समाज में शिक्षा का महत्व एवं उद्देश्य - Importance and purpose of education in society

समाज का अर्थ एवं परिभाषाएँ (MEANING AND DEFINITIONS OF SOCIETY)


साधारणतया लोग 'समाज' शब्द का प्रयोग व्यक्तियों के संगठन, सामाजिक या धार्मिक, समुदाय, जाति या प्रजाति आदि के सन्दर्भ में कर लिया करते हैं; जैसे-दलित समाज, ग्रामीण समाज, हिन्दू समाज, आर्य समाज आदि। ऐसा प्रयोग समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से वैज्ञानिक नहीं है।


समाज में शिक्षा का महत्व एवं उद्देश्य

समाज की अवधारणा को अन्य सामाजिक विज्ञानों में भी उजागर किया गया है; जैसे- अर्थशास्त्र में समाज का अभिप्राय एक खास तरह की आर्थिक क्रियाएँ करने वाले 'व्यक्तियों के आर्थिक समूह' से समझा जाता है।


राजनीतिशास्त्र में समाज की अवधारणा को 'एक राजनीतिक समूह' के रूप में स्पष्ट किया जाता है। मनोविज्ञान में समाज का अभिप्राय मानसिक अन्तर्क्रियाओं को करने वाले समूह से है। मानवशास्त्र में समाज का अर्थ जनजातीय समुदायों से लगाया जाता है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से यह अर्थ वैज्ञानिक नहीं है।


समाजशास्त्र में समाज को सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था के रूप में स्पष्ट किया गया है। इस सन्दर्भ में कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-


आर. एम. मैकाइवर एवं सी. एच. पेज (R. M. MacIver and C. H. Page) ने समाज को बहुत ही स्पष्ट रूप में परिभाषित किया है। उनके अनुसार, "समाज रीतियों और कार्य-प्रणालियों, अधिकार और पारस्परिक सहायता, अनेक समूहों और उप-विभागों, मानव व्यवहार के नियन्त्रणों एवं स्वतन्त्रताओं की व्यवस्था है। इस निरन्तर परिवर्तित होने वाली जटिल व्यवस्था को हम समाज कहते हैं।"


("Society is a system of usages and procedures, of authority and mutual aid, of many groupings and divisions, of control of human behaviour and liberties. This everchanging complex system, we call society.")


इस परिभाषा से निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं- 

(i) समाज सामाजिक सम्बन्धों की एक व्यवस्था है। 

(ii) इस व्यवस्था का निर्माण रीतियों, कार्यप्रणालियों, अधिकार, पारस्परिक सहायता, समूहों, नियन्त्रणों व स्वतन्त्रताओं से होता है। 

(iii) यह व्यवस्था परिवर्तनशील है।


2. पारस्परिक जागरूकता (Mutual Awareness)

समाज में पारस्परिक जागरूकता की विशेषता पाई जाती है। पारस्परिक जागरूकता का तात्पर्य है; एक-दूसरे के प्रति जागरूक होना। समाज का आधार सामाजिक सम्बन्ध है। पर वे ही सामाजिक होंगे जो पारस्परिक परिचय व जागरूक स्थिति में स्थापित किये जायें। हाँ, यह जागरूकता प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों हो सकती है। पारिवारिक व्यवस्था में यह प्रत्यक्ष रूप में देखा जाता है। हम किसी की जीवनी पढ़कर या सुनकर प्रभावित होते हैं। हमारे विचार व कर्म पर उसका प्रभाव होता है; तो यह अप्रत्यक्ष जागरूकता है।


3. समानता और भिन्नता (Likeness and Differences)

समाज में समानता और भिन्नता दोनों पाई जाती हैं। समानता का तात्पर्य दृष्टिकोण और उद्देश्यों की समानता से है। समाज के लोगों में समान दृष्टिकोण एवं समान उद्देश्य होते हैं। इसलिए एक व्यवस्थित समाज का निर्माण होता है। भिन्नता का तात्पर्य रुचियों, योग्यता, कार्यों आदि की भिन्नता से है।


