हरित क्रान्ति से आप क्या समझते हैं? भारत में इसके सामाजिक-आर्थिक परिणामों की विवेचना कीजिए
या हरित क्रान्ति से आप क्या समझते हैं? समकालीन भारत में इस अवधारणा की प्रासंगिकता की विवेचना कीजिए-
हरित क्रांति कृषि वृद्धि के लिये किया गया प्रयास ही न होकर बल्कि एक आन्दोलन है। “ हरित क्रांति ” कृषि विकास के क्षेत्र में एक ऐसा वटवृक्ष है जिसके तने के रूप में अनेक कार्यक्रम कृषि विकास के लिये कार्यरत हैं । इन सभी कार्यक्रमों का समन्वित रूप ही हरित क्रांति है । सभी कार्यक्रमों का समन्वित रूप ही ' हरित क्रांति ' है । ' हरित क्रान्ति ' प्रथम चरण के रूप में सन् 1960-61 तीन जनपदों में ' गहन कृषि जिला कार्यक्रम ' ( Intensive Agricultural District Programme ) अपनाया गया ।बाद में कार्यक्रम की सफलता को देखते हुए अन्य जनपदों में भी इसका विस्तार कर दिया गया । इस कार्यक्रम के अन्तर्गत केवल ऐसे जनपद ही लिए गये जहाँ कि सिंचाई की या तो पर्याप्त सुविधा उपलब्ध थी अथवा वहाँ पार्यप्त मात्रा में वर्षा होती थी । इस कार्यक्रम के अन्तर्गत कृषि के विभिन्न साधनों ( सुधरे हुए कृषि के तरीके बीज, खाद, दया, औजार एवं सिंचाई ) का एक साथ प्रयोग किया जाता है । इसी कारण इस कार्यक्रम को ' पैकेज कार्यक्रम ' ( Package Programme ) भी कहा जाता है ।
बाद में इस कार्यक्रम को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए कार्यक्रम के क्षेत्र को सीमित करके इसे गहन कृषि क्षेत्रीय कार्यक्रम ( Intensive, Agricultural Aria Programme ) का नाम दिया गया । इसके अन्तर्गत कुछ निश्चित फसलों के विकास पर ध्यान दिया गया । इस कार्यक्रम के द्वारा कृषिकों को कृषि सम्बन्धी तकनीकी ज्ञान तथा उत्पादन के अन्य साधन दिये गये जिससे कृषक कृषि सम्बन्धी उत्पादन में वृद्धि कर सकें।
हरित क्रान्ति के विशेष कार्यक्रम
' हरित क्रान्ति ' के अन्तर्गत उक्त कार्यक्रमों के अतिरिक्त कुछ अन्य कार्यक्रम भी अपनाये गये जो निम्नांकित हैं -
1. बहु फसल कार्यक्रम
इस कार्यक्रम का आरम्भ सन् 1967-68 में हुआ । इस कार्यक्रम के पीछे उद्देश्य यह था कि सिंचाई एवं उर्वरक साधनों का समुचित प्रबन्ध करके एक ही खेत से वर्ष में अनेक बार फसलें प्राप्त की जायें । इस कारण इसमें ऐसी किस्म की फसलें उगायी जाती हैं जो थोड़े समय में तैयार हो जायें । इस कार्यक्रम के अन्तर्गत मुख्यतः धान , ज्वार , बाजूरा , मक्का एवं विभिन्न सब्जियों का उत्पादन किया जाता है । सन् 1967-68 के प्रथम दो वर्ष में इसके अन्तर्गत लगभग 37.4 लाख हेक्टेयर भूमि पर बहु - फसलें उगायी गई जबकि 1984-85 में लगभग 5.6 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर बहु - फसले उगाने के लक्ष्य को पूरा किया गया ।
2. अधिक उपज देनेवाली किस्मों का कार्यक्रम-
