विद्यालय प्रबन्ध के उद्देश्य
हर एक संस्था के अपने लक्ष्य और आदर्श होते हैं और उनकी प्राप्ति के लिए उचित प्रबन्ध की आवश्यकता होती है । जैसा की हम सभी जानते है कि विद्यालय एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था है। अत: इसको एक सुसंगठित प्रबन्धात्मक व्यवस्था होनी चाहिए।
बिना किसी प्रभावशाली प्रबन्ध के विद्यालय जीवन में दुर्व्यवस्था एवं संभ्रान्ति फैल जाने की सम्भावना बनी रहती है। एक प्रभावशाली प्रबन्ध विद्यालय में उचित व्यवस्था करता है । यह उचित व्यक्तियों को उचित स्थान पर, उचित समय में, उचित ढंग से रखता है। विद्यालय प्रबन्ध के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हैं-
1. शिक्षाविदों द्वारा बनाये गये लक्ष्यों की निष्ठापूर्वक पूर्ति-
लोकतन्त्र में शिक्षा को प्रजातान्त्रिक आदर्शों की शर्तें पूरी करनी होती हैं । शैक्षिक प्रबन्ध को सामाजिक कूटनीतिज्ञता के रूप में लेना चाहिए , शैक्षिक प्रबन्ध को क्रियाविधिमूलक रूप में नहीं लेना चाहिए । विद्यालय प्रबन्ध के लक्ष्यों को पी. सी. रेन ( P. C. Wren ) के शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है—
" छात्र के लाभ हेतु, उसकी मनःशक्ति के प्रशिक्षण, उसकी सामान्य दृष्टि विस्तृत करने, उसके मस्तिष्क को उन्नतिशील बनाने, चरित्र का निर्माण करने एवं शक्ति देने, उसे अपने समाज एवं राज्य के प्रति कर्त्तव्य का अनुभव कराने आदि के लिए ही विद्यालय को संगठित किया जाये। यही एक उद्देश्य है जिसके लिए छात्र को तैयार किया जाये, न कि उसे माध्यमिक परीक्षा के लिए तैयार कराने हेतु । "
2. मिल - जुलकर रहने की कला ( Art of Living Together ) सिखाना-
विद्यालय जीवन को इस प्रकार संगठित करना है कि जिससे बच्चे एक साथ रहने की कला को ग्रहण करने के लिए तैयार हो सकें । विद्यालय का अपना सामुदायिक जीवन होता है जिसे एक उत्तम नागरिकता के प्रशिक्षण के क्षेत्र के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है ।
3. स्कूल सम्बन्धी गतिविधियों तथा कार्यों का संचालन तथा संयोजन-
शिक्षा शास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित उद्देश्यों एवं मन्तव्यों को परिपक्व रूप देने के लिए आवश्यक है कि विविध योजनाओं तथा प्रक्रियाओं का संचालन इस ढंग से किया जाए कि उचित व्यक्ति को सुयोग्य एवं समुचित स्थान मिल सके ताकि कार्य समयानुसार होता रहे ।
4. विद्यालय में सहयोग की भावना लाना तथा जटिल कार्यों की सुलभता-
विद्यालय प्रबन्ध में सहयोग की भावना का अपना ही स्थान है। मानवीय स्तर पर शिक्षा प्रबन्ध का सम्बन्ध बालकों, अभिभावकों, शिक्षकों, नियुक्तिकर्त्ता एवं समाज से होता है । साधनों के स्तर पर इसका सम्बन्ध सामग्री एवं उसके उपयोग से होता है ।
साथ ही सिद्धान्तों, परम्पराओं, नियमों, कानून आदि से भी इसका नाता जुड़ा हुआ होता है। विद्यालय सम्बन्धी अन्य प्रकार की समस्याओं का समाधान करना होता है । विद्यालय प्रबन्ध अपने सकारात्मक रूप से कार्यक्रम को एक विशेष दिशा देकर जटिल कार्य को सुलभ बनाकर भव्य परिणाम सम्मुख प्रकट करता है ।
5. विद्यालय को सामुदायिक केन्द्र के रूप में बनाना-
विद्यालय में इस प्रकार के कार्यक्रम रखे जायें जिनके द्वारा छात्र तथा अभिभावक यह अनुभव करें कि विद्यालय उनका है । विद्यालय समाज सेवा का केन्द्र है ।
6. शिक्षा सम्बन्धी प्रयोग तथा अनुसन्धान के लिए समुचित व्यवस्था करना -
