बालक के शिक्षा में परिवार का महत्व (Importance of Family in the education of the Child)
यद्यपि वर्तमान युग में संयुक्त परिवार का स्थान एकांकी परिवार ने ले लिया है तथा इसके अनेक कार्यों को भी दूसरी सामाजिक संस्थाओं ने सम्भाल लिया है, पर इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये की आधुनिक परिवारपर बालक के पालन पोषण तथा शिक्षा का उत्तरदायित्व नहीं रहा है। वास्तविकता यह है कि परिवार एक ऐसी आधारभूत संस्था है। जिसका बालक को शिक्षा में अब भी महत्व कम नहीं हुआ है।
इसका कारण यह है कि नवजात शिशु अपने जीवन की यात्रा को परिवार से ही आरंभ करता है तथा इसी संस्था में रहते उस विभिन्न प्रकार की शिक्षा प्राप्त होती है जैसे-जैसे बालक की आयु में वृद्धि होती जाती है वैसे-वैसे परवर द्वारा उसमें उन सभी मानवीय गुणों का विकास होता जाता है जिनको आवश्यकता उसे आगे चलकर एक सुयोग्य एवं सचरित्र नागरिक के रूप में पड़ती है।
इस प्रकार जब तक बालक जीवित रहता है तब तक उस परिवार का प्रभाव पड़ता ही रहता है। सूत्र रूप में बालक को बनाने और बिगड़ने का उत्तरदायित्व अब भी परिवार पर ही है। परिवार में रहते हुए बालकों को यू तो अनेक सुविधायें मिलती रहती है, परन्तु प्रत्येक परिवार दो महत्वपूर्ण बातों को पूर्ति अवश्य करता है। (1) स्नेह तथा समाजीकरण। परिवार ही ऐसा स्थान है जहां पर ब्लाक को वास्तविक स्नेह मिलता है। जितना स्नेह बालक से माता-पिता कर सकते है उतना अन्यत्र दुर्लभ है।
यही कारण है कि बालक का पालन-पोषण जितना स्नेह बालक से माता-पिता कर सकते है उतना अन्यत्र दुर्लभ है। यही कारण है कि बालक का पालन-पोषण जितना अच्छा परिवार हो सकता है उतना और कहीं नहीं हो सकता। परिवार एक छोटी से सामाजिक संस्था है जिसमें रहते हुए बालक माता-पिता के अतिरिक्त भाई-बहन तथा अन्य सम्बन्धियों के सम्पर्क में आता है।
इन सभी का अपना-अपना अलग-अलग कार्य करता होता है। यह कार्य स्थिर नहीं होता। सभी सदस्य एक-दूसरे के साथ आदान-प्रदान करते है तथा दूए-दूसरे पर अपना प्रभाव डालते है। बालक भी परिवार के प्रत्येक सदस्य से प्रत्येक क्षण प्रभावित होता रहता है इस प्रभाव से वह समाज के तौर-तरीके सोखता है तथा अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है।
परिवार में रहते हुए ही बालक अपने वर्षों तहत विचारों को प्रकट करने के लिए एक आवश्यक शब्दावली बना लेता है। यही है उसकी मात्र भाषा जिसके माध्यम से उसके ज्ञान भण्डार में वृद्धि होती रहती है। प्रथम छ: वर्षों तक बालक का सामाजिक वातावरण केवल परिवार ही होता है। परिवार के बातावरण में उसे स्वतंत्रता, स्वच्छंदता तथा माता-पिता का असीम स्नेह प्राप्त होता है।
इस स्नेह के माध्यम से उसकी प्रारम्भिक आदतों तथा दृष्टिकोण का निर्माण होता है। वह अपने माता-पिता, भाई-बहनों तथा अन्य सदस्यों के दैनिक जीवन में होने वाली सभी कार्यों अनुकरण कार्यों लगता है अब वह देखता है कि परिवार का प्रत्येक सठदस्य अपने-अपने कर्तव्यों का पूर्ण श्रद्धा तथा निष्ठा से पालन करता है, तो वह भी कर्तव्य का पालन करना सिख जाता है।