इस कार्यक्रम के अन्तर्गत अभी तक पाँच फसलें ( गेहूँ, धान, ज्वार, बाजरा एवं मक्का ) ली गयी है । परन्तु उत्पादन के क्षेत्र में अभूतपूर्ण सफलता गेहूं के फसल को ही मिली है, जिसका उत्पादन एक दशक में लगभग तीन गुना हो गया है । इस कार्यक्रम के अन्तर्गत उन्नतिशील बीजों के अतिरिक्त रासायनिक खादों , कीटाणुनाशक दवाओं एवं अन्य साधनों का भी प्रयोग किया जाता है जिसके कारण पहले दिन सिंचित क्षेत्रों से गेहूँ सामान्य उत्पादन प्रति हेक्टेयर 2 टन होता था वहीं आज यह उत्पादन बढ़कर 5 से 6 टन तक का हो गया है।
3. लघु सिंचाई पर बल
कृषि विकास के अन्तर्गत लघु सिंचाई कार्यक्रम पर अधिक बल दिया गया है । भारत में कुल कृषि - क्षेत्र का लगभग 26.8 प्रतिशत भाग ( अर्थात् 4.5 करोड़ हेक्टेयर सिंचित है । पिछले कुछ वर्षों में लघु सिंचाई साधनों ( पम्पसेट , निजी ट्यूबवेल एवं राजकीय ट्यूबवेल ) का पर्याप्त विस्तार हुआ। लघु सिंचाई साधनों के द्वारा देश में जहाँ सन् 1968-69 में केवल 137 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की गयी थी, वहीं 1975 में भूमि का यह क्षेत्रफल बढ़कर 370 लाख हेक्टेयर हो गया ।
4. भूमि सुधार एवं भूमि संरक्षण
भूमि सुधार के अन्तर्गत जमींदारी तथा जागीरदारी प्रथा का उन्मूलन कर दिया है।
5. कृषि प्रशिक्षण एवं साक्षरता अभियान कार्यक्रम
इस कार्यक्रम के अन्तर्गत कृषकों को कृषि से सम्बद्ध नयी तकनीक का ज्ञान कराने और उत्पन्न बीज, उर्वरक, कम्पोस्ट खाद एवं कृषि औजारों के उपयोग के बारे में प्रशिक्षण दिया जाता है ।
6. उर्वरकों के प्रयोग पर अधिक बल
आरम्भ में भारतीय कृषक रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से डरते थे । उनका विश्वास था कि उर्वरकों के प्रयोग से खेत बंजर हो जाता है, उत्पादित अनाज को खाने से विभिन्न रोग उत्पन्न होते हैं एवं ऐसा भोजन अधिक स्वादिष्ट नहीं होता है । इस कारण कृषकों में व्याप्त पूर्वाग्रहों को दूर करने एवं उर्वरकों के प्रयोग के लिए उन्हें प्रेरित करने के लिए अनेक प्रयत्न किए गये। इसी का परिणाम है कि सन् 1970 के पश्चात् उर्वरकों के प्रयोग में तेजी से वृद्धि हुई।
7. कृषि उत्पादन का उचित मूल्य निर्धारण
भारतीय कृषक कठोर परिश्रम करके उत्पादन करते हैं परन्तु इनकी असमर्थता का लाभ उठाकर ग्रामीण व्यापारी मनमानी कीमतों पर इस उपज को खरीदकर कृषकों का गम्भीर शोषण करते हैं । इसके फलस्वरूप कृषकों को अपनी उपज का लागत मूल्य भी प्राप्त नहीं हो पाता। इसका अन्तिम परिणाम यह होता है कि कृषक कृषि के प्रति निराश हो जाते हैं । इन कठिनाइयों को दूरकरने के लिए सरकार की ओर से ' कृषि मूल्य आयोग ' की स्थापना की गई है जो समय-समय पर सरकार को कृषि मूल्य के सन्दर्भ में सुझाव देता रहा है । समर्थित मूल्य पर सरकार अनाज खरीदने का भी कार्य कर रही है जिसमें कृषक व्यापारियों के शोषण से मुक्ति प्राप्त कर सकें ।
8. विभिन्न निगमों की स्थापना
