द्विसदनीय विधायिका के पक्ष-विपक्ष - Questionpur.com

द्विसदनीय विधायिका के पक्ष - विपक्ष में तर्क दीजिए

व्यवस्थापिका का संगठन एक सदनात्मक हो या द्विसदनात्मक यह एक विचारणीय समस्या है। एक सदनात्मक व्यवस्थापिका में केवल एक ही सदन होता है तथा द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका में दो सदन होते हैं। इन दो सदनों में से एक को प्रथम सदन या निम्न सदन कहते हैं तथा दूसरे को द्वितीय सदन या उच्च सदन कहते हैं।

dvisadaneey vidhaayika ke paksh-vipaksh

प्रथम सदन

प्रथम सदन या निम्न सदन लोकप्रिय सदन होता है । इसका निर्वाचन अधिकार जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली द्वारा होता है । भारत में संसद की लोकसभा प्रथम या निम्न सदन है । ब्रिटेन में हाउस ऑफ कामन्स, अमेरिका में हाउस ऑफ रिप्रेजेण्टेटिव निम्न सदन है जो कि जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होता है ।


द्वितीय सदन

द्वितीय सदन को उच्च सदन कहते हैं । इसमें वंशानुगत , अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित तथा मनोनीत सदस्य होते हैं । इसमें कई वर्गों का प्रतिनिधित्व होता है । द्वितीय सदन को उच्च सदन कहने से इसका महत्त्व ऊँचा नहीं होता, बल्कि शक्तियों में यह निम्न सदन से कमजोर होता है । भारत में राज्य सभा , ब्रिटेन में लार्ड सभा तथा अमेरिका में सीनेट उच्च सदन हैं । 


द्वितीय सदन के पक्ष में तर्क 


( 1 ) प्रथम सदन में स्वेच्छाचारिता पर रोक लगाता है- 

द्वितीय सदन प्रथम सदन की स्वेच्छाचारिता पर रोक लगाकर नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा करता है । जे ० एस ० मिल ने निम्न सदन की अविभाजित शक्ति के दूषित प्रभाव को रोकने वाला सदन बतलाया है । इस प्रकार दूसरा सदन एक सदन की निरंकुशता से जनता की रक्षा करता है । एक सदन स्वार्थ तथा महत्वाकांक्षा से ऐसे कार्य करता है जो जनता के लिए हानिकारक होते हैं ।


लार्ड ब्राइस ने लिखा है कि " दो सदनों की आवश्यकता इस विश्वास पर आधारित है कि प्रत्येक सदन की स्वाभाविक प्रवृत्ति घृणापूर्ण , अत्याचारी तथा भ्रष्ट बन जाने की ओर होती है जिसे रोकने के लिए एक समान सत्ताधारी दूसरे सदन का अस्तित्व आवश्यक है । " 


( 2 ) यह प्रथम सदन के दोषों का निवारण करता है-

द्वितीय सदन आवेशपूर्ण विवेकरहित तथा अपरिपक्व कानून निर्माण पर रोक लगाता है । प्रथम सदन बहुधा भावुकता , आवेश तथा उत्तेजना में आकर कानून पास कर डालता है । द्वितीय सदन इस प्रकार की भावुकता के विरुद्ध एक भारी रोक है ।


इसके अतिरक्त द्वितीय सदन में प्रत्येक पहलू पर गम्भीर विचार तथा शान्तिपूर्ण मनन होता है । ब्लंटशली ने इस सम्बन्ध में तर्क दिया है कि " यह स्पष्ट है कि दो आँखों की अपेक्षा चार आँखों से अच्छी तरह से देखा जा सकता है । विशेष रूप से जब एक विषय पर भिन्न - भिन्न दृष्टिकोणों से विचार किया जा सकता हो । " 


( 3 ) द्वितीय संदन जनमत स्पष्ट होने का अवसर देता है-

प्रथम सदन में जब किसी विधेयक पर विचार होता है तथा जब तक वह पास होकर द्वितीय सदन में विचार हेतु आता है । द्वितीय सदन इस जनमत की इच्छानुसार कार्यवाही करता है । जनमत की इच्छानुसार वह विधेयकों में संशोधन करता है । उन्हें प्रथम सदन में वापिस करता है । यदि द्वितीय सदन न हो तो जनमत स्पष्ट होने का अवसर ही न मिले । 


