्षा-कक्षा VII से XII या IX से XII तक


(i) अवर माध्यमिक शिक्षा-कक्षा VII से X या IX-X तक

(ii) उच्च माध्यमिक शिक्षा-कक्षा XI से XII तक


4. उच्च शिक्षा


(i) प्रोफेशनल डिग्री

(ii) सामान्य डिग्री

(iii) अन्डर ग्रेजुएट

(iv) पोस्ट ग्रेजुएट


5. सामान्य शिक्षा


(i) प्रथम स्तर की शिक्षा - प्री स्कूल तथा प्री-प्राइमरी स्कूल,

(ii) द्वितीय स्तरीय शिक्षा- हाईस्कूल तथा हायर सेकेन्डरी स्कूल,

(iii) तृतीय स्तरीय शिक्षा - अन्डर ग्रेजुएट तथा पोस्ट ग्रेजुएट।


आयोग ने विद्यालय शिक्षा की नवीन संरचना के विषय में कुछ सुझाव भी दिये हैं- 


1. सामान्य शिक्षा की अवधि 10 वर्ष की होनी चाहिए और इसमें प्राथमिक एवं निम्न माध्यमिक शिक्षा को सम्मिलित किया जाना चाहिए।


2. प्राथमिक शिक्षा की अवधि 7 से 8 वर्ष हो तथा इसे 4 या 5 वर्ष की निम्न प्राथमिक शिक्षा व 3 वर्ष की उच्च प्राथमिक शिक्षा में विभक्त किया जाय।


3. निम्न माध्यमिक स्तर पर छात्रों को दो प्रकार की शिक्षा देनी चाहिए- (i) 2 या 3 वर्ष की सामान्य शिक्षा और (ii) 1 से 3 वर्ष की व्यावसायिक शिक्षा।


4. 9वीं कक्षा से पृथक विद्यालय स्थापित किए जाने की प्रचलित विधि का अन्त कर देना चाहिए तथा 10वीं कक्षा तक छात्रों को किसी विषय में विशिष्टीकरण (Specialization) की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।


5. माध्यमिक विद्यालय भी दो प्रकार के होने चाहिए- (i) हाईस्कूल और (ii) हायर सेकेण्डरी स्कूल। हाईस्कलों में शिक्षा की अवधि 10 वर्ष की और हायर सेकेण्डरी स्कूलों में 12 वर्ष होनी चाहिए।


इसी प्रकार उच्च शिक्षा की नवीन संरचना हेतु निम्न सुझाव दिये हैं-


1. उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के पश्चात् प्रथम डिग्री कोर्स की अवधि कम से कम 3 वर्ष की होनी चाहिए।


2. द्वितीय डिग्री कोर्स की अवधि 2 या 3 वर्ष होनी चाहिए। 3. कुछ विद्यालयों में 'ग्रेजुएट स्कूलों' की स्थापना की जाय, जिनमें कुछ विशेष विषयों में 3 वर्ष के स्नातकोत्तर कोर्स की व्यवस्था की जाय।


4. उत्तर प्रदेश के त्रिवर्षीय डिग्री कोर्स को कुछ विशिष्ट विषयों और विशिष्ट विश्वविद्यालयों में शुरू किया जाना चाहिए।


आयोग ने शिक्षा के इन सभी स्तरों के उन्नयन हेतु भी अपने सुझाव दिये हैं-


1. 10 वर्ष की विद्यालयी शिक्षा में गुणात्मक उन्नति करके इस स्तर पर होने वाले अपव्यय में कमी की जानी चाहिए।


2. इस अवधि में कक्षा 10 के स्तर का इतना उन्नयन कर दिया जाना चाहिए कि वह वर्तमान हायर सेकेण्डरी के स्तर पर पहुँच जाय।


3. विश्वविद्यालयों की उपाधियों के स्तरों का उन्नयन करने के लिए इन उपाधियों के पाठ्यक्रमों में अधिक उन्नत विषय वस्तु का समावेश करना चाहिए।


4. शिक्षा-स्तरों का उन्नयन करने के लिए शिक्षा के विभिन्न अंगों में समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए।


5. विद्यालय संकुलों (School Complexes) का यथाशीघ्र निर्माण किया जाना चाहिए। एक संकुल में एक माध्यमिक स्कूल और उसके निकटवर्ती सब प्राथमिक स्कूल होने चाहिए। प्रत्येक संकुल के सब स्कूलों द्वारा सामूहिक रूप से स्तरों के उन्नयन के लिए प्रयत्न किये जाने चाहिए।


शिक्षक स्तर व सेवा शर्तों सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Teacher's Status and Service Conditions)


आयोग के सभी सदस्य तत्कालीन अध्यापक को करुणाजनक स्थिति से परिचित थे। अत उनकी यह दृढ़ धारणा थी कि जब तक शिक्षक की स्थिति में समुन्नति नहीं की जाएगी तब तब सुयोग्य व्यक्ति शिक्षण व्यवसाय की ओर आकर्षित नहीं होगें। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आयोग का विचार था कि "शिक्षकों की आर्थिक, सामाजिक एवं व्यावसायिक स्थिति का समुन्नत बनाने और प्रतिभाशाली तरुण व्यक्तियों को शिक्षण व्यवसाय के प्रति पुनः आकर्षित करने के लिए सघन एवं सतत् प्रयासों की आवश्यकता है। "


Intensive and Continuous efforts are necessary to raise the economic, social and professional status of teachers and to feed back talented young persons into the profession. -Education Commission report, p. 617


आयोग ने शिक्षकों के स्तर उन्नयन हेतु सर्वप्रथम उन्हें उच्च सामाजिक, आर्थिक व व्यावसायिक स्तर प्रदान करने हेतु, उनके वेतनक्रमों में सुधार की संस्तुति की, इन संस्तुतियों के साथ-साथ आयोग ने शिक्षकों के स्तर के उन्नयन हेतु निम्न सुझाव भी दिये-


1. केन्द्र सरकार द्वारा सभी शिक्षकों के लिए समुचित वेतनमान निर्धारित किये जायें तथा सभी नियमित शिक्षकों को सरकारी कर्मचारियों के समान मँहगाई भत्ता दिया जाना चाहिए।


2. सरकारी तथा गैर-सरकारी अनुदान प्राप्त विद्यालयों के शिक्षकों के वेतनमान समान होने बाहिए।


3. सभी वेतन दरों का समय-समय पर कम-से-कम पाँच वर्ष में एक बार तो अवश्य ही पुनर्निरीक्षण होना चाहिए।


4. ऊपर दिये गये वेतनमानों में शहरों में मिलने वाला प्रतिमाह निर्वाह भत्ता या अन्य भत्ते शामिल नहीं किये गये हैं। ये भत्ते ऊपर बताये गये वेतनमान के अतिरिक्त होंगे, जो समानता के अधिनियम के आधार पर मिलने चाहिए।


5. उक्त वेतन दरें सभी सरकारी, स्थानीय स्वायत्त निकायों और निजी संस्थाओं के स्कूलों के स्वायत्त निकायों और अध्यापकों को दी जायेंगी।


6. शिक्षक के रूप में योग्य व्यक्तियों की ही नियुक्ति की जायेगी तथा उनकी अतिरिक्त योग्यता हेतु उन्हें अधिक वेतन दिया जाय।


7. शिक्षकों की पदोन्नति उनकी योग्यता व कुशलता के आधार पर की जानी चाहिए। विशेष रूप से योग्य शिक्षकों को उनकी योग्यता के अनुरूप शिक्षण कार्य करने के अवसर दिये जाने चाहिए।


शिक्षण कार्य की दशायें व सेवा शर्तों पर सुझाव (SUGGESTIONS ON TERMS OF SERVICE AND TEACHING WORK)


आयोग के अनुसार तात्कालिक समय में प्रत्येक राज्य में अध्यापकों की कार्य की दशाओं और सेवा की शर्तों में अनिश्चितता है। अध्यापक अनिश्चित भविष्य के कारण अपने व्यवसाय के प्रति न्याय नहीं कर पाते। इसलिए आयोग ने अध्यापकों हेतु उचित कार्य दशाओं का निर्धारण व सेवा शर्तों सम्बन्धी निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-


1. सभी नियमित शिक्षकों को (सरकारी तथा अनुदान प्राप्त) को भविष्यनिधि, पेंशन एवं बीमा (त्रिमुखी लाभ) आदि की सुविधायें दी जानी चाहिए।


2. सरकारी तथा अनुदान प्राप्त विद्यालयों के शिक्षकों की सेवाशर्तों में अन्तर नहीं होना चाहिए।


3. शिक्षकों को प्रत्येक 5 वर्ष में एक बार पर्यटन के लिए एल. टी. सी. (किराया भत्ता) या रियायती रेलवे पास की व्यवस्था करायी जानी चाहिए।


4. कक्षा-शिक्षण के घण्टों के साथ-साथ सहगामी क्रियाओं के लिए भी अध्यापकों से कार्य लिया जाय, परन्तु यह ध्यान रहे कि उन पर कार्य का भार अधिक न हो।


5. शिक्षकों को अपनी व्यावसायिक उन्नति करने के लिए उपयुक्त सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए।


6. महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों के क्रमश: 25 व 50 प्रतिशत शिक्षकों को आवास-सुविधा दी जाय।


7. शिक्षकों को सभी नागरिक अधिकारों का उपयोग करने की स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए तथा उन पर किसी प्रकार के निर्वाचनों में भाग लेने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए।


8. शिक्षकों की ट्यूशन पर रोक लगानी चाहिए।


9. शिक्षक के रूप में कार्य करने हेतु स्त्रियों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।


10. ग्रामीण क्षेत्रों में महिला अध्यापकों के निवास की व्यवस्था आवश्यक है।


11. आदिवासी क्षेत्रों में काम करने वाले अध्यापकों को विशेष भत्ता, आवास व बच्चों की शिक्षा व्यवस्था व उनके लिए विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए।


शिक्षक शिक्षा सम्बन्धी आयोग के सुझाव (Suggestions Regarding Teacher Education)


आयोग के अनुसार शिक्षा में गुणात्मक सुधार के लिए यह आवश्यक है, कि अध्यापकों के व्यावसायिक प्रशिक्षण हेतु एक समुचित कार्यक्रम हो। आयोग ने अध्यापकों की व्यावसायिक शिक्षा के महत्व को दर्शाते हुए लिखा है-" शिक्षा की गुणात्मक उन्नति के लिए अध्यापकों की व्यावसायिक शिक्षा का ठोस कार्यक्रम अनिवार्य है।"


"A sound programme of professional education of teachers is essential for the qualitative improvement of education." Education Commission Report, p.67