कृषकों को उचित मूल्य पर सुधरे हुए बीज उपलब्ध कराने के लिए अनेक प्रयास किये गये हैं । सन् 1963 में ' राष्ट्रीय बीज निगम ' की स्थापना की गई जिसका प्रमुख कार्य कृषकों के लिए उन्नत बीजों की व्यवस्था करना । वर्तमान समय बीजों की अधिक माँग को देखते हुए प्रभावित बीजों को उत्पन्न करने के लिए 12 राज्यों में ' बीज निगम ' स्थापित किये गये हैं। सन् 1965 के बाद विभिन्न राज्यों में 11 ' कृषि उद्योग निगम ' ( Agro Industrial Corporations ) स्थापित किये गये हैं ।
इनका मुख्य उद्देश्य कृषकों के लिए आधुनिक कृषि मशीनों की पूर्ति करना है । कृषि उत्पादित वस्तुओं की बिक्री एवं संग्रह के कार्यक्रमों का विस्तार करने के लिए 'राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम की स्थापना की गयी । इसके अतिरिक्त ' कृषि पुनर्वित्त निगम ', ' खाद्य निगम ' 'उर्वरक साख व गारण्टी निगम' आदि भी कृषकों की सहायता के लिए कार्यरत हैं ।
हरित क्रांति का लाभ या सकारात्मक प्रभाव
1. हरित क्रांति ने कृषि के उत्पादन को बहुत अधिक बढ़ा दिया है जिससे खाद्यान्न की समस्या पहल से काफी कम हो गयी है।
2. अब हमारे पास इतना अनाज है कि हमें विदेश से अनाज नहीं मँगाना होगा।
3. अनाज के सन्दर्भ में देश आत्मनिर्भर हो गया है जिससे अब अनाज के आयात की आवश्यकता कम हो गयी है।
4. हरित क्रान्ति कृषि का एक वैज्ञानिक तरीका है । इससे सम्बन्धित कार्यक्रमों में कार्यकर्ताओं के रोजगार के अवसर बढ़े हैं।
5. हरित क्रान्ति कार्यक्रम के अन्तर्गत किसानों को प्रशिक्षण देने की भी व्यवस्था होती है, जिसके फलस्वरूप कृषि से सम्बन्धित विषयों में किसानों का परम्परागत पिछड़ापन स्वतः ही दूर हो स जाता है।
6. हरित क्रान्ति कार्यक्रम के अन्तर्गत किसानों को वैज्ञानिक खाद, बीज व उपकरणों के प्रयोग के बारे में निरन्तर जानकारी प्राप्त होती रहती है । यह उसकी आर्थिक स्थिति को उन्नत करने में सहायक सिद्ध होता है।
7. इसके अन्तर्गत बहु-फसल के माध्यम से किसानों को इस क्षेत्र में प्रगति करने का अवसर प्राप्त हो जाता है।
भारतीय ग्रामीण जीवन पर हरित क्रान्ति के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव
हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप भारत को कृषि विकास में अभूतपूर्व सफलता मिली है, परन्तु सफलता के साथ- साथ इसके फलस्वरूप अनेक समस्याएँ भी उत्पन्न हो गई हैं, ये समस्याएँ निम्नलिखित हैं -
1. खेतिहर मजदूरों के रोजगार एवं मजदूरी पर प्रभाव
हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप समस्याओं का अध्ययन करने वाले अनेक विद्वान इस बात से सहमत हैं कि हरित क्रान्ति के फलस्वरूप खेतिहर मजदूरों में बेरोजगारी बढ़ी और उसकी वास्तविक मजदूरी में कमी हुई है । क्रान्ति के आरम्भ में संघन कृषि के अन्तर्गत मजदूरों की माँग अवश्य बढ़ती है, परन्तु कालान्तर में यंत्रीकरण के बढ़ने से बेरोजगारी बढ़ने लगती है।
