प्राथमिक शिक्षा: अर्थ, परिभाषा, महत्व, उद्देश्य, विकास, समस्यायें और समाधान

प्राथमिक शिक्षा [PRIMARY EDUCATION]

प्राथमिक शिक्षा का अर्थ व महत्व (MEANING AND IMPORTANCE OF PRIMARY EDUCATION)


किसी भी राष्ट्र के जीवन में प्राथमिक शिक्षा ही उसकी प्रगति एवं उसके नागरिकों के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। प्राथमिक शिक्षा की पहली सीढी को सफलतापूर्वक पार करके ही कोई राष्ट्र अपने अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँच सकता है।


भारतीय संविधान, अनुच्छेद 45, के अनुसार "राज्य इस संविधान के प्रारम्भ (26 जनवरी 1950) से दस वर्ष की समय अवधि में सब बच्चों को 14 वर्ष की अवस्था समाप्ति तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के लिये प्रावधान करने का प्रयास करेगा।"


"The state shall endeavour to provide within ten years from the commencement of this constitution (Jan 26, 1950) for a free and compulsory education for all children until."


प्राथमिक शब्द का सामान्य अर्थ है- प्राथमिक, मुख्य। इस प्रकार प्राथमिक शिक्षा का अर्थ है-प्राथमिक शिक्षा अथवा मुख्य शिक्षा। संकुचित या परम्परागत दृष्टिकोण में प्राथमिक शिक्षा का अर्थ कक्षा 1 से 5 तक की शिक्षा से है, जिनमें बच्चों को 3R अर्थात् पढ़ना-लिखना तथा हिसाब लगाना ही सिखाया जाता है। शिक्षा का उद्देश्य छात्र के व्यवहार में अभीष्ट परिवर्तन लाग है।

प्राथमिक शिक्षा: अर्थ, परिभाषा, महत्व, उद्देश्य, विकास, समस्यायें और समाधान

शिक्षा हमारा सर्वांगीण विकास करती है। हमारे जीवन को अधिक सरल, सेवाभाव, विनम तथा शान्त बनाती है। हमारे देश में 1937 में प्रान्तों में स्वायत्त शासन स्थापित हुआ तथा तभी गाँधीजी ने 'राष्ट्रीय शिक्षा योजना' प्रस्तुत की, जिसमें 7 से 14 आयु वर्ग के बच्चों की कक्षा । से 8 कक्षा तक की शिक्षा को अनिवार्य तथा निःशुल्क करने का प्रस्ताव किया।


फिर अब राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 लागू है, 10+2+3 शिक्षा संरचना लागू है और इसकी प्रथम 10 वर्षीय आधारभूत पाठ्यचर्या को तीन भागों में विभाजित किया गया है- कक्षा 1 से 5 तक प्राथमिक कक्षा 6 से 8 तक उच्च प्राथमिक, कक्षा 9 से 10 माध्यमिक, +2 अर्थात् कक्षा 11 तथा 12 के उच्च माध्यमिक शिक्षा कहा गया है। अत: स्पष्ट है कि इस समय हमारे देश में 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों की कक्षा 1 से कक्षा 8 तक की शिक्षा प्राथमिक शिक्षा के अन्तर्गत आती है।


स्वामी विवेकानन्द के अंग्राकित वाक्य सत्य से भरपूर हैं, "मेरे विचार से जनसाधारण की अवहेलना महान् राष्ट्रीय पाप है और हमारे पतन के कारणों में से एक है। सब राजनीति उस समय तक विफल रहेगी, जब तक कि भारत में जनसाधारण को एक बार फिर भली प्रकार शिक्षित नहीं कर लिया जायेगा।" आज पूरे देश के लिए इस प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य और एक आधारभूत पाठ्यचर्या निश्चित है।


भारत में प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य (AIMS OF PRIMARY EDUCATION IN INDIA)


सर्वप्रथम भारतीय शिक्षा आयोग (हण्टर कमीशन), 1882 ने प्राथमिक शिक्षा के दो उद्देश्य निश्चित किए थे-

1. जन शिक्षा का प्रसार,

2. व्यावहारिक जीवन की शिक्षा।


किन्तु नवम्बर, 2000 में 'राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) ने जो बिद्यालयी शिक्षा के लिए कुछ उद्देश्य प्रकाशित किए थे। उनके आधार पर प्राथमिक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताये जा सकते हैं-


1. बच्चों को अन्य लोगों से बातचीत के लिए प्रथम भाषा अर्थात् मातृभाषा का ज्ञान कराना।

2. बालकों को स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों का ज्ञान कराना और स्वास्थ्यवर्द्धक क्रियाओं में प्रशिक्षित करना। 

3. व्यावहारिक समस्याओं के समाधान के लिए जोड़, घटाना, गुणा एवं भाग करने की योग्यता प्रदान करना।

4. बच्चों को उनके प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण का ज्ञान कराना।

5. बच्चों में सामूहिकता की भावना का विकास करते हुए, उन्हें वर्ग-भेद से ऊपर उठाना और जोवन कला में भी प्रशिक्षित करना।

6. भारत की मिश्रित संस्कृति से परिचित कराते हुए अस्पृश्यता, जातिवाद एवं साम्प्रदायिकता का विरोध करना सिखाना।

7. बच्चों को स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों का ज्ञान कराना और स्वास्थ्यवर्द्धक क्रियाओं में प्रशिक्षित करना।

8. बच्चों को मानव श्रम के प्रति स्वस्थ विचार पैदा करना तथा उनकी सृजनात्मक क्षमता का विकास करना।

9. विज्ञान की खोज विधि (Inquiry Method) को सिखाना और विज्ञान एवं तकनीकी के महत्व को समझाना।

10 बच्चों को एक-दूसरे का सम्मान करने की ओर प्रवृत्त करना और उन्हें प्रेम, सहानुभूति और महयोग से कार्य करने की ओर उन्मुख करना।

11. बच्चों में राष्ट्रीय प्रतीकों, जैसे- राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान आदि तथा प्रजातान्त्रिक विधियों एवं मस्थाओं के प्रति आदर की भावना उत्पन्न करना।


प्राथमिक शिक्षा का विकास (DEVELOPMENT OF PRIMARY EDUCATION)


प्राथमिक शिक्षा के विकास को निम्न भागों में विभाजित किया गया है-ब्रिटिश काल में प्राथमिक शिक्षा का विकास तथा स्वतन्त्रता के बाद प्राथमिक शिक्षा का विकास। इनका संक्षिप्त विवरण अग्रलिखित है-


ब्रिटिश काल में प्राथमिक शिक्षा का विकास (Development of Primary Education in British Period)


1857 में भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति का दमन करने के बाद 1958 में यहाँ सीधे ब्रिटेन की सरकार का शासन स्थापित हो गया। लार्ड कैनिंग ने 1859 में प्राथमिक शिक्षा कर लगाया और इससे प्राप्त धनराशि से प्राथमिक शिक्षा के विकास का प्रयत्न शुरू किया, किन इससे उन्हें कोई सफलता नहीं मिली।


1882 में उसने भारतीय शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव देन के लिए नियुक्त भारतीय शिक्षा आयोग (हण्टर कमीशन) की सिफारिशों के आधार पर स्थानीय निकायों ने प्राथमिक शिक्षा के प्रसार के लिए प्रयत्न शुरू किये, जिससे 1881-82 में प्राथमिक विद्यालयों की संख्या 82,916 तथा छात्र-छात्राओं की संख्या 20,61,541 थी, जो 1901-02 में बढ़कर क्रमश: 93604 और 3076671 हो गई, फिर भी प्राथमिक शिक्षा को जनशिक्षा का रूप नहीं दे सके। राष्ट्रीय नेताओं ने अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की मांग की।


तत्कालीन बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकबाड़ ने 1892 में अपने राज्य के 9 ग्रामों में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा योजना लागू की। इस कार्य में सफल होने के परिणामस्वरूप 1906 में उन्होंने एक अधिनियम द्वारा राज्य में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया। 1910 में गोखले ने केन्द्रीय धारा सभा में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के सन्दर्भ में एक प्रस्ताव रखा, जिसे सरकार ने अस्वीकार करते हुए उसके लिए प्रयत्न करने का आश्वासन अवश्य दिया।


मार्च, 1911 में गोखले ने इसे केन्द्रीय धारा सभा में विधेयक के रूप में प्रस्तुत किया तो ये भी अस्वीकार हो गया। सरकार ने 1913 में शिक्षा सम्बन्धी नए प्रस्ताव (नीति) के तहत 1920 तक 11 में से 7 प्रान्तों (बम्बई, पंजाब, संयुक्त प्रान्त, बंगाल, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और मद्रास) में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा अधिनियम पास किए गए और प्राथमिक विद्यालयों की संख्या में वृद्धि की गई।


1937 में हमारे देश में प्रान्तों में स्वसरकारों का गठन हुआ और 11 में से 7 प्रान्तों में कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल बने। महात्मा गाँधी नेते वर्धा शिक्षा सम्मेलन में राष्ट्रीय योजना प्रस्तुत की, किन्तु 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया और विकास कार्यों में बाधा आई। युद्ध समाप्ति के बाद उन्होंने यह योजना 1944 में प्रस्तुत की। सरकार ने इसे कम समय में पूरा करने का निर्णय लिया, परिणामस्वरूप हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा का भी विकास शुरू हुआ।


स्वतन्त्र भारत में प्राथमिक शिक्षा का विकास (Development of Primary Education in Free India)