अतः आयोग ने अध्यापक शिक्षा पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया तथा अध्यापकों की शिक्षा के सम्बन्ध में कुछ सिफारिशें देने से पूर्व तत्कालीन दोषों पर भी ध्यान दिया। आयोग के मतानुसार अध्यापक शिक्षा के प्रमुख दोष इस प्रकार हैं-


1. प्रशिक्षण संस्थाओं के स्तर में गिरावट का कारण योग्य अध्यापकों का अभाव है।


2. प्रशिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रमों में नवीनता, सजीवता व वास्तविकता का अभाव है, क्योंकि इन संस्थाओं में दिया जाने वाला प्रशिक्षण अधिकांश रूप से परम्परागत है।


3. इन प्रशिक्षण संस्थाओं में सिखाई जाने वाली शिक्षण पद्धतियों अत्यन्त प्राचीन होने के कारण वर्तमान उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक नहीं हैं।


4. माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षकों को प्रशिक्षिण देने वाली संस्थाओं का इन विद्यालयों की दैनिक समस्याओं और विश्वविद्यालय के साहित्यिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है।


इन्हीं सब दोषों को उजागर करते हुए आयोग ने इनके निराकरण हेतु महत्वपूर्ण सुझाव दिये, जो इस प्रकार हैं-


1. शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम में अलगाव (Isolation in Teacher's Training Programme)


आयोग के मतानुसार दोनों स्तरों की शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाएँ एवं उनके कार्यक्रम सामान्य शिक्षा संस्थाओं और उनके कार्यक्रमों से भिन्न थे, अतः वे अलग-थलग से प्रतीत होते थे। उनमें क्रमिक सम्बन्ध स्थापित करने हेतु आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये-


1. 'शिक्षा' विषय को विश्वविद्यालयों के बी. ए. व एम. ए. के पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाना चाहिए।


2. प्रत्येक राज्य में 'राज्य शिक्षक शिक्षा बोर्ड' (State Board of Teacher Education) को स्थापना की जाए, जो सभी स्तर के शिक्षकों के प्रशिक्षण एवं उनके कार्यक्रमों हेतु उत्तरदायी हो।


3. सभी प्रशिक्षण संस्थाओं में 'प्रसार सेवा विभाग' (Extension Service Department) का निर्माण किया जाना चाहिए।


4. सभी शिक्षण प्रशिक्षण संस्थाओं को 'शिक्षक प्रशिक्षण कॉलेज' या ट्रेनिंग कॉलेज कहा जाए, ताकि शिक्षण संस्थाओं की पृथकता का अन्त हो सके।


5. सभी राज्यों में 'कॉम्प्रीहेन्सिव कॉलेजों' (Comprehensive Colleges) की स्थापना की जाय तथा उनमें शिक्षा के विभिन्न स्तरों के लिए अध्यापकों को प्रशिक्षण दिया जाय।


6. कुछ चुने हुए विश्वविद्यालयों में 'शिक्षा स्कूल' (School of Education) स्थापित किये जाएँ, जिनमें शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम चलाए जाएँ और साथ ही शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में अनुसन्धान कार्य चलाए जाएँ।


7. शिक्षण अभ्यास हेतु मान्यता प्राप्त स्कूल ही चुने जाएँ, और चुने हुए स्कूलों को राज्य द्वारा 'सहकारी स्कूल' (Co-operating Schools) की मान्यता दी जाए और इन्हें साज सज्जा हेतु विशेष सहायता अनुदान दिया जाए।


8. समय-समय पर शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं और सहकारी स्कूलों में अध्यापकों का आदान-प्रदान किया जाए।


2. शिक्षक शिक्षा के स्तर में गिरावट (Decline in the Level of Teacher Education)


आयोग के मतानुसार तत्कालीन प्राथमिक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं और माध्यमिक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं दोनों का स्तर बहुत निम्न था। अतः शिक्षक शिक्षा में गुणात्मक सुधार हेतु


आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये-


1. प्राथमिक शिक्षक प्रशिक्षण के स्तर को बनाए रखने का उत्तरदायित्व 'राज्य शिक्षक शिक्षा बोर्ड' (State Board of Teacher Education) का होना चाहिए और माध्यमिक शिक्षक प्रशिक्षण के स्तरमान को बनाए रखने का उत्तरदायित्व विश्वविद्यालयों का होना चाहिए।


2. ट्रेनिंग कॉलेजों के अध्यापकों के पास शिक्षा की उपाधि (Degree in Education) के अतिरिक्त दो स्नातकोत्तर उपाधियाँ (Post Graduate Degrees) होनी चाहिए।


3. इन कॉलेजों के अध्यापकों में 'डॉक्टर' (Doctorate) की उपाधियों वाले शिक्षकों की संख्या उचित अनुपात में होनी चाहिए।


4. प्राथमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण की अवधि 2 वर्ष होनी चाहिए और माध्यमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण की अवधि फिलहाल तो । वर्ष की रहे, परन्तु आगे चलकर इसे 2 वर्ष की कर देना चाहिए। एक वर्ष में कार्य दिवसों की संख्या कम-से-कम 230 दिन होनी चाहिए।


5. माध्यमिक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं में प्रशिक्षणार्थियों को उन्हीं स्कूली विषयों में शिक्षण अभ्यास कराया जाए, जिनका अध्ययन उन्होनें स्नातक स्तर पर अवश्य किया हो।


6. शिक्षण अभ्यास एवं अन्य प्रायोगिक कार्यों के आन्तरिक मूल्यांकन को वस्तुनिष्ठ बनाया जाए।


7. शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण योग्य छात्र-छात्राओं को प्रवेश दिया जाये और योग्य व्यक्तियों को इस ओर आकर्षित करने के लिए शिक्षक प्रशिक्षण निःशुल्क किया जाए और प्रशिक्षणार्थियों को छात्रवृत्तियाँ भी दी जाएँ। यदि सम्भव हो तो छात्राध्यापकों से किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाना चाहिए।


8. वर्तमान प्रशिक्षण संस्थाओं के पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं आदि में सुधार किया जाना चाहिए तथा अप्रशिक्षित शिक्षकों को प्रशिक्षण देने के लिए 'ग्रीष्मकालीन संस्थाओं' (Summer Institutes) की योजना आरम्भ की जानी चाहिए।


3. प्रशिक्षण सुविधाओं का असन्तुलित विस्तार (Unbalanced Expansion of Training Facilities)


आयोग ने प्रशिक्षण-सुविधाओं का विस्तार करने के उद्देश्य से निम्नांकित विचार य किये हैं-


1. प्रशिक्षण संस्थाओं के आकार में एक निश्चित योजना के अनुसार पर्याप्त विस्तार किया जाना चाहिए।


2. प्रत्येक राज्य अपने क्षेत्र में शिक्षकों को वर्तमान और भविष्य की माँग के आधार पर प्राथमिक शिक्षक प्रशिक्षण और माध्यमिक शिक्षक प्रशिक्षण कॉलेजों की स्थापना करें।


3. कार्यरत अप्रशिक्षित शिक्षकों के लिए, अध्यापन कार्य करते हुए अंशकालीन पाठ्यक्रम व पत्राचार पाठ्यक्रम की सुविधायें दी जायें।


4. अन्तर्सेवा प्रशिक्षण का अभाव (Lack of Inservice Training)- आयोग ने देखा कि उप समय देश में कार्यरत प्रशिक्षित शिक्षकों को नए-नए शैक्षिक प्रयोगों एवं तकनीकों से अवगत कराने हेतु अन्तर्सेवा प्रशिक्षण (Inservice Training) की व्यवस्था नहीं थी।


इस सम्बन्ध में आयोग ने निम्न सुझाव दिये-


1. किसी भी स्तर के शिक्षकों के लिए हर पाँच वर्ष बाद अन्तर्सेवा प्रशिक्षण की व्यवस्था को जानी चाहिए।

2. अन्तर्सेवा प्रशिक्षण शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं के साथ-साथ विश्वविद्यालयों में भी दिया जाना चाहिए।

3. जहाँ तक सम्भव हो ग्रीष्मकालीन संस्थाओं में भी शिक्षकों के अन्तर्सेवा प्रशिक्षण को व्यवस्था की जाय।


शैक्षिक अवसरों की समानता सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Equalization of Educational Opportunities)


आयोग के अनुसार तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था में दो प्रकार की असमानतायें व्याप्य थर्थी-एक शिक्षा


के विभिन्न स्तरों पर बालक-बालिकाओं की शिक्षा में असमानता और दूसरी उच्च वर्ग, पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति वर्ग और पिछड़े क्षेत्रों में रहने वालों की शिक्षा में असमानता, जबकि लोकतन्त्रीय समाज में सबको शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर उपलब्ध होने चाहिए। आयोग के शब्दों में "शिक्षा का एक महत्वपूर्ण सामाजिक उद्देश्य - शिक्षा प्राप्त करने के अवसरों में समानता स्थापित करना है. ताकि पिछड़े हुए या कम अधिकारों वाले वर्ग एवं व्यक्ति अपनी दशा में सुधार करने के लिए शिक्षा को साधन के रूप में प्रयोग कर सकें।" अतः आयोग ने इन असमानताओं को दूर करने हेतु व सभी को शैक्षिक अवसरों की समानता सुलभ कराने हेतु निम्न सुझाव दिये-


1. कक्षा 1 से 8 तक की शिक्षा सभी के लिए निःशुल्क हो। चौथी पंचवर्षीय योजना के अन्त से प्राथमिक शिक्षा, पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के अन्त तक या उससे पूर्व निम्न माध्यमिक शिक्षा तथा इस योजना के अन्त से 10 वर्ष की अवधि में उच्चतर माध्यमिक एवं विश्वविद्यालय की शिक्षा को योग्य व निर्धन छात्रों के लिए निःशुल्क कर दिया जाए।


2. प्राथमिक स्तर पर बच्चों को पाठ्यपुस्तकें व लेखन सामग्री भी निःशुल्क दी जाए।


3. माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा संस्थाओं के पुस्तकालयों में पाठ्यपुस्तकें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराई जायें तथा योग्य व निर्धन छात्रों को पुस्तकें खरीदने हेतु आर्थिक मदद दी जाए। इसके साथ ही माध्यमिक व उच्च शिक्षा स्तर पर बुक बैंक योजना चालू की जाए।


4. निम्न प्राथमिक स्तर के बाद शिक्षा के सभी स्तरों पर छात्रवृत्तियाँ दी जायें। उच्चतर प्राथमिक स्तर पर सन् 1975-76 तक 2.5 प्रतिशत प्रतिभाशाली बालकों को और सन् 1985-86 तक 5 प्रतिशत योग्य छात्रों को छात्रवृत्तियाँ दी जायें।


