राष्ट्रीय जीवन के लिए शिक्षा - Education for National life
किसी राष्ट्र का उत्थान एवं पतन उसके व्यक्तियों की श्रेष्ठता व हीनता से निर्धारित होता है। मैकाइवर एवं पेज के अनुसार "राष्ट्र का गुण, उसकी सामाजिक इकाइयों का गुण है, अर्थात् सामाजिक इकाइयों का सामूहिक जीवन ही राष्ट्रीय जीवन है। यदि ईंधन ही खराब है जो ज्योति कैसे तेज हो सकती है- अर्थात् यदि सामाजिक इकाइयाँ ही निर्बल हैं, तो राष्ट्र कैसे दैदीप्यमान हो सकता है।" राष्ट्र की उन्नति तभी हो सकती है, जब उसके नागरिक श्रेष्ठ हों। उनको ऐसा बनाना ही राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का कार्य है।
राष्ट्रीय जीवन के लिए शिक्षा (EDUCATION FOR NATIONAL LIFE)
1. कुशल कार्यकर्ताओं की पूर्ति (Supply of Skilled Workers)
राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का कार्य कुशल कार्यकर्ताओं की पूर्ति करना है। ऐसे कार्यकर्ता व्यापार और उद्योग के उत्पादन को बढ़ायेंगे। फलतः राष्ट्रीय सम्पत्ति में वृद्धि होगी। शिक्षा के इस कार्य से जो सुन्दर परिणाम निकलेंगे; उनको अंकित करते हुए हुमायूँ कबीर (Humayun Kabir) ने लिखा है-" शिक्षित श्रमिक अधिक उत्पादन में योग देंगे और इस प्रकार उद्योग तथा व्यवसाय दोनों की अधिक उन्नति होगी।"
2. व्यक्तिगत हित को सार्वजनिक हित से निम्नता (Personal Interest inferior to Public Interest)
राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का एक महत्वपूर्ण कार्य यह है कि वह लोगों को ऐसा प्रशिक्षण दे कि वे अपने हितों को; अपने समूह, समाज, देश और राष्ट्र के हितों से निम्न समझें। आज का भारतीय समाज अनेक जातियों, वर्गों, धर्मों और राजनीतिक दलों में बँटा हुआ है।
फलतः भारतीयों में पारस्परिक द्वेष, कटुता, शत्रुता इत्यादि अनेक बुराइयाँ आ गयी हैं। ऐसी परिस्थिति में शिक्षा का सर्वप्रथम कार्य है-इन बुराइयों को समूल नष्ट करना। इससे भी कहीं महत्वपूर्ण कार्य है-मनुष्य को इस प्रकार का प्रशिक्षण देना कि वह अपनी स्वयं की इच्छा से अनुशासन में रहे और हर प्रकार का बलिदान करने के लिए तैयार रहे; तभी वह सार्वजनिक
हित में योग देकर देश का कल्याण कर सकेगा। भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन् (Radhakrishnan) ने ठीक ही लिखा है-"एशिया में प्रजातन्त्र की सफलता हमारी अनुशासन में रहने की इच्छा और व्यक्तिगत बलिदान पर आधारित है। यदि भारत, संयुक्त और लोकतन्त्रीय रहना चाहता है, तो शिक्षा को लोगों को एकता के लिए; न कि प्रादेशिकता के लिए, प्रजातन्त्र के लिए: न कि तानाशाही के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए।"
3. नागरिक व सामाजिक कर्तव्यों की भावना का समावेश (Inculcation of Civic and Social Duties)
नागरिक और सामाजिक कर्तव्य लोकतन्त्र की आधारशिला हैं। इनके अभाव में भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष राज्य की सफलता के बारे में सोचना केवल स्वप्न देखना है। अत: शिक्षा का कार्य है कि वह लोगों को इस प्रकार प्रशिक्षित करे कि वे नागरिक के रूप में अपने देश के प्रति और व्यक्ति के रूप में समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को समझें और करें। इस विषय में डॉ. जाकिर हुसैन (Dr. Zakir Husain) का कथन है- "प्रजातन्त्रीय समाज में यह आवश्यक है कि व्यक्ति नैतिक और भौतिक दोनों प्रकार के समाज के जीवन को उत्तम बनाने के सम्मिलित उत्तरदायित्व को सहर्ष स्वीकार करे।"
4. राष्ट्रीय विकास (National Development)