15 अगस्त, 1947 को हमारा देश स्वतन्त्र हुआ और 26 जनवरी, 1950 से हमारे देश में हमारा अपना संविधान लागू हुआ। प्राथमिक शिक्षा के सन्दर्भ में इसकी 45वीं धारा में स्पष्ट निर्देश (Directive) है- "राज्य इस संविधान के लागू होने के समय से दस वर्ष के अन्दा 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों की अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करेगा।" (The state shall endeavour to provide with in a period of ten years from the commencement of the constitution, for free and compulsory education for all children until they complete the age of fourteen years-Article 45 Constitution of India) और हम तभी से हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क करने की और ठोस कदम उठाए किन्तु आजादी के 61 वर्ष के बाद भी इस लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर पाये हैं। इस लक्ष्य की प्राप्ति निम्न बाधाएँ आती रही हैं-


धन की कमी।

जनसंख्या वृद्धि।

कर्त्तव्यनिष्ठता में कमी।

सामाजिक पिछड़ापन।

 वैचारिक मतभेद इत्यादि।


पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत प्राथमिक शिक्षा का विकास (Development of Primary Education under Five Year Plans) -


1951 में प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56) में शिक्षा पर 153 करोड़ रुपये व्यय हुए, जिनमें से 85 करोड़ रुपये प्राथमिक शिक्षा के विकास एवं उसके उन्नयन पर व्यय किए गए। दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61) में शिक्षा पर 273 करोड़ रुपये व्यय किए गए, जिनमें से 95 करोड़ रुपये प्राथमिक शिक्षा पर व्यय किए गए। इस योजना के तहत 1957 में केन्द्र सरकार ने 'अखिल भारतीय प्राथमिक शिक्षा परिषद्' (All India Council for Elementary Education, AICEE) का गठन किया, जिसके फलस्वरूप प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए तथा प्रसार कार्य में तेजी आई।


तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-66) में शिक्षा पर 589 करोड़ रुपये व्यय किए गए, जिनमें से 201 करोड़ रुपये प्राथमिक शिक्षा पर व्यय किए गए। इससे प्रार्थामक शिक्षा के लिए विद्यालय और पढ़ने वाले बच्चों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हुई। इसी बीच 1966 में कोठारी कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर शिक्षा नीति, 1968 की घोषणा की गई।


चतुर्थ पंचवर्षीय योजना (1969-74) में शिक्षा पर कुल 786 करोड़ रुपये व्यय किए गए, जिनमें से 239 करोड़ रुपये प्राथमिक शिक्षा के विकास पर व्यय किया गया। इसी योजना के अन्तर्गत एक शिक्षकीय प्राथमिक स्कूलों की स्थापना में वृद्धि हुई।


इसके बाद पाँचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-79) में शिक्षा पर कुल 912 करोड़ व्यय किए। इस योजना से 317 करोड़ रुपये प्राथमिक शिक्षा के उन्नयन एवं विकास के लिए व्यय किए। इस योजना में स्कूल के छात्र/छात्राओं के लिए निःशुल्क मध्यान्ह भोजन को व्यवस्था की गई और कमजोर वर्गों के लिए निःशुल्क पाठ्यपुस्तकें एवं लेखन सामग्री वितरित की गई।


पाँचवी योजना के अंतिम वर्ष 6-14 आयु वर्ग के ऐसे बच्चों के लिए, जो किसी कारण औपच. रिक शिक्षा का लाभ नहीं उठा पा रहे थे, निरौपचारिक शिक्षा (Non-formal Education) शुरू की गई।


छठी पंचवर्षीय योजना में प्राथमिक शिक्षा पर 836 करोड़ रुपये शिक्षा पर व्यय किये गए। इस योजना में (Non-formal Education) निरौपचारिक शिक्षा का विस्तार किया गया।


सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90) में शिक्षा पर कुल 7633 करोड़ रुपये व्यय किये गए और इनमें से 2849 करोड़ रुपये प्राथमिक शिक्षा पर व्यय किए गए। 1987-88 में 'ब्लैक बोर्ड योजना' (Operation Black Board) शुरू की गई।


आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97) में शिक्षा पर कुल व्यय 19600 करोड़ रुपये व्यय किए गए, जिनमें से 9201 करोड़ रुपये प्राथमिक शिक्षा पर व्यय किए गए। 1994 में शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े जिलों में 'जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम' (District Primary Education Programme, DPEP) शुरू किया गया।


नवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) में शिक्षा के लिए 20381.6 करोड़ रुपयों का प्रावधान किया गया था, जिनमें से 1184.4 करोड़ रुपये प्राथमिक शिक्षा के लिए रखे गए, परन्तु व्यय 1636.5 करोड़ किए गए। नवम्बर, 2000 में 'सर्वशिक्षा अभियान’ (Sarva Siksha Abhiyan) मंजूर किया गया और जनवरी, 2001 में इसे शुरू किया गया।


विवधीय योजना (2002-07) में शिक्षा के लिए 42850 करोड़ रुपयों का प्रावधान किया गया जिनमें से 28750 करोड़ रुपये प्राथमिक शिक्षा के प्रसार एवं उन्नयन के लिए रखे गए थे। इस योजन के दौरान दिसम्बर, 2002 में संविधान में 86वाँ संशोधन कर धारा 21-A जोड़ी गई, जिसके द्वारा 614 आयु वर्ग के सभी बच्चों की निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा को उनका मूल अधिकार घोषित किय गया।


11 वीं पंचवर्षीय योजना 2012 तक चली। 12वीं पंचवर्षीय (2012-2017) में 7000 प्रार्यान्व विद्यालय और 1250 जूनियर हाईस्कूल स्थापित करने का लक्ष्य तय किया गया। यह विद्यालय अ स्थानों में स्थापित किये गये जहाँ पड़ोल की निर्धारित सीमा में विद्यालय नहीं है। वर्तमान में सरकार के (2017-2035) कि अब पंचवर्षीय योजना नहीं होगी अब से 15 साल का खाका तैयार किया जाएग नीति आयोग इसका चयन करेगी।


प्राथमिक शिक्षा की समस्यायें और उनका समाधान (PROBLEMS OF PRIMARY EDUCATION AND THEIR SOLUTIONS)


जब हमारा देश स्वतन्त्र हुआ, उस समय यहाँ प्राथमिक शिक्षा की स्थिति बड़ी शोचनीय थो। इस क्षेत्र में अनेक समस्याएँ थीं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा का यथेष्ट विकास हुआ, किन्तु अभी तक संविधान द्वारा उस निर्देशित लक्ष्य का पूर्णरूपेण अनुपालन नहीं हो सका, जिसमें 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था 10 वर्ष के अन्दर की जानी थी। जब तक इन समस्याओं का समाधान नहीं किया जायेगा, तब तक प्राथमिक शिक्षा के अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति संदिग्ध रहेगी। प्राथमिक शिक्षा की प्रमुख समस्याएँ और उनके समाधान के लिए निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत हैं-


1. शिक्षा की दोषपूर्ण नीति (Faulty Policy of Education)


प्राथमिक शिक्षा की प्रमुख समस्या दोषपूर्ण नीति है। सन् 1950 में लागू किये गये भारतीय संविधान की 45वीं धारा के माध्यम में यह निश्चित किया गया कि 10 वर्ष की अवधि के भीतर 6 से 14 वर्ष की आयु तक के सब बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने का प्रयास किया जायगा। इस लक्ष्य की प्राप्ति में सहायता देने के लिए "अखिल भारतीय प्राथमिक शिक्षा-परिषद्" (All India Council for Elementary Education) का निर्माण किया गया।


केन्द्रीय सरकार द्वारा राज्य सरकारों को वार्षिक सहायता प्रदान की गई। परन्तु यह नितान्त आदर्श पर आधारित थी। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश सरकार 54 वर्ष के उपरान्त भी उसका पालन नहीं कर सकी है। भारत सरकार का यह भी निर्णय था, कि प्राथमिक शिक्षा बेसिक शिक्षा के समान होगी तथा राज्य सरकारों को समस्त व्यय का 34% वार्षिक सहायता दो जायेगी, शेष व्यय के 3/4 भाग की पूर्ति राज्य सरकारें तथा शेष 1/8 भाग की पूर्ति स्थायी निकायों द्वारा तथा शेष की पूर्ति अन्य स्रोतों से की जाएगी। 48 वर्ष के उपरान्त भी आज निर्धारित लक्ष्य तक न पहुँचने का आधारभूत कारण है-केन्द्रीय सरकार व राज्य सरकारों की दोषपूर्ण नीति।


इस योजना के अन्तर्गत उत्तर प्रदोश सरकार ने प्राथमिक विद्यालयों को ही बेसिक विद्यालयों में। बदलने का कार्य प्रारम्भ किया था, क्योंकि बेसिक विद्यालयों की स्थापना में भवन, साज-सज्जा और प्रशिक्षित शिक्षकों आदि के लिए लिए अपार धन की आवश्यकता थी। इन कार्यों के लिए धन जुटाना भारत जैसे निर्धन देश के लिए अल्प समय में असम्भव है, आधारहीन आशा है। फिर भी हर योजना में सरकार अभी भी धन व्यय कर रही है।


समस्याओं के समाधान (Solution of Problems)-


प्राथमिक शिक्षा की इस समस्या के सम. धान के लिए परम आवश्यक है कि सरकार को प्राथमिक शिक्षा की नीति के दोष को समाप्त करने के लिए एक निश्चित नीति का निर्माण करना चाहिए। इस कार्य के लिए निम्न सुझाव दिये जा सकते हैं-


1. सरकार द्वारा प्राथमिक शिक्षा की आदर्शवादी एवं दोषपूर्ण नीति को बदल कर इसके स्थान पर व्यावहारिक नीति सुनिश्चित करनी चाहिए।


2.6-14 आयु वर्ग के बच्चों के लिए निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था के लिए सरकार को कठोर कार्यवाही करनी चाहिए।


3. प्राथमिक शिक्षा को बेसिक रूप प्रदान करने या प्राथमिक विद्यालयों को बेसिक विद्यालयों में रूपान्तरित करने का कार्य आरम्भ करना चाहिए।


