वैदिक काल की शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ | Salient features of Vedic period education in Hindi
1. शिक्षा का प्रारम्भ उचित समय पर
प्राचीन भारतीय शिक्षा विशेषज्ञों का विश्वास या कि यदि शिक्षा का आरम्भ उचित समय में न हुआ तो बालक के उज्ज्वल शैक्षिक भविष्य की आशा करना व्यर्थ है । शिक्षा का आरम्भ पाँच वर्ष की आयु से करना चाहिए । हमारे प्राचीन ग्रन्थों में कहा है ' नातिषोडशवर्शमुपनयीत प्रसृष्टवृषणों होषवली भूतोभवीत । ' शिक्षा का आरम्भ बाल्यावस्था से ही होना चाहिए , इस समय मस्तिष्क लचीला , स्मृति तीव्र तथा बुद्धि ग्रहणशील रहती है ।
2. गुरुकुल
कवीन्द्र रवीन्द्र ने कहा है, भारतीय संस्कृति का निर्माण नगरों में नहीं अपितु वन आश्रमों में हुआ था- " A most wonderful thing we notice in India is that here the forest not the town is the fountain head of all its civilization . " उपनयन संस्कार के उपरांत बालक गुरुगृह या गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेज दिय जाता था और तब वह ' अंतेवासिन ' या ' गुरुकुलवासी ' कहलाता था ।
ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए अध्ययन तथा गुरु - सेवा के कार्य में अपने को संलग्न रखते थे । इन पर बाह्यात्मक राजकीय व सामाजिक प्रभुत्व भी न था । गुरुकुल में बालक गुरु के गुणों का अनुकरण करता था ।
3. गुरु - शिष्य सम्बन्ध
प्राचीन भारत का गुरु - शिष्य सम्बन्ध इतना उत्कृष्ट कोटि का था कि विश्व - इतिहास के किसी भी पन्ने पर ऐसे आदर्श दृष्टिगत नहीं होते । गुरु - शिष्य का सम्बन्ध पिता - एक तुल्य था । गुरु अपने छात्रों से अपार प्रेम रखते थे । वे उनका पुत्रवत् ही लालन - पालन किया करते थे । शिष्य गुरु को पिता से बढ़कर मानते थे ।
4. शिक्षा में धार्मिक तत्व की प्रधानता
गुरु अपने शिष्यों को प्रार्थना करना , वेद मंत्रों का उच्चारण करना विधिवत बताते थे । यह धार्मिक शिक्षा छात्रों में दया, सेवा, सहिष्णुता, ममता, आदर आदि नैतिक गुणों का विकास करती थी ।
5. चरित्र निर्माण पर बल
अच्छी आदतों का पुंज ही चरित्र है ' का निर्माण करने के लिए आदतों का विकास करना आवश्यक है । बालक का भावी जीवन भी आदतों पर ही आधारित है । गुरु अपने शिष्य में निम्नलिखित आदते डालता था
( i ) ब्रह्ममुहूर्त में जागरण,
( ii ) नित्य पूजन करना,
( iii ) सर्वदा सत्य बोलना,
( iv ) सादा जीवन व्यतीत करना
( v ) सबसे प्रेम करना आदि।
6. सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास
गुरु अपने शिष्यों में ऐसे गुण उत्पन्न करते थे जिससे वे देश के भावी कर्णधार बनें । विद्यार्थियों में इन्द्रिय - निग्रह , आत्म - संयम तथा आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न की जाती थी ।
7. स्त्री शिक्षा का प्रचार
