धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा क्या है? अर्थ एवं परिभाषा / Secularism in Hindi

What is the concept of secularism? Meaning and Definition / Secularism in Hindi धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा क्या है? अर्थ एवं परिभाषा

धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा अर्थ एवं परिभाषा

धर्मनिरपेक्षता: ' धर्मनिरपेक्षता ' शब्द की अवधारणा स्पष्ट करने के लिए इसके अर्थ अथवा इसकी परिभाषा की विवेचना आवश्यक है । विवेचना के क्रम में हमें सबसे पहले इसके तथा अंग्रेजी के ' सेक्यूलर ' ( Secular ) शब्द का शाब्दिक अर्थ स्पष्ट करना चाहिए । यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि इसके लिए अंग्रेजी में ' Secular ' शब्द है जिसके शब्दकोषों के अनुसार कई अर्थ हैं - लौकिक , सांसारिक , धर्मनिरपेक्ष , धर्मविरुद्ध तथा असाम्प्रदायिक आदि ।
धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा क्या है? अर्थ एवं परिभाषा / Secularism in Hindi

हिन्दी में भी निरपेक्ष के कई शाब्दिक अर्थ हैं— अपेक्षा न करना अर्थात् जुड़ें न रहना तथा स्वतन्त्र अथवा तटस्थ रहना । हिन्दी और अंग्रेजी दोनों के ही शाब्दिक अर्थ से यही निष्कर्ष निकलता है कि धर्म से अलग रहना अथवा उससे न जुड़ना धर्मनिरपेक्षता है । यहाँ धर्म से तात्पर्य उसके आध्यात्मिक एवं नैतिक नहीं अपितु पंथीय पक्ष से है । कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी धार्मिक पंथ , जैसे - हिन्दू , मुस्लिम , ईसाई और सिक्ख आदि धर्मो ( पंथों ) से न जुड़ना अर्थात् उसकी सदस्यता ग्रहण न करना तथा उसकी सभी गतिविधियों से अलग रहना धर्मनिरपेक्षता है ।

इस अर्थ की दृष्टि से धर्मनिरपेक्षता के बजाय पंथनिरपेक्षता शब्द का प्रयोग उचित होगा । धर्म और पंथ में अन्तर है । धर्म एक व्यापक शब्द है । वह आध्यात्मिकता और नैतिकता से जुड़ा है । पंथ धार्मिक आस्था , विश्वास एवं मान्यताओं तथा निर्धारित कर्मकाण्डों , रीति - रिवाजों तथा पूजा पद्धतियों आदि के आधार पर संघटित मनुष्यों का एक समूह अथवा समुदाय होता है । इसकी सदस्यता जन्म और धर्मान्तरण दोनों ही तरह से प्राप्त होती है । हर पंथ की अपनी एक संस्कृति तथा सामाजिक जीवन पद्धति होती है ।

उसके अनुसार उसके सदस्य स्वभावतः अथवा मान्यतावश अपनी जिन्दगी बिताते हैं । किसी पंथ विशेष के आस्तिक और नास्तिक दोनों ही प्रकार के व्यक्ति उसकी सांस्कृतिक, सामाजिक जीवन पद्धति के अनुसार ही जीवन बिताते हैं । ' उदाहरणार्थ हिन्दू साम्यवादी का विवाह तथा उसकी अन्त्येष्टि क्रिया उसके पंथ के रीति - रिवाजों के अनुसार ही होती है । यही बात मुस्लिम , ईसाई तथा अन्य पंथों के साम्यवादियों पर भी लागू होती है । अन्य लोगों की तरह साम्यवादी भी जन्म से ही अपने पंथों के सदस्य होते हैं ।

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ईश्वर में विश्वास न करने के कारण नास्तिक होते हुए भी वे अपने पंथ की सदस्यता से मुक्त नहीं होते हैं । “ धर्म और पंथ में अन्तर के कारण ही भारतीय संविधान के सरकारी संस्करण के हिन्दी अनुवाद में ' सेक्यूलर ' ( Secular ) के लिए धर्मनिरपेक्ष नहीं बल्कि पंथनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग किया गया है । " ' इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका ' ने उस हर बात को धर्मनिरपेक्षता की संज्ञा दी है जो आध्यात्मिक और धार्मिक मामलों की विरोधी है । इस परिभाषा से नास्तिकता न कि धर्मनिरपेक्षता अथवा पंथनिरपेक्षता का बोध होता है । " 

नास्तिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता 

नास्तिकता से तात्पर्य है ईश्वर अथवा किसी पारलौकिक शक्ति में विश्वास न करना । नास्तिक व्यक्ति लौकिक विश्व अर्थात् भौतिक संसार को ही पूरा सत्य मानता है । वह उससे अलग किसी संसार तथा किसी पारलौकिक शक्ति में विश्वास तो नहीं करता है परन्तु वह जिस पंथ ( धर्म ) में जन्म लेता है उसका स्वभावतः सदस्य बनता है तथा उसकी सामाजिक - सांस्कृतिक जीवन पद्धति का अनुसरण करता है । ईश्वर अथवा किसी पारलौकिक शक्ति में विश्वास न करने वाला हिन्दू अपने पंथ का ही सदस्य माना जाता है ।