4. प्राथमिक विद्यालय जो कार्यरत हैं, उन्हें उसी रूप में कार्य करने देना चाहिए और वांछित स्थानों पर बेसिक विद्यालय खोलने चाहिए।


2. प्रशासन, वित्त एवं नियन्त्रण (Administration, Finance and Control) -


हमारे देश में शिक्षा इस समय समवर्ती सूची में शामिल है अर्थात् किसी भी स्तर की शिक्षा की व्यवस्था करना केन्द्र और प्रान्तीय सरकारों का संयुक्त दायित्व है। प्रदेश में जिला परिषदों एवं नगर पालिकाओं द्वरा संचालित पूर्व प्राथमिक विद्यालयों, प्राथमिक विद्यालयों, पूर्व माध्यमिक विद्यालयों के संचालन एवं इन्हीं श्रेणियों के गैर-सरकारी, निजी विद्यालयों को मान्यता एवं सामान्य नियन्त्रण का कार्य उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा परिषद् द्वारा किया जा रहा है।


मण्डल स्तर पर इन विद्यालयों की देखरेख का कार्य मण्डलीय उप शिक्षा निदेशक एवं मण्डलीय बालिका विद्यालय निरीक्षिका द्वारा किया जाता है। इस प्रकार प्राथमिक शिक्षा में प्रशासन की निम्न समस्याएँ सामने आयी हैं-स्थानीय संस्थायें अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार प्राथमिक शिक्षा का प्रशासन करती हैं, जिससे प्रशासन में अलग रूप देखने को मिलता है।


1. भारत में अधिकतर संस्थाएँ अपनी अयोग्यता, अकर्मण्यता एवं अकिंचनता के लिए ही जानी जाती है।


2. स्थानीय सदस्य प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना करके उसमें विद्यालय निरीक्षकों की व्यवस्था नहीं कर पाते, जिसका प्रमुख कारण वित्त व्यवस्था का समुचित न होना है।


इस समय इन विभिन्न प्रकार के प्राथमिक विद्यालयों को प्रान्तीय सरकारों के प्रशासनिक ढाँचे के अन्तर्गत लाना अति महँगी संस्थाओं पर नियन्त्रण करना, साधनविहीन संस्थाओं की दशा सुधारना और इन सब प्रकार की प्राथमिक शिक्षा संस्थाओं पर नियन्त्रण रखना एक बड़ी समस्या है।


समस्याओं के समाधान (Solution of Problems) -


इस समस्या के समाधान के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं-


1. केन्द्र व प्रान्त की सरकारें मिलकर शिक्षा नीति बनाएं और उस नीति के अनुपालन करने की बाध्यता केन्द्रीय तथा सभी प्रान्तीय सरकारों के लिए हो।

2. प्राथमिक स्तर पर शैक्षिक प्रशासन और नियन्त्रण को और अधिक प्रभावपूर्ण बनाया जाना चाहिए।

3. राष्ट्रीय शिक्षा नीति इतनी स्पष्ट होनी चाहिए कि प्रान्तीय सरकारें उसका अर्थ एक ही निकालें, अलग नहीं।

4. भारत जैसे अधिक जनसंख्या वाले देश में प्राथमिक शिक्षा को सर्वसुलभ कराने हेतु महयोग लेना चाहिए। जन सहयोग से तात्पर्य सरकारी नीतियों का पालन करते हुए प्राथमिक शिक्ष की व्यवस्था करना।

5. प्राथमिक शिक्षा अधिकारियों एवं निरीक्षकों को आवासीय सुविधा प्रदान की जानी चाहिए। 

6. एक निरीक्षक के अधीन विद्यालयों की संख्या सुनिश्चित की जानी चाहिए।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) में शिक्षा के प्रबन्ध एवं व्यवस्था के लिए निम्नलिखित तथ्यों पर अधिक बल देने को कहा गया है- "शिक्षा के नियोजन एवं प्रबन्ध की व्यवस्था के पुनर्गठन को उच्च प्राथमिकता दी जायेगी। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित सिद्धान्तों को ध्यान में रखा जायेगा-


(i) शिक्षा के नियोजन और प्रबन्ध की दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य तैयार करना और उसे देश की विकासात्मक और जन शक्ति विषयक आवश्यकताओं से जोड़ना।

(ii) लोक भागीदारी को प्रधानता देना, जिसमें गैर-सरकारी एजेन्सियों का जुड़ाव तथा स्वैच्चिक प्रयास शामिल हों।

(iii) शिक्षा के आयोजनों और प्रबन्ध में अधिकाधिक संख्या में महिलाओं को शामिल करना।

(iv) प्रदत्त उद्देश्यों और मानदण्डों के सम्बन्ध में जवाबदेही के सिद्धान्त की स्थापना।


3. दोषपूर्ण पाठ्यक्रम (Defective Curriculum)


प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम अत्यन दोषपूर्ण है, क्योंकि यह संकीर्ण, कठोर, अरुचिकर एवं एकाकी है। इसमें पुस्तकीय ज्ञान की प्रधानता है तथा इस पर परीक्षा का पूर्ण आधिपत्य है। यह छात्रों को अपनी रचनात्मक शक्तियों एवं कुशलताओं का विकास करने और 'कार्य करके सीखने' का कोई अवसर नहीं देता है। इस सम्बध में शिक्षा आयोग ने लिखा है, "पाठ्यक्रम पुस्तकीय ज्ञान और बिना अर्थ समझे हुए सीखने पर अधिक बल देता है, व्यावहारिक क्रियाओं और अनुभवों के लिए अपर्याप्त प्रावधान रखता है और बाह्य एवं आन्तरिक परीक्षाओं से अधिरोहित हैं।


इसके अतिरिक्त उपयोगी कौशलों के विकास के रूप में और उचित प्रकार की रुचियों, अभिवृत्तियों एवं मूल्यों की वृद्धि में उचित बल न दिये जाने से पाठ्यक्रम न केवल आधुनिक ज्ञान से अलग हो जाता है, वरन् लोगों के जीवन की सामंजस्यता से परे हो जाता है। इस प्रकार स्कूल पाठ्यक्रम को उन्नत करने, उच्च स्तर का बनने और सुधार करने की अविलम्ब आवश्यकता है।"


समस्याओं के समाधान (Solution of Problems)-


दोषपूर्ण समस्या के समाधान के लिए शिक्षा आयोग ने लिखा है, "निम्न प्राथमिक स्तर पर बालक को सीखने के बुनियादी साधनों जैसे पढ़ना लिखना और गणना में शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए और अपने भौतिक और सामाजिक वातावरण के प्राथमिक अध्ययन के माध्यम से अपने चारों ओर की परिस्थितियों से अपने को समायोजित करन के लिए सीखना चाहिए।


" भारत सरकार ने प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम को दोषमुक्त काने और उसको गुणात्मक उन्नति करने के लिए प्राथमिक शिक्षा को बेसिक शिक्षा का रूप प्रदान कारे का निश्चय किया है। इससे वांछित लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। जब तक बेसिक शिक्षा की योजना सम्पूर्ण देश में क्रियान्वित न हो जाए, तब तक प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार किसी उपयोगो शिल्प या हस्तकार्य को स्थान दिया जाए। इस आवश्यकता के अनुसार 'कोठारी कमीशन' ने निम्नलिखित दो विचार व्यक्त किये हैं-


1. निम्न प्राथमिक स्तर पर छात्रों को उन कार्यों में भाग लेना चाहिए, जिनसे उनकी रचनात्मक एवं उत्पादन-कुशलता का विकास हो।

2. उच्च प्राथमिक स्तर पर छात्रों को साधारण कलाओं एवं शिल्पों से सम्बन्धित कार्य करने चाहिए।

3. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या ढाँचे पर एक सामान्य कौर के साथ-साथ अन्य लचीले घटकों पर आधारित एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली की परिकल्पना की गई है। सन् 1986 तथा 1992 की कार्य योजनाओं में शिक्षा के लिए बालकेन्द्रित दृष्टिकोण को अपनाने की परिकल्पना की गई। इस परिपेक्ष्य में सभी बच्चों के नामांकन को बढ़ावा देने तथा नामांकित बच्चों को 14 वर्ष की आयु तक स्कूलों में रोककर रखने तथा शिक्षा की कोटि में पर्याप्त सुधार लाने के प्रयासों पर बल दिया गया। इस कार्य को सन् 1988 में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् ने पूरा किया।


4. अपव्यय एवं अवरोध की समस्या (Problem of Wastage and Stagnation) -


सर्वजन की शिक्षा अर्थात् सार्वभौमिक शिक्षा के लिये वह आवश्यक है कि प्रत्येक बच्चे के लिए विद्यालय को उपलब्ध कराना, प्रत्येक बच्चे का नामांकन कराना तथा विद्यालय में छात्रों को रोके रखना तथा सबसे अन्तिम उन्हें परीक्षा उत्तीर्ण कराना। परन्तु हमारे देश में अधिकांश बच्चे नामांकन के बाद विद्यालय जाना छोड़ देते हैं तथा जो विद्यालय में रहते हैं, उनका पाठ्यक्रम निश्चित समय में पूरा नहीं होता है।


यही शिक्षा में अपव्यय एवं अवरोधन कहलाता है। अपव्यय का शाब्दिक अर्थ-फिजूल खर्च तथा शिक्षा के सन्दर्भ में इसका प्रयोग इसी रूप में किया जाता है। जब कोई बच्चा किसी निश्चित पाठ्यक्रम (जैसे-प्राथमिक, माध्यमिक अथवा उच्च) में प्रवेश लेता है तथा वह उसे पूरा किये बिना ही छोड़ देता है, तो उसे अपव्यय कहते हैं। अपव्यय इसलिए कहते हैं कि बच्चों के प्रवेश लेने से पढ़ाई बीच में छोड़ने तक जो समय, शक्ति और धन का व्यय हुआ, वह व्यर्थ चला जाता है।


