वैदिक काल में शिक्षा: Education in Vedic Era

 वैदिक काल में शिक्षा

वैदिक काल की अवधारणा (CONCEPT OF VEDIC ERA)


भारतीय शिक्षा का आरम्भ आज से लगभग 4,000 से 5,000 वर्ष पूर्व हुआ था, परन्तु इसका व्यवस्थित अध्ययन वैदिक काल के आरम्भ से ही हुआ। अत: इतिहासकार इस काल को वैदिक काल कहते हैं। इस काल में हमारे देश में एक समृद्ध शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ, जिसे वैदिक शिक्षा प्रणाली कहते हैं, क्योंकि इसका विकास वैदिक काल में हुआ और यह प्रणाली वैदिक दर्शन पर आधारित थी। चूंकि वैदिक काल में शिक्षा पर ब्राह्मणों का आधिपत्य था, अतः कुछ विद्वान् वैदिक कालीन शिक्षा को 'ब्राह्मणीय शिक्षा' तथा कुछ 'हिन्दू शिक्षा' की भी संज्ञा देते हैं।

वैदिक काल में शिक्षा: Education in Vedic Era

वैदिक काल को भी भिन्न-भिन्न विद्वानों द्वारा भिन्न-भिन्न उपकालों में विभाजित किया गया है। शिक्षा की दृष्टि से उसे दो उपकालों में बाँटा जा सकता है- प्रारम्भिक वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल। उत्तर वैदिक काल में शिक्षा पर ब्राह्मणों का एकछत्र अधिकार हो जाने से इसे ब्राह्मणीय शिक्षा प्रणाली कहा जाता है और चूँकि यह शिक्षा प्रणाली हिन्दुओं द्वारा विकसित हुई थी इसलिये कुछ विद्वान् इसे 'हिन्दू शिक्षा प्रणाली' कहते हैं। परन्तु हमारी दृष्टि से इसे समन्वित रूप में वैदिक शिक्षा प्रणाली कहना अधिक उपयुक्त है।


2000 वर्ष लम्बे इस वैदिक काल में ज्ञान के विकास के साथ-साथ इसकी पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियों में भी विकास व परिवर्तन होता रहा है। अत: आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी प्राचीन व नवीन विचारधाराओं में समन्वय स्थापित कर एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का सृजन करें जिसकी आत्मा भारतीय हो, किन्तु दृष्टिकोण प्रगतिशील तथा वैज्ञानिक हो। ऐसी स्थिति में हमें अपनी प्राचीन शिक्षा प्रणाली की जानकारी आवश्यक है ताकि हम वर्तमान शिक्षा पद्धति में अपनी प्राचीन सभ्यता व संस्कृति की झलक देख सकें।


वैदिक काल में शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श (AIMS AND IDEALS OF EDUCATION IN VEDIC ERA)


डॉ. अल्तेकर के शब्दों में, "ईश्वर भक्ति तथा धार्मिकता की भावना, चरित्र निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का पालन, सामाजिक कुशलता की उन्नति और राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण एवं प्रसार प्राचीन भारत में 'शिक्षा के मुख्य उद्देश्य एवं आदर्श' थे।" परन्तु आज जब हम उस काल की शिक्षा के स्वरूप को गहराई से देखते, समझते हैं, तो स्पष्ट होता है कि उस काल में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य ज्ञान का विकास था।


समग्र एवं राष्ट्र के प्रति कर्तव्यपालन और राष्ट्रीश संस्कृति के संरक्षण एवं विकास पर भी उस काल में विशेष बल दिया जाता था तथा मोक्ष की प्राप्ति मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य माना जाता था व इसकी प्राप्ति हेतु ही शिक्षा द्वारा उसके आध्यात्मिक विकास पर जोर दिया जाता था। वैदिक शिक्षा के उद्देश्यों को हम निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध का सकते हैं-