5. माध्यमिक स्तर पर 15% प्रतिभाशाली छात्रों को छात्रवृत्तियाँ दी जानी चाहिए।


6. पूर्व स्नातक स्तर पर सन् 1975-76 तक 15% योग्य छात्रों को और सन् 1985-86 तक 25 प्रतिशत योग्य छात्रों को छात्रवृत्तियाँ दी जानी चाहिए।


7. स्नातकोत्तर स्तर पर सन् 1975-76 तक 25% छात्रों को और सन् 1985-86 तक 50 प्रतिशत योग्य छात्रों को छात्रवृत्तियाँ दी जानी चाहिए।


8. विश्वविद्यालय स्तर पर भी दो प्रकार की छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की जानी चाहिए (1) छत्रावासों में रहकर कॉलेज या विश्वविद्यालय से अध्ययन करने वाले छात्रों को इतना धन दिया जाय, जिससे वे शिक्षा से सम्बन्धित सम्पूर्ण प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष व्यय को पूरा कर पायें।


9. व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं में सामान्य शिक्षा संस्थाओं की अपेक्षा अधिक छात्रवृत्तियाँ दी जायें तथा अत्यधिक कुशाग्र बुद्धि व प्रतिभावान छात्रों को विदेशों में अध्ययन के लिए भेजा जाय।


10. माध्यमिक स्तर तक की छात्रवृत्तियों का वित्तीय भार राज्य सरकारों पर होना चाहिए और उच्च स्तर के छात्रों को दी जाने वाली छात्रवृत्तियों का वित्तीय भार केन्द्र सरकार को वहन करना चाहिए। 


11. लड़कियों को लड़कों के समान किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर उपलब्ध कराये जायें व इस दिशा में आवश्यकतानुसार स्कूलों की व्यवस्था भी की जाय।


12. पिछड़े वर्ग के बच्चों के लिए वर्तमान सुविधाओं को जारी रखने के साथ ही कबीलों के बच्चों की शिक्षा के लिए चलित विद्यालयों (Running Schools) की व्यवस्था करके कबीले के व्यक्तियों को ही शिक्षित व प्रशिक्षित करके शिक्षक नियुक्त किया जाय।


स्त्री शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा व समाज शिक्षा सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Women Education, Adult Education and Social Education)


आयोग के अनुसार बच्चों के चरित्र निर्माण, परिवारों की उन्नति व राष्ट्रीय मानव संसाधनों के विकास के लिए स्त्रियों की शिक्षा पुरुषों की शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण है। अत: स्त्री शिक्षा के प्रसार व उन्नयन के लिए विशेष प्रयास किये जाने चाहिए। सर्वप्रथम स्त्री शिक्षा सम्बन्धी आयोग के सुझाव निम्न हैं-


1. बालिकाओं की प्राथमिक शिक्षा का अधिक से अधिक विस्तार करने के साथ ही माध्यमिक स्तर पर भी बालिकाओं की शिक्षा के विस्तार की गति इतनी तीव्र कर दी जाय, कि 20 वर्ष के अन्त में निम्न माध्यमिक स्तर पर बालिकाओं तथा बालकों की संख्या का अनुपात 1:3 और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर 12 हो जाय।


2. बालिकाओं के लिए पृथक विद्यालयों व छात्रावासों और छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की जाय तथा जहाँ महिलाओं की उच्च शिक्षा की अधिक माँग हो, वहाँ अलग से महिला महाविद्यालय स्थापित किये जायें।


3. बालिकाओं को शिक्षा हेतु, शिक्षा, गृह-विज्ञान व सामाजिक कार्य (Social Work) के पाठ्य विषयों का विस्तार करके उनको समुन्नत बनाया जाय।


4. माध्यमिक स्तर पर बालिकाओं को भी विज्ञान या गणित का अध्ययन करने के लिए विशेष प्रोत्साहन दिया जाय तथा संगीत व कलाओं की शिक्षा देने हेतु भी उचित व्यवस्था की जाय।


5. स्त्रियों के लिए पत्राचार पाठ्यक्रमों की व्यवस्था व प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम में स्त्रियों को शिक्षा पर विशेष ध्यान रखा जाय।


प्रौढ़ एवं समाज शिक्षा सम्बन्धी सुझाव (SUGGESTIONS REGARDING ADULT AND SOCIETY EDUCATION)


आयोग ने प्रौढ़ शिक्षा को अत्यन्त व्यापक रूप में लेते हुए इसके लिए एक व्यापक योजना प्रस्तुत की तथा प्रौढ़ शिक्षा सम्बन्धी सुझावों को 4 वर्गों में बाँटा है-


1. प्रौढ़ शिक्षा का स्वरूप,

2. प्रौढ़ शिक्षा का प्रशासन व संगठन,

3. प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था,

4. प्रौढ़ शिक्षा की निरन्तरता।


प्रौढ़ शिक्षा के प्रशासन व संगठन के बारे में आयोग का विचार था कि प्रान्तों में प्रौढ़ शिक्षा के लिए अलग से विभाग होना चाहिए। केन्द्र में प्रौढ़ शिक्षा सम्बन्धी नीति और योजनाओं का निर्माण करने, केन्द्र व प्रान्तीय सरकारों को प्रौढ़ शिक्षा सम्बन्धी परामर्श देने, उपयुक्त साहित्य व सामग्री का निर्माण करने व शिक्षा की प्रगति का लेखा-जोखा रखने व शोध कार्य करने हेतु, 'राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा बोर्ड' (National Board of Adult Education) की स्थापना की जाय तथा केन्द्र की ही भाँति प्रत्येक प्रान्त में 'राज्य प्रौढ़ शिक्षा बोर्ड' (State Board of Adult Education) की स्थापना की जाय। जिले व ग्राम स्तरों पर 'प्रौढ़ शिक्षा समितियों' का गठन किया जाय व इस क्षेत्र में कार्यरत स्वयं सेवी


आयोग ने निम्न सुझाव दिये


1. संस्थाओं को भी प्रोत्साहन दिया जाय व उन्हें आर्थिक सहायता दी जाय। प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था हेतु 15 से 30 आयु वर्ग के निरक्षर प्रौढ़ों की शिक्षा के लिए प्राथमिक विद्यालयों को सामुदायिक केन्द्र (Community Centre) बनाया जाय तथा यहाँ विद्यालयी समय के पहले अथवा बाद में प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम चलाए जाए।


2. प्रौढ़ शिक्षा के प्रसार व उन्नयन के लिए विश्वविद्यालयों का सहयोग लिया जाय तथा प्रौढ़ शिक्षा विभाग खोले जायें, जो शिक्षा हेतु साहित्य, शिक्षक व अन्य सामग्री तैयार करें तथा प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम चलायें व शोध कार्य करें।


3. ग्रामीण निरक्षर महिलाओं को साक्षर बनाने हेतु ग्राम सेविकाओं का सहयोग लिया जाय तथा सामान्य महिलाओं को साक्षर बनाने हेतु 'केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड' द्वारा संक्षिप्त पाठ्यक्रम की व्यवस्था की जाय।


4. आयोग ने यह भी स्पष्ट किया कि प्रौढ़ शिक्षा प्राप्त अधिकतर प्रौढ़ कुछ वर्ष बाद सब कुछ भूल जाते हैं। अतः प्रौढ़ शिक्षा की निरन्तरता बनाये रखने हेतु अनुसरण कार्यक्रम (Follow up Programme) चलाये जाएँ। पुस्तकालयों व वाचनालयों की व्यवस्था के अलावा सचल पुस्तकालयों की व्यवस्था की जाय, तथा इन पुस्तकालयों व वाचनालयों में क्षेत्र विशेष के व्यक्तियों की कवि, और आवश्यकतानुसार साहित्य उपलब्ध कराया जाए।


जो प्रौढ़ अल्पकालीन शिक्षा का लाभ न उठा सकें उनके लिए अल्पकालीन पाठ्यक्रम के अतिरिक्त पत्राचार पदकालीन शिक्षा का लाभ उठा सकें जायें। इन सभी कायों के लिए जनसंचार के साधनों का प्रयोग किया जाय। 


कोठारी आयोग के सुझावों व संस्तुतियों का मूल्यांकन (EVALUATION OF SUGGESTIONS & RECOMMENDATIONS AND SUGGESTION OF KOTHARI COMMISSION)


शिक्षा आयोग का भारतीय शिक्षा के इतिहास में अभूतपूर्व स्थान है, क्योंकि आयोग ने देश की वर्तमान शिक्षा प्रणाली को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में परिवर्तित व परिवर्धित करने को सिफारिश करके शिक्षा को अत्यन्त व्यावहारिक व उपयोगी बनाने का प्रयास किया है। कुछ विद्वानों ने आयोग के कुछ सुझावों एवं संस्तुतियों के सम्बन्ध में आयोग की आलेचना की है।


अत: आयोग के गुण/विशेषताओं और दोष/सीमाओं का विवेचन आवश्यक है और इन विशेषताओं व दोषों का विवेचन/मूल्यांकन हम भारत की आज की परिस्थितियों और भविष्य की आवश्यकताओं के आधार पर करेंगे।


कोठारी आयोग (राष्ट्रीय शिक्षा आयोग) के गुण (Characteristics of Kothari Commission)


आयोग के सुझावों व संस्तुतियों के आधार पर निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टव्य हैं-


1. कोठारी आयोग ने केन्द्र में सशक्त प्रशासनिक ढाँचे और प्रान्तों में समान प्रशासनिक ढाँचे का सुझाव देते हुए शिक्षा की एक समान संरचना प्रस्तुत की, जो लोकतन्त्रीय भारत के लिए उत्तम सुझाव था और इससे देश की भावी शिक्षा में समरूपता आयेगी।


2. आयोग ने क्रमिक व समयबद्ध शैक्षिक नियोजन के आधार पर वर्तमान और भविष्य की माँगों के आधार पर राष्ट्रीय लक्ष्यों व उपलब्ध संसाधनों के आधार पर 20 वर्षों के अन्दर 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा योजना, माध्यमिक स्तर पर प्रवेश लेने वाले 70% सामान्य बच्चों के लिए मध्यम स्तर की शिक्षा पूर्ण करने और इनमें से भी योग्य व सक्षम बच्चों हेतु उच्च शिक्षा की व्यवस्था करने का सुझाव दिया।


3. आयोग ने समय की मांग को देखते हुए शिक्षा के अभिनव उद्देश्यों का निर्धारण किया तथा शिक्षा को उत्पादन व रोजगरपरक बनाने हेतु शिक्षा के व्यवसायीकरण पर जोर दिया।


