भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना तथा नव जागरण की पृष्ठभूमि
अंग्रेज लोग भारत में व्यापारी बनकर आए थे । सन् 1600 में इंग्लैण्ड में कुछ व्यापारियों ने पूरब के देशों के साथ व्यापार करने के लिए एक कम्पनी बनाई । इस कम्पनी का नाम ' ईस्ट इण्डिया कम्पनी था । इंग्लैण्ड को महारानी ने इस कम्पनी को पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान कर दिया। 18 वीं शताब्दी के मध्य तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में व्यापार करती रही ।
इस कम्पनी को भारतीय शासकों ने विशेषकर मुगल सम्राटों ने अनेक व्यापारिक सुविधाएँ दे रखी थीं । इस कम्पनी ने देश में अनेक व्यापारिक केन्द्र स्थापित कर लिए थे। औरंगजेब की मृत्यु के बाद जब कुछ दशकों में मुगल साम्राज्य छिन्न - भिन्न होने की स्थिति में आ गया तो कम्पनी ने भारत के राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया । सन् 1757 में उसने प्लासी की लड़ाई में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को पराजित कर उस प्रान्त में अपनी सत्ता की नींव डाली।
अगले सौ वर्षों में उसने देशी राजाओं को एक के बाद एक पराजित करके सम्पूर्ण देश पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया । कम्पनी के शासन ने देश की राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था में पूर्ण रूप से परिवर्तन कर दिया । इसके साथ ही अंग्रेजों के शासनकाल में देश के सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन में भी अनेक गहरे परिवर्तन हुए । राजनीतिक , आर्थिक , सामाजिक व सांस्कृतिक क्षेत्र में हुए इन परिवर्तनों ने उन्नीसवीं शताब्दी में एक नई सामाजिक एवं सांस्कृतिक जागृति को जन्म दिया ।
उन्नीसवीं सदी में भारतीय समाज का स्वरूप
1. पुरानी अर्थव्यवस्था
उन्नीसवीं सदी में भारत में पुरानी अर्थव्यवस्था प्रचलित थी । ग्रामीण लोग अपनी आवश्यकता की सभी वस्तुएँ गाँव में ही तैयार कर लेते थे । वे देश के अन्य भागों पर बहुत कम आश्रित थे । कृषि के तरीकों में सैकड़ों वर्षों से कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ था ।
शिल्पी और किसान दोनों ही खेती और शिल्पकारी में सादे उपकरण उपयोग में लाते थे । प्रत्येक गाँव का दूसरे गाँव या नगरों से कोई सम्बन्ध नहीं था । देश की आर्थिक स्थिति भी ऐसी न थी जिससे वह एक सूत्र में बँध सके । कुछ कस्बे और नगर प्रशासकीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थे तो कुछ स्थान तीर्थ या व्यापारिक केन्द्र होने के कारण विख्यात थे ।
2. सामाजिक व्यवस्था
देश में हिन्दुओं की सामाजिक व्यवस्था मुख्य रूप से प्राचीन जाति व्यवस्था पर आधारित थी । भारतीय इतिहास की लम्बी अवधि में जाति प्रथा में अनेक परिवर्तन हो गए थे । देश में सैकड़ों जातियाँ एवं उपजातियाँ थीं । देश के प्रति लोगों की निष्ठा गौण थी । समाज में बाल विवाह , सती प्रथा एवं अन्धविश्वासों का प्रचलन था । धर्म में भी अनेक दोष उत्पन्न हो गए थे ।
" अंग्रेजों ने लगभग दो सौ वर्षो ( 1757-1947 ई ० ) तक भारत पर शासन किया । अंग्रेज सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में भारतीयों से बहुत आगे थे । यूरोप में पुनर्जागरण तथा औद्योगिक क्रान्ति ने कला , विज्ञान तथा साहित्य के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण और क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिए थे । इसीलिए जब भारतवासी अंग्रेजों के सम्पर्क में आए तो वे भी पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके ।
पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न हुई, जिसके फलस्वरूप सबसे पहले देश में धर्म व सुधार आन्दोलनों का प्रादुर्भाव हुआ, तत्पश्चात् भारतीय जनता अंग्रेजों की दासता से मुक्ति पाने के लिए संघर्ष करने को तत्पर हो गई । ब्रिटिश शासन का भारत पर प्रभाव भारत पर ब्रिटिश शासन तथा पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का गहरा प्रभाव पड़ा , जिसके फलस्वरूप भारत के राजनीतिक , सामाजिक , आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो गए । इन परिवर्तनों का विवेचन निम्नानुसार है -
1. राजनीतिक चेतना का संचार- राजनीतिक एकता प्रदान करके अंग्रेजों ने भारतीयों में राजनीतिक चेतना का संचार किया । अंग्रेजों ने सम्पूर्ण भारत को जीतकर समस्त देश पर अपना एकच्छत्र साम्राज्य स्थापित कर लिया और पहले की राजनीतिक विघटन और बिखराव की स्थिति को समाप्त कर दिया । फलस्वरूप सम्पूर्ण भारत में डाक , तार , रेल और एक मुद्रा की व्यवस्था स्थापित हो गई , जिससे सम्पूर्ण देश एकता के सूत्र में बंध गया ।
2. सुसंगठित शासन व्यवस्था - अंग्रेजों ने भारत में एक सुसंगठित और सुव्यवस्थित शासन व्यवस्था की स्थापना की , जिससे देश बाहरी और भीतरी आक्रमणों व विद्रोहों से मुक्त रहा । इसके अतिरिक्त , अंग्रेजी राज्य ने पुलिस की समुचित व्यवस्था करके जनता के जीवन और सम्पत्ति को सुरक्षित बना दिया । इससे भारतीयों में सुव्यवस्थित शासन की भावना का संचार हुआ ।
3. इंग्लैण्ड में पूर्ण लोकतन्त्र की स्थापना - इंग्लैण्ड में इस समय तक पूर्ण लोकतन्त्र की स्थापना हो चुकी थी । इसका प्रभाव भारत पर भी पड़ा । सन् 1857 की क्रान्ति के बाद भारत में भी व्यवस्थापिका की स्थापना होने लगी और स्वायत्त शासन विकसित होने लगा । यह संवैधानिक विकास निरन्तर होता रहा और धीरे - धीरे देश लोकतन्त्र की ओर बढ़ता गया । अन्त में , भारत में पूर्णरूप से लोकतन्त्रीय शासन व्यवस्था स्थापित हो गई ।
4. यातायात के साधनों का विकास - अंग्रेजों ने सम्पूर्ण देश में यातायात के साधनों की स्थापना कर , एक ही प्रकार की शासन व्यवस्था स्थापित कर दी । सारे देश के लिए एक समान कानून बनाए गए तथा अखिल भारतीय नौकरियों की व्यवस्था करके और अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाकर , भारतीयों में एकता की भावना को जाग्रत करने के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी गई । संचार के साधनों ने विविध क्षेत्रों के विकास में बहुत योगदान दिया ।
5. न्याय व्यवस्था में सुधार - अंग्रेजों ने प्रारम्भ से ही न्याय व्यवस्था को सुधारने की ओर विशेष ध्यान दिया । उन्होंने कानून की प्रधानता स्थापित करने का प्रयत्न किया । निष्पक्ष न्याय व्यवस्था अंग्रेजों की ही अमूल्य देन है । वस्तुतः उन्होंने न्यायपालिका को बहुत सुदृढ़ बनाया था ।
6. विदेशों से पुनः सम्बन्ध - अंग्रेजों के शासनकाल में भारत का विदेशों के साथ पुनः सम्बन्ध स्थापित हो गया । विदेशों में जो लोक कल्याणकारी आन्दोलन और जन हितकारी कार्यक्रम चल रहे थे , उनसे भारतवासी बहुत प्रभावित हुए तथा वे भारत में भी इस प्रकार की व्यवस्थाएँ स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील हो गए ।
7. विज्ञान की अभिवृद्धि - अंग्रेजों के आगमन से भारत में विज्ञान की अत्यधिक अभिवृद्धि हुई और विज्ञान द्वारा आविष्कृत वस्तुओं से भारत को भी अत्यधिक लाभ पहुँचा । भारत में सर्वप्रथम लॉर्ड डलहौजी ने रेल , डाक , तार आदि का प्रसार किया था । विज्ञान के प्रसार के फलस्वरूप भारतीयों का अन्धविश्वास और उनकी कूप - मण्डूकता समाप्त हो गई तथा भारत उन्नति के पथ पर अग्रसर होने लगा ।
8. नवीन मध्यम वर्ग की उत्पत्ति - अंग्रेजों की एक अन्य देन; भारत में नवीन मध्यम वर्ग को उत्पत्ति थी । यह मध्यम वर्ग उन शिक्षित लोगों का था, जो पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के प्रति विशेष रूप से आकृष्ट हुए थे । कालान्तर में यह वर्ग प्रबुद्ध बनकर, देशवासियों में राष्ट्रीयता की भावना को जामत करने लगा।
