एशिया में साम्राज्यवाद | Imperialism in Asia in Hindi
एशिया में साम्राज्यवाद ( Imperialism in Asia )
एशिया के विभिन्न देशों पर पुर्तगाल, इंग्लैण्ड, स्पेन, बेल्जियम, हॉलैण्ड, रूस, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका और जापान जैसी साम्राज्यवादी शक्तियों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया और ये एक लम्बे समय तक एशियायी जनता को आर्थिक और राजनीतिक शोषण करते रहे ।
( 1 ) भारत में साम्राज्यवाद ( Imperialism in India )
सर्वप्रथम यूरोपीय जातियों, पुर्तगाली, डच, अंग्रेज व फ्रांसीसी ने व्यापार के उद्देश्य से भारत में प्रवेश किया । भारत में सर्वप्रथम पुर्तगाल ने अपना उपनिवेश स्थापित किया था। गोवा, दमन, दीव, दादरा और नगर हवेली इनके केन्द्र थे । तत्पश्चात् डच भारत के विभिन्न स्थानों पर अपने उपनिवेश स्थापित करने में सफल हुए . किन्तु बाद में सत्ता-संघर्ष फ्रांसीसियों और अंग्रेजों तक ही सीमित रह गया।
मोसियों और अंग्रेजों के मध्य तीन निर्णायक युद्ध ( कर्नाटक युद्ध, 1748 से 1768 ई० के मध्य ) हुए, जिनमें अन्तिम विजय अंग्रेजों को प्राप्त हुई । इससे पूर्व क्लाइव ने प्लासी के युद्ध ( 1787 ई० ) में नवाब सिराजुद्दौला को पराजित करके बंगाल में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी की प्रभुता स्थापित कर दी। इस प्रकार भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का बीजारोपण हुआ।
बक्सर के युद्ध ( 1764 ई० ) की विजय ने अंग्रेजों को इलाहाबाद की सन्धि (1765 ई०) द्वारा बगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानो वसूलने का अधिकारी बना दिया । इसके बाद अंग्रेजों ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और वे एक - एक करके भारतीय राजाओं को पराजित करते चले गए और सन् 1856 तक अधिकांश भारत पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित हो गया ।
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना और विस्तार में लॉर्ड क्लाइव, वारेन हेस्टिग्ज ( 1772-1785 ई० ), लॉर्ड कार्नवालिस ( 1786-1798 ई० ) लॉर्ड वेलेजली ( 1798-1805 ई ० ) , लॉर्ड हेस्टिग्ज ( 1813-1823 ई० ) लॉर्ड ऑकलैण्ड, लॉर्ड एलिनबरो ( 1842-1843 ई ० ) और लॉर्ड डलहौजी ( 1848-1856 ई० ) जैसे गवर्नर जनरलों ने महत्त्वपूर्ण योगदान सुल्तान के साथ चार युद्ध लड़े तथा सन् 1790 में मैसूर पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया ।
लॉर्ड हेस्टिग्ज ने मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय को पराजित करके सन् 1818 में मराठा शक्ति को छिन्न - भिन्न कर दिया । सन् 1843 में लॉर्ड एलिनबरो ने सिन्ध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया । लॉर्ड डलहौजी ने सन् 1849 में पंजाब पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित करके सिक्खों को नतमस्तक होने के लिए बाध्य कर दिया ।
छोटे - छोटे राज्यों को लॉर्ड वेलेजली ने सहायक सन्धि और लॉर्ड डलहौजी ने अपहरण की नीति के माध्यम से हड़पकर भारतीयों को अपना गुलाम बना लिया । सन् 1877 में इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया ने भारत सम्राज्ञी ' की उपाधि भी ग्रहण कर ली । अंग्रेजों ने अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए हैदरअली और टीपू को अपना गुलाम बना लिया ।
( 2 ) चीन में साम्राज्यवाद
चीन की लूट में इंग्लैण्ड , फ्रांस , रूस , जर्मनी , जापान और अमेरिका ने भाग लिया । चीन में विदेशियों द्वारा उपनिवेशों की स्थापना या साम्राज्य विस्तार चीनी खरबूजे का कटना कहलाता है।
सन् 1895 के बाद चीन की दुर्बलता का लाभ उठाकर इंग्लैण्ड ने यांगत्सी घाटी, देई-हेई-वेई बन्दरगाह, फ्रांस ने क्वांगचाऊ की खाड़ी, दक्षिण के तीन प्रान्तः जर्मनी ने कियाओ चाओ की खाड़ी, शान्तुंग और हांगहों की घाटी: रूस ने लियाओ तुंग तथा मंचूरिया में रेल लाइन डालने आदि पर अपने प्रभुत्व के अधिकार प्राप्त कर लिए थे । इसी को विद्वानों ने चीनी खरबूजे का करना नाम दिया है।