4. उच्च शिक्षा के विस्तार पर रोक व उन्नयन पर बल दिया।


5. आयोग ने क्षेत्र की आवश्यकतानुसार व्यावसायिक व तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था करने, पाठ्यक्रम को अद्यतन बनाने व सैद्धान्तिक ज्ञान की अपेक्षा प्रायोगिक प्रशिक्षण पर जोर दिया।


6. आयोग ने शिक्षकों की स्थिति में सुधार करने हेतु, उनके वेतनमान, पदोन्नति, कार्य एवं सेवा दशाओं आदि के विषय में महत्वपूर्ण संस्तुतियाँ प्रस्तुत करके शिक्षकों की समाजिक व आर्थिक स्थिति में सुधार करने का प्रयास किया।


7. आयोग ने शिक्षक शिक्षा के सम्बन्ध में उपयोगी सुझाव व संस्तुतियाँ प्रस्तुत करके शिक्षक शिक्षा में सुधार लाने का प्रयास किया।


8. देश के आधुनिकीकरण हेतु विज्ञान शिक्षा की आवश्यकता व उच्च शिक्षा व वैज्ञानिक अनुसंधान पर अधिक व्यय करने का सुझाव दिया। इन्हीं सुझावों के अनुपालन से हमारा देश औद्योगिक क्षेत्र में उन्नति करने के साथ ही अन्तरिक्ष विज्ञान में भी आगे बढ़ रहा है।


9. आयोग ने विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में नामांकन हेतु राष्ट्रीय नामांकन नीति बनाने का सुझाव दिया था। इसके लिए आयोग ने विभिन्न प्रकार की छात्रवृत्तियों को दिए जाने की सिफारिश की।


10. आयोग ने विकलांग बच्चों की शिक्षा, पिछड़े वर्गों की शिक्षा और जनजातीय लोगों की शिक्षा के लिए विशेष सुझाव दिए ताकि वे भी सम्मान के साथ आगे बढ़ सकें।


11. आयोग ने स्कूल स्तर पर भाषाओं के अध्ययन हेतु संशोधित त्रिभाषा सूत्र प्रस्तुत किया था. जिससे भाषा समस्या का समुचित निदान किया जा सका।


12. आयोग ने उच्च शिक्षा में भी क्षेत्रीय भाषाओं को शिक्षण का माध्यम बनाने का सुझाव देकर अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व को कम करने का प्रयास किया।


13. आयोग ने विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में निर्देशन व परामर्श सेवाओं को व्यवस्था करने का सुझाव देकर छात्र-छात्राओं की विभिन्न समस्याओं के समाधान हेतु मार्ग प्रशस्त किया। 


14. आयोग ने मूल्यांकन की विधियों में सुधार करने का सुझाव देकर परीक्षा प्रणाली को दोषमुक्त बनाने का प्रयास किया।


15. आयोग ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को सशक्त बनाने का सुझाव दिया व इसे उच्च शिक्षा के लिए समस्त प्रतिनिधित्व करने की संस्तुति की।


16. आयोग ने स्पष्ट किया कि भारत की 70% जनता कृषि पर निर्भर होने के कारण कृषि को कार्यानुभव में विशेष स्थान दिये जाने की अनुशंसा करते हुए पॉलिटेक्निक कॉलेजों में कृषि की शिक्षा को व्यवस्था व महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों के कृषि को उच्च शिक्षा व शोध कार्य की व्यवस्था का सुझाव दिया, जो इस देश के लिए वरदान साबित हुआ।


17. उच्च शिक्षा में भीड़ को रोकने के लिए चयनात्मक प्रवेश प्रणाली अपनाने की संस्तुति की।


18. आयोग ने इंजीनियरिंग शिक्षा को सुदृढ़ बनाने हेतु विशेष सुझाव दिया तथा विज्ञान के क्षेत्र में मौलिक अनुसंधान कार्य को प्रोत्साहित करने के लिए उपयोगी सुझाव दिये।


19. आयोग ने प्रौढ़ शिक्षा का व्यापक स्वरूप व उचित योजना प्रस्तुत करते हुए-निरक्षर प्रौढ़ों को साक्षर बनाना, साक्षर प्रौढ़ों को साक्षर बनाए रखना व अपनी शैक्षिक योग्यता बढ़ाने के अवसर देना आदि सुझाव दिये। साथ ही इस प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम को सफल बनाने हेतु शिक्षित युवक-युवतियों, शिक्षक-शिक्षार्थियों, ग्राम सेविकाओं, समाज कल्याण विभाग और समाज सेवी संगठनों का सहयोग लेना, विद्यालयों को सामुदायिक केन्द्र बनाना, पत्राचार पाठ्यक्रम की व्यवस्था करना, स्थायी व सचल पुस्तकालयों की व्यवस्था करना; जैसे- ठोस सुझाव भी दिये।


20. आयोग ने शैक्षिक अवसरों की समानता पर बल देते हुए स्त्री-पुरुष हेतु समान पाठ्यक्रम, पिछड़े, अनुसूचित आदिवासी और पहाड़ी बच्चों के लिए विशेष आर्थिक सहायता व प्राथमिक शिक्षा को निःशुल्क बनाने, माध्यमिक, उच्च व व्यावसायिक शिक्षा में छात्रवृत्तियों की व्यवस्था करने पर बल दिया।


इन सभी संस्तुतियों का भारत की शिक्षा व्यवस्था पर व्यापक प्रभाव पड़ा, परन्तु भारत अपनी कुछ हसामाजिक, आर्थिक तथा योजनागत कमजोरियों के कारण इन सुझावों का पूरा लाभ नहीं उठा सका।


सीमाएँ (Limitations)


1. आयोग ने प्राथमिक व माध्यमिक स्तर पर शिक्षा के संगठनात्मक स्वरूप को निर्धारित करते हुए कक्षा ।। व 12 के सम्बन्ध में अस्पष्ट सुझाव दिये। यह स्पष्ट नहीं हो सका कि पहले से प्रवलित कक्षा-12 को माध्यमिक शिक्षा में लिया जाना है अथवा उसे विश्वविद्यालयी शिक्षा का अंग मानना है।


2. आयोग द्वारा प्रस्तुत शिक्षा संरचना उलझी हुई व अस्पष्ट है। यही कारण है कि अगली राष्ट्रीय शिक्षा नीति सन् 1986 में 10+2+3 की समान शिक्षा संरचना घोषित की गयी।


3. आयोग द्वारा प्रस्तावित प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा के सुझाव भ्रामक प्रतीत होते हैं, क्योंकि कहीं माध्यमिक शिक्षा के व्यावसायीकरण की बात कहीं गई है, तो कहीं विशिष्टीकरण की बात उच्चतर माध्यमिक स्तर पर की गई है, कहीं माध्यमिक स्तर पर त्रिभाषा सूत्र अपनाने की बात कही गई है, तो कहीं इस स्तर पर अंग्रेजी, रूसी व फ्रेंच भाषाओं को शिक्षा की व्यवस्था की बात कही गई है, जिसके कारण इनके सुझावों में पंचमेल (खिचड़ी) की भावना निहित/प्रतीत होती है।


4. आयोग द्वारा प्रस्तावित, शिक्षकों के वेतनमान और कार्य एवं सेवा दशाओं की संस्तुतियाँ शिक्षकों के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हुईं।


5. आयोग ने सामान्य शिक्षा व उच्चशिक्षा में एक ओर तो राष्ट्रीय नामांकन नीति निर्धारित को। वहीं दूसरी ओर चयनात्मक प्रवेश प्रणाली की सिफारिश करके सभी छात्रों हेतु उच्च शिक्षा के दरवाजे बन्द करने का भी प्रावधान कर दिया।


6. आयोग की अधिकांश सिफारिशें आदर्शवादी व अव्यावहारिक होने के कारण भी इनका क्रियान्वयन संभव न हो सका। उदाहरणार्थ आयोग द्वारा देश में वरिष्ठ विश्वविद्यालय की स्थापना एवं विश्वविद्यालय शिक्षा के उन्नयन सम्बन्धी प्रदत्त सुझाव धन के अभाव में क्रियान्वित न हो सके। इसी कारण स्त्री शिक्षा से सम्बन्धित सुझाव भी स्त्री शिक्षा का विशेष विकास नहीं कर सके।


7. आयोग ने भाषा समस्या के समाधान हेतु, जो त्रिभाषा सूत्र प्रस्तुत किया उससे भी भाषा समस्या का सर्वमान्य हल नहीं निकल सका। इसके साथ ही संस्कृत भाषा की उपेक्षा भी हुई।


8. आयोग द्वारा निर्धारित शैक्षिक लक्ष्य एकतरफा प्रतीत होते हैं, क्योंकि इनके द्वारा प्रयोगवादी उत्पादन प्रधानता पर तो ध्यान दिया गया, परन्तु शिक्षा के शाश्वत् मानवीय उद्देश्यों की अनदेखी कर दी, जिससे व्यक्ति केवल धन कमाने के उद्देश्य से शिक्षा प्राप्ति की ओर प्रेरित होता दिखता है।


9. आयोग द्वारा विज्ञान व प्रौद्योगिकी शिक्षा पर विशेष बल दिये जाने से बालकों का नैतिक व आध्यात्मिक विकास अवरुद्ध सा हो गया था।


अतः कोठारी आयोग की सिफारिशों का सामान्य अवलोकन करने पर मिश्रित प्रभाव सामने आता है। इसके कुछ सुझाव तो बहुत उपयोगी व श्रेष्ठ प्रतीत होते हैं, तो कुछ में गंभीर दोष दिखते है। इन गुणों व दोषों की उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि आयोग द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रौढ़ शिक्षा, शिक्षक शिक्षा, शिक्षकों के वेतनमान तथा शिक्षा की उत्पादनोन्मुखता की प्रशंसा की जा सकती है, परन्तु इसकी भाषा नीति, वरिष्ठ विश्वविद्यालयों की स्थापना तथा अस्पष्ट धारणायें आदि भारत को शिक्षा को अपेक्षित गुणवत्ता प्रदान करती नहीं प्रतीत होतीं। निष्कर्षतः कहा जा सकता है इसने भारतीय शिक्षा प्रणाली को विशेष प्रभावित नहीं किया।


राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग) के सुझावों का शिक्षा व्यवस्था पर प्रभाव [EFFECTS OF SUGGESTIONS OF NATIONAL EDUCATION COMMISSION (KOTHARI COMMISSION) ON EDUCATION SYSTEM]


राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (सन् 1964-66) की सिफारिशों के आधार पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण किया गया और उसे 24 जुलाई, 1968 ई. को घोषित कर दिया गया, जिससे इन सिफारिशों पर अमल किया जाने लगा। पूरे देश में 10+2+3 शिक्षा संरचना लागू करने के प्रयत्न शुरू हो गए और एन.सी.ई.आर.टी. (N.C.E.R.T.) ने प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा के लिए आधारभूत पाठ्यचर्या तैयार की जिसमें त्रिभाषासूत्र के आधार पर तीन भाषाओं का अध्ययन, देश के आधुनिकीकरण हेतु विज्ञान, गणित का अध्ययन और माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा की शुरुआत करने के लिए कार्यानुभव को अनिवार्य किया गया और कुछ प्रान्तों में इस आधार पर प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा की पाठ्यचयां का निर्माण कर उसे चालू किया गया।


कुछ प्रान्तों में +2 पर अनेक प्रकार के व्यावसायिक पाठ्यक्रम भी शुरू किए गए, परन्तु उनमें सफलता न मिल सकी। उच्च शिक्षा में भी डिग्री कोर्स त्रिवर्षीय कर दिया गया। उच्च शिक्षा और व्यावसायिक, तकनीकी एवं प्रबन्ध शिक्षा के विस्तार के साथ-साथ उसके उन्नयन हेतु ठोस कदम उठाये गये। साथ ही शिक्षक शिक्षा में सुधार होने शुरू हुए और प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रम को व्यापक बनाया गया। इस आयोग ने शैक्षिक अवसरों की समानता हेतु, जो सुझाव दिये उनका अनुपालन भी शुरू हुआ और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति सन् 1986 का निर्माण भी इसी आधार पर हुआ। अतः आयोग के कुछ सुझाव व सदस्य साधुवाद के अधिकारी है।


राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (कोठारी कमीशन) की नियुक्ति व सुझाव (ESTABLISHMENT OF KOTHARI COMMISSION AND SUGGESTIONS)


स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त भारत सरकार ने अपने देश की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुसार उच्च शिक्षा के पुनर्गठन के लिए सर्वप्रथम 1948 ई. में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन किया, तत्पश्चात् सन् 1952 में माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन हेतु माध्यमिक शिक्षा आयोग गठित किया। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (राधाकृष्णन आयोग) ने विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रशासन, संगठन व स्तर को ऊँचा उठाने सम्बन्धी अपने ठोस सुझाव दिये, जिनमें से कुछ सुझावों के क्रियान्वयन द्वारा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कुछ सुधार भी हुआ, परन्तु वांछित उद्देश्य प्राप्त न हो सके।


सन् 1952 में गठित मुदालियर शिक्षा आयोग ने भी तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा के दोषों को उजागर करते हुए उसके पुनर्गठन हेतु अनेक ठोस सुझाव दिये, परन्तु इन सबसे भी वांछित आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हो सकी, क्योंकि दोनों आयोग एकांगी अर्थात् शिक्षा के एक ही पक्ष की ओर ध्यान देने वाले थे।


अतः ऐसे आयोग के गठन को आवश्यकता अनुभूत की गई जो विविध स्तरों पर शिक्षा के समस्त पहलुओं मे सम्बन्धित हो और शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन करके देश की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुरूप शिक्षा सम्बन्धी नीतियाँ, शिक्षा के राष्ट्रीय प्रतिमान एवं शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र में विकास की सम्भावनाओं पर महत्वपूर्ण एवं उपयोगी सुझाव एवं संस्तुतियाँ प्रस्तुत अतः भारत सरकार ने शिक्षा के लिए समान शिक्षा नीति को निश्चित करने के उद्देश्य से 14 जुलाई, 1964 को डॉ. डी. एस. कोठारी, जो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष थे, की अध्यक्षता में 17 सदस्यीय राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का गठन किया, ताकि दी गई अनुशंसाओं का अनुसरण करके मनुष्य के वैयक्तिक व सामाजिक विकास की दिशा सुनिश्चित की जा सके।


इसके व्यापक उद्देश्य स्वरूप और महत्व के आधार पर इसे शिक्षा आयोग 1964-66 तथा राष्ट्रीय शिक्षा आयोग 1964-66 के नाम से जाना जाता है। इस आयोग को इसके अध्यक्ष के नाम पर कोठारी आयोग भी कहा जाता है। आयोग में कुल 17 सदस्य थे, जिनमें 5 विदेशी शिक्षा विशेषज्ञ भी सम्मिलित थे।


इस आयोग ने भारत सरकार को राष्ट्रीय शिक्षा के प्रारूप को विकसित करने का सुझाव दिया, जिसके लिए निर्धारित उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए सामान्य अधिनियम व नीतियों को विकसित किया। उसके कार्यक्षेत्र को और अधिक स्पष्ट रूप में निम्न प्रकार समझा जा सकता है-


1. तत्कालीन भारतीय शिक्षा प्रणाली का गहराई से अध्ययन करना उसकी तत्कालीन कमियों व व्याप्त असन्तोष के कारणों का पता लगाना व उसमें सुधार के लिए सुझाव देना।


2. पूरे देश के लिए शिक्षा के आयोजन और प्रशासन सम्बन्धी तत्व निश्चित करना व इस सम्बन्ध में सरकार को सुझाव देना।


3. पूरे देश के लिए समान शिक्षा प्रणाली प्रस्तावित करना तथा शिक्षा में गुणात्मक सुधार लाने हेतु ऐसी शिक्षा प्रणाली का विकास करना, जो देश के सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक विकास में सहायक हो और यह प्रणाली ऐसी हो, जो भारतीय शिक्षा के परम्परागत गुणों को सुरक्षित रखते हुए वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति करे व भविष्य के निर्माण में सहायक हो।


4. पूरे देश में किसी भी स्तर की किसी भी प्रकार की शिक्षा के प्रसार एवं उसमें गुणात्मक सुधार के लिए उपायों की खोज करना व इस सम्बन्ध में सरकार को सुझाव देना। आयोग द्वारा शिक्षा के कुछ प्रमुख क्षेत्रों में दिये गये सुझाव निम्नलिखित हैं


शिक्षा के प्रशासन, वित्त व नियोजन सम्बन्धी सुझाव (SUGGESTIONS REGARDING ADMINISTRATION, FINANCE AND PLANNING)


चूंकि आयोग का कार्यक्षेत्र पूर्व प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालयी स्तर तक की शिक्षा में सकारात्मक परिवर्तन लाना था, इसलिए उसने सभी स्तरों की शिक्षा के पुनर्गठन हेतु निम्नलिखित सुझाव दिये


विद्यालयी शिक्षा के प्रशासन व निरीक्षण सम्बन्धी सुझाव (Suggestion Related to Administratin and Inspection of School Education)


(i) केन्द्र में 'राष्ट्रीय विद्यालयी शिक्षा बोर्ड' (National Board of School Education) और भारतीय शिक्षा सेवा' (Indian Education Service) का गठन किया जाय।


(ii) कक्षा 1 से कक्षा 8 तक प्राथमिक शिक्षा के दो स्तर बना दिये जायें। पहले भाग में कक्षा 1 से 5 तक तथा दूसरा भाग कक्षा 6 से 8 तक होना चाहिए।


(iii) राज्य सरकारों द्वारा राज्य शिक्षा सेवा (State Education Service) तथा 'राज्य विद्याल शिक्षा परिषद्' (State Board of School Education) का गठन किया जाना चाहिए।


(iv) देश के समस्त विद्यालयों-सरकारी, गैर-सरकारी, स्थानीय निकायों द्वारा संचालित सहायता प्राप्त, गैर-सहायता प्राप्त, की भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रबन्ध समितियों को समाप्त का 'सामान्य विद्यालय प्रबन्ध पद्धति' का विकास किया जाए और इनकी प्रबन्ध समितियों में शि विभाग के व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए।


(v) विद्यालयों में जिला विद्यालय निरीक्षक द्वारा नियमित निरीक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए।


(vi) प्रशासन से निरीक्षण कार्य को अलग रखा जाना चाहिए। जिले के विद्यालयों का प्रशासन कार्य जिला विद्यालय बोर्ड के हाथों में हो और उनके निरीक्षण का कार्य 'जिला शिक्षा अधिकारी' के हाथों में हो। परन्तु दोनों में सहयोग अवश्य होना चाहिए।


पाठ्यक्रम सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Curriculum)


आयोग ने प्राथमिक विद्यालयों के सभी स्तरों की पाठ्यचर्या निर्माण हेतु सिद्धान्त निश्चित किया। तत्पश्चात् इन सिद्धान्तों के आधार पर पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक, उच्च प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक, शिक्षा की पाठ्यचर्या की रूपरेखा प्रस्तुत की। इसके साथ ही आयोग ने त्रिभाषण सूत्र को संशोधित रूप में प्रस्तुत किया। आयोग के अनुसार विद्यालयी पाठ्यचर्या का निर्माण बेसिक शिक्षा के सिद्धान्तों (उत्पादन व सहसम्बन्ध) आदि के आधार पर किया जाय, परन्तु किसी भी स्तर को शिक्षा को बेसिक शिक्षा न कहा जाय।


प्राथमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या सरल होनी चाहिए तथा इसमें मातृभाषा और पर्यावरण के अध्ययन पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। माध्यमिक शिक्षा हेतु एक आधारभूत पाठ्यचर्या के साथ व्यावसायिक वर्ग की पाठ्यचर्या स्थानीय विशेष आवश्यकताओं पर आधारित होनी चाहिए। विशिष्टीकरण की व्यवस्था उच्च माध्यमिक स्तर पर ही की जानी चाहिए। विभिन्न स्तरों पर पाठ्यचर्या की रूपरेखा निम्नवत् है-


1. पूर्व प्राथमिक स्तर


(i) खाने व पहनने के कौशल,

(ii) सफाई,

(iii) बातचीत व सामाजिक व्यवहार,

(iv) खेलकूद,

(v) सृजनात्मक कार्य।


2. प्राथमिक स्तर


(i) मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा)

(ii) व्यावहारिक गणित

(iii) भौतिक पर्यावरण का अध्ययन

(iv) सृजनात्मक क्रियाएँ

(v) कार्यानुभव

(vi) समाजसेवा

(vii) स्वास्थ्य शिक्षा, खेलकूद व व्यायाम आदि।


3. उच्च प्राथमिक अथवा निम्न माध्यमिक स्तर


(i) मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा)

(ii) हिन्दी अथवा अंग्रेजी

(iii) गणित

(iv) विज्ञान

(v) सामाजिक अध्ययन

(vi) कला

(vii) कार्यानुभव (शिल्पकार्य)