शिक्षा द्वारा ही राष्ट्रीय विकास सम्भव है। इसलिए यदि भारत राष्ट्रीय विकास चाहता है तो उसे शिक्षा की योजनाओं को प्राथमिकता देनी पड़ेगी। उन योजनाओं में शिक्षा का कार्य होना चाहिए- एक निश्चित स्तर तक सभी व्यक्तियों को शिक्षा देना। यदि शिक्षा इस कार्य को कर सकेगी, तो नागरिक गुप्त मतदान द्वारा योग्य नेताओं को चुन सकेंगे और सरकार के कार्यों को सफल बना सकेंगे। जब शिक्षा इस कार्य को पूर्ण कर देगी, तब राष्ट्र का विकास होना एक स्वाभाविक बात हो जायेगी।
राष्ट्रीय विकास में शिक्षा का स्थान कितना महत्वपूर्ण है ? इस पर प्रकाश डालते हुए शिक्षा आयोग (1964-66) ने लिखा है-" भारत के भाग्य का निर्माण इस समय उसकी कक्षाओं में हो रहा है। हमारा विश्वास है कि यह कोई चमत्कारोक्ति नहीं है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर आधारित इस विश्व में, शिक्षा ही लोगों की खुशहाली, कल्याण और सुरक्षा के स्तर का निर्धारण करती है। हमारे विद्यालयों और कॉलेजों से निकलने वाले छात्रों की योग्यता और संख्या पर ही राष्ट्रीय पुनः निर्माण के उस महत्वपूण्। कार्य की सफलता निर्भर करेगी जिसका प्रमुख लक्ष्य हमारे रहन-सहन का स्तर ऊँचा उठाना है।"
5. राष्ट्रीय एकता (National Integration)
शिक्षा को राष्ट्रीय एकता का आधार कहा गया है, परन्तु प्रश्न उठता है कि 'शिक्षा राष्ट्रीय एकता के कार्य को किस प्रकार कर सकती है ?' यदि हम अपने देश की वर्तमान स्थिति पर ध्यान दें तो हम दुःख से सराबोर हो जाते हैं। आज हम प्रान्तीयता, साम्प्रदायिकता, जातीयता और क्षेत्रीयता में विश्वास करते हैं। हम भाषा के प्रश्न पर लड़ते हैं।
इन सब बातों ने हमारे दृष्टिकोण को संकीर्ण बना दिया है और हमें प्रभावित करके हममें शत्रुता की भावना उत्पन्न कर दी है। यदि हम इन बुराइयों से मुक्त होना चाहते हैं, तो हमें शिक्षा का सहारा लेना पड़ेगा। शिक्षा ही हमें दोषमुक्त करके एकता के सूत्र में बाँध सकती है।
अतः शिक्षा के इस महत्वपूर्ण कार्य की ओर हमें शीघ्र से शीघ्र ध्यान देना चाहिए। ऐसा करते समय हमें स्व. जवाहरलाल नेहरू के इस कथन को ध्यान में रखना चाहिए- "राष्ट्रीय एकता के प्रश्न में जीवन की प्रत्येक वस्तु आ जाती है। शिक्षा का स्थान इन सबसे ऊपर है।"
6. भावात्मक एकता (Emotional Integration)
भारत में अनेक विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। इसमें बहुत से धर्म, परम्परायें, भाषायें, रीति-रिवाज और रहन-सहन के ढंग हैं। हम अपने धर्म, परम्परा, भाषा आदि को अपना समझते हैं और इन पर गर्व भी करते हैं। इनके प्रति हमारे हृदय में भक्ति का भाव निश्चित है, परन्तु हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इनसे भी ऊपर हमारी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएँ है. जो हमें एकता के सूत्र में बाँधती हैं और जो किसी समाज या समुदाय की एकमात्र सम्पत्ति नहीं हैं। यही भावात्मक एकता का आदर्श और राष्ट्रीय उन्नति का सोपान है।
इस आदर्श को प्राप्त करने में शिक्षा बहुत सहायता प्रदान कर सकती है। शिक्षा द्वारा ही भावात्मक वातावरण का निर्माण किया जा सकता है। शिक्षा उचित प्रकार के दृष्टिकोणों को विकसित कर सकती है। इसके साथ ही उचित प्रकार के संवेगों का निर्माण करके उनको उचित प्रकार के कार्यों से सम्बन्धित कर सकती है। अतः आवश्यक है कि हम अपने छात्रों के लिए ऐसे पाठ्यक्रमों का निर्माण करें, जिनसे उनके दृष्टिकोणों और संवेगों का उचित दिशा में विकास हो। केवल तभी वे देश के प्रति अपने कर्तव्यों को समझ सकेंगे और लोकतन्त्र को शक्तिशाली बना सकेंगे।