चीन में साम्राज्यवाद का प्रारम्भ प्रथम आंग्ल - चीन युद्ध या प्रथम अफीम युद्ध ( 1839-40 ई ० ) से हुआ । नानकिंग की सन्धि ( 1842 ई ० ) द्वारा अंग्रेजों ने चीन से अनेक व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त को द्वितीय आंग्ल - चीनी युद्ध या द्वितीय अफीम युद्ध ( 1856 ई ० ) के बाद तीनस्तीन की सन्धि के अनुसार चीन को बहुत से विशेषाधिकार अंग्रेजों को देने पड़े इंग्लैण्ड को सफलता मिलती देखकर अन्य यूरोपीय शक्तियाँ भी चीन की लूट में सम्मिलित हो गई ।
सन् 1860 में यूरोपीय शक्तियों ने चीन के साथ अनेक सन्धियों की और चीन से अनेक क्षेत्रेतर अधिकार प्राप्त किए । क्षेत्रेतर अधिकार का आशय है कि जिस क्षेत्र में जिस देश का प्रभुत्व है , उस पर उस क्षेत्र की सरकार कोई मुकदमा नहीं चला सकती है । उदाहरणार्थ - अफीम युद्ध के बाद चीन के पाँच बन्दरगाहों के ब्रिटिश नागरिकों पर कोई भी मुकदमा चीन की अदालतों में नहीं चलाया जा सकता था ।
सन् 1895 में जापान ने एक युद्ध में चीन को पराजित कर उससे कोरिया और फारमोसा के प्रदेश छीन लिए और उन्हें अपना संरक्षित राज्य बना लिया । जब कोई शक्तिशाली देश किसी अन्य कमजोर देश पर अधिकार न करके उसे अपना संरक्षण प्रदान करता है , तो वह विजित देश का ' संरक्षित राज्य ' कहलाता है ।
सन् 1897 में जर्मनी ने कियाओ चाओ; फ्रांस ने सन् 1898 में क्वांगचाऊ और अंग्रेजों ने वेई हेई - वेई बन्दरगाह चीन से छीन लिया , लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति ने मुनरो सिद्धान्त की घोषणा करके चीन की लूट को दिया । पश्चिमी देशों की लूट और शोषण के विरुद्ध चीन की जनता ने सन् 1899 में एक जबरदस्त
विद्रोह कर दिया । यह विद्रोह चीन के इतिहास में बॉक्सर विद्रोह ( मुक्केबाजों का विद्रोह ) के नाम से प्रसिद्ध हैं । यद्यपि यह विद्रोह असफल रहा, तथापि चीन में राष्ट्रीय चेतना के विकास में इसने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया ।
सन् 1823 में अमेरिकी राष्ट्रपति मुनरो ने एक घोषणा की , जिसमें यह चेतावनी दी गई थी कि यूरोपीय देश पश्चिमी गोलार्द्ध अर्थात् उत्तरी, मध्य और दक्षिण अमेरिकी देशों से दूर रहें और वहाँ अपना प्रभाव बढ़ाने का कोई प्रयास न करें।
इस विद्रोह के फलस्वरूप ही चीन में राजतन्त्र के विनाश का मार्ग प्रशस्त हुआ और चीन का राष्ट्रीय जागरण आरम्भ हो गया । चीन , दो विश्व युद्धों के मध्य जापान के साम्राज्यवाद का शिकार हुआ । सन् 1931 में जापान ने मंचूरिया पर अधिकार कर लिया और द्वितीय चीन - जापान युद्ध में चीन को पराजित करके उसके एक बड़े क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया ।
( 3 ) दक्षिण - पूर्व एशिया में साम्राज्यवाद
बर्मा - भारत में राजनीतिक सत्ता स्थापित करने के साथ ही अंग्रेजों ने तीन युद्धों में विजय प्राप्त कर बर्मा ( म्यांमार ) को भी जीत लिया और सन् 1886 में बर्मा भी ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का अंग बन गया ।
पूर्वी द्वीपसमूह – पूर्वी द्वीपसमूह ( इण्डोनेशिया ) में प्रशान्त महासागर में स्थित जावा , सुमात्रा , बोर्नियो , बाली आदि अनेक द्वीपसमूह सम्मिलित हैं । इन्हें ' मसालों के द्वीप ' भी कहा जाता है; क्योंकि यहाँ की मुख्य उपज गर्म मसाले ही हैं । आरम्भ में पुर्तगालियों ने इन द्वीपों पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया, किन्तु सन् 1850 में उन्हें पराजित कर स्पेनवासियों ने इन द्वीपों पर कब्जा कर लियाई बाद में डचों ने इन द्वीपों पर अपना एकाधिकार स्थापित करने में सफलता प्राप्त की और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भी दचों का इन द्वीपों पर
