मैलिनोवस्की की संस्कृति की अवधारणा
मैलिनोवस्की के अनुसार, " संस्कृति वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने शारीरिक तथा मानसिक और अन्तिम रूप में बौद्धिक अस्तित्व को बनाये रखने में सफल होता है । " मानव केवल एक प्राणिशास्त्रीय प्राणी ही नहीं अपितु एक सामाजिक प्राणी भी है और इन दोनों ही रूपों में उसकी अनेक शारीरिक - मानसिक आवश्यकताएँ होती हैं । इन आवश्यकताओं की पूर्ति किये बिना सामाजिक प्राणी के रूप में मानव का अस्तित्व कदापि बना नहीं रह सकता ।
इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव संस्कृति निर्माता बनता है और उसके द्वारा अपने शारीरिक तथा मानसिक तथा बौद्धिक अस्तित्व को बनाये रखता है ।संस्कृति का कोई भी तत्त्व या इकाई बेकार नहीं होती है , उससे मानव का कोई - न - कोई काम अवश्य निकलता है ।किसी भी सांस्कृतिक तत्त्व का अस्तित्व इसी बात पर निर्भर करता है कि वह मानव के किसी काम में भी रहा है या नहीं, संक्षेप में यही मैलिनोवस्की का प्रकार्यवाद है ।
मानव की आवश्यकताएँ अनेक हैं, जैसे कि आर्थिक आवश्यकताएँ , सामाजिक आवश्यकताएँ तथा मानसिक आवश्यकताएँ ।इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव धर्म, भाषा, कला, प्रविधि , साहित्य तथा अनेक भौतिक एवं अभौतिक वस्तुओं का, जिनके सम्पूर्ण योग या समग्रता को हम संस्कृति कहते हैं , सहारा लेता है ।अगर हम ध्यानपूर्वक यह जानने का प्रयत्न करें कि इन सब चीजों को अर्थात् संस्कृति की विभिन्न इकाइयों का उद्भव क्यों हुआ तो हमें ज्ञात होगा कि इनमें से प्रत्येक इकाई की जड़ मानव की कोई - न - कोई आवश्यकता ही है ।
मानव अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही धनुष - वाण से लेकर बड़ी - बड़ी मशीनों तक का प्रयोग करता है , सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामाजिक संस्थाओं को काम में लगाता है , मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भाषा , धर्म , कला आदिकी सहायता लेता है ।अतः स्पष्ट है कि संस्कृति की इकाई का किसी - न - किसी रूप में कोई -न- कोई प्रकार्य ( function ) अवश्य ही होता है ।
अगर एक मोमबत्ती भी है तो उसका भी सांस्कृतिक ढाँचे में या मानव की सम्पूर्ण जीवन - विधि में कोई - न - कोई प्रकार्य होगा ही । यह मोमबत्ती रोशनी देने का काम करती है, यही मोमबत्ती धार्मिक जीवन का प्रतीक हो सकती है या किसी कम्पनी का व्यापार - चिह्न भी हो सकती है ।किसी भी संस्कृति में इस मोमबत्ती के समस्त प्रकार्यों को समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम इस मोमबत्ती की संस्कृति की अन्य सभी इकाइयों या पक्षों से जो प्रकार्यात्मक सम्बन्ध ( functional relation ) है उन्हें ढूंढ़ निकालें ।
इसी तरह जब हम संस्कृति की प्रत्येक इकाई का अन्य इकाइयों से प्रकार्यात्मक सम्बव मालूम कर लेंगे , तब हमें पता चलेगा कि उस समूह के सदस्यों की सम्पूर्ण जीवन - विधि को बनाये रखने में भी सभी इकाइयाँ किस प्रकार मिलकर प्रकार्य करती हैं ।अतः स्पष्ट है कि एक संस्कृति की विभिन्न इकाइयों का पृथक् - पृथक् अस्तित्व तो होता है और न होना सम्भव है ।