ऐसे ही जब वह देखता है कि परिवार के सारे सदस्य एक-दूसरे के साथ किस प्रकार का व्यवहार करते हैं, तो वह भी दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना सोख जाता है, तो यह भी दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना सिख जाता है। यही नहीं परिवार में ही रहते हुए उसे शारीरिक, कलात्मक तथा नैतिक सभी प्रकार की शिक्षा प्रापत होती रहती है जिससे उसकी विभिन्न आदतों तथा मूलयों का निर्माण होता है।
वह माता से प्रेम, भाई-बहनों से भ्रातृत्व भावना तथा पिता से न्याय आदि नैतिक आदशों की शिक्षा प्राप्त करता है। इस प्रकार उसकी पाशविक प्रवृत्तियां मानवीय गुणों में परिवर्तित होती रहती है। परन्तु जब माता-पिता अपने बालकों के साथ झूठ वायदे कर लेते है तो बालक सुझला उठता है और उसके मन में उनके प्रति श्रद्धा कम हो जाती है। अन्त में फिर वह भी वैसा हो व्यवहार करने लगता है।
परिवार में बालक की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है। परिवार में ही रहते उसे नाना प्रकार के संवेगात्मक अनुभव प्राप्त होते है। इन आवश्यकताओं तथा संवेगात्मक अनुभवों का बालक की शिक्षा से धनिष्ट सम्बन्ध होता है। सन्तोषजनक अनुभवों का बालक को सीखने की प्रेरणा मिलती है। इससे उसका स्वाभाविक विकास होता है ।
इसके विपरीत कटु अनुभवों को उपस्थिति में बालक का विकास कुण्ठित होने लगता है। प्रत्येक परिवार का व्यक्तित्व अलग-अलग होता है। प्रायः देखने में आता है कि विभिन्न परिवारों की रूचियों तथा बोलने-चालने के ढंग अलग-अलग होते हैं। इन सबके बालक प्रभावित होता है। जब बालक किसी ऐसी बात के लिए हट कर बैठता है जिसे परिवार के सदस्य उचित नहीं समझते तो बालक को यही कहकर समझाने का प्रयास किया जाता है कि "हम लोग ऐसा नहीं करते" इससे बालक में अपनापन तथा मनोवैज्ञानिक सुरक्षा बालक के विकास के लिए पर आवश्यक है।
संक्षिप्त रूप से शैशव अवस्था में बालक का मस्तिष्क अत्यधिक ग्राह्य होता है। परिवार के स्नेहपूर्ण वातावरण से प्रभावित होते हुए वह अपने परिवार को भाषा, सांस्कृतिक वेशभूषा, आचार-विचार, आहार-विहार तथा रूचियों की स्वाभाविक रूप से ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार पारिवारिक शिक्षा बालक के व्यक्तित्व की ऐसी आधारशिला बन जाती है जिसे वह जोवन पर्यन्त कभी नहीं भूलता। चूँकि प्रत्येक परिवार के प्रभाव अलग-अलग होते हैं, इसलिए एक बालक दूसरे बालकों से विभिन्न होता है।
यह भी पढ़ें- साम्राज्यवाद के विकास की सहायक दशाएँ ( कारक )
यह भी पढ़ें- ऐतिहासिक भौतिकतावाद
यह भी पढ़ें- अनुकरण क्या है? - समाजीकरण में इसकी भूमिका
यह भी पढ़ें- सामाजिक नियंत्रण में कला की भूमिका
यह भी पढ़ें- फ्रायड का समाजीकरण का सिद्धांत
यह भी पढ़ें- समाजीकरण और सामाजिक नियंत्रण के बीच सम्बन्ध
यह भी पढ़ें- प्राथमिक एवं द्वितीयक समाजीकरण
यह भी पढ़ें- मीड का समाजीकरण का सिद्धांत
यह भी पढ़ें- सामाजिक अनुकरण | अनुकरण के प्रकार
यह भी पढ़ें- सामाजिक नियंत्रण में जनमत की भूमिका
यह भी पढ़ें- सामाजिक नियंत्रण के औपचारिक साधन