प्राचीन भारत में प्रायः घरों पर ही अभिभावकों द्वारा शिक्षा दी जाती थी । उन्हें बाहर नहीं भेजा जाता था । इसका अर्थ यह नहीं है कि उस समय की स्त्रियाँ अवनति पर थीं । स्त्रियों को पुरुषों की भाँति ही वेदों के अध्ययन का अधिकार था । घोषा, लोपामुद्रा, उर्वशी तथा अपाला प्राचीन भारतीय ऋग्वेदकालीन नारियाँ हैं।
8. सबको शिक्षा प्राप्ति का अवसर
प्राचीन भारत में समाज को उन्नति के शिखर पर पहुँचाने वाली एकमत्र आधारशिला शिक्षा ही है इसलिए प्राचीन काल में सबको शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया गया था। गुरु का आदर्श सर्वोच्च प्राचीन काल में गुरु ज्ञान व आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से समाज में , सर्वोच्च व्यक्ति थे तथा उनमें अग्नि की - सी तेजस्विता व इन्द्र की - सी वीरता थी ।
अतः स्वाभाविक ही उन्हें लोकप्रियता प्राप्त थी । वे अपने शिष्यों को पुत्रवत् रखते थे और उनके भोजन , वस्त्र व निवासादि का प्रबंध स्वयं करते तथा उनके सुख - दुःख में वह भी समान रूप से भाग लेते थे । चरित्र निर्माण पर बल देते हुए अपने शिष्यों से यही कामना करते थे कि उनसे भी अधिक यश - कीर्ति को वे प्राप्त करें ।
10. विद्यार्थी के कर्त्तव्य व्यापक
गुरु के संरक्षण में रहकर शिष्यों के कर्तव्य थे
( 1 ) विद्यार्थी को गुरुगृह की अग्नि को प्रज्वलित रखने के लिए जंगल से लकड़ी लाना पड़ता था । उससे गुरुगृह की पावन अग्नि को सर्वदा प्रज्वलित रखना पड़ता था ।
( 2 ) विद्यार्थी का कर्त्तव्य था गुरु के लिए भिक्षा मांगना । इस भिक्षावृति के पीछे विनय भावना का जागृत करने का आदर्श छिपा था ।
( 3 ) विद्यार्थी का पृथ्वी पर शयन करना , साधारण भोजन करना, गुरु की आज्ञाओं का पालन करना आवश्यक होता था ।
( 4 ) गुरु की गायों को जंगल में ले जाकर चराना भी विद्यार्थी का कर्तव्य था ।
( 5 ) सबसे महान् कर्त्तव्य था ' विद्याध्ययन '। वह गुरु चरणों में निश्चल भाव से विद्या - अध्ययन करता था ।
11. गुरु के कर्त्तव्य महान्
प्राचीन भारतीय शिक्षकों के सम्मुख केवल अध्ययन और अध्यापन का ही उद्देश्य था । अपने आश्रमों में बैठे गुरु अपने शिष्यों को निरन्तर प्रयत्नशील बनाने में संलग्न रहते थे। आधुनिक गुरुओं की भाँति उनमें स्वार्थ भाव नहीं था । वे अपने शिष्यों को निश्चल भाव से शिक्षा देते थे, किसी प्रकार के लाभ के वशीभूत होकर वे उन्हें शिक्षा नहीं देते थे । वे शिष्य के साथ पुत्रवत् प्रेम करते थे और जो एक पिता अपने पुत्र के प्रति भाव या कर्त्तव्य समझता है वे ही एक गुरु भी समझते थे । सब शिष्यों के साथ एक समान व्यवहार करते थे । किसी भी शिष्य के साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार नहीं करते थे ।
12. शिक्षा में पूर्णता
वैदिक काल में विभिन्न विषयों का सामान्य ज्ञान न देकर शिक्षा द्वारा व्यक्ति में एक विषय के ज्ञान की पूर्णता लाने का ध्येय तत्कालीन गुरुजनों के सम्मुख रहता था । पुस्तकों की कमी थी। गुरुजनों को सारी पुस्तकें कण्ठस्थ रहती थी । गुरु अपने शिष्यों को भी उसी प्रकार सारी पुस्तक कण्ठस्थ करा देते थे।
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