(viii) समाज सेवा

(ix) स्वास्थ्य शिक्षा

(x) धार्मिक शिक्षा।


4. माध्यमिक स्तर


(i) मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा)

(ii) हिन्दी अथवा कोई अन्य संघीय भाषा

(iii) कोई यूरोपीय भाषा

(iv) गणित

(v) सामान्य विज्ञान

(vi) सामाजिक विज्ञान

(vii) कला

(viii) कार्यानुभव (कृषि कार्य आदि)

(ix) समाज सेवा

(x) स्वास्थ्य शिक्षा

(xi) नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा।


5. उच्चतर माध्यमिक स्तर


(i) व (ii) आधुनिक भारतीय संघीय भाषा, आधुनिक विदेशों भाषा तथा शास्त्रीय भाषा में से कोई दो भाषाएँ

(iii) तीसरी भाषा, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, कला, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, गणित, जीवविज्ञान, अर्थशास्त्र व ग्रहविज्ञान में से कोई तीन विषय, इसके अतिरिक्त (vi), (vii), व (viii) विषय अन्तर्गत कार्यानुभव, समाज सेवा व स्वास्थ्य शिक्षा होंगे।


6. त्रिभाषा सूत्र का संशोधित स्वरूप


आयोग ने प्रस्तावित त्रिभाषा सूत्र में संशोधन कर उसे निम्नलिखित रूप में लागू करने का सुझाव दिया


(i) मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा अथवा प्रादेशिक भाषा),

(ii) संघ की राज भाषा हिन्दी अथवा अंग्रेजी,

(iii) कोई आधुनिक भारतीय भाषा या कोई आधुनिक यूरोपीय भाषा या कोई शास्त्रीय भाषा, जो श्चम दो में न दी गई हो।


विद्यालयी शिक्षा की शिक्षण विधियों सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Teaching Methods in School Education)


शिक्षण विधियों के सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये-


(i) शिक्षण पद्धति में हो रहे निरन्तर परिवर्तनों के अनुसार शिक्षण विधियाँ भी लचीली, गतिशील, क्रियाप्रधान व रोचक होनी चाहिए।


(ii) शिक्षा को आधुनिक व प्रगतिशील बनाने हेतु शिक्षकों को नवीन शिक्षण विधियों के प्रयोग के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए। इस दिशा में कार्यशालाओं व संगोष्ठियों का आयोजन करना चाहिए।


(iii) शिक्षकों को शिक्षण सम्बन्धी सहायक सामग्री उपलब्ध कराने के साथ ही उचित निर्देशन भी मिलना चाहिए। इस निर्देशन प्रक्रिया में शिक्षण सहायक सामग्री निर्माण करने का प्रशिक्षण भी शामिल होना चाहिए, ताकि शिक्षक समुचित सहायक सामग्री का प्रयोग करने में 


(iv) शिक्षण विधियाँ बाल मनोविज्ञान पर आधारित होनी चाहिए तथा इन विधियों द्वारा उन्हें सक्षम हों।

अपनी सृजनात्मक प्रतिभा के विकास हेतु अवसर मिलने चाहिए। 


(v) आकाशवाणी व दूरदर्शन के माध्यम से पाठों का प्रसारण किया जाना चाहिए।


(vi) विद्यार्थियों के लिए इन पाठों का प्रसारण विद्यालय समय में किया जाय तथा शिक्षकों के लिए विद्यालय समय से पहले या बाद में।


पाठ्य-पुस्तकों से सम्बन्धित सुझाव (Suggestions Regarding Text-books)


आयोग ने पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण हेतु राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक योजना बनाये जाने व राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) के सिद्धान्तों को अपनाये जाने का सुझाव दिया व इन पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण, परीक्षण व मूल्यांकन हेतु राज्य सरकारों की जिम्मेदारी सुनिश्चित को।


इसके साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर पाठ्य-पुस्तकों के लेखन हेतु प्रतिभावान व्यक्तियों को पारिश्रमिक दिये जाने की भी व्यवस्था का सुझाव दिया गया, विशेषकर विज्ञान व तकनीकी की पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण हेतु एक स्वायत्त संस्था के गठन का भी सुझाव दिया गया।


विश्वविद्यालयी शिक्षा के सन्दर्भ में आयोग के सुझाव (Suggestions of the Commission in Reference of University Education)


कोठारी आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा पर भी विस्तार से विचार किया तथा विश्वविद्यालयी शिक्षा के सन्दर्भ में अग्र सुझाव दिये-


(1) विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रशासन सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Administration of University Educations)


आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रशासन को अधिक प्रभावी बनाने हेतु निम्न सुझाव दिये-


(i) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का पुनर्गठन करके इसे और अधिक सशक्त बनाया जाय तथा इसे उच्च शिक्षा संस्थाओं को अनुदान देने के साथ-साथ उनके निरीक्षण का अधिकार व उच्च शिक्षा के स्तर को बनाए रखने का उत्तरदायित्व भी सौंपा जाय।


(ii) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, विश्वविद्यालयों को उदारतापूर्वक अनुदान दे, विशेषका 'उच्च अध्ययन केन्द्रों' (Centers of Advanced Studies) की स्थापना के लिए।


(iii) सभी विश्वविद्यालयों को अपने शिक्षण व अनुसंधान कार्य में सुधार लाने हेतु अधिक स्वायत्तता प्रदान की जाय तथा इन्हें 'अन्तर्विश्वविद्यालय परिषद् (Inter University Council) का सदस्य बनाया जाय।


(iv) विश्वविद्यालयों के प्रशासन तन्त्र का भी पुनर्गठन करके 50% सदस्य विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि व 50% बाह्य सदस्य रखे जायें। कार्यकारिणी परिषद् में 15 से 20 सदस्य हों तथा कुलपति इसका अध्यक्ष हो।


(v) विश्वविद्यालयों को शैक्षिक परिषद् में छात्रों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए तथा इसे पाठ्यक्रम निर्माण व शैक्षिक विषयों पर निर्णय लेने का अधिकार भी होना चाहिए।


(vi) विश्वविद्यालयों को और अधिक स्वायत्तता देने की दिशा में उन्हें कुलपतियों के चुनाव की स्वतन्त्रता पाठ्यक्रम निर्माण, शिक्षकों की नियुक्ति, छात्रों के चयन व अनुसंधान कार्य में स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए।


(2) विश्वविद्यालयी शिक्षा का संगठन (Organization of University Education)


आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा की उचित व्यवस्था हेतु चार प्रकार की उच्च शिक्षा संस्थाओं- सामान्य विश्वविद्यालय, वरिष्ठ विश्वविद्यालय, सामान्य महाविद्यालय और स्वायत्त महाविद्यालयों की स्थापना का सुझाव दिया। इनमें से नए विश्वविद्यालयों की स्थापना आवश्यकतानुसार तथा उच्च शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने हेतु की जाए तथा कई स्नातकोत्तर महाविद्यालय को संगठित करके नए विश्वविद्यालय का रूप देने का सुझाव भी दिया गया।


वरिष्ठ महाविद्यालयों के अति मेधावी छात्रों को प्रवेश देना, छात्रवृत्तियों की विशेष व्यवस्था, राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षकों को नियुक्ति व उन्हें शोध कार्य हेतु विशेष सुविधाएँ उपलब्ध कराना तथा सम्पूर्ण वित्तीय भार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा लेने का सुझाव दिया। इसी प्रकार आयोग ने नए महाविद्यालयों की स्थापना स्वायत्त महाविद्यालयों की स्थापना, अंशकालिक शिक्षा व पत्राचार पाठ्यक्रम सम्बन्धी सुझाव के अतिरिक्त, उच्च शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश सम्बन्धी उपयोगी सुझाव भी दिये। शोध कार्य के लिए केवल योग्य, प्रतिभाशाली व परिश्रमी व्यक्तियों का चयन किये जाने की अनुशंसा भी की गई।


(3) विश्वविद्यालयी शिक्षा के उद्देश्य (Aims of University Education)


आयोग द्वारा निर्धारित भारतीय विश्वविद्यालयों के लक्ष्य को ही उच्च शिक्षा का उद्देश्य माना जा सकता है, जिनका क्रमिक वर्णन निम्न प्रकार है-


1. पुराने ज्ञान एवं विश्वासों का मूल्यांकन करने के पश्चात् नवीन ज्ञान की प्राप्ति एवं नए तथ्यों (सत्य) की खोज करना।


2. सामाजिक न्याय को प्रोत्साहन देकर मूल्यों का विकास करना तथा छात्रों व शिक्षकों में उचित मान्यताओं व दृष्टिकोणों का विकास करना।


3. प्रतिभाशाली युवकों की खोज करना तथा उनकी प्रतिभाओं के विकास में सहायता करना। 4. कृषि, चिकित्सा, विज्ञान, तकनीकी एवं अन्य क्षेत्रों के लिए कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों का निर्माण करना।


(4) पाठ्यक्रम सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Curriculum)


पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में आयोग के सुझाव निम्नवत् हैं


1. प्रथम स्नातक पाठ्यक्रम तीन वर्ष का किया जाय तथा इस स्तर पर सामान्य तथा ऑनर्स दोनों प्रकार के पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जाय।


2. स्नातक स्तर पर पाठ्यक्रम में नए-नए विषयों का समावेश करके उन्हें विषयों के चयन हेतु पर्याप्त अवसर दिये जायें।


3. परास्नातक स्तर पर पाठ्यक्रम 2 वर्ष का हो तथा इस स्तर पर भी विषयों के चुनाव हेतु पर्याप्त अवसर हों।


4. पी-एच. डी. उपाधि के लिए छात्र को 2 से 3 वर्ष तक का शोध कार्य करने का अवसर दिया जाय तथा मूल्यांकन प्रणाली के स्तर को भी ऊँचा उठाया जाय।


5. स्नातक कक्षाओं में एक या दो विषयों के गहन अध्ययन की व्यवस्था के साथ ही अंग्रेजी, रूसो आदि समृद्ध विदेशी भाषाओं के अध्ययन की भी व्यवस्था की जाय।


(5) शिक्षण में सुधार व शिक्षण विधियाँ (Improvement in Teaching and Teaching Methods)


शिक्षण व शिक्षण विधियों से सम्बन्धित सुझाव निम्नवत् हैं-


1. विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों को आधुनिक शिक्षण विधियाँ अपनाकर शिक्षण कार्य में सुधार करना चाहिए।


2. शिक्षण प्रक्रिया में सुधार हेतु विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में एक विशेष समिति का गठन किया जाय तथा मौलिक चिन्तन को इस स्तर पर महत्व दिया जाय।