हर्टाग समिति ने प्राथमिक शिक्षा के सन्दर्भ में सबसे पहले 1929 में इस ओर ध्यान आकर्षित किया था।


हांग कमेटी के अनुसार "अपव्यय से हमारा तात्पर्य बच्चों का प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करने से पहले ही किसी कक्षा में स्कूल से हटा लेने से है।"

By Wastage we mean the premature withdrawal of children from Schools at any stage before the completion of the primary course. -Hartog Committee, 1929 


अपव्यय शिक्षा के सभी स्तरों में व्याप्त है अतः इसे निम्नलिखित रूप में परिभाषित करना चाहिए-


"शिक्षा के क्षेत्र में अपव्यय से तात्पर्य किसी बच्चे के शिक्षा के किसी पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने के बाद उसे पूरा किये बिना बीच में ही छोड़कर चले जाने से है।"


अवरोधन का शाब्दिक अर्थ है- रुकावट। शिक्षा के सन्दर्भ में भी इसका प्रयोग इसी रूप में किया जाता है। जब बच्चा किसी निश्चित पाठ्यक्रम को निश्चित समयावधि में पूरा नहीं कर पाता है, तो यह अवरोधन कहलाता है। अवरोधन इसलिए है कि निश्चित पाठ्यक्रम अपनी समय सीमा में पूरा नहीं होता है, जिससे शिक्षा में अवरोधन उत्पन्न होता है। छात्र के अध्ययन में इस अवरोध या रुकावट से समय, शक्ति और धन का अतिरिक्त व्यय होता है। हर्टाग कमेटी ने इसके सम्बन्ध में अपने विचार दिये हैं-


"अवरोध से हमारा तात्पर्य, किसी बच्चे का किसी निम्न कक्षा में एक से अधिक वर्ष रोके जाने से है।" By stagnation we mean the retention of a child in lower class for a period of more than one year. -Hartog Committee 1929


प्रत्येक स्तर की शिक्षा के सन्दर्भ में इसे इस रूप में परिभाषित किया जा सकता है-

 

शिक्षा के क्षेत्र में अवरोधन से तात्पर्य, किसी बच्चे के एक निश्चित समय के पाठ्यक्रम को उससे अधिक समय में पूरा करने से है। भारत सरकार द्वारा अगस्त 1985 में प्रकाशित शिक्षा की चुनौती नामक दस्तावेज में कहा गया है कि सन् 1968 में 100 में से कक्षा 5 तक केवल 33 बच्चे ही पहुँचते थे।


सन् 1974 में यह संख्या बढ़कर 38.6 प्रतिशत हो गई। दिसम्बर 1988 में संसद में दिये गये आँकड़ों के अनुसार सन् 1983-84 में 100 में से 50 बच्चे कक्षा पाँच पास कर लेते थे और कक्षा 5 से 8 तक 27 बच्चे बीच में ही स्कूल छोड़ देते थे अर्थात 100 में से केवल 23 छात्र कक्षा आठ की पढ़ाई पूरी करते थे।


सन् 1959 में कक्षा एक में प्रवेश लेने वाले 100 छात्रों में से 1960 में कक्षा दो में केवल 61 छात्र पहुँचे, सन् 1962 में चौथी कक्षा में केवल 44 छात्र ही पहुँचे। इस प्रकार प्राथमिक स्तर पर 56 प्रतिशत अपव्यय हुआ। सन् 1959-60 में कक्षा पाँच के 100 छात्रों में से छठी कक्षा में केवल 84 छात्र पहुँचे और सातवीं कक्षा में 76 छात्र ही रह गये। इस प्रकार जूनियर हाई स्कूल स्तर पर अपव्यय का प्रतिशत 24 था।


गोखले इन्स्टीट्यूट ने महाराष्ट्र के सतारा जिले में एक अध्ययन के उपरान्त यह निष्कर्ष निकाला कि कक्षा एक में प्रवेश लेने वाले प्रति दस हजार छात्रों में केवल 6388 छात्र ही कक्षा चार उत्तीणं कर पाते हैं और शेष 3612 छात्र कक्षा चार उत्तीर्ण करने से पूर्व ही स्कूल छोड़ जाते हैं। इस अध्ययन में अपव्यय का प्रतिशत 36-12 था।


अपव्यय-अवरोधन के कारण-


प्राथमिक कक्षाओं में अपव्यय-अवरोधन के कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित बताये गये हैं-


1. शैक्षिक कारण

2. आर्थिक कारण

3. सामाजिक कारण

4. शारीरिक कारण

5. प्रशासकीय कारण


हर्टाग कमेटी ने इस सन्दर्भ में केवल प्राथमिक शिक्षा के लिए अपने विचार प्रस्तुत किये। कोठारी आयोग ने उसके अनुसार प्राथमिक शिक्षा में अपव्यय-अवरोधन के मुख्य कारण बताये - अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा अधिनियम का न होना, अभिभावकों का निर्धन एवं अशिक्षित होना, स्कूलों की दूरी अधिक होना, प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी होना, शिक्षण संस्थाओं का साधन सम्पन न होना और उचित निरीक्षण की व्यवस्था न होना। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 और 1986 एवं संशोधित 1992 में भी इस समय को गम्भीरता से लिया गया।


1. शैक्षिक कारण (Educational Causes)-

इसमें सबसे प्रमुख हैं- स्कूलों में पढ़ाई का न होना, स्कूलों का नीरस वातावरण, शिक्षा और वास्तविक जीवन में सह-सम्बन्ध का अभाव होना, अमनोवैज्ञानिक शिक्षण पद्धतियों का प्रयोग, विद्यालय में शारीरिक दण्ड की प्रथा का होना तथा शिक्षकों की कमी का होना।


2. आर्थिक कारण (Economic Causes)-

भारत में निर्धनता एक प्रमुख समस्या है, गरीब बाता-पिता शिक्षा पर होने वाले व्यय को वहन नहीं कर पाते हैं और वे उनका व अपना भरण-पोषण करने के लिए उन्हें मजदूरी तथा अन्य कार्यों में लगा देते हैं। वे मानते हैं कि बच्चों को शिक्षा देने से कोई लाभ नहीं है। अतः उन्हें कुछ समय बाद स्कूलों से निकाल लिया जाता है या उन्हें अन्य घरेलू कार्यों में लगाकर स्कूल नहीं भेजा जाता है और वे परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाते हैं।


3. सामाजिक कारण (Social Causes) -

भारतीय समाज में बहुत सी सामाजिक बुराइयाँ व्याप्त हैं, जो भारतीय समाज को प्रगतिशील बनाने में बाधक हैं। लड़कियों को माता-पिता विद्यालय नहीं भेजते वे बड़ी कठिनाई से ही प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर पाती हैं। सह-शिक्षा के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण भी इस क्षेत्र में बाधक है।


4. शारीरिक कारण (Physical Causes)-

शारीरिक अक्षमता या अस्वस्थता के कारण बालक प्राथमिक शिक्षा को पूरा किये बिना ही छोड़ देते हैं तथा वे एक ही कक्षा में कई वर्षों तक अनुत्तीर्ण होते रहते हैं। अधिकांश शारीरिक रूप से अक्षम छात्र स्कूलों में शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते हैं, क्योंकि सामान्य स्कूलों में उनके लिए शिक्षा प्रबन्ध नहीं होता है। शारीरिक विकलांगता से वे हीन भावना से ग्रसित होकर पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं या एक कक्षा में कई वर्षों तक फेल होते हैं।


5. प्रशासकीय कारण (Administrative Causes)-

प्रशासन की शिथिलता के कारण भी अपव्यय अवरोधन होता है। ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालय में छात्रों की अनुपस्थिति तो रहती है बल्कि शिक्षक भी अध्यापन के लिये नहीं आते हैं, यदि आते भी हैं तो शिक्षण कार्य नहीं करते हैं। अतः पढ़ाई का कार्य न के बराबर ही होता है। शिक्षण कार्य में इतनी अनियमितता होती है कि इसमें अपव्यय व अवरोध उत्पन्न हो जाता है।


समस्याओं के समाधान (Solution of Problems)-


1. 1 अप्रैल, 2010 से लागू सर्वशिक्षा अभियान का क्रियान्वयन पूर्ण ईमानदारी और कर्त्तव्य. निष्ठता से किया जाए। इसको जन-जन तक पहुँचाया जाए तथा आवंटित बजट का भली प्रकार से खर्च किया जाए।


2. शारीरिक दृष्टि से अस्वस्थ एवं अपंग छात्रों के साथ सहयोगात्मक व्यवहार किया जाए तथा उनके लिये अलग विद्यालयों का निर्माण किया जाए, जिससे उनको उपयुक्त एवं सतत् शिक्षा प्राप्त हो सके।


3. निर्धनता की समस्या को दूर किया जाए तथा सरकार की आर्थिक नीति ऐसी हो, जिससे निर्धन लोगों को सहायता प्राप्त हो तथा सरकार ने सर्वशिक्षा अभियान के अन्तर्गत जो निःशुल्क शिक्षा को व्यवस्था की है, वह जन-जन तक पहुँच सके।


4. शिक्षा के माध्यम से ही सामाजिक पिछड़ेपन को दूर किया जा सकता है तथा अनिवार्य शिक्षा के साथ-साथ ही प्रौढ़ शिक्षा की भी व्यवस्था की जाए। जन-संचार के साधनों का अधिकाधिक प्रयोग किया जाए और इससे शिक्षा को और अधिक व्यापक बनाया जाए।


5. बालिकाओं के लिये शिक्षा का उचित प्रबन्ध किया जाए तथा अनेक कार्यक्रमों के माध्यम से अधिकांश छात्राओं को शिक्षा से जोड़ा जाए तथा छात्राओं के लिये अलग विद्यालय की भी स्थापना की जाए।