1. ज्ञान एवं संस्कृति पर केन्द्रित (Focus on Knowledge and Culture)-

ज्ञान का विकास वैदिककालीन शिक्षा का सर्वप्रमुख उद्देश्य था। तब ज्ञान को मनुष्य का तीसरा नेत्र भी माना जाता था। (ज्ञानं मनुष्यस्य तृतीयं नेत्र) और यह माना जाता था कि यह ज्ञान रूपी तीसरा नेत्र ही हमें दृश्य व सूक्ष्म दोनों जगत् का ज्ञान कराता है।


सत्य-असत्य, करणीय तथा अकरणीय कर्मों का भेद स्पष्ट करता है। इस प्रकार वैदिक काल में शिष्यों के भौतिक विकास हेतु उन्हें भाषा, व्याकरण, कृषि, पशुपालन व कला-कौशलों की शिक्षा देने के साथ ही उसे सामाजिक क्रियाओं में भी प्रशिक्षित किया जाता था। आध्यात्मिक विकास हेतु भाषा, साहित्य, धर्म और नीतिशास्त्र का ज्ञान कराया जाता था तथा धार्मिक क्रियाओं में प्रशिक्षित किया जाता था।


2. चित्तवृत्तियों का निरोध (Nirodh of Chittavrities) -

वैदिक काल में शरीर को अपेक्षा आत्मा को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता था क्योंकि शरीर नश्वर है, जबकि आत्मा अनश्वर है। अत: विद्यार्थियों की चित्तवृत्तियों का निरोध करने हेतु योग पर विशेष बल दिया जाता था तथा उन्हें विभिन्न प्रकार के अभ्यासों द्वारा अपनी चित्तवृत्तियों के निरोध हेतु प्रशिक्षित किया जाता था। अतः इस काल में शिक्षा का उद्देश्य मन से उन सब वृत्तियों का निषेध था, जिसके कारण वह इस भौतिक संसार में उलझ जाता था।


3. स्वास्थ्य संरक्षण एवं संवर्धन (Health Preservation and Development) -

वैदिक कालीन ऋषि और गुरु, मानव जीवन के अन्तिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति हेतु स्वस्थ शरीर व निर्मल मन की आवश्यकता पर बल देते थे। यही कारण था कि तब ऋषि आश्रमों और गुरुकुलों में शिष्यों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के संरक्षण व संवर्द्धन पर विशेष बल देते थे तथा उन्हें इस हेतु उचित आहार-विहार और आचार-विचार की शिक्षा दी जाती थी।


शिष्यों को प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में उठकर, नित्य क्रियाओं से निवृत्त होकर व्यायाम करना होता था, सादा भोजन करना होता था, नियमित दिनचर्या का पालन तथा व्यसनों से दूर रहना होता था। गुरु शिष्यों के लिये पौष्टिक भोजन की व्यवस्था करते थे तथा रोगग्रस्त होने पर उनका तुरन्त उपचार कराते थे। मानसिक स्वास्थ्य के संरक्षण एवं संवर्द्धन हेतु उन्हें उचित आचार-विचार की ओर उन्मुख किया जाता था तथा उन्हें सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के पालन करने और काम, क्रोध, लोभ, मोह और मद से दूर रहने की शिक्षा दी जाती थी।


4. पावन व पवित्र भावना का विकास (Development of Holy Feelings) -

वैदिक काल में शिक्षा मानव को उसके आत्मिक विकास की ओर ले जाती थी। मानव का जीवन बहुत सरल, स्वाभाविक, शुद्ध तथा पवित्र था। सत्य या ब्रह्म अथवा मोक्ष की प्राप्ति जीवन का लक्ष्य था। अतः मनुष्य की ईश्वर में पूर्ण आस्था थी। समाज भी धर्म प्रधान था तथा धर्म ही ईश्वर की प्राप्ति का साधन था। इसलिये विद्यालय का वातावरण पूर्णतया धार्मिक भावनाओं पर आधारित रहता था।