श्रीलंका -- हिन्द महासागर में स्थित श्रीलंका , पुर्तगाल, हॉलैण्ड अधिकार बना रहा। और इंग्लैण्ड के बीच सत्ता संघर्ष का केन्द्र बना। श्रीलंका पर सर्वप्रथम पुर्तगालियों ने अपना प्रभुत्व जमाया, फिर इथ श्रीलंका के स्वामी बने और अन्त में श्रीलंका हॉलैण्ड की साम्राज्यवादी नीति का शिकार हुआ। श्रीलंका के चाय और रबड़ के बागानों से अंग्रेजों ने अपार धन कमाया। द्वितीय ने शत्रु
हिन्दचीन- जर्मनी का लौह पुरुष और आधुनिक जर्मनी के निर्माता बिस्मार्क के नेतृत्व में जर्मनी का एकोकरण जनवरी 1871 में हुआ और कालान्तर में सन् 1888 में जर्मनी के सम्राट बने कैंसर विलियम जर्मनी को यूरोप की एक महाशक्ति बना दिया । ऐसी स्थिति में अपनी सुरक्षा के लिए फ्रांस अपने परम्परागत इंग्लैण्ड के साथ मित्रता करने के लिए बाध्य हुआ।
चीन की लूट में फ्रांस और इंग्लैण्ड ने मिलकर भाग लिया और सन् 1860 में तीनस्तीन की सन्धि द्वारा चीन से अनेक सुविधाएँ प्राप्त कर लीं । फिर चीन की दुर्बलता का लाभ उठाकर फ्रांसीसियों ने कम्बोडिया, लाओस तथा थाईलैण्ड ( स्याम ), अनाम, वियतनाम आदि पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया ।
सन् 1887 में फ्रांसीसियों ने वियतनाम, कम्बोडिया, अनाम आदि राज्यों को मिलाकर हिन्दचीन (इण्डोचाइना ) की स्थापना की। सन् 1893 तक फ्रांस भी एशिया में एक विशाल साम्राज्य स्थापित करने में सफल हुआ हिन्दचीन के राज्यों को द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ही स्वतन्त्रता मिल सकी ।
सिंगापुर और मलाथा- दक्षिण - पूर्वी एशिया में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के उद्देश्य सन् 1840 में अंग्रेजों ने सिंगापुर पर अधिकार कर लिया और सन् 1845 में मलाया ( मलक्का प्रायद्वीप ) पर भी अपना प्रभुत्व जमा लिया । सन् 1942 में जापान ने इन क्षेत्रों को अंग्रेजों से छीन लिया , किन्तु जापान की पराजय के बाद सिंगापुर और मलाया फिर से अंग्रेजों के अधीन हो गए । सन् 1957 तक मलक्का प्रायद्वीप पर अंग्रेजों का प्रभुत्व बना रहा ।
( 4 ) मध्य तथा पश्चिम एशिया में साम्राज्यवाद - मध्य तथा पश्चिम एशिया में अफगानिस्तान, तिब्बत, ईरान, टर्की , इराक , अरब आदि देश सम्मिलित है। अफगानिस्तान और तिब्बत-अफगानिस्तान में सत्ता स्थापित करने में रूस और इंग्लैण्ड में संघर्ष हुआ । अंग्रेजों ने दो अफगान युद्ध लड़कर बहुत हानि उठाई और उनकी अफगान - नीति असफल ही रही । सन् 1907 में इंग्लैण्ड तथा रूस के मध्य समझौता हो जाने के बाद अफगानिस्तान और तिब्बत का प्रश्न शान्तिपूर्वक हल कर लिया गया और इन दोनों राज्यों पर इंग्लैण्ड का प्रभुत्व स्थापित हो गया ।
ईरान - ईरान पर इंग्लैण्ड और रूस का संयुक्त नियन्त्रण रहा, जो प्रथम विश्व युद्ध के बाद भी चलता रहा ।
टर्की - टर्की को यूरोप का रोगी ( Sickman of Europe ) कहा जाता था। वियना कांग्रेस ( 1815 ई ० ) से पूर्व टर्की का साम्राज्य अत्यन्त विशाल था , लेकिन बाद में यूरोपीय शक्तियों की स्वार्थप्रियता और साम्राज्यवादी नीति तथा टर्की के सुल्तान की अयोग्यता के कारण टर्की के साम्राज्य का विघटन होने लगा । टर्की के साम्राज्य का विभाजन करने में यूरोप की महाशक्तियों ने गहरी रुचि दिखाई, जिसके कारण यूनान का स्वाधीनता संग्राम ( 1827-1829 ई ० ) , क्रीमिया का युद्ध ( 1854-1856 ई ० ), बोसेनिया व हर्जेगोविना को क्रान्ति ( 1878 ई० ), युवा तुर्क क्रान्ति ( 1908 ई ० ) आदि घटनाओं के साथ टर्की साम्राज्य का विभाजन होता गया।
इंग्लैण्ड और रूस नेटकों के अनेक प्रदेशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया । प्रथम विश्व युद्ध ( 1914 ई० ) से पूर्व जर्मनी ने भी टकों के सुल्तान से अनेक विशेषाधिकार प्राप्त किए और अनेक प्रदेशों पर अपना अधिकार भी जमा लिया । लेकिन प्रथम विश्व युद्ध में पराजित होने के कारण जर्मनी के उपनिवेशों पर इंग्लैण्ड और अमेरिका का प्रभुत्व स्थापित हो गया और इन दोनों ने टर्की, फिलिस्तीन, इराक, सीरिया, अरब आदि देशों के तेल संसाधनों पर दीर्घकाल तक अपना प्रभुत्व जमाए रखा।
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