समाज में कोई मजदूर है, कोई मालिक, कोई किसान, तो कोई शिक्षक, कोई स्त्री तो कोई पुरुष आदि-आदि। ये भिन्नताएँ एक-दूसरे के पूरक हैं। श्रम-विभाजन भिन्नता का परिणाम था, जो आज सभ्यता का द्योतक है। समाज में भिन्नता समानता के अधीन है। श्रम-विभाजन का आधार सहयोग है। लोगों की आवश्यकताएँ असमान प्रकार की होती हैं। इसलिए, वे असमान कार्यों के करने में परस्पर सहयोग करते हैं।


4. सहयोग एवं संघर्ष (Co-operation and Conflict)

समाज में सहयोग और संघर्ष दोनों पाये जाते हैं। जब एक से अधिक व्यक्ति व समूह मिलजुलकर उद्देश्य की प्राप्ति के लिए काम करते हैं, तो उसे सहयोग कहा जाता है। इसके माध्यम से ही समाज की व्यवस्था चलती है। सहयोग प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों होते हैं। परिवार में व्यक्ति का मिलजुलकर कार्य करना प्रत्यक्ष सहयोग है। श्रम-विभाजन अप्रत्यक्ष सहयोग है।


जब व्यक्ति या समूह लक्ष्य की प्राप्ति के लिए विरोधी के मार्ग में बाधा पहुँचाते हैं तो उसे संघर्ष कहा जाता है। यह संघर्ष भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों होते हैं। आर्थिक शोषण और सामाजिक अन्याय का मुकाबला संघर्ष द्वारा ही सम्भव है।


समाज की व्यवस्था और परिवर्तन का मूल आधार सहयोग एवं संघर्ष दोनों हैं। कभी सहयोग पहले, तो संघर्ष बाद में; कभी संघर्ष पहले, तो सहयोग बाद में; कभी दोनों साथ-साथ काम करती है। इसलिए, मैकाइवर एवं पेज (MacIver and Page) ने लिखा है, "समाज सहयोग और संघर्ष के मिश्रण से बनता है।" ("Society is a co-operation crossed by conflict.")


5. पारस्परिक निर्भरता (Interdependence)

समाज की एक प्रमुख विशेषता पारस्परिक निर्भरता है। मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति अकेले नहीं कर सकता। उसे दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। यह निर्भरता एक के लिए नहीं है; सभी के लिए है। इस निर्भरता के कारण ही व्यक्ति-व्यक्ति, व्यक्ति-समूह एवं समूह-समूह के बीच सहयोग व समानता का विकास होता है।


6. परिवर्तनशील प्रकृति (Changing Nature)

समाज की प्रकृति पविर्तनशील है। समयानुसार मानवीय आवश्यकताएँ व विचार परिवर्तित होते हैं। आवश्यकताओं व विचारों में परिवर्तन पारस्परिक सम्बन्धों में परिवर्तन लाता है। सम्बन्धों में परिवर्तन समाज में परिवर्तन लाता है। यही कारण है कि आज का मानव समाज पूर्व से काफी भिन्न है। स्पेन्सर (Spencer) ने कहा है कि परिवर्तन समाज का नियम है।


7. समाज केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं (Society is not confined to men only)

मैकाइवर एवं पेज (Maciver and Page) का कहना है, "जहाँ भी जीवन है, वहाँ समाज है।" ("Wherever there is life, there is society.") इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि पशुओं, पक्षियों, कीड़ों व मकोड़ों में जीवन है। अत: वह भी समाज है; दरअसल पारस्परिक जागरुकता समाज का आधार है।


कुछ खास पशुओं व पक्षियं में पारस्परिक जागरूकता देखने को मिलती है; जैसे-गोरिल्ला, हाथियों, दीमकों व चीटियों में फलस्वरूप वहाँ समाज होने की सम्भावना की जाती है। इसके बावजूद मानव समाज में जो पारस्परिक जागरूकता, संगठन और व्यवस्था पाई जाती है; वह अन्य जीव-जन्तुओं के समाज में नही पाई जाती।