3. समय सारिणी (Time-Table) में क्रियाप्रधान विधियों को प्रमुखता दी जाय तथा छात्रों को स्वतन्त्र विचारों की अभिव्यक्ति लेखन कार्य, समस्या समाधान व लघु शोध कार्यों में संलग्न किया जाय।


4. किसी शिक्षक को सत्र के बीच में संस्था छोड़ने की स्वीकृति न दी जाय तथा 7 दिन से अधिक का अवकाश स्वीकृत न किया जाय।


5. कक्षा शिक्षण को कुछ कम करके उसके स्थान पर स्वाध्याय, विचार विमर्श, समस्या


समाधान और लेखन को महत्व देने हेतु सम्पन्न पुस्तकालयों और संगोष्ठी भवनों की उचित व्यवस्था की जाय। 


(6) शिक्षा का माध्यम (Medium of Instruction)


शिक्षा के माध्यम के विषय में आयोग ने निम्नलिखित संस्तुतियाँ की-


1. स्नातक स्तर की शिक्षा क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से तथा परास्नातक स्तर पर अंग्रेजी माध्यम से होनी चाहिए।


2. शिक्षकों को यथासम्भव द्विभाषी होना चाहिए अर्थात् उन्हें क्षेत्रीय भाषा व अंग्रेजी भाषा दोने का ज्ञान होना चाहिए।


3. वरिष्ठ विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए।


4. उच्च शिक्षा में अंग्रेजी के अतिरिक्त उर्दू व रूसी भाषा के शिक्षण की भी व्यवस्था होने चाहिए।


व्यावसायिक व तकनीकी शिक्षा (VOCATIONAL AND TECHNICAL EDUCATION)


आयोग के गठन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य शिक्षा को उत्पादकता से जोड़ता था। अतः आयोग की राय में माध्यमिक शिक्षा का व्यवसायीकरण शिक्षा व उत्पादन में सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। इम सन्दर्भ में आयोग ने अपने सुझाव निम्न प्रकार दिये-


(i) माध्यमिक शिक्षा का व्यवसायीकरण किया जाय और 20 वर्ष के अन्दर माध्यमिक स्तर पर 25% व उच्चतर माध्यमिक स्तर पर 50% छात्रों को व्यावसायिक वर्ग में लाया जाए।


(ii) ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित पॉलिटेक्निक कॉलेजों में कृषि व कृषि से सम्बन्धित उद्योगों की शिक्षा दी जाय तथा नए पॉलिटेक्निक कॉलेज केवल औद्योगिक क्षेत्र में ही खोले जायें। इन कॉलेजों में महिलाओं की रुचि के उद्योगों की शिक्षा की व्यवस्था भी की जाय।


(iii) जूनियर टेक्निकल स्कूलों को टेक्निकल हाईस्कूलों में बदल दिया जाय।


(iv) इन विद्यालयों के पाठ्यक्रम अपने आप में पूर्ण होने चाहिए अर्थात् ये व्यवसायपरक होने चाहिए।


(v) इन पाठ्यक्रमों में सैद्धान्तिक ज्ञान की अपेक्षा व्यावहारिक प्रशिक्षण पर अधिक बल दिया जाय तथा इसके लिए अनुभव प्राप्त शिक्षकों की नियुक्त की जाय।


उच्च इंजीनियरिंग शिक्षा सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Higher Engineering Education)


(i) घटिया किस्म के इंजीनियरिंग कॉलेजों को बन्द कर दिया जाय व नए इंजीनियरिंग कॉलेजों की स्थापना मानव शक्ति की माँग के आधार पर की जाय।


(ii) ये सभी कॉलेज तकनीकी शिक्षा संस्थान (Technical Education Institute : TEI) द्वारा मान्यता प्राप्त हों तथा जो इंजीनियरिंग कॉलेज उच्च स्तर की शिक्षा प्रदान नहीं कर रहे हैं, उनमें सुधार किया जाय।


(iii) इंजीनियरिंग की कुछ शाखाओं, जैसे-विद्युत-अणु-सम्बन्धी (Electronics) और उपकरण सम्बन्धी (Instrumentation) शिक्षा के लिए योग्य एवं प्रतिभाशाली बी. एस. सी. पास छात्रों को चुना जाय।


(iv) परिवर्तित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पाठ्यक्रमों को विभिन्न प्रकार से अद्यतन (Up-to-Date) बनाया जाय व इनमें विमान तकनीकी, नक्षत्र विज्ञान, रासायनिक तकनीकी आदि नए पाठ्यक्रम शुरू किए जायें।


(v) व्यावहारिक प्रशिक्षण पर अधिक बल दिया जाय तथा इसके लिए औद्योगिक संस्थानों का सहयोग लिया जाय।


(vi) इंजीनियरिंग कॉलेजों के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में केवल उन्हीं छात्र-छात्राओं को प्रवेश दिया जाए, जो इंजीनियरिंग को स्नातक शिक्षा प्राप्त करने के बाद किसी उद्योग में। वर्ष कार्य कर चुके हों।


(vii) जहाँ आवश्यकता हो, पत्राचार पाठ्यक्रम शुरू किए जायें।


(viii) शिक्षकों को अपने-अपने क्षेत्र के अद्यतन ज्ञान से अवगत कराने के लिए 'ग्रीष्मकालीन संस्थानों' (Summer Institutes) की व्यवस्था की जाय।


शिक्षा की नवीन संरचना व स्तर (NEW STRUCTURE OF EDUCATION AND STANDARD)


आयोग ने शिक्षा में एकरूपता लाने हेतु, शिक्षा के विभिन्न स्तरों तथा उपस्तरों हेतु 'एक समान शिक्षा प्रणाली' का प्रारूप बताया है, जो इस प्रकार है-


शिक्षा प्रणाली का नवीन प्रारूप


1. पूर्व प्राथमिक शिक्षा-कक्षा । से पहले तक

2. प्राथमिक शिक्षा (कक्षा 1 से VII या VIII तक)


(i) अवर प्राथमिक-कक्षा I-IV या II से V तक

(ii) उच्च प्राथमिक कक्षा V-VII या VII से VIII तक


3. माध्यमिक शिक्षा-कक्षा VII से XII या IX से XII तक


(i) अवर माध्यमिक शिक्षा-कक्षा VII से X या IX-X तक

(ii) उच्च माध्यमिक शिक्षा-कक्षा XI से XII तक


4. उच्च शिक्षा-


(i) प्रोफेशनल डिग्री

(ii) सामान्य डिग्री

(iii) अन्डर ग्रेजुएट

(iv) पोस्ट ग्रेजुएट


5. सामान्य शिक्षा


(i) प्रथम स्तर की शिक्षा- प्री स्कूल तथा प्री-प्राइमरी स्कूल

(ii) द्वितीय स्तरीय शिक्षा- हाईस्कूल तथा हायर सेकेन्डरी स्कूल

(iii) तृतीय स्तरीय शिक्षा- अन्डर ग्रेजुएट तथा पोस्ट ग्रेजुएट


आयोग ने विद्यालय शिक्षा की नवीन संरचना के विषय में कुछ सुझाव भी दिये हैं-


1. सामान्य शिक्षा की अवधि 10 वर्ष की होनी चाहिए और इसमें प्राथमिक एवं निम्न माध्यमिक शिक्षा को सम्मिलित किया जाना चाहिए।


2. प्राथमिक शिक्षा की अवधि 7 से 8 वर्ष हो तथा इसे 4 या 5 वर्ष की निम्न प्राथमिक शिक्षा व 3 वर्ष की उच्च प्राथमिक शिक्षा में विभक्त किया जाय।


3. निम्न माध्यमिक स्तर पर छात्रों को दो प्रकार की शिक्षा देनी चाहिए- 

(i) 2 या 3 वर्ष की सामान्य शिक्षा और 

(ii) 1 से 3 वर्ष की व्यावसायिक शिक्षा ।


4. 9वीं कक्षा से पृथक विद्यालय स्थापित किए जाने की प्रचलित विधि का अन्त कर देना चाहिए तथा 10वीं कक्षा तक छात्रों को किसी विषय में विशिष्टीकरण (Specialization) की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।


5. माध्यमिक विद्यालय भी दो प्रकार के होने चाहिए, (i) हाईस्कूल और (ii) हायर सेकेण्डां स्कूल । हाईस्कूलों में शिक्षा की अवधि 10 वर्ष की और हायर सेकेण्डरी स्कूलों में 12 वर्ष होने चाहिए।


इसी प्रकार उच्च शिक्षा की नवीन संरचना हेतु निम्न सुझाव दिये हैं-


1. उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के पश्चात् प्रथम डिग्री कोर्स की अवधि कम से कम 3 वर्ष की होनी चाहिए।


2. द्वितीय डिग्री कोर्स की अवधि 2 या 3 वर्ष होनी चाहिए।


3. कुछ विद्यालयों में 'ग्रेजुएट स्कूलों' की स्थापना की जाय, जिनमें कुछ विशेष विषयों में 3 वर्ष के स्नातकोत्तर कोर्स की व्यवस्था की जाय।


4. उत्तर प्रदेश के त्रिवर्षीय डिग्री कोर्स को कुछ विशिष्ट विषयों और विशिष्ट विश्वविद्यालयों में शुरू किया जाना चाहिए।


आयोग ने शिक्षा के इन सभी स्तरों के उन्नयन हेतु भी अपने सुझाव दिये हैं-


1. 10 वर्ष की विद्यालयी शिक्षा में गुणात्मक उन्नति करके इस स्तर पर होने वाले अपव्यय में कमी की जानी चाहिए।


2. इस अवधि में कक्षा 10 के स्तर का इतना उन्नयन कर दिया जाना चाहिए कि वह वर्तमान हायर सेकेण्डरी के स्तर पर पहुँच जाय।


3. विश्वविद्यालयों की उपाधियों के स्तरों का उन्नयन करने के लिए इन उपाधियों के पाठ्यक्रमों में अधिक उन्नत विषय वस्तु का समावेश करना चाहिए।


4. शिक्षा-स्तरों का उन्नयन करने के लिए शिक्षा के विभिन्न अंगों में समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए।


5. विद्यालय संकुलों (School Complexes) का यथाशीघ्र निर्माण किया जाना चाहिए। एक


संकुल में एक माध्यमिक स्कूल और उसके निकटवर्ती सब प्राथमिक स्कूल होने चाहिए। प्रत्येक संकुल के सब स्कूलों द्वारा सामूहिक रूप से स्तरों के उन्नयन के लिए प्रयत्न किये जाने चाहिए।


शिक्षक शिक्षा सम्बन्धी आयोग के सुझाव (SUGGESTIONS OF THE COMMISSION ON TEACHER EDUCATION)


