US imperialism: संयुक्त राज्य अमेरिका का साम्राज्यवाद

संयुक्त राज्य अमेरिका का साम्राज्यवाद - US imperialism

लगभग एक शताब्दी तक ब्रिटिश उपनिवेशक के शिकार अमेरिकी उपनिवेशों ने स्वाधीनता युद्ध ( 1776 ) ई ० ) में विजय प्राप्त कर सन् 1789 में संयुक्त राज्य अमेरिका की स्थापना की। जॉर्ज वाशिंगटन के नेतृत्व में अमेरिका ने तेजी के साथ अपनी शक्ति बढ़ानी शुरू कर दी । उसने मेक्सिको को नतमस्तक करके फ्रांस से लुइसियाना , स्पेन से फ्लोरिडा और रूस से अलास्का के क्षेत्र प्राप्त करके अपनी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति उजागर कर दी। 


सन् 1823 में अमेरिकी राष्ट्रपति मुनरो ( Munro ) ने स्पष्ट रूप से यूरोपीय देशों को चेतावनी दे दो कि वे पश्चिमी गोलार्द्ध ( मध्य व दक्षिण अमेरिका ) में अपने प्रभाव को बढ़ाने की चेष्टा न करें, अन्यथा उन्हें गम्भीर परिणाम भुगतने होंगे । इतिहास में यह घोषणा ' मुनरो सिद्धान्त ' के नाम से प्रसिद्ध है । सन् 1895 में ' मुनरो सिद्धान्त ' में एक उपधारा जोड़कर इंग्लैण्ड को निकारागुआ में सेना न भेजने को चेतावनी देते हुए अमेरिका ने कहा कि इस महाद्वीप में अमेरिका ही सर्वप्रभुतासम्पन्न है और किसी बाहरी शक्ति को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है । 


सन् 1904 में अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने वेनेजुएला की नौसैनिक नाकाबन्दी के प्रश्न पर ब्रिटेन और जर्मनी को धमका कर यह नाकाबन्दी समाप्त करने के लिए बाध्य किया । इसी प्रकार सन् 1906 में क्यूबा , सन् 1915 में हाइती तथा मेक्सिको आदि के मामलों में अमेरिका ने सशस्त्र हस्तक्षेप करके अपनी दादागीरी का परिचय दिया । चीन की लूट में संयुक्त राज्य अमेरिका भी सम्मिलित हुआ। 


सन् 1844 में उसने चीन के साथ सन्धि करके उससे अनेक प्रकार की सुविधाएँ व विशेषाधिकार प्राप्त किए । सन् 1854 में कमोडोर पेरी ने जापान को अपना द्वार खोलने के लिए बाध्य कर दिया और वह उस समय तक जापान में हस्तक्षेप करता रहा जब तक कि सन् 1902 में इंग्लैण्ड और जापान के बीच मैत्री समझौता नहीं हो गया । 


लेकिन दक्षिण अमेरिका और प्रशान्त महासागरीय क्षेत्रों के अतिरिक्त संयुक्त राज्य अमेरिका ने यूरोप की राजनीति में प्रथम विश्व युद्ध ( 1914 ई ० ) के पूर्व तक कोई भाग नहीं लिया । बड़े आश्चर्य की बात यह है कि ' बर्लिन कांग्रेस ( 1878 ई ० ) जैसे अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भी अमेरिका की भूमिका नगण्य रही । फिर भी इस अवधि में अमेरिका ने अपने आर्थिक 


साम्राज्यवाद का विस्तार करके स्वयं को विश्व की एक महाशक्ति बना लिया और पनामा नहर बनने के बाद वह विश्व की  दूसरी समुंद्री शक्ति बन गया। उसने कोलंबिया, हवाई द्रीपसमूह, पर्ल हार्बर तथा बहुत-से छोटे-  छोटे द्वीप पर अपना प्रभुत्व जमा लिया। 


प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान  ग्लैण्ड अमेरिका ने अंतिम चरण में युद्ध में प्रवेश कर निर्णायक भूमिका निभाई और मित्रराष्ट्र ( इंग्लैण्ड फ़्रांस और रूस आदि ) को विजयी बनाया। दो विश्व युद्धों के मध्य अमेरिका का आर्थिक साम्राज्यवाद परकाष्ठा पर जा पहुंचा, जिसके बल पर अमेरिका द्वितीय विश्व युद्ध का भाग्य-निर्माता बन गया। इस युद्ध के अमेरिका विश्व की दो महाशक्तियों में से एक हो गया । सन् 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद से आज तक संयुक्त राज्य अमेरिका ही एकमात्र महाशक्तिशाली देश है ।


इस प्रकार उपर्युका विवेचन से स्पष्ट है कि केवल 200 वर्षों की अवधि में ही संयुक्त राज्य अमेरिका ने डॉलर कूटनीति और सशस्त्र धमको ' बिए रॉड ' ( Bic Rosd ) को नीति अपनाकर स्वयंभू - मध्यस्थ या अन्तर्राष्ट्रीय  पुलिसमैन ( International Policeman ) भूमिका ग्रहण कर ली है। इतिहासकारों ने अमेरिका की सशस्त्र हस्तक्षेप व धमकी की नीति को " Big Rod का नाम दिया है। 


अपनी सैन्य शक्ति के बल पर संयुक्त राज्य अमेरिका ने सन् 1890 से बीसवीं शताब्दी के प्रथम तीन दशकों तक दक्षिण - पूर्वी एशिया प्रशान्त महासागर, मध्य अमेरिका ) में अनेक स्थानों पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया और अपनी डॉलर कूटनीति के बल पर संयुक्त राज्य अमेरिका न केवल एक साम्राज्यवादी देश , वरन् विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति बन गया है ।


यहाँ यह उल्लेखनीय है कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने लैटिन अमेरिकी देशों को आर्थिक बहाने उन पर अपना राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित कर लिया और इन देशों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार प्राप्त कर लिया । उसको यह नोति इतिहास में ' डॉलर कूटनीति ' के नाम से प्रसिद्ध है ।


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