( 4 ) द्वितीय सदन में अनुभवी , कुशल तथा प्रतिभाशाली व्यक्तियों की सेवा में प्राप्त होती है-

प्रत्येक देश में कुछ विद्वान, अनुभवी, कुशल एवं प्रतिभाशाली ऐसे व्यक्ति होते हैं जो चुनाव के पचड़े में नहीं पड़ना चाहते हैं या प्रत्यक्ष निर्वाचन के लिए उनके पास अधिक साधन नहीं होते हैं । द्वितीय सदन में ऐसे लोग आसानी से पहुँच जाते हैं । इस प्रकार राष्ट्र को उनकी वांछित सेवाएँ प्राप्त हो जाती हैं।


( 5 ) द्वितीय सदन में विशिष्ट वर्गों तथा हितों का प्रतिनिधित्व होता है-

प्रथम सदन में समाज के प्रत्येक वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता है । द्वितीय सदनों में समाज के प्रत्येक वर्ग का उचित प्रतिनिधित्व होता है, किसी भी वर्ग के प्रतिनिधित्व सम्बन्धी असन्तोष नहीं होता है । 


( 6 ) द्वितीय सदन संघात्मक शासन के लिए आवश्यक है-

संघात्मक शासन पद्धति में संघ के समसृत राज्यों का स्थान बराबर समझा जाता है । प्रथम सदन में जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व होता है तथा द्वितीय सदन में सब राज्यों का बराबर प्रतिनिधित्व दिया जाता है । इस प्रकार संघ शासन के लिए इसका होना आवश्यक है । 


( 7 ) यह प्रथम सदन का कार्यभार हल्का रहता है

प्रत्येक जनतन्त्रात्मक देश में निम्न सदन के पास कार्यों की अधिकता होती है । द्वितीय सदन उसके कार्यों में हाथ बँटाकर उसका भार हलका करता है । बहुत सी बातों को प्रथम सदन यों ही चलता कर देता है । द्वितीय सदन उन पर गम्भीरता से विचार करता है , विधेयकों पर भी पुनः विचार करके उनके महत्त्व को बढ़ाता है । 


द्वितीय सदन के विपक्ष में तर्क 


( 1 ) द्वितीय सदन अनावश्यक एवं अनिष्टकारक होता है-

द्वितीय सदन के विरोध में यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है । द्वितीय सदन यदि शक्तिशाली है । तो वह खतरनाक है और यदि शक्तिहीन है तो व्यर्थ है । एवी सियेज के शब्दों में " यदि दूसरे सदन का प्रथम सदन से मतभेद है तो वह अनिष्टकारी है और यदि वह उनसे सहमत है तो उसका अस्तित्व अनावश्यक है और चूँकि वह या तो सहमत होगा या असहमत अतएव उसका अस्तित्व किसी भी दशा में हितकर नहीं है । 


( 2 ) द्वितीय सदन एकता के सिद्धान्त को नष्ट करता है-

लायरटीन के शब्दों में “ दो सदनों का अस्तित्व राज्य की प्रभुसत्ता को विभाजित करके एकता के सिद्धान्त को नष्ट करता है । एबी सियेज ने लिखा है कानून जनता की इच्छा है । जनता की एक ही समय में तथा एक ही विषय पर , दो विभिन्न इच्छाएँ नहीं हो सकतीं । अतएव जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली परिषद आवश्यक रूप से एक होनी चाहिएर । जहाँ दो सदन होंगे वहाँ विरोध और विभाजन अनिवार्य होगा और निष्क्रियता के कारण जनता की इच्छा विफल हो जायेगी । 