आयोग के अनुसार शिक्षा में गुणात्मक सुधार के लिए यह आवश्यक है, कि अध्यापकों के व्यावसायिक प्रशिक्षण हेतु एक समुचित कार्यक्रम हो। आयोग ने अध्यापकों की व्यावसायिक शिक्षा के महत्व को दशति हुए लिखा है-"शिक्षा की गुणात्मक उन्नति के लिए अध्यापकों को व्यावसायिक शिक्षा का ठोस कार्यक्रम अनिवार्य है।"


"A sound programme of professional education of teachers is essential for the qualitative improvement of education." -Education Commission Report


अत: आयोग ने अध्यापक शिक्षा पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया तथा अध्यापकों की शिक्षा के सम्बन्ध में कुछ सिफारिशें देने से पूर्व तत्कालीन दोषों पर भी ध्यान दिया। आयोग के मतानुसार अध्यापक शिक्षा के प्रमुख दोष इस प्रकार है-


1. प्रशिक्षण संस्थाओं के स्तर में गिरावट का कारण योग्य अध्यापकों का अभाव है।


2. प्रशिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रमों में नवीनता, सजीवता व वास्तविकता का अभाव है, क्योंकि इन संस्थाओं में दिया जाने वाला प्रशिक्षण अधिकांश रूप से परम्परागत है।


3. इन प्रशिक्षण संस्थाओं में सिखाई जाने वाली शिक्षण पद्धतियाँ अत्यन्त प्राचीन होने के कारण बर्तमान उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक नहीं हैं।


4. माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षकों को प्रशिक्षिण देने वाली संस्थाओं का इन विद्यालयों की दैनिक समस्याओं और विश्वविद्यालय के साहित्यिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्हीं सब दोषों को उजागर करते हुए आयोग ने इनके निराकरण हेतु महत्वपूर्ण सुझाव दिये, जो इस प्रकार हैं


1. शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम में अलगाव (Isolation in Teacher's Training Programme)


आयोग के मतानुसार दोनों स्तरों की शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाएँ एवं उनके कार्यक्रम सामान्य शिक्षा संस्थाओं और उनके कार्यक्रमों से भिन्न थे, अतः वे अलग-थलग से प्रतीत होते थे। उनमें क्रमिक सम्बन्ध स्थापित करने हेतु आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये-


1. 'शिक्षा' विषय को विश्वविद्यालयों के बी. ए. व एम. ए. के पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाना चाहिए।


2. प्रत्येक राज्य में 'राज्य शिक्षक शिक्षा बोर्ड' (State Board of Teacher Education) की स्थापना की जाए, जो सभी स्तर के शिक्षकों के प्रशिक्षण एवं उनके कार्यक्रमों हेतु उत्तरदायी हो।


3. सभी प्रशिक्षण संस्थाओं में 'प्रसार-सेवा-विभाग' (Extension Service Department) का निर्माण किया जाना चाहिए।


4. सभी शिक्षण प्रशिक्षण संस्थाओं को 'शिक्षक प्रशिक्षण कॉलेज' या ट्रेनिंग कॉलेज कहा जाए, ताकि शिक्षण संस्थाओं की पृथकता का अन्त हो सके।


5. सभी राज्यों में 'कॉम्प्रीहेन्सिव कॉलेजों' (Comprehensive Colleges) की स्थापना की जाय तथा उनमें शिक्षा के विभिन्न स्तरों के लिए अध्यापकों को प्रशिक्षण दिया जाय।


6. कुछ चुने हुए विश्वविद्यालयों में 'शिक्षा स्कूल' (School of Education) स्थापित किये जाएँ, जिनमें शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम चलाए जाएँ और साथ ही शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में अनुसन्धान कार्य चलाए जाएँ।


7. शिक्षण अभ्यास हेतु मान्यता प्राप्त स्कूल ही चुने जाएँ, और चुने हुए स्कूलों को राज्य द्वारा 'सहकारी स्कूल' (Co-operating Schools) की मान्यता दी जाए और इन्हें साज सज्जा हेतु विशेष सहायता अनुदान दिया जाए। 


8. समय-समय पर शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं और सहकारी स्कूलों में अध्यापकों का आदान-प्रदान किया जाए।


2. शिक्षक शिक्षा के स्तर में गिरावट (Drop in the level of Teacher Education)


आयोग के मतानुसार तत्कालीन प्राथमिक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं और माध्यमिक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं दोनों का स्तर बहुत निम्न था। अतः शिक्षक शिक्षा में गुणात्मक सुधार हेतु आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये-


1. प्राथमिक शिक्षक प्रशिक्षण के स्तर को बनाए रखने का उत्तरदायित्व 'राज्य शिक्षक शिक्षा बोर्ड' (State Board of Teacher Education) का होना चाहिए और माध्यमिक शिक्षक प्रशिक्षण के स्तरमान को बनाए रखने का उत्तरदायित्व विश्वविद्यालयों का होना चाहिए।


2. ट्रेनिंग कॉलेजों के अध्यापकों के पास शिक्षा की उपाधि (Degree in Education) के अतिरिक्त दो स्नातकोत्तर उपाधियाँ (Post Graduate Degrees) होनी चाहिए।


3. इन कॉलेजों के अध्यापकों में 'डॉक्टर' (Doctorate) की उपाधियों वाले शिक्षकों को सम्हा उचित अनुपात में होनी चाहिए।


4. प्राथमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण की अवधि 2 वर्ष होनी चाहिए और माध्यमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण की अवधि फिलहाल तो। वर्ष की रहे, परन्तु आगे चलकर इसे 2 वर्ष की कर देना चाहिए। एक वर्ष में कार्य दिवसों को संख्या कम से कम 230 दिन होनी चाहिए।


5. माध्यमिक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं में प्रशिक्षणार्थियों को उन्हीं स्कूली विषयों में शिक्षण अभ्यास कराया जाए, जिनका अध्ययन उन्होनें स्नातक स्तर पर अवश्य किया हो।


6. शिक्षण अभ्यास एवं अन्य प्रायोगिक कार्यों के आन्तरिक मूल्यांकन को वस्तुनिष्ट बनाया जाए।


7. शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण योग्य छात्र-छात्राओं को प्रवेश दिया जाये और योग्य व्यक्तियों को इस ओर आकर्षित करने के लिए शिक्षक प्रशिक्षण निःशुल्क किया जाए और प्रशिक्षणार्थियों को छात्रवृत्तियाँ भी दी जाएँ। यदि सम्भव हो तो छात्राध्यापकों से किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाना चाहिए।


8. वर्तमान प्रशिक्षण संस्थाओं के पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं आदि में सुधार किया जाना चाहिए तथा अप्रशिक्षित शिक्षकों को प्रशिक्षण देने के लिए ग्रीष्मकालीन संस्थाओं' (Summer Institutes) की योजना आरम्भ की जानी चाहिए।


3. प्रशिक्षण सुविधाओं का असन्तुलित विस्तार (Unbalanced Expansion of Training Facilities)


आयोग ने प्रशिक्षण-सुविधाओं का विस्तार करने के उद्देश्य से निम्नांकित विचार व्यक्त किये हैं-


1. प्रशिक्षण संस्थाओं के आकार में एक निश्चित योजना के अनुसार पर्याप्त विस्तार किया जाना चाहिए।


2. प्रत्येक राज्य अपने क्षेत्र में शिक्षकों को वर्तमान और भविष्य की माँग के आधार पर प्राथमिक शिक्षक प्रशिक्षण और माध्यमिक शिक्षक प्रशिक्षण कॉलेजों की स्थापना करें।


3. कार्यरत अप्रशिक्षित शिक्षकों के लिए, अध्यापन कार्य करते हुए अंशकालीन पाठ्यक्रम व पत्राचार पाठ्यक्रम की सुविधायें दी जायें।


4. अन्तर्सेवा प्रशिक्षण का अभाव (Lack of Inservice Training)


आयोग ने देखा कि उस समय देश में कार्यरत प्रशिक्षित शिक्षकों को नए-नए शैक्षिक प्रयोगों एवं तकनीकों से अवगत कराने हेतु अन्तर्सेवा प्रशिक्षण (Inservice Training) की व्यवस्था नहीं थी।


इस सम्बन्ध में आयोग ने निम्न सुझाव दिये-


1. किसी भी स्तर के शिक्षकों के लिए हर पाँच वर्ष बाद अन्तर्सेवा प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए।

2. अन्तर्सेवा प्रशिक्षण शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं के साथ-साथ विश्वविद्यालयों में भी दिया जाना बाहिए।

3. जहाँ तक सम्भव हो ग्रीष्मकालीन संस्थाओं में भी शिक्षकों के अन्तर्सेवा प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाय।



राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग) के सुझावों का शिक्षा व्यवस्था पर प्रभाव - राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1964-66) की सिफारिशों के आधार पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण किया गया और उसे 24 जुलाई, 1968 को घोषित कर दिया गया, जिससे इन सिफारिशों पर अमल किया जाने लगा।


पूरे देश में 10+2+3 शिक्षा संरचना लागू करने के प्रयत्न शुरू हो गए और एन.सी.ई.आर.टी. (NCERT) ने प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा के लिए आधारभूत पाठ्यचर्या तैयार को जिसमें त्रिभाषासूत्र के आधार पर तीन भाषाओं का अध्ययन, देश के आधुनिकीकरण हेतु विज्ञान व गणित का अध्ययन और माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा की शुरुआत करने के लिए कार्यानुभव को अनिवार्य किया गया और कुछ प्रान्तों में इस आधार पर प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा की पाठ्यचर्या का निर्माण कर उसे चालू किया गया।


कुछ प्रान्तों में +2 पर अनेक प्रकार के व्यावसायिक पाठ्यक्रम भी शुरू किए गए, परन्तु उनमें सफलता न मिल सकी। उच्च शिक्षा में भी डिग्री कोर्स त्रिवर्षीय कर दिया गया। उच्च शिक्षा और व्यावसायिक, तकनीकी एवं प्रबन्ध शिक्षा के विस्तार के साथ-साथ उसके उन्नयन हेतु ठोस कदम उठाये गये। साथ ही शिक्षक शिक्षा में सुधार होने शुरू हुए और प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रम को व्यापक बनाया गया।


इस आयोग ने शैक्षिक अवसरों की समानता हेतु, जो सुझाव दिये उनका अनुपालन भी शुरू हुआ और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 का निर्माण भी इसी आधार पर हुआ। अतः आयोग के कुछ सुझाव व सदस्य साधुवाद के अधिकारी हैं।


इन्हे भी पढ़ना मत भूलियेगा -


इसे भी पढ़ें -

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top