6. शिक्षा को रोचक एवं मनोवैज्ञानिक पद्धति पर आधारित किया जाए, जिससे छात्र ध्यानपूर्वक शिक्षा ग्रहण करें तथा उन्हें ऐसा वातावरण प्रदान किया जाए कि वे बीच में शिक्षा न छोड़ें।


7. परीक्षा प्रणाली में सुधार किया आए तथा अनुत्तीर्ण अत्रों को भी कक्षोन्नति प्रदान की आए। इससे छात्र हीन भावना से ग्रसित नहीं होंगे क्योंकि फेल होने के भय से भी वे शिक्षा छोड़ देते हैं।


देश में प्राथमिक शिक्षा स्तर पर अवरोधन एवं अपव्यय के अनेक कारण हैं। इन प्रमुख कारणों के अतिरिक्त कुछ अन्य कारण भी है जैसे- प्रतिकूल भौगोलिक परिस्थितियाँ, कबील को जीवन पद्धति, अनुसूचित जनजातियों की भाषा सम्बन्धी समस्या, राज्यों में नक्सलवादियों व जम्मू कश्मीर की स्थिति के कारण भी वहाँ के छात्र प्राथमिक शिक्षा से दूर हो जाते हैं। अतः सरकार को इन समस्याओं को भी दूर करने का प्रयास करना चाहिए।


5. सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक कठिनाइयाँ (Social, Religious & Political Difficulties) -


भारत की अधिकांश जनसंख्या अशिक्षित है तथा सामाजिक परम्पराओं से ग्रसित है। भारत में कई सामाजिक कुरीतियाँ, अन्धविश्वास, रूढ़िवादिता, छुआछूत, विधवापन सती-प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल-विवाह व जादू टोना आदि हैं। इसका विपरीत प्रभाव शिक्षा पर भी पड़ता है इन कुरीतियों को मानने वाले लोग शिक्षा के मार्ग में बहुत बाधक होते हैं।


अतः अनेक बालक बालिकायें अशिक्षित रह जाते हैं। इन सामाजिक कुरीतियों का सुधार करने के लिये कुछ सामाजिक संस्थाओं व कार्यकर्त्ताओं ने अपने प्रयासों से कई सकारात्मक परिवर्तन किये तथा उनके ये प्रयास पूर्ण परिवर्तन में संभव नहीं हो सके हैं। इनमें 'राजा राममोहन राय', 'डॉ. कोवें' शारदा एक्ट स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गाँधी के हरिजन उद्धार, स्त्री शिक्षा, बाल-विवाह, विधवा विवाह, छुआछूत समाप्त करने के प्रयास प्रशंसनीय रहे हैं। धार्मिक कट्टरता भी शिक्षा के विकास में बहु बाधक है। शिक्षा के द्वारा ही इन कुरीतियों को दूर करके इनसे छुटकारा पाया जा सकता है।


भारत में लम्बे समय तक शिक्षा अंग्रेजों के हाथों में थी। 1936 में शिक्षा भारतीयों के हाथों में आ गई, परन्तु हमारे देश के नेता प्राथमिक शिक्षा की उन्नति तथा विकास की ओर अधिक ध्यान नहीं दे सके। उनके समक्ष युद्ध, देश का विभाजन, शरणार्थी समस्या, महँगाई, बेरोजगारी, अनाज की कमी तथा अनेक अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति आदि समस्यायें रहीं, जो इस मार्ग में बाधक रहीं। संविधान में निर्धारित समयावधि में वे अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा के स्वप्न को प्राप्त न कर सके। जब तक देश में राजनैतिक कठिनाइयाँ रहेंगी, तब तक शिक्षा सम्बन्धी सभी पक्षों पर सही तरीके से विचार नहीं किया जा सकता है।


समस्याओं के समाधान (Solution of Problems)-


1. सााजिक पिछड़ेपन को दूर करके।

2. सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करके।

3. धार्मिक कट्टरता को दूर करके।

4. राजनैतिक स्थिरता के द्वारा इसे दूर किया जा सकता है।

5. बँटवारा तथा अन्य सामाजिक परम्पराओं को दूर करके।

6. वर्ग-भेद, लिग भेद आदि की समस्याओं को दूर करके।


6. भौगोलिक तथा प्राकृतिक कठिनाइयाँ (Geographical & Natural Difficulties)-


भारत एक विशाल देश है। यहाँ पहाड़, नदियों, मैदान तथा पठारी क्षेत्र की व्यापकता है। कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ सभी प्रकार की व्यवस्था करना बहुत कठिन कार्य है। कहीं-कहीं की आबादी बहुत दूर अर्थात् बिखरी हुई है। छोटे-छोटे गाँवों की संख्या बहुत है। भारत में कुल 8 लाख गाँव हैं तथा कुछ गाँवों की जनसंख्या तो बहुत कम है। अत: प्रत्येक गाँव में स्कूल खोलना सम्भव नहीं है।


भारत की 80 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती है। भारत के कई क्षेत्र जैसे- कश्मीर, हिमाचल आदि पर्वतीय क्षेत्रों में जनसंख्या बहुत छिटकी हुई है। कहीं-कहीं पर घने जंगलों के कारण भी जनसंख्या बहुत छिटकी हुई है। भारत की जलवायु में भी काफी अन्तर पाया जाता है, अतः भौगोलिक एवं प्राकृतिक कारण भी शिक्षा के क्षेत्र में बाधक हैं।


समस्याओं के समाधान (Solution of Problems) -


भौगोलिक एवं प्राकृतिक कठिनाइयों के मध्य बच्चों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने हेतु तीन सुझाव प्रमुख हैं-पहला तो उनके आने-जाने हेतु उचित सड़कों एवं परिवहन के संसधानों की व्यवस्था करना। यह कार्य इतना सरल नहीं है, परन्तु इतना दुर्गम भी नहीं है कि इसे किया न जा सके। सरकार द्वारा ऐसी व्यवस्था की जा रही है तथा प्रत्येक गाँव को पक्की सड़कों से जोड़ा जा रहा है तथा ऐसी व्यवस्था की जा रही है कि मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर प्राथमिक विद्यालय की व्यवस्था हो। आगामी पंचवर्षीय पोजनाओं में सम्पर्क मार्गों के निर्माण के द्वारा बालकों को विद्यालयों में जाने की सुविधा प्रदान की जा सकेगी।


आठवीं पंचवर्षीय योजना में प्राथमिक शिक्षा के सर्वसुलभीकरण को प्राथमिकता प्रदान की गई है। इसके लिये निम्नलिखित राष्ट्रीय लक्ष्य निर्धारित किये हैं-


1. बालिकाओं और अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के व्यक्तियों सहित सभी बच्चों का सार्वभौम नामांकन।

2. एक किलोमीटर की पैदल दूरी की परिधि में सभी बच्चों के लिये प्राथमिक स्कूल उपलब्ध कराना।

3. बीच में पढ़ाई छोड़ने वालों ऐसे कार्यरत बच्चों तथा बालिकाओं, जो विद्यालयों में नहीं जा सकते हैं, उनके लिये अनौपचारिक/गैर-औपचारिक (Non-Formal) शिक्षा की व्यवस्था करना।

4. इस शिक्षा के लिये गैर औपचारिक शिक्षा केन्द्रों की संख्या को 3.5 लाख तक बढ़ाने का प्रस्ताव किया।

5. अपर प्राथमिक स्तर पर बालिकाओं की सहभागिता बढ़ाने के लिये अतिरिक्त अवसरों हेतु शर्त के रूप में प्राथमिक स्कूल से अपर प्राथमिक स्कूल के मौजूदा अनुपात 1:4 से 1:2 में सुधार।

6. पढ़ाई को जारी रखने के लिये ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड की योजना को अपर प्राथमिक स्तर पर भी बढ़ाया। वर्ष 1987-88 से 1992-93 की अवधि में इस योजना को देश के 91.5 प्रतिशत ब्लॉकों में कार्यान्वित किया गया।


7. आर्थिक कठिनाइयाँ/धन का अभाव (Economic Difficulties/Dearth of Money)-


देश की आर्थिक स्थिति शोचनीय है तथा प्रति व्यक्ति आय भी कम है। अधिकांश जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीवन व्यतीत कर रही है, उन्हें पेट भर भोजन भी प्राप्त नहीं हो रहा है, तो वह शिक्षा के खर्च का वहन कैसे करेंगे। अतः उन्हें अपने जीविकोपार्जन हेतु बच्चों से भी कार्य या मजदूरी करवानी पड़ती है। यदि आँकड़ों को देखेंगे तो हम पायेंगे कि फसल कटने, बोने के समय अधिकांश छात्र विद्यालय नहीं आते हैं।


सरकार प्राथमिक शिक्षा पर जो धन खर्च करती है। वह भ्रष्टाचार के कारण सही तरीके से क्रियान्वित नहीं हो पाता है। सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान के लिये अरबों रुपये के बजट का आवंटन किया। यदि यह धन सही दिशा में क्रियान्वित किया जाए, तो प्राथमिक स्तर की शिक्षा को सुधारा जा सकता है। सरकार को इस कार्य हेतु कर्मठ कार्यकर्ताओं की आवश्यकता है।


समस्याओं के समाधान (Solution of Problems)-


1. प्राथमिक शिक्षा हेतु निर्धारित धन को सही तरीके से क्रियान्वित करना।

2. भारत सरकार को विदेशी शासकों की प्राथमिक शिक्षा की गुणात्मक उन्नति करने की नीति का कुछ समय के लिये परित्याग कर देना चाहिये और इससे बचने वाले धन को सामान्य प्राथमिक शिक्षा के प्रसार के लिये प्रयोग करना चाहिये।

3. राज्यों को प्रदान किये गये धन या आर्थिक सहायता के खर्च की पूर्ण जानकारी करनी चाहिये।

4. राज्यों को सर्व शिक्षा अभियान में केन्द्रीय सरकार के नियमों का पालन पूरी ईमानदारी से करना चाहिये।

5. आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों की विशेष सहायता की जाए। (बिहार राज्य ने स्वयं इस दिशा में कई प्रयास किये तथा उसके सकारात्मक परिणाम सम्पूर्ण देश के समक्ष हैं तथा शैक्षिक पिछड़ापन दूर करने के प्रयास सराहनीय हैं।

6. मिड-डे मील योजना का सही तरीके से क्रियान्वयन करके, क्योंकि भोजन के लिये ही वे मजदूरी करते हैं तथा विद्यालय नहीं आते हैं।

7. आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों की आर्थिक सहायता करके। सरकार ने इस दिशा में अन्त्योदय योजना, नरेगा आदि योजनाओं के माध्यम से आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों की सहायता करने के प्रयास किये हैं। इन परियोजनाओं को जन-जन तक पहुँचाने की आवश्यकता है।

8. दिनकर देसाई का सुझाव है कि चीन, रूस, मिश्र, जापान, जर्मनी एवं आस्ट्रेलिया के समान भारत में भी प्राथमिक शिक्षा के निम्न स्तर की अवधि 5 वर्ष के बजाय 4 वर्ष कर देनी चाहिये और इस प्रकार बचने वाले धन से नवीन प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना की जानी चाहिये।

9. सरकार ने प्राइवेट स्कूलों को भी यह निर्देश दिये हैं कि एक अनुपात में निर्धन छात्रों को भी उन्हें विद्यालय में प्रवेश देना होगा परन्तु इस दिशा में सरकार को ठोस कदम उठाने चाहिये।


गोखले ने कहा है- "शिक्षा की गुणात्मक उन्नति महत्त्वपूर्ण अवश्य है, पर उस पर बल तभी दिया जाना चाहिए, जब निरक्षरता का अन्त हो जाये।"

"The quality of Education is a matter of importance that comes only after illiteracy has been abolished." -Gokhale's Speeches


8. प्रशिक्षित अध्यापकों का अभाव (Dearth of Trained Teachers)-


अनिवार्य शिक्षा के लिये सबसे प्रमुख है, प्रत्येक विद्यालय में प्रशिक्षित अध्यापक हों। सरकार ने । अप्रैल, 2010 को सर्वशिक्षा अभियान के अन्तर्गत पूरे भारत में माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा को निःशुल्क कर दिया है, परन्तु विद्यालय में अध्यापकों की भारी कमी है। सरकार के लिये यह आवश्यक है कि शीघ्रता से अध्यापकों की नियुक्ति करे, इस कार्य के लिये योग्य व परिश्रमी व्यक्तियों की आवश्यकता है। परन्तु जिन्हें रोजगार नहीं मिलता वे अध्यापक बनते हैं। इसी कारण इस व्यवसाय को रोजगार की अन्तिम शरण के नाम से भी सम्बोधित करते हैं।


'कोठारी कमीशन' ने वर्ष 1985-86 तक प्राथमिक स्तर पर छात्र की संख्या की सम्भावित वृद्धि तालिका दी है और यह सुझाव दिया है कि इस स्तर पर शिक्षक एवं छात्रों का अनुपात (1:50) होना चाहिये। इन तथ्यों के आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि भविष्य में प्रतिवर्ष 24 लाख अतिरिक्त शिक्षकों की आवश्यकता पड़ेगी। प्राथमिक विद्यालयों में कार्य करने वाले शिक्षकों में से 3 प्रतिशत या तो अवकाश ग्रहण कर लेते हैं या अध्यापन कार्य ही छोड़ देते हैं। इस प्रकार, देश को भविष्य में प्रतिवर्ष 3.26 लाख अतिरिक्त शिक्षकों की आवश्यकता पड़ेगी।


सन् 1965 के एक सर्वेक्षण के अनुसार सम्पूर्ण देश के प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने के लिये 28 लाख प्रशिक्षित अध्यापकों की आवश्यकता थी किन्तु सरकार के अथक प्रयास के बावजूद भी 1990-91 तक केवल 16 लाख 37 हजार शिक्षक प्राइमरी स्तर पर तथा 10 लाख 40 हजार शिक्षक उच्च प्राथमिक स्तर पर थे।


प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों के अभाव का प्रमुख कारण यह है कि उनका वेतन बहुत कम है। नवयुवक एवं नवयुवतियाँ इस कार्य के प्रति आकर्षित नहीं होते हैं, क्योंकि उन्हें यह क्षेत्र कम सम्मानजनक लगता है। अतः वह इस व्यवस्था को चुनने से अपना मुँह मोड़ लेते हैं। शहरों की अपेक्षा गाँवों में शिक्षकों का अधिक अभाव है। इसका सबसे प्रमुख कारण ग्रामीण क्षेत्रों में असुविधा होना है।


नगरों में उन्हें अतिरिक्त धनोपार्जन एवं मनोरंजन के जो साधन उपलब्ध होते है वे उन्हें गाँवों में प्राप्त नहीं हो पाते हैं, इसलिये वे गाँवों में जाना नहीं चाहते हैं। नवयुवकों में गाँवों के जीवन के प्रति नीरसता का अनुभव होता है, अत: वे किसी भी शर्त पर गाँवों में जाना स्वीकार नहीं करते हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में शिक्षकों का अनुपात 2:6 है। अध्यापकों को प्रशिक्षित करके ही उनकी नियुक्ति की जाए ताकि वे अपना कार्य पूर्ण कुशलता से कर सकें। 


समस्याओं के समाधान (Solution of Problems) -


अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के प्रसार के न लिए, प्रशिक्षित अध्यापकों की कमी को दूर करने के लिये अग्रलिखित उपाय किये जाने चाहिये-


1. शिक्षकों के वेतन में वृद्धि करके, अध्यापन कार्य को आकर्षण बनाया जाए, जिससे अधिकांश नवयुवक-युवतियाँ इस ओर आकर्षित हों।


2. ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे पुरुषों एवं स्त्रियों की नियुक्ति की जाए, जो उन्हीं क्षेत्रों के निवासी हैं तथा उनको शहरी क्षेत्र के अध्यापकों से अधिक वेतन दिया जाए। अध्यापिकाओं को निवास हेतु आवास भी प्रदान किये जायें तथा आवश्यक होने पर उन्हें भत्ता भी प्रदान किया जाए।


3. अध्यापकों के रिक्त पदों पर शीघ्रता से प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति की जाए। राज्य सरकारों को भी अध्यापकों की नियुक्ति करके प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों की कमी को दूर करना चाहिये।


9. उपयुक्त शिक्षण विधियों का अभाव (Dearth of Appropriate Training Methods)


आज भी प्राथमिक विद्यालयों में परम्परागत विधि से ही पढ़ाया जाता है तथा रटने पर आवश्यकता में अधिक बल दिया जाता है। बालकों की वैयक्तिक विभिन्नताओं को ध्यान में न रखते हुये शिक्षक उन्हें पढ़ाते जाते हैं और पाठ या अध्ययन सामग्री न रटने पर उन्हें भयभीत करते हैं तथा शारीरिक व मानसिक दण्ड भी देते हैं। अत: शिक्षा उन्हें अरुचिकर लगती है। वह विद्यालय जाना नहीं चाहता है, जिससे उसका मानसिक विकास प्रभावित होता है। गाँवों में अध्यापक स्वयं भी ऐसा आचरण करते है जिससे भी बालकों का मानसिक विकास प्रभावित होता है।


समस्याओं के समाधान (Solution of Problems)-


शिक्षा को रुचिकर एवं क्रियाप्रधान बनाने के लिये उसमें निम्न तत्वों का समावेश करना चाहिये-


1. बालकों को खेल विधि तथा शैक्षिक उपकरणों के माध्यम से शिक्षा प्रदान की जाए।

2. शिक्षण का प्राचीन तरीका छोड़कर नवीन बालक केन्द्रिय शिक्षण पद्धतियों को अपनाना चाहिये, जो वैयक्तिक विभिन्नता के सिद्धान्त पर आधारित हैं।

3. शिक्षक को ऐसे क्रिया-कलापों या पाठ्य सहगामी क्रियाओं को अपने शिक्षण में समाहित करना चाहिये, जिससे बालकों की शिक्षा अध्ययन के प्रति रुचि उत्पन्न हो। 

4. शिक्षकों को रटने पर जोर न देकर स्वचिन्तन करके स्वयं सीखने के सिद्धान्त को अपनाना चाहिये।


10. विद्यालयों का अभाव/विद्यालयों की स्थापना (Lacks of School/Establishment of Schools) - प्राथमिक शिक्षा का प्रसार करने के लिये सबसे आवश्यक यह है कि विद्यालयों की स्थापना की जाए, क्योंकि विद्यालयों की स्थापना से ही प्राथमिक शिक्षा को सार्वभौमिक रूप प्रदान किया जा सकता है। शहरी क्षेत्रों में विद्यालयों की स्थापना करना सरल है, परन्तु ग्रामीण तथा पर्वतीय


क्षेत्रों में विद्यालयों की स्थापना करना बहुत कठिन है। विद्यालय भवनों की समस्या प्राथमिक शिक्षा की एक गम्भीर समस्या है, क्योंकि विद्यालय भवन के अभाव में शिक्षण प्रक्रिया समुचित रूप से नहीं चल पाती है। उत्तर प्रदेश सरकार ने समस्त विद्यालयों को पक्के व सुविधा सम्पन्न बनाने के प्रयास निरन्तर किये हैं तथा अधिकांश विद्यालय अब पक्के भवनों में ही चलाये जा रहे हैं, परन्तु अब भी कुछ विद्यालय ऐसे हैं जो चौपालों, मन्दिरों, धर्मशालाओं, छप्परों, पेड़ों के नीचे, टैण्ट में या खुले मैदानों में चलाये जा रहे हैं। जिन विद्यालयों के पास भवन हैं, वे या तो किराये के हैं अथवा उनकी दशा अत्यन्त जीर्णशीर्ण है। ऐसे विद्यालय बालकों को शिक्षा की ओर आकृष्ट नहीं करते हैं और ना ही बालकों को विद्यालय में रोके रहने में सक्षम हैं। इन विद्यालयों में पानी, बिजली तथा शौचालयों आदि को समुचित व्यवस्था नहीं है।