इनमें से प्रत्येक का प्रत्येक के साथ एक प्रकार्यात्मक सम्बन्ध होता है ।परन्तु यह सम्बन्ध क्यों होता है ?इसका उत्तर यह है कि मानव की आवश्यकताएँ अलग - अलग नहीं हैं , वे सब एक - दूसरे के साथ सम्बन्धित हैं क्योंकि इन सबका उद्भव स्थान एक ही और वह उद्भव स्थान है मानव स्वयं ।क्योंकि मनुष्य की स्वयं की सब आवश्यकताएँ एक - दूसरे से जुड़ी हुई हैं और लिए इन आवश्यकताओं को पूरा करने के साधन के रूप में काम में आने वाली संस्कृति की विभिन्न इकाइयाँ या पक्ष भी अन्तःसम्बन्ध से बँधे हुए हैं ।
इस अन्तःसम्बन्ध का आधार मानव की प्राणिशास्त्रीय प्रेरणाएँ तथा आवश्यकताएँ हैं ।किसी भी संस्कृति के संगठन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य मानव की उपर्युक्त प्राणिशास्त्रीय प्रेरणाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए साधन उपलब्ध करना है ।मैलिनोवस्की का विश्वास है कि संस्कृति का कोई भी तत्त्व , अंग या इकाई ऐसी नहीं हो सकती जो कुछ भी काम नहीं देती ।आपका कथन है कि संस्कृति का प्रत्येक तत्त्व किसी - न - किसी कार्य को करने के लिए हुआ करता है और उसका अस्तित्व उसी समय तक बना रहता है जब तक वह सम्पूर्ण जीवन - व्यवस्था में कोई - न - कोई कार्य करता रहता है ।
किसी भी संस्कृति के संगठन का एक आधारभूत उद्देश्य मानव - जीवन की विविध आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कार्य करना है ।यदि यह सच है तो यह कैसे सम्भव हो सकता है कि किसी भी सांस्कृतिक तत्त्व का प्रकार्यविहीन अस्तित्व हो ।चूँकि सम्पूर्ण जीवन - विधि या व्यवस्था को बनाये रखने में प्रत्येक सांस्कृतिक तत्त्व का कुछ - न - कुछ योगदान अर्थात् कोई - न - कोई प्रकार्य होता है , इसलिए संस्कृति के प्रत्येक तत्त्व का हर दूसरे तत्त्वों के साथ एक आन्तरिक या प्रकार्यात्मक सम्बन्ध होता है, जिसके फलस्वरूप ये असंख्य सांस्कृतिक तत्त्व एक - दूसरे से पृथक् नहीं , बल्कि एक - दूसरे से जकड़े हुए या सम्बन्धित होते हैं और सब मिलकर संस्कृति को एक समग्रता प्रदान करते हैं ।
इस प्रकार श्री मैलिनोवस्की के मतानुसार , " सांस्कृतिक संगठन का आधारभूत कारण उस संस्कृति की प्रत्येक इकाई द्वारा किया जाने वाला प्रकार्य है । " सांस्कृतिक संगठन के सम्बन्ध में यही मैलिनोवस्की का प्रकार्यवादी सिद्धान्त या दृष्टिकोण है ।निम्नलिखित विवेचना से यह और भी स्पष्ट हो जायेगा मैलिनोवस्की के अनुसार संस्कृति मानव की प्राणिशास्त्रीय आवश्यकताओं द्वारा जनित मानव का आविष्कार है ।मानव का शारीरिक मानसिक अस्तित्व जिन साधनों से बना रहता है , उन साधनों की समग्रता को ही संस्कृति कहते हैं ।
मैलिनोवस्की ने मनुष्य की सात आधारभूत प्राणिशास्त्रीय आवश्यकताओं का उल्लेख किया है । वे हैं — शरीर पोषक उत्पादक , शारीरिक आराम , सुरक्षा गति , वृद्धि तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी आवश्यकताएँ ।इनमें से प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति मानव निर्मित विभिन्न सांस्कृतिक तत्त्वों के द्वारा होती है ।दूसरे शब्दों में इन साक आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति विविध सांस्कृतिक तत्त्व एक साथ मिलकर या संयुक्त रूप में कार्य करते हुए करते हैं ।