यही बात अन्य पंथों ( सम्प्रदायों ) के नास्तिकों पर लागू होती है । धर्मनिरपेक्षता नास्तिकता से भिन्न अवधारणा है । इसके अनुसार तो धर्मनिरपेक्ष अथवा पंथनिरपेक्ष व्यक्ति को नास्तिक ही नहीं बल्कि कुछ और भी होना चाहिए । ईश्वर अथवा किसी भी पारलौकिक शक्ति में अविश्वास करने के साथ - साथ उसे किसी भी पंथ ( सम्प्रदाय ) से जुड़ा नहीं रहना चाहिए । व्यावहारिक दृष्टि से तो ऐसा वही व्यक्ति कर सकता है जो समाज से हटकर किसी निर्जन स्थान है पर चला जाय ।

संसार में रहते हुए तो उसे किसी न किसी पंथ से जुड़े रहना तथा उसकी सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन पद्धति का अनुसरण करना ही पड़ता है । " संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि समाज में नास्तिक और आस्तिक दोनों को स्वभावतः किसी न किसी पंथ से जुड़े ही रहना पड़ता है । किसी भी पंथनिपरेक्ष ( धर्मनिरपेक्ष ) होने का सवाल ही नहीं पैदा होता है । " 

धार्मिक सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता 

आजकल भारत में सामान्यतः धार्मिक सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता को एक - दूसरे के पर्यायवाची के रूप में व्यक्त किया जा रहा है । विशेषतः प्रगतिशील राजनीतिज्ञ धार्मिक सहिष्णुता हो ही धर्मनिरपेक्षता की संज्ञा देने लगे हैं । उनके अनुसार अल्पसंख्यकों के प्रति सहिष्णुता ही धर्मनिरपेक्षता है । वे बहुसंख्यक वर्ग से तो उसे चाहते हैं परन्तु उसके प्रति अल्पसंख्यकों की धार्मिक सहिष्णुता के सम्बन्ध में स्पष्टतः कुछ कहने में वे अगली बगली झाँकने लगते हैं । कहने का तात्पर्य है कि धार्मिक सहिष्णुता की उनकी अवधारणा अस्पष्ट और संकीर्ण है । 

सर्वधर्म समभाव और धर्मनिरपेक्षता 

विद्वानों और राजनीतिज्ञों का एक वर्ग धर्मनिरपेक्षता को सर्वधर्म समभाव के रूप में परिभाषित करता है । उसके अनुसार सभी धर्मों को समभाव से देखना अर्थात् सभी के प्रति समान आदरभाव एवं आस्था रखना ही धर्मनिरपेक्षता है । इस अवधारणा के अनुसार अपने धर्म ( पंथ ) में विश्वास एवं आस्था रखने तथा उसकी सामाजिक - सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन पद्धतियों का अनुसरण करते हुए दूसरे धर्मों ( पंथों ) के प्रति समान आदर का भाव रखने वाला व्यक्ति धर्मनिरपेक्ष ( पंथनिरपेक्ष ) होता है ।

धर्मनिरपेक्षता के शाब्दिक अर्थ तथा उसके लक्षणों की विवेचना से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वह धार्मिक सहिष्णुता और सर्वधर्म समभाव के पर्यायवाची के रूप में नहीं है । धार्मिक दृष्टि से सहिष्णुता तथा अन्य धर्मों के प्रति समान आदरभाव रखने वाला व्यक्ति धर्म सापेक्ष न कि धर्मनिरपेक्ष होता है । वह किसी न किसी पंथ का स्वेच्छया अथवा स्वभावतः सदस्य होता है । 

कोई व्यक्ति चाहकर भी धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता है । उसे बलात अथवा स्वभावतः किसी न किसी पंथ ( धर्म ) का सदस्य रहना ही पड़ता है । हिन्दू धर्म के किसी भी पंथ में जन्म लेने वाला व्यक्ति नास्तिक होते हुए भी ' हिन्दू ' ही कहा जाता है । वहीं बात अन्य पंथों में जन्म लेने वालों के बारे में भी लागू होती है । 

धर्मनिरपेक्षता और राज्य 

उपर्युक्त विवेचना से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि व्यक्ति और धर्मनिरपेक्षता के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है अर्थात् व्यक्ति के धर्मनिरपेक्ष ( पंथनिरपेक्ष ) होने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता है । वह नास्तिक तो हो सकता है , परन्तु पंथनिरपेक्ष नहीं । नास्तिक होते हुए भी वह जिस पंथ में जन्म लेता है उसका स्वभावतः सदस्य बना रहता है । वह ईश्वर में आस्था तथा पूजापाठ से तो अपने को अलग रखता है , परन्तु अपने पंथ की सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन पद्धतियों से स्वभावतः जुड़ा रहता है ।

वह धार्मिक दृष्टि से सहिष्णु और उदार तो हो सकता है , परन्तु धर्मनिरपेक्ष ( पंथनिरपेक्ष ) नहीं । यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि ' सेक्यूलर ' ( Secular ) अर्थात् धर्मनिरपेक्षता ( पंथनिरपेक्षता ) शब्द का उद्भव व्यक्ति नहीं अपितु राज्य के सम्बन्ध में हुआ । राज्य को किसी भी धर्म अर्थात् पंथ से किसी भी प्रकार न जोड़ना ही धर्मनिरपेक्षता है । धर्मनिरपेक्ष राज्य पूरी तरह लौकिक होता है । 

उसका किसी भी पंथ ( सम्प्रदाय ) से सम्बन्ध नहीं होता अर्थात् वह किसी भी पंथ को ' राजधर्म ' के रूप में स्वीकृति नहीं प्रदान करता , वह किसी भी धर्म ( पंथ ) को न तो प्रश्रय देता है और न उसके प्रसार प्रचार में कोई योगदान ही करता है । उसमें सभी धर्मों ( पंथों ) को समानता का स्तर प्राप्त होता है तथा सामान्य स्थिति में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करता है ।

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