उच्च स्तर पर शिक्षा की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
उच्च शिक्षा की समस्यायें: स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उच्च शिक्षा का विकास तीव्र गति से हुआ, लेकिन विकास का प्रारूप नियोजित न होकर अस्तव्यस्त रूप में हुआ। फलतः उच्च शिक्षा के स्तर में गिरावट आने लगी। कोठारी कमीशन के अनुसार, "भारत में सामान्य भावना यह है कि उच्च शिक्षा की स्थिति असन्तोषजनक एवं भयप्रद भी है।" उपब शिक्षा की प्रमुख समस्याओं को निम्नांकित शब्दों द्वारा व्यक्त किया गया है-
1. उद्देश्यहीनता की समस्या
आज के युग में उच्च शिक्षा प्राप्त नवयुवक बेरोजगारी के शिक्षा होते जा रहे हैं। मात्र प्रमाण-पत्र की प्राप्ति से वे अपना जीवनयापन नहीं का सकते हैं। देश की बदलती परिस्थितियों के अनुसार उच्च शिक्षा का पाठ्यक्रम सुनिश्चित किया जाना चाहिए, जबकि इसका पाठ्यक्रम अभी भी पुरातन रूप में है।
अंग्रेजों के शासनकाल के पाठ्यक्रम आज भी उच्च शिक्षा-संस्थानों में प्रचलित है, जो उद्देश्यविहीन है। उन्च शिक्षा के उद्देश्य आज की सामाजिक आवश्यकता के अनुरूप होने चाहिए, जबकि आज की शिक्षा इसके विपरीत है। मात्र सरकारी नौकरियों की प्राप्ति के लिए प्रदत्त प्रमाण-पत्र पासपोर्ट के रूप में प्रदान किये जाते हैं। शिक्षा के उद्देश्य मात्र नौकरियों के लिए नहीं होना चाहिए, वरन इसचे जोबन को तैयारी के रूप में दाला जाना चाहिए।
2. छात्र अनुशासनहीनता की समस्या
आज भारत का शायद ही कोई विश्वविद्यालय है, जहाँ तोड़फोड़, हिंसा, आगजनी, पुलिस फायरिंग आदि की घटनायें न होती हो। आधुनिक शिक्षा की रूपरेखा से हो छात्र अनुशासनहीनता की प्रमुख जड़ है। छात्रों में उच्छृंखान व्यवहार, सामान्य दुव्यवहार, परीक्षा में सम्बन्धित दुव्यवहार, स्वाधिकारों का दुपयोग धन-सम्बन्धी अनियमितता तथा चोरी एवं सेंधमारी आदि अनुशासनहीन कार्यों का उल्लेख भूतपूर्व कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो० एन० के सिद्धान्त ने एक अध्ययन के आधार पर किया है।
इसके अतिरिक्त हड़ताल, अनावश्यक प्रदर्शन, पुलिस से झगड़ा, कक्षाओं में बहिर्गमन, परीक्षाओं का बहिष्कार, अपनी शक्ति का अनुचित प्रयोग, शिक्षकों के साथ अभद्र व्यवहार, सार्वजनिक स्थानों पर मारपीट, परीक्षाओं में निर्भिकता के साथ अनुचित साधनों का प्रयोग, छात्रनेताओं द्वारा अभद्र व्यवहार तथा अपशब्दों का प्रयोग, लड़कियों का अपहरण तथा उनके साथ बलात्कार आदि प्रतिदिन घटित होने की सूचनायें प्राप्त होती रहती है।
3. पाठ्यक्रम की समस्या
उच्च संस्थाओं का पाठ्यक्रम नीरस, संकीर्ण तथा परम्परागत है। यह जीवन से सम्बन्धित नहीं है। तथा आधुनिक समाज की आवश्यकताओ के अनुरूप नहीं है। इस प्रकार यह नितान्त औपचारिक, सैद्धांतिक तथा पुराने लकीर के फकीर हैं। आज का पाठ्यक्रम कार्यानुभव पर आधारित नहीं है।