9. राष्ट्रीयता की भावना का प्रादुर्भाव - भारत में राष्ट्रीयता की भावना का प्रादुर्भाव भी अंग्रेजों के शासनकार में हुए प्रयासों का ही प्रतिफल है । संयोगवश कांग्रेस की स्थापना ए ० ओ ० ह्यूम ( A.O. Hume ) नामक एक द्वारा की गई थी और राष्ट्रीय कांग्रेस को अपने शैशवकाल में अंग्रेजों से बहुत प्रोत्साहन प्राप्त हुआ था । सारे देश मे एक - सा कानून , एक - सा दण्ड विधान और एक ही राष्ट्रभाषा की व्यवस्था कर , अंग्रेजों ने एकता और राष्ट्रीयता भावना को विकसित करने में अप्रत्यक्ष रूप से , अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था ।
10. कुप्रथाओं पर रोक- ब्रिटिश शासनकाल में ही बाल - विवाह , सती प्रथा , मनुष्यों की बलि आदि कुप्रथाओं को रोका गया , ठगों और पिण्डारियों का दमन किया गया , विधवा - विवाह को वैध घोषित किया गय और बाल विवाह को रोक दिया गया । इस प्रकार , ब्रिटिश शासन के फलस्वरूप भारतीय सामाजिक व्यवस्था में अनेक परिवर्तन हुए ।
11. औद्योगीकरण का प्रारम्भ - अंग्रेजों के शासनकाल में ही भारत का औद्योगीकरण प्रारम्भ हुआ था और विदेशी व्यापार में वृद्धि हुई थी ।
12. ईसाई धर्म का प्रचार - अंग्रेजों और अन्य यूरोपीय जातियों के आगमन से ही भारत में ईसाई धर्म का 146 प्रचार प्रारम्भ हुआ था ।
13. अंग्रेजी भाषा का अध्ययन - अंग्रेजी भाषा के अध्ययन से भारतीयों को बहुत लाभ हुआ । इससे उन्हें विदेश जाने में सुविधा हुई और राष्ट्रीयता की भावना के जागरण में भी पर्याप्त सहयोग मिला ।
14. भारतीय साहित्य में नूतन प्रवृत्तियाँ- भारतीय साहित्य में नूतन प्रवृत्तियों का विकास ; अंग्रेजी साहित्य के कारण ही हुआ । इसके प्रभावस्वरूप विषय के चुनाव , शैली , विचारधारा सभी में नवीनता आ गई । छायावाद और प्रगतिवाद आदि पाश्चात्य मनोवृत्तियाँ साहित्य में अपनाई गई । इससे साहित्य के विकास में नवचेतना जाग्रत हुई ।
15. पुरातत्त्व विभाग की स्थापना- भारत में पुरातत्त्व विभाग की स्थापना ब्रिटिश शासनकाल में ही हुई थी । इस विभाग ने उत्खनन का कार्य कर , भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति का पता लगाया तथा उसे सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया । भारतीयों को अपने प्राचीन साहित्य तथा कला का ज्ञान अंग्रेजों के माध्यम से ही प्राप्त हुआ है । अंग्रेजी सभ्यता ने ही हमें अपनी पुरातन उच्चतम संस्कृति का ज्ञान करवाया है ।
' पुनर्जागरण ' अथवा ' नवजागरण ' का अर्थ
19 वीं शताब्दी में भारत में अनेक सामाजिक कुरीतियाँ व्याप्त थीं । जाति प्रथा, बाल-विवाह सती प्रथा, अस्पृश्यता आदि के कारण सम्पूर्ण भारतीय समाज का रूप विकृत हो चुका था। अनावश्यक आडम्बरों के कारण हिन्दू धर्म का वास्तविक रूप भी परिवर्तित होता जा रहा था। इस प्रकार की परिस्थितियों में ईसाई धर्म के लोगों को भारत में प्रचार - प्रसार का अनुकूल अवसर प्राप्त हो गया।
उनके प्रभावस्वरूप अनेक हिन्दू ईसाई बनते जा रहे थे। इसी समय भारत में इस प्रकार के कई सुधार आन्दोलनों का उद्भव हुआ, जिनके सूत्रधारों एवं प्रचारकों के प्रयास के फलस्वरूप सुप्त एवं भ्रमित भारतीय समाज का नवजागरण हुआ । भारतीयों के जन-जीवन में आने वाला यह परिवर्तन ही ' पुनर्जागरण ' अथवा ' नवजागरण ' के नाम से जाना जाता है।
" भारत की पुनर्जागृति मुख्यतया आध्यात्मिक थी । एक राष्ट्रीय आन्दोलन का रूप धारण करने से पूर्व इसने अनेक धार्मिक तथा सामाजिक आन्दोलनों का सूत्रपात किया । -डॉ ० जकारिया
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