समाज में शिक्षा का महत्व


मैनहीम (Mannheim) के अनुसार "मनुष्य इतिहास की संचालक शक्ति है; वह सभी मूल्यों का स्रोत है। साथ ही सभी घटनाओं का प्रस्तावक है। वह इन सभी कार्यों को तभी करता है, जब वर समाज में रहता है।" इस प्रकार वह निम्न प्रकार के जगतों में निवास करता है-


प्रथम, व्यक्तिगत जगत् में जिसमें वह अपनी समस्याओं को झेलता है और विभिन्न परिस्थितियाँ से व्यवस्थापन करता है। द्वितीय, वह समाज जगत् में रहता है जो उसके चारों ओर फैला हुआ है। यह जगत् उसको हर क्षण प्रभावित करता रहता है। इस कारण हम कह सकते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे समाज में सफल जीवन व्यतीत करने के लिये दूसरे व्यक्तियों से अनुकूलन करना पड़ता है।


साथ ही उसे समाज के मूल्यों और मान्यताओं के अनुसार अपने व्यवहार में परिवर्तन करना पड़ता है। इन कार्यों में शिक्षा उसकी सहायता करती है। वह जिस समाज का सदस्य होता है; वही इस शिक्षा का स्वरूप निश्चित करता है। इस प्रकार शिक्षा और समाज एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। शिक्षा के


समाज के प्रति विभिन्न कार्य निम्न प्रकार हैं-


1. सामाजिक विरासत का संरक्षण (Preservation of Cultural Heritage)

शिक्षा संस्कृति और सभ्यता का संरक्षण करती है। प्रत्येक समाज के अपने रीति-रिवाज, परम्परायें, नैतिकता, विश्वास, धर्म, आदर्श, मान्यतायें आदि होते हैं जिनको उसने समाज के अति प्राचीन समय से लेकर आज तक अर्जित किया है। यदि शिक्षा इस सामाजिक विरासत को आने वाली पीढ़ियों को हस्तान्तरित न करे, तो समाज का स्थायी रहना असम्भव हो जायेगा।


प्रत्येक समाज को अपनी संस्कृति और सभ्यता पर गर्व होता है। इसीलिये, वह उनको किसी प्रकार से नष्ट नहीं होने देता है। यह कार्य शिक्षा द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है। अतः हम कह सकते हैं कि शिक्षा-सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण करके समाज के अस्तित्व को बनाये रखती है।


2. सामाजिक सुधार व प्रगति (Social Reform and Progress)

शिक्षा, समाज के सदस्यों को इस योग्य बनाती है कि वे समाज में प्रकट होने वाले दोषों की आलोचना करते हैं। इतना ही नहीं, के उसके समक्ष नवीन विचार और कार्यक्रम प्रस्तुत करके उसे प्रगति की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं। समाज की माँर्ग, मान्यतायें और आवश्यकतायें समय के साथ बदलती रहती हैं।


इन्हीं के अनुसार, समाज को भी बदलना आवश्यक है, अन्यथा वह स्थिर और गतिहीन हो जाता है। शिक्षा उसकी इस स्थिति से रक्षा करके उसका सुधार करती है और प्रगति भी। इयूवी (Dewey) का कथन है-"शिक्षा में अति निश्चित और अल्पतम साधनों द्वारा सामाजिक और संस्थागत उद्देश्य के साथ-साथ समाज के कल्याण, प्रगति और सुधार में रुचि का पुष्पित होना पाया जाता है।"


अतः हम कह सकते हैं कि शिक्षा अपने प्रभाव द्वारा समाज की प्रगति करती है। वह इस कार्य को अपनी शिक्षा संस्थाओं द्वारा करती है। ये संस्थायें समाज का नेतृत्व करके उसका सुधार करती है और उसे प्रगति की ओर ले जाती हैं।


3. सामाजिक नियन्त्रण (Social Control)