5. चरित्र निर्माण (Character Building)-

वैदिक कालीन शिक्षा का उद्देश्य छात्रों का चरित्र निर्माण करना था। चरित्र का निर्माण वैदिक आदर्शों के अनुरूप किया जाता था। ब्रह्मचर्य का पालन, सात्विक भोजन, सदाचार व उच्च विचार आदि का पालन करके इस उद्देश्य की प्राप्ति की जाती थी।


6. व्यक्तित्व का विकास (Development of Personality)-

इस काल में छात्रों के सर्वांगीण विकास पर सर्वाधिक बल दिये जाने के कारण उनमें आत्मविश्वास, अपने को जानना आत्मसम्मान तथा आत्मानुभूति आदि गुणों का विकास किया जाता था। इसके लिये छात्रों को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान को जातो धौ, ताकि वे अपने विवेक का प्रयोग कर स्वयं को पहचान सकें।


7. नागरिक व सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन (Obedience of Civic Duties and Values) -

वैदिक काल में छात्रों में आदर्श नागरिक बनने की व आत्मकेन्द्रित जीवन की भावना का विकास किया जाता था। ब्रह्मचर्य आश्रम के पश्चात् गृहस्थ पालन के कर्तव्यों का ज्ञान दिया जाता था, ताकि छात्र समाज में प्रवेश करके अपना जीवन सुखी बना सकें, परिवार के सदस्यों का उत्तरदायित्व समझ सकें तथा सामाजिक उत्थान के कार्यों में सक्रिय भाग ले सकें। अतः सेवा सम्बन्धी कार्य, जैसे-स्त्री, बच्चों व वृद्धों की सेवा सहित समाज सेवा, पितृ व गुरु सेवा, गौ सेवा, अतिथि सत्कार, दीन-दुखियों की सहायता आदि छात्रों की दिनचर्या में सम्मिलित रहते थे।


8. सामाजिक कुशलता की उन्नति (Development of Social Skills)-

इस काल में गुरुकुलों के अन्तर्गत छात्रों को जीविकोपार्जन सम्बन्धी व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता था, ताकि वे अपने भावी जीवन को सुचारु रूप से चलाने में समर्थ हो सकें। इसलिये वे विभिन्न व्यवसायों में व अपने परिवार के व्यवसाय में कुशलता प्राप्त करते थे। इस प्रकार शिक्षा सैद्धान्तिक न होकर पूर्णतया व्यावहारिक थी और वह किसी न किसी व्यवसाय से सम्बद्ध होती थी।


9. राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण व प्रसार करना (Preservation and Expansion of National Heritage)-

यह वैदिककालीन या प्राचीन शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य माना जाता था। छात्रों को राष्ट्रीय संस्कृति से परिचित कराया जाता था, ताकि वे उसके संरक्षण में सहायक हो सकें। इस कार्य को केवल उच्च कोटि के शिक्षक ही सम्पन्न कर पाते थे। उनके द्वारा इसी ध्येय से छात्रों में स्वाध्याय की आदत डाली जाती थी।


10. ईश्वर भक्ति व उपासना पर बल (Emphasis on Devotion to God) -

छात्रों में ईश्वर भक्ति और धार्मिकता की भावना का समावेश कराने का प्रयास किया जाता था व इस हेतु संसार से व्यक्ति की मुक्ति पर बल दिया जाता था-'सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात् व्यक्ति को मुक्ति तभी प्राप्त हो सकती थी, जब वह ईश्वर भक्ति और धार्मिकता की भावना से सराबोर हो। अतः सभी प्रकार की शिक्षाओं का प्रत्यक्ष उद्देश्य छात्र को समाज का धार्मिक सदस्य बनाना था।