यह मात्रा को सूचनायें प्रदान करता है। कठोरता, विविधता तथा व्यावसायिकता विषयो की कमी के साथ आज का पाठ्यक्रम छात्रों की कवियों आवश्यकताओं तथा अभिवृत्ति के अनुकूल नहीं है। पराधीन भारत की आवश्यकताओं तथा स्वतंत्र भारत की आवश्यकताओं में महान अन्तर है, क्योंकि दोनों कालों की परिस्थितियों अलग-अलग है, जबकि उच्च शिक्षा संस्थाओं के पाठ्यक्रमों के अन्तर्गत वे ही पिसे पिटे विषय सम्मिलित है। राधाकृष्णन कमीशन के अनुसार, "जो पाठ्यक्रम वैदिककाल में उपयोगी था, उसे 20वीं शताब्दी में बिना परिवर्तन किये प्रयोग नहीं किया जा सकता है।"
4. दोषपूर्ण परीक्षा-प्रणाली की समस्या
उच्च शिक्षा की वर्तमान परोक्षा-प्रणाली, विश्वसनीयता, वैभता, बस्तुनिष्ठता, विभेदकता, व्यापकता, अनुचित श्रेणी-विभाजन, पर्दा का उचित प्रयोग आदि से कोसों दूर है विद्यार्थियों की उपलब्धि का मापन मात्र पांच प्रश्नों के आधार पर निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली के आधार पर किया जाता है, जिससे सही मूल्यांकन भी नहीं हो पाता है।
इस प्रकार की परीक्षा प्रणाली में कक्षा-कार्य तथा आन्तरिक परीक्षाओं काक बहिष्कार कर मात्र बाह्य परीक्षाओं को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। इसी प्ररिप्रेक्ष्य में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1949) का कहना है- "यदि हम विश्वविद्यालय शिक्षा के मात्र एक विषय में सुधार का सुझाव दें तो वह परीक्षाओं के सम्बन्ध में होना चाहिए।"
5. निम्न शैक्षिक स्तर की समस्या
यदि किसी देश को शिक्षा उस देश की जनता की वर्तमान आवश्यकताओं तथा भविष्य की आकांक्षाओं की पूर्ति करने में असमर्थ रहती है तो सामान्यत: कहा जाता है कि शिक्षा-स्तर में गिरावट है। शिक्षा का मूल्यांकन पाठ्यक्रम के विषयवस्तु तथा गुणवत्ता पर आधारित होता है।
प्रायः यह सुनने में आता है कि आज का एम०ए० या बोराए० उत्तीर्ण विद्याची अच्चले हिन्दो तथा अंग्रेजी नहीं लिख पा रहा है, जबकि पहले का हाईस्कूल उत्तीर्ण विद्यार्थी शुद्ध हिन्दी तथा अंग्रेजी लिख लेता था। इसका तात्पर्य है कि शिक्षा के स्तर में गिरावट हो रही है। इस सम्बन्ध में आयंगर ने लिख्खा है, "हमारे ज्ञान या शिक्षा का स्तर वैसे तो कभी ऊंचा नहीं था, पर अब तो यह तीव्र गति से नीचे की ओर जा रहा है।"
6. अपव्यय की समस्या
उच्च शिक्षा के स्तर पर अपव्यय को समस्या अधिक है, जैसा कि राधाकृष्यान कमीशन के अनुसार, "सार्वजनिक धन का प्रतिवर्ष अति महान अपव्यय हो रहा है। किन्तु, इससे भी अधिक दुःख की बात यह है कि सार्वजनिक धन को इसो महान हानि की प्राप्ति उतनी ही उदासीनता है, जितनी को अर्थी एवं उनके अभिभावकों के समय, शक्ति तथा धन के नाश और उनकी आशाओं एवं अभिलाषाओं पर भयंकर हिमपात के प्रति।
एस. एन. मुकर्जी का कहना है कि डिग्री कोर्स के प्रथम वर्ष में जितने छात्र प्रवेश लेते हैं। उनमें से 50 प्रतिशत से अधिक बी०ए०, बी०काम० और बीएस-सी० की परीक्षा में अनुतीर्ण होते हैं। स्नातकोत्तर 20 से 30 प्रतिशत परीक्षाओं में असफल होते हैं।"