यह सच है कि ये सांस्कृतिक तत्त्व या उपर्युक्त आवश्यकताओं की पूर्ति साधन प्रत्येक समाज में एक से नहीं होते : प्रत्येक समाज में इन सांस्कृतिक तत्त्वों के प्रकार तथा स्वरूप भिन्न - भिन्न हुआ करते हैं और इसीलिए प्रत्येक समाज की संस्कृति का गठन या ढाँचा या रूप भीअलग - अलग होता है ।रूप या स्वरूप कुछ भी हो , पर मानव की उपर्युक्त सात महत्त्वपूर्ण शारीरिक - मानसिक आवश्यकताओं की नियमित पूर्ति की योजना प्रत्येक संस्कृति में पायी जाती है । योजना की सफलता इसकी विभिन्न इकाइयों के संगठन पर निर्भर है । अगर विभिन्न इकाइयाँ बिखरी हुई हैं , एक - दूसरे से असम्बद्ध या पृथक है तो कोई भी योजना कदापि सफल नहीं हो सकती ।
उसी संस्कृति की विभिन्न इकाइयाँ भी एक - दूसरे से सम्बद्ध रहती हैं , उनमें एक प्रकार का संगठन होता है क्योंकि संगठन रूप में मानव की महत्त्वपूर्ण शारीरिक मानसिक आवश्यकताओं की नियमित पूर्ति करना इन तत्त्वों का प्रमुख कार्य और इनके अस्तित्व का आधार है । अपने - अपने कार्य में लगे हुए इन सब सांस्कृतिक तत्त्वों के समग्र रूप को ही श्री मैलिनोवस्की के अनुसार संस्कृति कहते हैं । इनके कार्यों से पृथक करके सांस्कृतिक तत्त्वों के या समग्र संस्कृति के अस्तित्व की कल्पना भी मूर्खता है ।
चूँकि मैलिनोवस्की सांस्कृतिक तत्त्वों के प्रकार्यों पर अत्यधिक बल देते हैं , इस कारण उनके दृष्टिकोण को ' प्रकार्यवाद ' कहते हैं । मैलिनोवस्की के मतानुसार संस्कृति का प्रत्येक तत्त्व या भाग किसी - न - किसी कार्य को करने के लिए प्रकट होता है । संस्कृति का कोई भी पहलू ऐसा नहीं है जो हमारी किसी न किसी आवश्यकता को पूरा न करता हो । चूँकि धर्म भी संस्कृति का एक अंग है , इसलिए उसका भी प्रत्येक संस्कृति में कुछ - न - कुछ निश्चित कार्य होता है । उन कार्यों को करने के लिए धर्म की उत्पत्ति हुई है , दूसरे शब्दों में धर्म कुछ मानवीय आवश्यकताओं की प्रतिक्रियाओं का ही फल है ।
मैलिनोवस्की ने लिखा है, " धर्म क्रिया की एक विधि है और साथ ही विश्वासों की एक व्याख्या भी , धर्म एक समाजशास्त्रीय तथ्य के साथ ही एक व्यक्तिगत अनुभव भी है । " आदिकालीन मानव को , मैलिनोवस्की के विचारानुसार अनेक ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है जिनका हल उसके पास नहीं है । उदाहरणार्थ मृत्यु के समय और बच्चे के पैदा होने के समय कुछ मानसिक कष्ट का अनुभव होता है , जिससे छुटकारा पाना आवश्यक है ।
उसी प्रकार खेती करने में और समुद्र में नाव चलाने में कभी - कभी ऐसी दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ता है जिसकी कभी आशंका ही नहीं होती है । ये समस्याएँ किसी एक व्यक्ति के जीवन में नहीं बल्कि समाज के अधिकतर लोगों के जीवन में आ खड़ी होती हैं । इन्हें सुलझाने के लिए या इनका सामना सफलतापूर्वक करने के लिए मानव जो प्रयत्न करता है , धर्म उन्हीं प्रयत्नों का परिणाम है । चूँकि ये सबकी समस्याएँ हैं , इस कारण इनसे सम्बन्धित क्रियाओं में सब लोग दिलचस्पी लेते हैं । सार्वजनिक दिलचस्पी या सारे समूह के भाग लेने के कारण धार्मिक नियमों के पीछे सारे समाज का बल होता है ।
मैलिनोवस्की ने कानून की विशेषता बतलाते हुए लिखा है कि आदिकालीन कानून की एक मुख्य विशेषता यह है कि इन कानूनों की विवेचना आचार के सामान्य नियमों तथा जनमत से पृथक् करके नहीं की जा सकती ।एक अर्थ में आदिम समाजों में कानून , प्रथा , आचार , धर्म आदि के साथ इतनी अधिक घुली मिली होती है कि इनको एक - दूसरे से पृथक् करना बहुत कठिन होता है ।
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