अतः प्राचीन/वैदिककालीन शिक्षा के इन उद्देश्यों की प्राप्ति का तात्पर्य वास्तविक मनुष्य अथवा मनुष्य को पूर्ण बनाना रहा है। आत्मज्ञान तथा ब्रह्मज्ञान के लिये छात्रों को तैयार किया जाता था, ताकि विद्या से उनका लौकिक व पारलौकिक विकास हो सके।


वैदिक शिक्षा प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ (MAIN CHARACTERISTICS OF VEDIC EDUCATION SYSTEM)


वैदिक काल में जिस शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ उसे वैदिक शिक्षा प्रणाली कहते हैं। सम्पूर्ण वैदिक काल में शिक्षा का प्रशासन व संगठन तो सामान्यतः एक सा रहा, परन्तु समय की परिस्थितियों और ज्ञान एवं कला कौशल के क्षेत्र में विकास के साथ-साथ उसकी पाठ्यचर्या व शिक्षण विधियों में विकास होता रहा है। वैदिक शिक्षा प्रणाली के मुख्य अभिलक्षणों का क्रमबद्ध विवरण निम्न प्रकार है-


वैदिक शिक्षा का अर्थ (Meaning of Vedic Education)


वेदों के अनुसार शिक्षा का अर्थ ज्ञान अथवा विद्या की प्राप्ति है। वेदों के आधार पर शिक्षा ज्ञान, आत्मा तथा ब्रह्म की खोज है। शिक्षा का उद्देश्य आत्मानुभूति व आत्मबोध है। वेदों के अनुसार शिक्षा पूर्णता तक पहुँचाने का सद्मार्ग है। वेदों को समस्त ज्ञान का कोश माना गया है। वेदों में शिक्षा का मोक्ष का साधन भी माना गया है-"सा विद्या या विमुक्तये।"


प्राचीन शिक्षा का उदय भी वेदों से हुआ है। चारों वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद ही भारतीय जीवन दर्शन के स्रोत माने गये हैं। इनमें ऋग्वेद को आदि वेद के रूप में स्वीकार किया गया है, जो मुख्यतः ज्ञान काण्ड की व्याख्या करता है। ऋग्वेद में ऋचाओं द्वारा मनुष्य जीवन के चारों आश्रमों - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास का विस्तार से वर्णन किया गया है।


वैदिक काल में जीवन को दो प्रकार की विद्या-परा व अपरा में विभक्त किया गया था। 'परा' का अर्थ ज्ञान, कर्म और उपासना द्वारा 'ब्रह्म सत्य जगत् मिथ्या' का बोध कराना तथा 'अपरा' का अर्थ समाज विद्या अर्थात् उसके लौकिक स्वरूप से था। परन्तु इनमें अधिक बल 'परा' विद्या पर दिया जाता था, क्योंकि धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष भारतीय जीवन के प्रमुख स्तम्भ थे। वेदकालीन शिक्षा का उद्देश्य शारीरिक, नैतिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों के विकास द्वारा मोक्ष प्राप्त करना था। इसके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य आध्यात्मिक और लौकिक जगत् में सामंजस्य स्थापित करना तथा धर्म को व्यवस्था द्वारा ब्रह्म प्राप्त करना भी था। इस प्रकार वैदिक काल में शिक्षा शब्द का प्रयोग ज्ञान, विद्या, विनय और अनुशासन के पर्याय के रूप में किया जाता था।


शिक्षा की संरचना एवं संगठन (Organisation and Structure of Education)


वैदिक काल में शिक्षा केवल दो स्तरों में विभाजित थी- प्रारम्भिक या प्राथमिक शिक्षा तथा उच्च शिक्षा।


1. प्रारम्भिक शिक्षा (Primary Education)-

वैदिक काल में प्रारम्भिक शिक्षा की व्यवस्था परिवारों में होती थी। लगभग 5 वर्ष की आयु पर किसी शुभ दिन बच्चे का विद्यारम्भ संस्कार किया जाता था। यह संस्कार परिवार के कुल पुरोहित द्वारा कराया जाता था। बच्चे को स्नान कराकर, नये वस्त्र पहनाकर कुल पुरोहित के सामने प्रस्तुत किया जाता था। कुल पुरोहित नया वस्त्र बिछाता था और उस पर चावल डालता था।