वर्तमान युग में समाज की प्रगतिशीलता उत्तरोत्तर विकसित हो रही है । प्रवन्धकों का कर्तव्य है कि शिक्षाशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित नवीन विचारों धारणाओं एवं प्रयोगों को ध्यान में रखें । विद्यालय की विशेष परिस्थिति के अनुसार उनकी उपयोगिता को परखें तथा समयानुकूल परिवर्तन करके लाभ उठायें । शिक्षा सम्बन्धी प्रक्रियाओं के समय - समय पर संशोधन होने के साथ - साथ यदि समीक्षा भी होती रहे तो श्रेयस्कर होगा ।
विद्यालय प्रबन्ध की परिवर्तित होती अवधारणा ( Changing Conception of School Management ) -
परिवर्तन अनिवार्य है । विद्यालय की कार्य-पद्धति एवं अवधारणा विशेष संस्कृति एवं परम्परा पर आधारित होनी चाहिए । न तो शिक्षा प्रणाली और न ही इसका प्रबन्ध आयात किया जाये । प्रमाणित एवं प्रभावशाली बनाने के लिए उन्हें देशज होना चाहिए । पिछले कई वर्षों में हमारे देश में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं । इसी प्रकार हमारे विद्यालय प्रबन्ध की कार्य-पद्धति एवं लक्ष्यों को भी परिवर्तित आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए ।
माध्यमिक शिक्षा आयोग और शिक्षा प्रणाली ( Secondary Education Commission, 1952-53 ) -
लोकतान्त्रिक भारत की शैक्षिक आवश्यकताओं का वर्णन करते हुए शिक्षा आयोग की रिपोर्ट में बताया गया है— " भारत ने कुछ समय पूर्व ही राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त की है और सावधानी से मनन करने के पश्चात् धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणतन्त्र में परिवर्तित होने का निर्णय किया है ।
इसका यह आशय है कि शिक्षा प्रणाली को नागरिक में ऐसी आदतों, रुचि और चारित्रिक गुणों का विकास करना है जिससे इसके नागरिक प्रजातान्त्रिक नागरिक के उत्तरदायित्वों को उत्तम ढंग से निभा सकें और जिससे वे विस्तृत स्वाभाविक एवं धर्मनिरपेक्ष सामान्य दृष्टिकोण में आने वाली उन सभी कुप्रवृत्तियों का सामना कर सकें ।
" इसका आशय यह है कि
1. हमारे शैक्षिक प्रबन्ध का दृष्टिकोण प्रजातान्त्रिक होना चाहिए ।
2. अधिकार किसी एक व्यक्ति एवं व्यक्तियों के समूह के पास नहीं होने चाहिए ।
3. विद्यालय कार्य को सफल बनाने हेतु अध्यापक, माता-पिता और छात्रों को सहयोगपूर्वक काम करना चाहिए ।
4. सभी की व्यक्तिगत एवं सामूहिक जिम्मेदारी है।
5. हमारे विद्यालयों को सामाजिक एवं राजनैतिक प्रणाली को सहायता देनी चाहिए एवं शक्तिशाली बनाना चाहिए ।
6. हमारे बालक और बालिकाओं को ऐसी प्रवृत्तियों और प्रकृति का विकास करना चाहिए जो कि जीवन को उत्तम बनाने में सहायक हों ।
7. हमारे बालक और बालिकाओं को अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों के प्रति सजग होना चाहिए ।
लोकतान्त्रिक प्रबन्ध - विलियम एस . एल्सब्री और ई . एडमण्ड यूटर ( William S. Elsbree and E. Edmand Reuter ) ने कहा है " समय - समय पर विद्यालय प्रबन्ध हमें परिशुद्धता के साथ स्वयं उनकी याद दिलाये जो प्रजातन्त्र में अन्तर्भूत है । " इस अवधारणा में कुछ अच्छे अभिप्रेत एवं कुछ उपयोगिताएं हैं जो मानव कार्यक्रमों के लिए मार्गदर्शन स्वरूप हैं।
सर्वप्रथम यह मान्यता कि व्यक्तिगत मान अत्यधिक मूल्यवान है उसे साध्य समझा जाय न कि साध्य को प्राप्ति के लिए साधन । इस अवधारणा से यह विश्वास सम्बन्धित है कि प्रत्येक साधारण व्यक्ति को हमारे समाज के निर्माण में योगदान करना है , इसलिए वह आदर प्राप्ति का अधिकारी है ।
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