7. शिक्षा के माध्यम की समस्या
उच्च शिक्षा के स्तर पर अंग्रेजी का अधिक समय तक शिक्षा का माध्यम होने तथा भारतीय संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के कारण शिक्षा के साथ यम से समस्या उत्पन्न हो गई है। संविधान में 14 अन्य भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई है।
अत: देश की शिक्षा के माध्यम की समस्या बार-बार उठा करती है। इस विवाद के समाधान के लिए सन् 1956 में भाषा आयोग को नियुक्ति को गई। आयोग ने निर्णय दिया कि सन् 1965 तक अग्रेजी को ही उच्च शिक्षा का माध्यम रखा जाय। सन् 1965 में कोठारी कमीशन ने सुझाव दिया कि विश्वविद्यालयों स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया जाना चाहिए तथा इन भाषाओं को 10 वर्ष की अवधि तक शिक्षा के माध्यम के रूप में स्थान दिया जाना चाहिए।
8. वित्तीय संकट की समस्या
देश के अनेक विश्वविद्यालय वित्तीय संकट में गुजर रहे हैं। फलतः शिक्षकों तथा कर्मचारियों को समय से वेतन प्राप्ति नहीं हो पाती है, पुस्तकालय हेतु नई पुस्तकों को खरीददारी नहीं हो पाती है, प्रयोगशालाओं में उपयुक्त उपकरणों की उपलब्धि नहीं हो पाती है, भवनों की उचित व्यवस्था नहीं हो पाती है।
केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी है, लेकिन राज्य स्तरीय विश्वविद्यालयों की स्थिति अधिक शोचनीय है, क्योंकि विश्वविद्यालयों के व्यय का 50 प्रतिशत अंश राज्य सरकारों द्वारावहन किया जाता है, तथा शेष व्यय शुल्क आदि से पूरा किया जाता है। विश्वविद्यालयों में सम्बद्ध कॉलेजों का अनुदान राज्य के शिक्षा विभाग द्वारा प्रदान किया जाता है। इन्हें घाटे को व्यवस्था के आधार पर अनुदान की राशि प्रदान की जाती है।
9. स्वायत्तता की समस्या
सर्वप्रथम, विश्वविद्यालय की स्वायत्तता की सिफारिश सन् 1917 में मैडलर कमीशन ने की। उसके बाद स्वायत्तता को मांग बढ़ती गई।
विश्वविद्यालयों की आन्तरिक स्वायत्तत्ता के अन्तर्गत शैक्षिक तथा प्रशासनिक विभागों की स्वायत्तता होनी चाहिए, लोकतांत्रिक आधार पर कार्य प्रणाली होनी चाहिए तथा सत्ता का विकेन्द्रीकरण होना चाहिए, जबकि आन्तरिक स्वायत्तता के अन्तर्गत विश्वविद्यालयों को प्रवेश तथा संस्था के नियम, पाठ्यक्रम का निर्धारण, अनुसन्धान प्रकरणों का निर्धारण, शिक्षा-सत्र का नियमन, परीक्षा-प्रणाली का संगठन आदि में स्वायत्तता होनी चाहिए, जो कठिन प्रायः है।
विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति के साथ-साथ अधिकारियों तथा शिक्षकों की नियुक्तियों में भी ऊपर दबाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता लगभग समाप्त होती जा रही है।
10. कार्यों में शिथिलता की समस्या