इसके बाद वेद मंत्रों द्वारा देवताओं की आराधना की जाती थी और बच्चे की उंगली पकड़कर उसके द्वारा बिछे हुये चावलों में वर्णमाला के अक्षर बनवाये जाते थे। कुल पुरोहित को भोजन कराकर दक्षिणा दी जाती थी। कुल पुरोहित बच्चे को आशीर्वाद देता था और इसके बाद बच्चे की शिक्षा नियमित रूप से आरम्भ होती थी।


2. उच्च शिक्षा (Higher Education) -

उत्तर वैदिक काल में सामाजिक प्रगति के साथ-साथ शिक्षा के विषयों की संख्या बढ़ने से उनके लिये पृथक् शिक्षा संस्थाओं की आवश्यकता अनुभव को जाने लगी तथा इस हेतु विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना की गई। इस काल में गुरुकुल प्रणाली अधिक प्रचलित थी। शिक्षण का कार्य गुरुकुल, ऋषि आश्रम, परिषद् आदि द्वारा सम्पन्न कराया जाता था। ये गुरुकुल नगरों के कोलाहल से दूर स्थापित किये जाते थे। गुरु को आध्यात्मिक पिता माना जाता था।


इस प्रकार को शिक्षा का रूप हमें गुरुकुल काँगड़ी, हरिद्वार तथा विश्व भारती जैसे अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा केन्द्रों में आज भी देखने को मिलता है। उच्च शिक्षा में प्रवेश की आयु भी वर्ष के अनुसार निर्धारित थी। 8 वर्ष की आयु में ब्राह्मण बच्चों का 10 वर्ष की आयु पर क्षत्रिय बच्चों का और 12 वर्ष की आयु में वैश्य बच्चों का प्रवेश गुरुकुल में होता था तथा प्रवेश के समय बच्चों का उपनयन संस्कार भी होता था।


शिक्षा का वित्तीय प्रशासन (Financial Administration of Education)


वैदिक शिक्षा प्रणाली के प्रशासन एवं वित्त के सम्बन्ध में निम्न तथ्य दृष्टिगोचर होते हैं- । शिक्षा राज्य के नियन्त्रण से मुक्त होने के कारण शिक्षा की व्यवस्था राज्य का उत्तरदायित्व नहीं था। परिणामतः उस पर पूर्ण रूप से गुरुओं का व्यक्तिगत नियन्त्रण था।


2. वैदिक काल में शिक्षा पूर्णरूप से निःशुल्क थी। शिष्यों के आवास एवं भोजन की व्यवस्था भी गुरु स्वयं करते थे। परन्तु शिक्षा पूर्ण होने पर शिष्य अपनी सामर्थ्यानुसार गुरुदक्षिणा अवश्य देते थे।


3. वैदिक काल में गुरुकुलों को आज की तरह राज्य से कोई निश्चित अनुदान राशि न मिलने के कारण इसकी आय के स्रोत दान, भिक्षा व गुरुदक्षिणा ही थे। इसके अतिरिक्त समाज के सम्पन्न लोग इन गुरुकुलों को स्वेच्छा से भूमि, पशु, अन्न, वस्त्र, पात्र एवं मुद्रा आदि दान स्वरूप भेंट देते थे व गुरुकुलों की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु शिष्य नित्य भिक्षावृत्ति से प्रबन्ध कर लेते थे। तीसरे आय के स्रोत में शिष्यों द्वारा अपनी सामर्थ्यानुसार दी गई गुरुदक्षिणा शामिल थी, जिसमें भूमि, पशु, अन्न, वस्त्र, पात्र अथवा मुद्रा शामिल थे।