( 3 ) द्वितीय सदन गत्यावरोध उत्पन्न करता है-

जहाँ पर व्यवस्थापिका के दो सदन होते हैं वहाँ दोनों में मतभेद , संघर्ष एवं गत्यावरोध की सम्भावना अधिक रहती है । फ्रेकलिन ने द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका की तुलना एक ऐसी गाड़ी से की है , जिसके दोनों ओर दो घोड़े जुते हों और जो उसे दो परस्पर विरोधी दिशाओं में खींचने का प्रयत्न कर रहे हैं । प्रो ० लॉस्की के शब्दों में " यदि द्वितीय सदन प्रथम सदन का विरोध करता है तो यह उच्छृंखल है और यदि यह प्रथम सदन से सहमत है तो वह व्यर्थ एवं निरर्थक है । ” 


( 4 ) यह प्रगतिशील कानून निर्माण के पथ में बाधक है-

बहुत से ऐसे ' कानून होते हैं जो सामयिक महत्त्व के होते हैं । इनके पास होने में विलम्ब होने से उनका महत्त्व ही समाप्त हो जाता है । इस प्रकार यह प्रगतिशील कानून के निर्माण के काम में बाधक होता है ।


( 5 ) द्वितीय सदन से समय और धन का अपव्यय होता है-

जिसका भार जनता को ही उठाना पड़ता इसके सदस्यों का वेतन , भत्ता आदि फिजूल खर्च है । इसमें नये - नये कर लगाने पड़ते हैं तथा आर्थिक अभाव के कारण कई अनावश्यक कार्य रुक जाते हैं । 


( 6 ) द्वितीय सदन विधेयकों में सुधार या संशोधन के लिए भी आवश्यक नहीं है -

द्वितीय सदन के विरुद्ध यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि आजकल कोई भी कानून प्रस्तुत किये जाने से पहले ही इसके प्रत्येक पहलू पर भली - भाँति विचार कर लिया जाता है । इसके पश्चात् व्यवस्थापिका तथा उसकी समितियों में प्रस्ताव के प्रत्येक पहलू पर गम्भीर विचार किया जाता है । प्रथम सदन द्वारा स्वीकृत होने के समय तक प्रस्ताव की रूपरेखा यथासम्भव पूर्णतया दोषरहित हो जाती है और द्वितीय सदन के लिए उसमें किसी प्रकार का संशोधन करने की सम्भावना ही नहीं रह जाती है । 


( 7 ) द्वितीय सदन संघीय शासन पद्धति के लिए भी आवश्यक नहीं है—

द्वितीय सदन के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है । प्रत्येक संघीय राज्यों में राजनैतिक दलों के आधार पर ही द्वितीय सदन का निर्वाचन होता है । आज अमेरिका को छोड़कर शेष अन्य सभी देशों में द्वितीय सदन की शक्तियाँ कम कर दी हैं । संघीय राज्यों को समान प्रतिनिधित्व मिलने पर भी छोटे राज्यों को इससे कोई विशेष लाभ नहीं होता है । 


( 8 ) द्वितीय सदन में संगठन सम्बन्धी कठिनाई है-

सैद्धान्तिक तर्कों को अलग रखकर इस प्रश्न पर विचार किया जाये कि व्यवहार स्वरूप में द्वितीय सदन का संगठन किस आधार पर होना चाहिए तो बहुत सी ऐसी कठिनाइयाँ सामने आती हैं जिसका समाधान असम्भव है ।


यदि द्वितीय सदन वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित है तो वह निम्न सदन की पुनरावृत्ति मात्र रह जाता है और यदि उसका निर्वाचन उच्च योग्यता के आधार पर हुआ है, तो वह रूढ़िवादी तथा प्रतिक्रियावादी होगा तथा यदि द्वितीय सदन वंशानुगत हो तो वह लोकतंत्र के सिद्धान्त के विरुद्ध तथा निम्न सदनों के हितों एवं उसकी आकांक्षाओं का विरोधी होगा ।


यदि वह अंशतः निर्वाचित तथा अंशतः मनोनीत है तो वह स्वयं विभाजित होने के कारण किसी भी दशा में उचित निर्णय नहीं लेगा और यदि द्वितीय सदन कार्यपालिका द्वारा मनोनीत सदस्यों से बनाया जायेगा तो यह कार्यपालिका के अधीन होगा । इस प्रकार इसके संगठन में बड़ी कठिनाइयाँ हैं ।

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