समस्याओं के समाधान (Solution of Problems)- 


इस समस्या के लिये निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं-


1. सरकार द्वारा यथाशीघ्र वातावरण के अनुकूल विद्यालय भवनों का निर्माण कराया जाना चाहिये।

2. अच्छे विद्यालय भवनों का निर्माण कर उनमें पारी प्रणाली पर आधारित शिक्षण कार्य कराया जाना चाहिये।

3. विद्यालय भवनों के निर्माण के लिये स्थानीय व्यक्तियों, दान-दाताओं तथा धर्मार्थ संस्थाओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये, जिससे वे सहायता प्रदान करें।

4. जो सुविधायें उपलब्ध हैं उनको विस्तारित करके प्रयोग में लाना चाहिये, जिनमें विद्यालय में पढ़ाई के घण्टों का समायोजन सम्मिलित है, जो स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार एक दिन में तीन घण्टे से अधिक नहीं होंगे।

5. गैर औपचारिक शिक्षा (Non-Formal Education) प्रणाली को बढ़ावा देना। इसमें बच्चे स्वयं सीखते हैं तथा काम में लगे बच्चों को शिक्षा देने पर बल दिया जाता है।

6. नवीन सुविधाओं की व्यवस्था करनी चाहिये तो आर्थिक रूप से व्यवहार्य तथा जो शैक्षिक रूप से उपयोगी एवं लाभप्रद हों।

7. बच्चों को समुचित प्रोत्साहन देना चाहिये जैसे- मध्यान्ह भोजन, विद्यालय की पोशाक, शिक्षण सामग्री मुफ्त देना तथा छात्रवृत्ति प्रदान करके उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिये।

8. छात्रों को औपचारिक तथा गैर औपचारिक दोनों प्रणालियों में बनाये रखे जाने का प्रयास किया जाए तथा छात्रों को प्रभावकारी कार्य दिये जायें।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 संशोधित 1992 में विद्यालय भवनों के सम्बन्ध में लिखा है-


1. प्राथमिक विद्यालयों में कम-से-कम तीन पर्याप्त बड़े कमरे, जो प्रत्येक मौसम में उपयोगी हाँ और आवश्यक खिलौने, ब्लैक बोर्ड, नक्शे, चार्ट एवं अन्य शिक्षण सामग्री को सम्मिलित करके आवश्यक सुविधाओं के प्रावधान किये जायेंगे।


2. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम और ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारण्टी कार्यक्रम की निधियों का प्रथम प्रयोग विद्यालय भवनों के निर्माण में होगा।


11. भाषा नीति की समस्या (Language Policy Problem) -


भारत एक जाति प्रधान देश है, जहाँ प्रत्येक क्षेत्र, जाति, सम्प्रदाय के अनुसार कई भाषाओं का प्रचलन है। अनिवार्य प्राचीन शिक्षा के विस्तार में भाषाओं का बाहुल्य असाधारण अवरोध उपस्थित करता है। भारत में 826 भारतीय एवं गैर-भारतीय तथा 1652 बोलियाँ बोली जाती हैं। अब भिन्न भाषाओं का प्रयोग करने वाले बालक-बा. लिकाओं को किस भाषा के माध्यम से शिक्षा दी जाए ? यह एक समस्या के रूप में उत्पन्न हो गई है। हमारे संविधान में देश के अधिकांश निवासियों द्वारा बोली जाने वाली 15 भाषाओं को मान्यता दी गई है, किन्तु शेष 81। भारतीय भाषाओं को इस पद पर नहीं रखा जा सकता है।


समस्याओं के समाधान (Solution of Problems)-


इस समस्या के समाधान के लिये उपर्युक्त 15 भाषाओं को शिक्षा के माध्यम के रूप में चुना जा सकता है, किन्तु शेष 811 भाषाओं को माध्यम बनाने में कठिनाई हो सकती है। भारत में कई ऐसी भी जातियाँ हैं, जिनकी भाषा बिल्कुल अलग है, जैसे- अनुसूचित एवं आदिम जातियाँ (Scheduled Castes and Tribes) I अनिवार्य शिक्षा का प्रसार करने का उत्तम उपाय-विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना करना, जिनमें उपर्युक्त जाति के लोगों को शिक्षित किया जाए। आज 6000 से अधिक विद्यालयों एवं छात्रावासों का निर्माण किया जा चुका है, यह एक प्रशंसनीय कार्य है। इनमें अध्ययनरत छात्रों को लेखन सामग्री, पुस्तक आदि की सुविधाएँ भी प्रदान की जा रही हैं। 


12. बालिकाओं की शिक्षा की समस्या (Problem of Girl's Education) -


बालक और बालिकाओं की समस्या में काफी विषमता पाई जाती है। हमारे प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा में बालिकाओं की शिक्षा की समस्या भी जटिल है। इस कारण भी प्राथमिक शिक्षा का विकास तीव्र गति से नहीं हो पा रहा है। सरकार द्वारा किये गये प्रयासों के उपरान्त भी प्राथमिक विद्यालयों में बालिकाओं का नामांकन कम हो रहा है।


सन् 1968-69 में प्राथमिक स्तर पर 6 से ।। आयु वर्ग के 95.2% बालक नामांकित थे जबकि बालिकाओं का प्रतिशत 58.5% था। निरक्षर माँ-बाप शिक्षा के महत्व को नहीं समझते हैं। 1970-71 में जूनियर, बेसिक विद्यालयों में बालिकाओं का नामांकन 38,67,691 था, जो 1980-81 में घटकर 27,14,829 रह गया था। 1990-91 में पुनः बढ़कर 40,68,501 ही हो सका है।


इसका कारण मिश्रित विद्यालय, अभिभावकों की गरीबी, निरक्षरता एवं निरपेक्षता, सामाजिक कुरीतियों जैसे-पर्दा प्रथा, बाल विवाह और सह-शिक्षा या मिश्रित विद्यालयों में लड़‌कियों को न भेजने का संकुचित दृष्टिकोण तथा शिक्षिकाओं की कमी आदि प्रमुख हैं।


समस्याओं के समाधान (Solution of Problems)-


इस समस्या के समाधान के लिये शिक्षा में निम्नलिखित सुझावों को क्रियान्वित किया जा सकता है-


1. बालिकाओं की शिक्षा के प्रति परम्परागत विद्वेष और सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिये जनसाधारण को शिक्षित किया जाना चाहिये।

2. बालिकाओं को शिक्षित करने के लिये बालिकाओं के लिये पृथक विद्यालय भी खोले जाने चाहिये।

3. 11 से 13 वर्ष की बालिकाओं के लिये अंशकालीन शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिये।

4. प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों द्वारा निरक्षरता उन्मूलन के प्रयास किये जाने चाहिये।

5. महिला शिक्षकों की नियुक्ति अधिक-से-अधिक संख्या में की जानी चाहिये।

6. बालिकाओं को पाठ्यसामग्री, पुस्तकों एवं लेखन सामग्री आदि निःशुल्क प्रदान की जानी चाहिये।


13. अनुसूचित एवं आदिम जातियों की शिक्षा की समस्या (Problem of Education in Schedule Caste and Tribes)-


भारतवर्ष में अनुसूचित जातियाँ एवं अनुसूचित जनजातियाँ प्राथमिक शिक्षा से वंचित हैं। प्रदेश में थारू, बुक्सा, भोटिया, जौनसारी और बनाराजी 5 अनुसूचित जनजातियों के अन्तर्गत आती हैं, जिनकी कुल जनसंख्या 0.21% है। इनमें साक्षरता 35.70% है, जो पुरुषों में 49.95% और महिलाओं में 19.86% है। ये लोग अपनी सभ्यता और संस्कृति से दूर नहीं होना चाहते हैं। इनमें सार्वभौमिक एवं निःशुल्क शिक्षा के प्रसार के लिये सरकार ने आश्रम पद्धति विद्यालय खोले हैं औ इनमें उनके बच्चों के लिये भोजन, आवास, वस्त्र, पठन एवं लेखन सामग्री की निःशुल्क व्यवस्था की गयी है फिर भी इनमें अभी तक शिक्षा का समुचित प्रसार नहीं हो पाया है।


समस्याओं के समाधान (Solution of Problems)- अनुसूचित जनजातियों में शिक्षा का समुचित प्रसार व प्रचार करके उनकी प्रगति करवानी चाहिये, ताकि वे राष्ट्रीय धारा से जुड़ सकें। इसके लिये निम्न समाधान किये जा सकते हैं-


1. ऐसे क्षेत्रों में शिक्षण कार्य करने वाले शिक्षकों को अच्छा वेतन और आवासीय सुविधाएँ दी जानी चाहिये।

2. शिक्षकों को जनजातियों की भाषा व संस्कृति से परिचित होना अनिवार्य होना चाहिये।

3. विद्यालयों के कार्यक्रम जनजातियों के जीवन के अनुकूल निर्मित किये जाने चाहिये।

4. जहाँ दिवसीय विद्यालय स्थापित न किये जा सकें, वहाँ आश्रित विद्यालयों की स्थापना की जानी चाहिये।