2. विभिन्न प्रदेशों के बीच असमानता में वृद्धि
हरित क्रान्ति के कारण विभिन्न प्रदेशों के बीच आय की असमानताएँ बढ़ी हैं, क्योंकि ' अधिक उपज ' देनेवाले किस्मों का उपयो केवल चुने हुए क्षेत्रों में ही किया गया है । डॉ . पोदूवाल ( Poduval ) के अनुसार आरमी में हरित क्रान्ति का प्रभाव सबसे अधिक गेहूँ उत्पादन पर पड़ा जिससे गेहूँ उत्पादक राज्य हरित क्रान्ति से अधिक लाभान्वित हुए । इसके फलस्वरूप भारत स्पष्टतः दो भागों में विभक्त हो गया ।
प्रथम गेहूँ उत्पादक सम्पन्न राज्य, दूसरे चावल उत्पादक विपन्न राज्य । जो भारत में 1941 से 1980 के बीच जहाँ पर गेहूँ उत्पादन में 396.98 प्रतिशत की वृद्धि हुई, वहीं चावल के उत्पादन में मात्र 112.98 प्रतिशत की ही वृद्धि हो सकी है । हरित क्रान्ति के दूसरे स्तर में अब चावल उत्पादन पर भी विशेष बल दिया गया तो वही राज्य पुनः लाभान्वित हुए गेहूँ उत्पादन से लाभान्वित थे । उदाहरण के लिए सन् 1978-79 में चावल का कुल उत्पादन 47 लाख टन था जिसमें से लगभग आधे चावल का उत्पादन केवल पंजाब राज्य के द्वारा किया गया ।
इसी प्रकार लगभग दो - तिहाई चावल का उत्पादन केवल पंजाब एवं हरियाणा राज्य द्वारा किया गया जो कुछ समय पहले तक पहले चावल का उत्पादन नहीं करते थे । इससे प्रदेशों के बीच बढ़ती असमानता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । इससे स्पष्ट होता है कि कुछ क्षेत्रों में कृषि की नवीन पद्धतियों को बहुत अधिक प्रोत्साहन मिल गया, जबकि कुछ क्षेत्रों में कृषि परम्परागत तरीकों से ही होते रहने के कारण प्रादेशिक असमानता में और अधिक वृद्धि हो गयी।
3. भूमि सुधार के कार्यान्वयन पर प्रभाव
हरित क्रान्ति के फलस्वरूप यंत्रीकरण का प्रोत्साहन मिला जिससे बटाई पर कृषि करने वाले काश्तकारों से भूमि छीन ली गयी । गाँव का नव अभिजात वर्ग आर्थिक स्थिति के साथ साथ राजनीतिक स्तर पर भी अधिक शक्तिशाली बन गया इससे प्रगतिशील भूमि - सुधारों के मार्ग में अनेक बाधाएँ उत्पन्न हो गयीं । आज अनेक राज्यों में प्रभावशाली ढंग से भूमि सुधार लागू न करने का कारण हरित क्रान्ति से उत्पन्न नव - अभिजात वर्ग का विशेष अधिकार है ।
4. कृषक वर्गों के बीच असमानता
हरित क्रांति के आरम्भ में डॉ . बी . के . आर . बी . राव
( V.K.R.V. Rao ) ने कहा था कि कृषि की इस नई नीति से कृषकों में परस्पर व अन्तक्षेत्रीय समस्याएँ उत्पन्न होंगी जिससे करोड़ों कृषक परिवारों में असन्तोष फैल जाएगा । यह स्थिति समाजवादी विचारधारा के और भी अधिक प्रतिकूल होगी। इन आंदोलन के अंतगर्त अधिक ध्यान सम्पन क्षेत्रों पर दिया गया है, जबकि आवश्यकता यह थी कि पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान जैसे अकालग्रस्त क्षेत्रों पर अधिक ध्यान दिया जाता है।