शिक्षा, समाज के विभिन्न दोषों, कुरीतियों और कुप्रथाओं के विरुद्ध जनमत का निर्माण करके उनको फैलने से रोकती है और उनका अन्त भी करती है। इस प्रकार शिक्षा सामाजिक नियन्त्रण के लिये एक महत्वपूर्ण शस्त्र का कार्य करती है। अतः हम कह सकते हैं कि शिक्षा सामाजिक अव्यवस्था को दूर करके उपयुक्त सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करती है।


4. सामाजिक परिवर्तन (Social Change)

शिक्षा, सामाजिक परिवर्तन में योग देती है- उदाहरणार्थ-नाजी जर्मनी में शिक्षा का प्रयोग बालकों के दृष्टिकोणों में परिवर्तन करके समाज में परिवर्तन करने के लिये किया गया। इस कार्य में सफलता प्राप्त होना इस बात का प्रमाण है कि शिक्षा को समाज में परिवर्तन करने के लिये प्रयोग किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में ओटावे (Ottaway) ने लिखा है-"यह बात सन्देहरहित है कि शिक्षा, सामाजिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण कार्य करती है, पर इसका प्रभाव मुख्य न होकर गौण होता है।"


डॉ. उमराव सिंह चौधरी, कुलपति, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर के अनुसार, "शिक्षा एक नमन्तम क्रान्ति है; उसकी तुलना गोली की गति के बजाय तितली की उड़ान से की जा सकती है। शिक्षा का सामाजिक प्रतिफल कई बार नहीं मिलता है; यदि मिलता भी है तो विलम्ब से। अतः सैद्धान्तिक धरातल पर शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का औजार मानने पर सहमति हो सकती है, परन्तु व्यावहारिक स्तर पर क्या होता है; यह बात बिल्कुल अलग है।


पुराने औजार से नई मशीन नहीं सुधारी जा सकती है और न ही गये-गुजरे हथियारों से आधुनिक लड़ाई जीती जा सकती है; उसी तरह से परिवर्तन लाने वाली शिक्षा का भी एक अर्थ और एक स्तर होता है। शिक्षा के नाम पर चल रही खानापूरी, रस्म-अदायगी, दुकानदारी तथा डिग्री दौड़ राष्ट्रीय विकास या सामाजिक परिवर्तन का गरुड़ नहीं बन सकती।"


5. बालक का समाजीकरण (Socialization of Child)

विद्यालय बालक को मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक विकास के लिये प्रेरणा देता है। विद्यालय में ही उसे सामाजिक और सांस्कृतिक आदर्शों एवं मान्यताओं की शिक्षा प्राप्त होती है। ये दोनों बातें उसके संस्कृतीकरण में योग देती हैं।


'सांस्कृतीकरण' का ही दूसरा नाम 'समाजीकरण' है। इसकी गति उस समय तीव्र हो जाती है जब बालक, विद्यालय में दूसरे बालकों के सम्पर्क में आता है। इस प्रकार, शिक्षा विद्यालय के माध्यम से बालक को समूह के सम्पर्क में लाकर, उसका समाजीकरण करती है। जोसेफ एच. रोसेक (Joseph H. Roucek) के शब्दों में- "बालक का समाजीकरण बालक के समूह में सर्वोत्तम रूप में होता है और बालक दूसरे बालकों का सर्वोत्तम शिक्षक होता है।"


6. सामाजिक भावना का समावेश (Inculcation of Social Feeling)

व्यक्ति तथा समाज का एक-दूसरे से अटूट सम्बन्ध है। व्यक्ति अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक समाज में रहता है। समाज में रहकर ही वह उन्नति कर सकता है, यश प्राप्त कर सकता है और दूसरों की भलाई कर सकता है।


यह सब वह तभी कर सकता है जब उसमें प्रेम, दया, परोपकार, सहानुभूति आदि सामाजिक गुण हों। इन गुणों का विकास शिक्षा द्वारा ही किया जा सकता है। एच. गार्डन (H. Gordon) के अनुसार- "शिक्षक को यह जानना आवश्यक है कि उसे सामाजिक प्रक्रिया को उन व्यक्तियों को समझाना चाहिये, जो इसे समझने में असमर्थ हैं।"


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