शिक्षा द्वारा भावात्मक एकता का कार्य किया जाना कितना आवश्यक है; इसके बारे में जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) ने 1957 में अपने एक भाषण में त्रिचूर (Trichur) में कहा था- " जहाँ कहीं मैं जाता हूँ, वहीं मैं भारत की एकता पर बल देता हूँ, न केवल राजनीतिक एकता पर वरन् भावात्मक एकता पर, अपने मनों और हृदयों की एकता पर और पृथकता की भावनाओं के दमन पर।"
7. राष्ट्रीय अनुशासन (National Discipline)
शिक्षा द्वारा राष्ट्रीय अनुशासन के कार्य पर बल दिया गया है। हमने अपनी स्वतन्त्रता कुछ ही वर्षों पहले प्राप्त की है। उसे बनाये रखने के लिए बहुत परिश्रम और सतर्कता की आवश्यकता है, परन्तु केवल इन्हीं से काम नहीं चलेगा। हममें से प्रत्येक में संगठन, कुशलता और बलिदान के गुण होने चाहिए।
इन गुणों की सहायता से ही हम राष्ट्रीय एकता और स्वतन्त्रता को बनाये रख सकते हैं। इन गुणों के विकास का आधार है- राष्ट्रीय अनुशासन। अतः शिक्षा को राष्ट्रीय अनुशासन के कार्य की अवहेलना नहीं करनी चाहिए। भूतपूर्व राष्ट्रपति राधाकृष्णन् (Dr. S. Radhakrishnan) ने सत्य ही कहा है-"राष्ट्रीय एकता और मेल का आधार है- राष्ट्रीय अनुशासन।"
8. नेतृत्व के लिए प्रशिक्षण (Training for Leadership)
राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का मुख्य कार्य है- व्यक्तियों को इस प्रकार प्रशिक्षित करना है कि वे सामाजिक, राजनीतिक, औद्योगिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में नेतृत्व का कार्य कर सकें।
9. सांस्कृतिक विरासत से सम्पर्क (Contact with Cultural Heritage)
राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का प्रमुख कार्य बालक को राष्ट्र की संस्कृति के सम्पर्क में लाना है। शिक्षा बालकों को उनके राष्ट्र की संस्कृति का ज्ञान कराती है तथा देश की संस्कृति की विकास प्रक्रिया से अवगत कराती है। डॉ. जाकिर हुसैन के अनुसार- "केवल संस्कृति की सामग्री द्वारा ही शिक्षा की प्रक्रिया को गति दी जा सकती है। केवल इसी सामग्री से मानव-मस्तिष्क का विकास हो सकता है।"
10. व्यक्तिगत हित को सार्वजनिक हित से निम्न रखना (Placing the Personal Interest below the Public Interest)
राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का एक महत्वपूर्ण कार्य है कि वह लोगों को ऐसा प्रशिक्षण दे कि अपने हितों को; अपने समूह, समाज, देश व राष्ट्र के हितों से निम्न समझे।
11. मनुष्य को इस प्रकार प्रशिक्षित करना है कि वह अनुशासित रहे व हर प्रकार का बलिदान करने के लिए तैयार रहे, तभी वह सार्वजनिक हित में योग देकर देश का कल्याण कर सकता है।
12. योग्य नागरिक का निर्माण करना (Producing Qualified Citizens)
शिक्षा का कार्य प्रत्येक नागरिक में उचित नागरिकता का विकास करना है। शिक्षा द्वारा प्रत्येक बालक में देशभक्ति, अधिकारों और कर्तव्यों को समझने और निभाने की क्षमता, देश की बागडोर सम्भालने की योग्यता इत्यादि को उत्पन्न किया जाता है। डॉ. जाकिर हुसैन के अनुसार- "प्रजातान्त्रिक समाज में यह आवश्यक है कि व्यक्ति नैतिक और भौतिक दोनों प्रकार से समाज के जीवन को उत्तम बनाने के सम्मिलित उत्तरदायित्वों को सहर्ष स्वीकार करे।"
अतः स्पष्ट है कि शिक्षा मानवीय, सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन में अपने विभिन्न कार्यों को सम्पन्न करती है। ये सभी एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं। इस संदर्भ में बोसिंग जी का विचार है कि- "शिक्षा का कार्य व्यक्ति और समाज के बीच ऐसा सामंजस्य स्थापित करना है जिसमें व्यक्ति अपने को मोड़ सके और परिस्थितियों को पुर्नव्यवस्थित कर ले जिससे दोनों को अधिकाधिक स्थाई सन्तोष प्राप्त हो सके।"