हरित क्रांति ने सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक तनावों को भी जन्म दिया है । गाँवों में आज एक नया अभिजात वर्ग उत्पन्न हो रहा है जिसकी स्थिति कृषि मजदूरों , छोटे एवं सीमान्त कृषकों तथा अन्य काश्तकारों से काफी अच्छी है । इससे गाँव स्पष्ट रूप से दो भागों में विभक्त हो गया है — प्रथम, नया अभिजात वर्ग एवं दूसरा, सामान्य कृषक वर्ग इससे नये वर्ग - विभेदी एवं सामाजिक संतोष को प्रोत्साहन मिल रहा है ।
5. लघु एवं सीमान्त कृषकों को कम लाभ
देश में 70 प्रतिशत कृषक छोटे एवं सीमान्त कृषक की श्रेणी में आते हैं । विभिन्न अध्ययन इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि ये लघु एवं सीमान्त कृषक - वर्ग हरित क्रान्ति से बहुत कम लाभान्वित हुए हैं । कृषि क्षेत्र का उत्पादन जो 1950-51 में 550 लाख टन था, 1979-80 तक बढ़कर 1330 लाख अन तक पहुँच गया ( यद्यपि आज इसमें और अधिक वृद्धि हो चुकी है ) इससे किसान की हालत बेहतर होनी चाहिए थी, लेकिन तथ्य इसके विपरीत है, क्योंकि हरित क्रांति का लाभ बड़े - किसान, व्यापारियों , बिचौलियों तथा स्थानीय उद्यमियों को मिला है, छोटे, सीमान्त किसानों एवं खेतिहर मजदूरी को नहीं। उन्हें उनकी वास्तविक स्थिति पहले से दुर्बल ही हुई है।
एक अध्ययन के अनुसार 1970-80 के दशक में खेतिहर मजदूरों की वास्तविक मजदूरी में होनेवाली कमी भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रायः सर्वव्यापी प्रवृत्ति रही है । इसी कमी की पुष्टि ग्रामीण पारिवारिक सम्पत्ति के सर्वेक्षण से भी होती है ।
6. उत्पादित वस्तुओं पर अधिक लागत
हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप कृषि से सम्बद्ध जिन नवीन प्रविधियों का विकास हुआ है , कृषि उपज की कुल उत्पादन लागत में भी वृद्धि हो गयी । गेहूँ की उपज के प्रति हेक्टेयर उत्पादन बढ़ने से लागत में कुछ कमी अवश्य हुई है , परन्तु अन्य फसलों की स्थिति बहुत अनिश्चित बनी हुई है । कृषि में ऊँची लागत कारण छोटे एवं सीमान्त कृषक नयी तकनीक अपनाने में वित्तीय कठिनाइयाँ अनुभव कर रहे हैं ।
7. कृषि - साधनों की पूर्ति सम्बन्धी समस्याएँ
हरित क्रान्ति की सफलता नये किस्म के बीजों , रासायनिक खादों , कीटनाशक दवाओं , सिंचाई के साधनों एवं कृषि औजारों पर निर्भर है । इन साधनों की पूर्ति एवं उचित वितरण की व्यवस्था आज एक प्रमुख समस्या बन गयी । ग्रामीण कृषकों का बहुत बड़ा भाग निर्धन है , जिसमें क्रय - शक्ति की अत्यधिक कमी है । इसके अतिरिक्त जब कभी भी इन कृषि निवेशों में से किसी की भी पूर्ति घट जाती है तो इसका प्रत्यक्ष प्रभाव कृषि उत्पादन पर पड़ता है ।
हरित क्रांति की सफलता के लिए सुझाव
भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था के समुचित विकास एवं खाद्यान के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए 'हरित क्रान्ति' के अन्तर्गत अनेक कार्यक्रमों को डॉ. जी. के. अग्रवाल एवं डॉ. शील स्वरूप पाण्डे ने अपनी पुस्तक में हरित क्रान्ति की सफलता के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये हैं -
