बौद्धकालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ | Salient Features of Buddhist Education in Hindi
शिक्षा के उद्देश्य और आदर्श
बौद्ध धर्म के सिद्धान्त जीवन में प्रविष्ट हो जायँ इसी आधार पर बौद्ध शिक्षा का प्रचार किया गया। इसलिए बौद्ध शिक्षा का-
1. सर्वप्रथम उद्देश्य था बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार एवं ग्रहण करना जिससे कि लोगों को धर्म के प्रति श्रद्धा, विश्वास एवं आस्था बढ़े।
2. दूसरा प्रमुख उद्देश्य था जीवन के दुःख, कष्ट, रोग, मृत्यु से मनुष्य का निर्वाण करना । महात्मा बुद्ध ने तीन दृश्यों को देखकर घर - बार छोड़ा था — रोग, वृद्ध और शव देखकर। उन्होंने उनसे मुक्त होना शिक्षा का उद्देश्य रखा ।
3. तीसरा प्रमुख उद्देश्य था- मनुष्य में सद्गुण, सदाचार, संयम, शुद्धता का विकास करना । प्रव्रज्या ( गृह - त्याग ) और उपसम्पदा ( धर्म की शरण में रहना ) संस्कार शिक्षा से ही जोड़े गये थे । इनके कारण ही मनुष्य में सद्गुण , संयम आदि आते हैं और इनकी सहायता से ' निर्वाण की प्राप्ति सम्भव होती है ।
4. बौद्ध शिक्षा के गौण उद्देश्य भी कई थे, जैसे- मानव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना। आत्म - नियन्त्रण से आत्म - ज्ञान होता है और आत्म - ज्ञान के प्रकाशन से मानव हृदय एवं क्रिया का विकास होता है । यही कारण था कि श्रमण का जीवन ज्ञान , भाव , क्रिया से ओत-प्रोत रहता था । अतएव शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तित्व के ज्ञानात्मक , भावात्मक एवं क्रियात्मक तीनों पक्षों का विकास करना था।
5. सामाजिक योग्यता एवं कुशलता का विकास करना। धर्म का अर्थ आध्यात्मिक एवं सामाजिक कर्त्तव्यों के पालन से लिया जाता था और व्यक्ति की शिक्षा उसे यह क्षमता प्रदान करती थी कि वह अपने आपको समाज का एक योग्य सदस्य बनाये ।
बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएँ ( Features of Buddhist Education )
बौद्ध धर्म के आदर्श उद्देश्य और सिद्धान्त वैदिक धर्म से बहुत कुछ भिन्न थे। अतः बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए एक विशिष्ट शिक्षा प्रणाली का संगठन किया गया। बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली की विशेषताएँ निम्नांकित थीं
1. प्रव्रज्या या पब्बज्जा
वैदिक काल में जिस प्रकार प्रविष्ट होने के पूर्व उपनयन संस्कार आदि सम्पन्न होता था उसी प्रकार बौद्ध संघ में प्रविष्टि होने के लिए भी एक प्रणाली प्रचलित थी इसको पब्बज्जा कहा जाता है । पब्बज्जा ( प्रव्रज्या ) का शाब्दिक अर्थ ' बाहर जाना ' है तथा इस प्रथा के अनुसार भावी भिक्षु अपने परिवार से बाहर आकर बौद्ध संघ में प्रवेश करता था ।
पब्बज्जा ग्रहण करने की अवस्था 8 वर्ष निर्धारित थी । संघ में प्रविष्ट होने पर 12 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती थी । इस अवधि में नवीन भिक्षु , संघ के जीवन के अनुरूप अपने को तैयार करता था । इसके उपरांत 20 वर्ष की अवस्था में वह ' उपसम्पदा ' ग्रहण करता और संघ का पूर्ण सदस्य अनता था । पब्बज्जा के उपरान्त नवीन भिक्षु ' समानेर ' कहलाते थे ।
बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि ।
इस ' शरणत्रयी ' के पश्चात् बालक को संघ में प्रवेश प्राप्त हो जाता था और वह ' श्रमण ' कहलाने लगता था । इस संस्कार का संपादन 8 वर्ष की आयु में होता था । माता - पिता की अनुमति के बिना बालक का प्रवेश संघ में नहीं होता था ।
संघ में उन लोगों का प्रवेश निषिद्ध था जिसे किसी छूत के रोग होते थे या अंगहीन होते थे । राज्य के कर्मचारियों , दासों , सैनिकों तथा अभियुक्तों के प्रवेश का भी निषेध था। जाति भेद न होते हुए भी अशिष्ट , चरिवहीन एवं प्रष्ट लोगों को संघ में प्रविष्ट होने की अनुमति नहीं थी ।
2. उप - सम्पदा
ब्राह्मणीय शिक्षा के समावर्तन संस्कार की भांति इसमें उप - सम्पदा संस्कार होता था । समावर्तन के पश्चात् ब्रह्मचारी गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता था पर उप - सम्पदा के पश्चात् ' श्रमण ' पूर्ण ' भिक्षु ' हो जाता था । यह संस्कार 20 वर्ष की अवस्था में किया जाता था । सीधे उप - सम्पदा ग्रहण कर संघ के स्थायी सदस्य बन जाते थे ।
3. गुरु की योग्यता और कर्त्तव्य को प्रधानता देना