14. मूल्यांकन की समस्या (Problem of Evaluation) -


प्राथमिक शिक्षा में मूल्यांकन की समस्या भी अधिक गम्भीर है, क्योंकि इस स्तर पर छात्रों की शैक्षिक उपलब्धियों और उनके शैक्षिक विकास का मूल्यांकन करने में परम्परागत विधियों का प्रयोग किया जाता है। बालकों के विकास के सभी पहलुओं का मूल्यांकन लिखित परीक्षाओं द्वारा सम्भव नहीं है। इसके लिये मूल्यांकन की आधुनिक वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाना चाहिये। यह वैज्ञानिक विधियाँ वैध, विश्वसनीय, वस्तुनिष्ठ और व्यावहारिक होनी चाहिये। इसमें यदि सुधार नहीं किया जाता है तो प्राथमिक शिक्षा के विस्तार में प्रगति नहीं हो सकती है।


समस्याओं के समाधान (Solution of Problems)-


इस समस्या के समाधान के लिये शिक्षा आयोग द्वारा प्रदत्त सुझावों का क्रियान्वयन किया जाना चाहिये-


1. छात्रों को अपनी स्वयं की प्रगति जानने के लिये एक से चार तक कक्षाओं को अवर्गीकृत एकाई माना जाना चाहिये।

2. प्राथमिक स्तर के अन्त में एक बाह्य परीक्षा होनी चाहिये।

3. प्रतिभा पहचान और मैरिट छात्रवृत्तियाँ देने के उद्देश्य से विशेष परीक्षायें ली जानी चाहिये।

4. प्राथमिक स्तर के अन्त में एक बाह्य परीक्षा लेनी चाहिये।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) में इस समस्या के निदान हेतु निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं-


1. प्राथमिक स्तर पर बच्चों को किसी भी कक्षा में न रोकने की नीति रखी जायेगी।

2. बच्चे का मूल्यांकन वर्ष भर में फैला दिया जायेगा।

3. परीक्षाओं के आयोजन में सुधार किया जायेगा।

4. अत्यधिक संयोग एवं आत्मनिष्ठता के अंश को समाप्त किया जायेगा।

5. रटाई पर जोर को हटाया जायेगा।

6. अंकों के स्थान पर ग्रेड का प्रयोग होगा।


प्राथमिक शिक्षा : राष्ट्रीय शिक्षा नीति, (1986 तथा 2020) [PRIMARY EDUCATION: NATIONAL EDUCATION POLICY (1986 AND 2020)]


राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के लागू होने पर 10+2+3 के शिक्षा संरचना को लागू किया गया और इसकी आधारभूत पाठ्यचर्या को तीन भागों में विभाजित किया गया-कक्षा 1 से 5 तक प्राथमिक, कक्षा 6 से 8 तक उच्च प्राथमिक, कक्षा 9 से 10 माध्यमिक + 2 अर्थात् कक्षा 11 तथा 12 को उच्च माध्यमिक शिक्षा कहा गया। इस प्रकार 6 से 14 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों की कक्षा । से कक्षा 8 तक की शिक्षा प्राथमिक शिक्षा के अन्तर्गत आती है।


वर्तमान समय में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के अनुसार इसमें स्कूली शिक्षा के अन्तर्गत 5+3+3+4 डिजाइन वाले शैक्षणिक ढाँचे का प्रस्ताव दिया गया है जो 3 से 18 वर्ष तक की आयु वाले बच्चों को शामिल करता है।


• पाँच वर्ष की आधारभूत (Foundational) अवस्था-जिसमें 3 साल का प्री-प्राइमरी स्कूल और ग्रेड 1, 2

• तीन वर्ष की प्रीपेट्रेरी स्टेज (Preparatery stage)

• तीन वर्ष की मध्य (या उच्च प्राथमिक) अवस्था- ग्रेड 6, 7, 8 और

• 4 वर्ष की उच्च (या माध्यमिक) अवस्था ।- ग्रेड 9, 10, 11


प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य (AIMS OF PRIMARY EDUCATION)


मनुष्य का हर कार्य उद्देश्यपूर्ण होता है। उसी प्रकार शिक्षा का भी कुछ न कुछ निश्चित उद्देश्य होता है। कोठारी शिक्षा आयोग (1964-1965) ने प्राथमिक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य निर्धारित किये हैं-


1. बच्चों में स्वास्थ्य सम्बन्धी अच्छी आदतों का निर्माण करना तथा व्यक्तिगत समायोजन के लिए आवश्यक बुनियादी कुशलताओं को विकसित करना।

2. बांछित सामाजिक अभिकृतियों एवं ढंगों का विकास करना, बच्चों को अपने अधिकारों तथा दूसरों के विशेषाधिकारों के प्रति जागरूक करना।

3. बच्चों को अपने संवेगों पर नियंत्रण करने हेतु निर्देश देना जिससे संवेगात्मक परिपक्वता का विकास हो।

4. सौन्दर्यात्मक प्रशंसा के प्रति प्रोत्साहित करना।

5. बच्चों को मानव श्रम के प्रति स्वस्थ विचार हेतु प्रेरित करना तथा इसकी सृजनात्मक क्षमता का विकास करना।

6. विज्ञान की खोज विधि (Inquriy method) को सिखाना और विज्ञान एवं तकनीकी के महत्त्व को समझाना।

7. बालकों को स्वतन्त्रता और सृजनात्मकता के प्रोत्साहन हेतु स्वयं अभिव्यक्ति हेतु पर्याप्त अवसर देना।

8. बच्चों को उनके प्राकृतिक व सामाजिक पर्यावरण का ज्ञान कराना।

9. बच्चों में सामूहिकता की भावना का विकास करते हुए उन्हें वर्ग-भेद से ऊपर उठाना व जीवन कला में प्रशिक्षित करना।

10. बच्चों को एक-दूसरे का सम्मान करने की ओर प्रवृत्त करना और उन्हें सहानुभूति और सहयोग से कार्य करने के और उन्मुख करना।

11. नव वर्ष में राष्ट्रीय प्रतीकों को; जैसे- राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान आदि तथा प्रजातांत्रिक विधियों एवं सस्थाओं के प्रति आदर की भावना उत्पन्न करना।


प्राथमिक शिक्षा का महत्त्व एवं आवश्यक (IMPORTANCE AND NEED OF PRIMARY EDUCATION)


मानव जीवन में शिक्षा का बहुत महत्त्व है। शिक्षा के बिना मानव जीवन के विकास को कल्पना करना संभव नहीं है। शिक्षा ही हमें सामाजिक, आर्थिक रूप से सक्षम बनाती है। शिक्षा को प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च और विशिष्ट वर्गों में बाँटा गया है, सभी वर्गों की शिक्षा का अपना महत्त्व है। प्राथमिक शिक्षा को मनुष्य के विकास की नींव माना जाता है।


1. प्राथमिक शिक्षा, शिक्षा की नींव का पत्थर है (Primary Education is a Foundatio Stone of Education)-


प्राथमिक शिक्षा में सर्वप्रथम बच्चों को सम्प्रेषण के माध्यम से भाषा का ज्ञान कराया जाता है। बच्चों को वस्तुओं को देखकर तथा छूकर उनमें देखने-समझने की शक्ति विकसित की जाती है। खेल-खेल में बच्चों में कौशलों का विकास किया जाता है। ये सब आगे की शिक्षा के साधन होते हैं, इन्हीं पर आगे की शिक्षा निर्भर करती है। इस प्रकार प्राथमिक शिक्षा आगे की शिक्षा की नींव होती है। यदि यह नींव कमजोर होगी तो मानव का विकास ठीक ढंग से नहीं हो पायेगा। अतः प्राथमिक शिक्षा मानव जीवन के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण और आवश्यक होती है।


2. प्राथमिक शिक्षा व्यक्तित्व निर्माण का आधार है (Primary Education is a Base of Personality Development)-


मनोवैज्ञानिकों ने अनेक प्रयोगों के आधार पर पाया कि मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण सर्वाधिक इसके शिशु काल में होता है। इस समय जैसी नींव रखी जाती है, बच्चे भविष्य में वैसे ही बनते हैं। यही वह समय है जब बच्चों को सही दिशा दी जा सके। प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों का सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं चारित्रिक विकास किया जाता है और मानव व्यवहार ॐ प्रशिक्षित किया जाता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्राथमिक शिक्षा का मनुष्य के व्यक्तित्व के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।


3. प्राथमिक शिक्षा जन शिक्षा है (Primary Education is a People Education) -


जो शिक्षा सबके लिए अनिवार्य होती है, उसे ही सामान्य रूप से जन शिक्षा कहते हैं। आजकल सभी देशों में प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य एवं निःशुक्ल हो गयी है। तभी जो प्रौढ़ व्यक्ति बचपन में शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाये हैं, उन्हें प्राथमिक शिक्षा प्रौढ़ शिक्षा के रूप में बाद में दी जाती है।


4. प्राथमिक शिक्षा सामान्य जीवन की शिक्षा है (Primary Education is a Education General life) -


प्राथमिक शिक्षा को जन शिक्षा कहा जाता है क्योंकि इसके द्वारा सभी व्यक्तियों अर्थात् बालकों को सामान्य जीवन की शिक्षा दी जाती है। प्राथमिक शिक्षा विकासशील देशों के विकास में अहम भूमिका निभाती है। प्राथमिक शिक्षा बालक के भौतिक, मानसिक, सामाजिक, भावात्मक, नैतिक आवश्यकताओं को पूरा करके उसके व्यक्तित्व का विकास करती है। यह शिक्षा बालकों में नैतिक गुणों को उत्पन्न करती है तथा देश प्रेम की भावना जाग्रत करती है।


5. प्राथमिक शिक्षा भारत के व्यक्तियों की पूर्ण शिक्षा है (Primary Education is a Complete Education of India's Persons)


प्राथमिक शिक्षा का महत्त्व भारत में और भी बढ़ जाता है क्योंकि अधिकांश बच्चे प्राथमिक शिक्षा के बाद विद्यालय छोड़ देते हैं। अधिकांश बच्चों के लिए तो यही प्राथमिक शिक्षा पूर्ण शिक्षा है। अतः यह आवश्यक है कि प्राथमिक शिक्षा का विस्तार किया जाए और इसे दृढ़ बनाया जाए।


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