1. सिंचाई के साधनों का विस्तार किया जाय । हमारे यहाँ काश्त का कुल क्षेत्र 1380 लाख हेक्टेयर है जिसमें मात्र 330 लाख हेक्टेयर भूमि सिंचित है ।
2. देशी खाद के इस्तेमाल को प्रोत्साहन दिया जाय क्योंकि प्रतिवर्ष महँगे होते उर्वरकों के सहारे रहना आत्मघाती हो सकता है ।
3. अच्छी नस्ल के पशुओं को विकसित किया जाय जिससे छोटे एवं सीमान्त किसान दूध , देशी खाद एवं कृषि के लिए पर्याप्त पशु प्राप्त कर सकें ।
4. बहु-फसल ( Multiple Cropping ) – कार्यक्रम को प्रोत्साहन देकर इस क्रान्ति को अधिक सफल बनाया जा सकता है ।
5. भूमि सुधार कार्यक्रमों को प्रभावशाली ढंग से लागू किया जाय ।
6. कृषि के अन्तर्गत काम आनेवाले निवेश ( सुधरे , हुए कृषि के तरीके , बीज , उर्वरक , दबा , पानी एवं कृषि औजार ) कृषकों को उचित मूल्य पर उपलब्ध हों ।
7. वित्तीय कठिनाइयाँ दूर करने के लिए आसान शर्तों पर ऋण देने की व्यवस्था की जाय ।
8. कृषकों के लिए कृषि बीमा योजना आरम्भ की जाय ।
9. बिखरे हुए खेतों को एक स्थान पर करने के लिए चकबन्दी व्यवस्था का प्रत्येक क्षेत्र में प्रसार किया जाय ।
10. एक निश्चित सीमा के बाद खेतों के विभाजन पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाये ।
11. कृषकों को कृषि
उत्पादन का उचित मूल्य दिलाया जाय क्योंकि हरित क्रांति के बाद कृषि लागत में वृद्धि हुई है । आज भी किसान एक ऐसा उत्पादक है , जिसे यह मूलभूत अधिकार नहीं है कि वह अपने उत्पादन का मूल्य स्वयं निश्चित कर सके । वह दूसरों के द्वारा निर्धारित की गयी कीमत पर अपनी खेती के लिए आवश्यक बीज, खाद, पानी, पेट्रोल, डीजल तथा मजदूरी खरीदता है और दूसरों द्वारा निर्धारित कीमत पर ही अपना उत्पादन बेचता है। न बाजार पर उसका नियन्त्रण है और न अपने माल पर । यदि कृषक अपने उत्पादन का उचित मूल्य प्राप्त नहीं कर सके । तो उन्हें पुनः कृषि की परम्परागत पद्धतियों की ओर लौटना पड़ जायेगा ।
12. सभी फसलों को कार्यक्रम का अंग बनाया जाय, क्योंकि अभी तक मात्र पाँच फसलों ( गेहूँ, धान, ज्वार, बाजरा, एवं मक्का ) को ही इसके अन्तर्गत लिया गया है ।
13. छोटे किसानों को ध्यान में रखकर शोध कार्य की नयी दिशा दी जाये जिससे कम वर्षा एवं कम सिंचाईवाले क्षेत्रों में ( जहाँ एक - तिहाई सीमान्त जोतें है ) सामान्य ग्रामीण भी खेती से सम्बन्धित जानकारियों का लाभ उठा सकें ।
14. कृषकों को आधुनिक कृषि का प्रशिक्षण दिया जाय ।
15. कृषकों तथा आधुनिक कृषि - ज्ञान शीघ्र एवं प्रभावशाली ढंग से पहुँचाया जाय ।
16. बड़े - बड़े कृषि फार्मों को तोड़कर छोटे-छोटे खेतों में विभक्त किया जाय जिससे रोजगार के अधिकतम अवसर उपलब्ध हो सकें ।
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