इस काल में वही भिक्षु शिक्षक हो संकता था जो कम से कम दस वर्ष तक स्वयं भिक्षुक रह चुका हो और साथ ही उसका शुद्ध आचरण , पवित्र विचार , विनम्रता आदि गुणों से विभूषित होना भी आवश्यक था । मानसिक क्षमता भी शिष्य को धर्म व विनिमय की शिक्षा देने के लिए अनिवार्य थी ।
बौद्ध काल में गुरु को उपाध्याय कहा जाता था । उनका कर्त्तव्य होता था शिष्य को स्नेहपूर्वक शिक्षा प्रदान करना और दैनिक कार्यों के अन्तर्गत किसी भी आवश्यक वस्तु की कमी होती तो उसका प्रबन्ध करता था । शिष्य के शारीरिक व मानसिक विकास का पूर्ण उत्तरदायित्व उसी पर था । शिष्य के बीमार पड़ने पर पूर्ण सेवा करता था ।
5. गुरु - शिष्य सम्बन्ध
वैदिक शिक्षा की भांति इस काल में गुरु - शिष्य सम्बन्ध में वही पवित्रता विद्यमान थी । उन दोनों का सम्बन्ध घनिष्ठ , स्नेहयुक्त व सम था । दोनों के पृथक् - पृथक् कर्त्तव्य निर्धारित थे । गुरु अत्यन्त सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करते और उनकी आवश्यकताएँ भी सीमित होतीं । ह्वेनसांग के लेखों से स्पष्ट होता है कि विहारों में रहने वाले गुरु अत्यन्त उद्भट विद्वान थे ।
बौद्ध शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी के कर्त्तव्य निर्धारित थे । उसे ' सिद्ध विदारक ' कहा जाता था । गुरु - शिष्य को पुत्र की भांति रखता , सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति करता तथा किसी भी प्रकार का कष्ट न होने देता । शिष्य आचार्य के मानसिक कष्टों से परिचित होने पर उनके निवारण की चेष्टा करता था और इसके लिए वह धार्मिक वार्तालाप तथा इसी प्रकार के अन्य उपायों द्वारा गुरु का मन बहलाव कर उनका मानसिक कष्ट दूर करने का प्रयास करता ।
4. शिष्य की दिनचर्या का महत्त्व
बौद्ध शिक्षा प्रणाली में नियमित रूप से गुरु की सेवा अनिवार्य था और वास्तव में गुरु सेवा शिक्षा का ही एक अविच्छिन्न अंग था । गुरु के भिक्षाटन के लिए वस्त्र व पात्र आदि प्रस्तुत कर वह उनकी इच्छानुसार उनके साथ भिक्षाटन के लिए भी जाते थे, केवल भिक्षा ग्रहण कर लेने पर शिष्यों को ही पहले लौटना पड़ता था क्योंकि गुरु के हाथ पैर धोने, वस्त्र परिवर्तन व विश्राम की व्यवस्था करना उनका ही कार्य था । शिष्य को गुरु की शारीरिक सेवा के अतिरिक्त उनके निवास स्थान को भी स्वच्छ रखना पड़ता था । उसकी दिनचर्या गुरु के आदेशों पर अवलम्बित थी । शिष्य गुरु का पूर्ण अनुशासन मानता था ।
6. बौद्ध काल में छात्रों की संख्या, निवास स्थान , भोजन और रहन - सहन
एक भिक्षु ही एक नवीन भिक्षु को शिक्षा दे सकता था । बुद्ध ने समर्थ शिक्षकों को अधिक शिष्यों को भी शिक्षा देने की स्वीकृति प्रदान की है । भगवान बुद्ध ने भिक्षुकों को मठों तथा विहारों में रहने की आज्ञा प्रदान की थी । नालन्दा आदि विश्वविद्यालयों के भग्नावशेषों से ज्ञात होता है कि वहाँ हजारों विद्यार्थियों के रहने की व्यवस्था थी ।
इस प्रकार बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली रीढ़ प्रशस्त विहार या मठ थे जहाँ कि 1000 भिक्षु रहते थे । कुछ विद्यार्थी मठों में गुरु के पास न रहकर स्वयं अपने घर में रहते थे । बनारस के राजकुमार जुन्ह की कथा जातक ग्रन्थों में मिलती है । बौद्ध भिक्षुओं का जीवन बहुत सात्विक था ।
सादा जीवन व उच्च विचार ही उनका उद्देश्य होने के कारण उनमें सात्विकता, विनम्रता, कर्तव्य - परायणता व परोपकारिता से ओत - प्रोत उनका जीवन अनुकरणीय था और अहिंसा व सत्य पालन उनकी सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषताएँ थीं । कभी कभी नागरिकों की ओर से गुरु व शिष्यों के भोजन का निमंत्रण भी मिलता था । सुगंधि, नृत्य तथा संगीत का उनके लिए निषेध था ।
7. व्यावहारिक विषयों की शिक्षा
बौद्धकालीन शिक्षा पद्धति के अन्तर्गत व्यावहारिक विषयों की शिक्षा व्यावहारिक रूप से ही प्रदान की जाती थी । विद्यार्थीगण कुशल मिस्त्रियों के साथ रख दिये जाते थे । उनके साथ रहकर वे विभिन्न विषयों का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करते थे ।
8. स्त्री शिक्षा
बौद्ध काल में स्त्री - शिक्षा का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था। उस समय साधारण स्त्रियों के लिए शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी । केवल राजाओं, महाराजाओं तथा धनसम्पन्न लोगों के घरों की स्त्रियाँ ही शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं ।
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