उच्च शिक्षा संस्थाओं में विगत वर्षों से मौलिक तथा स्तरीय अनुसन्धान सम्मादित्त नहीं किये जा रहे हैं। प्राय: विकसित देशों की अपेक्षा अपने देश के शोध कार्यों का स्तर निम्नकोटि का है, क्योंकि शोध कार्यों को सम्पादित करने के लिए उपयुक्त संसाधन उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं तथा उचित निर्देशन भी प्राप्त नहीं हो पा रहे हैं। इस प्रकार भारत के अधिकांश विश्वविद्यालयों में शोधयय वातावरण की अधा है।
11. छात्र राजनीति की समस्या
विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालय में अराजनीति का स्वरूप रूप धारण करता जा रहा है। छात्र को राजनीति रचनात्मक होकर विध्वंसात्यक होती जा रही है। छात्र राजनीति के फलस्वरूप हो विश्वविद्यालयों का शैक्षिक सत्र अनियमित हो गया है।
अत्र राजनीति के फलस्वरूप ही विश्वविद्यालयों का शैक्षिक सत्र अनियमित में गया है। छात्र राजनीति के हो परिणामस्वरूप तोड़फोड़ मारपीट फायरित आगजनी घेराव, चाकूबाजी, अश्लील शब्दों से युक्त नारेबाजी आदि के अतिरिक्त और भी अधिक कुलियत कृत्य किये जा रहे हैं। जिन्हें देश के भावी कर्णधारों में अपेक्षा नहीं की जा सकती है। इन सभी कुकृत्यों में मात्र छात्रों का ही दोष नहीं है, बल्कि जायचों को राजनीतिक दलों का संरक्षण भी प्राप्त हुआ रहता है।
11. छात्र-संख्या में वृद्धि की समस्या
सन् 1950-51 में विश्वविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों की संख्या 36 लाख थी, जो बढ़कर 1960-61 में 8.9 लाख तथा 1990-91 में 46 लाख हो गई। इस प्रकार विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को संख्या दिन-प्रतिदिन दुत गति से बढ़ती जा रही है, जबकि शैक्षिक संसाधनों की संख्या इस तीव्र गति के अनुपात में नहीं बढ़ रही है। फलतः तीव्र गति से बढ़ती विद्यार्थियों की संख्या के लिए शिक्षा को सुविधायें सुलभ कराना कठिन कार्य हो गया है। भारत समिति साधन बाला देश है।
12. शिक्षा के विशिष्टीकरण की समस्या
विश्वविद्यालयों शिक्षा में विभिन्न विषयों में विशेष अध्ययन करने की सुविधा प्रदान की जाती है। इस प्रकार किसी विषय में विशिष्टीकरण प्राप्त विद्यार्थियों में शिष्टता, सन्तुलन तथा व्यावहारिकता नहीं आ पाती है. जैसा कि केजी० सैयदैन का कहना है "विशिष्टीकरण में एक प्रकार को संकीर्णता एवं अकाल्पनिकता होती है।
इसका परिणाम यह होता है कि विज्ञान के छात्रों को कला एक कविता तथा सामाजिक एवं राजनैतिक समस्याओं का कोई जान नहीं होता है और कला के छात्रों को इस बात का ज्ञान नहीं होता है कि विज्ञान एवं वैज्ञानिक विधियों में उस विश्व को जिनमें के निवास कर रहे हैं, किस प्रकार परिवर्तित कर दिया गया है।"
13. निर्देशन एवं परामर्श के अभाव की समस्या
उच्च शिक्षा-संस्थाओं में निर्देशन व परामर्श सेकलों की कमी के कारण विद्यार्थी पाठ्यविषयों का चयन अपनी क्षमता रूचि आवश्यकता के अनुसार नहीं कर पाते हैं। फलतः वे परीक्षा तथा अपने जीवन में सफल नहीं हो पाते हैं तथा उनका जीवन निराशा, कुंठा तथा असफलता से परिपूर्ण हो जाता है, जिससे वे अपना सार्थक जीवन व्यतीत नहीं कर पाते हैं।
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