शिक्षा का पाठ्यक्रम (Curriculum of Education)


चूँकि वैदिककालीन शिक्षा की संरचना प्रारम्भिक व उच्च शिक्षा में विभाजित थी, अत: शिक्षा की पाठ्यचर्या को भी उसकी प्रकृति व स्तरों के आधार पर देखा व समझा जा सकता है। वैदिक काल में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य आध्यात्मिक विकास करना था। परन्तु कर्म की भी उपेक्षा नहीं की गई थी। वेदों में आध्यात्मिक व लौकिक दोनों प्रकार के ज्ञान का वर्णन है।


अतः इस काल में 'प्रकृति' के आधार पर पाठ्यचर्या में 'परा' व 'अपरा' दोनों ही प्रकार की विद्याओं का प्रचलन था। 'परा' विद्या, जिसका प्रमुख उद्देश्य आध्यात्मिक विकास करना था, धर्म जीव, आत्मा, परमात्मा, पुराण, दर्शन, वेद, वेदांग, नीतिशास्त्र आदि का अध्ययन कराती थी तथा 'अपरा' विद्या, जो प्रमुख रूप से लौकिक जगत् से सम्बन्धित थी, अंकशास्त्र, इतिहास, राजनीति शास्त्र, ज्योतिष, भूगर्भ विद्या, भौतिक शास्त्र आदि से सम्बन्धित थी। बालक अपने वर्ण के अनुसार किसी एक विषय में विशेष अध्ययन भी करता था। 


उदाहरणार्थ- ब्राह्मण बालक धार्मिक कृत्यों का विशेष अध्ययन करता था, तो क्षत्रिय बालक युद्ध विद्या से सम्बन्धित किसी कला में दक्षता प्राप्त करता था और वैश्य व्यापार, कृषि आदि व्यावसायिक जगत् से सम्बन्धित किसी एक कला में दक्षता अर्जित करता था। शिक्षा के स्तरों के आधार पर यदि पाठ्यचर्या की बात करें, तो वैदिक काल में प्रारम्भिक स्तर की पाठ्यचर्या में भाषा, व्याकरण, द्वन्द्वशास्त्र और गणना का सामान्य ज्ञान और सामाजिक व्यवहार एवं धार्मिक क्रियाओं के प्रशिक्षण को स्थान प्राप्त था। उत्तर वैदिक काल में इसमें नीति प्रधान कहानिय को भी जोड़ दिया गया था।


वैदिककालीन उच्च शिक्षा की पाठ्यचर्या भी सामान्य व विशिष्ट दो भागों में विभाजित थी। इम स्तर पर संस्कृत भाषा व उसके व्याकरण तथा धर्म व नीतिशास्त्र को शिक्षा अनिवार्य होने के साथ ही शिष्यों को गुरुकुल को व्यवस्था व गुरुसेवा भी करनी होती थी।


इसे सामान्य शिक्षा के अन्तर्गत रख जाता था। विशिष्ट शिक्षा के अन्तर्गत, प्रारम्भिक वैदिक काल में वैदिक साहित्य के विभिन्न ग्रन्यां कर्मकाण्ड, ज्योतिर्विज्ञान, आयुर्विज्ञान, सैनिक शिक्षा, कृषि पशुपालन, कला-कौशल, राजनीतिशास्त्र भूगर्भ शास्त्र और प्राणि शास्त्र की शिक्षा ऐच्छिक थी, जबकि उत्तर वैदिक काल में इस पाठ्यचयां में अनेक अन्य विषय जैसे-इतिहास, पुराण, नक्षत्र विद्या, न्यायशास्त्र, अर्थशास्त्र, देव विद्या, ब्रह्य विद्या और भूत विद्या को भी शामिल कर लिया गया था।


शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods)


वैदिक काल में शिक्षण कार्य सामान्यतः मौखिक था और प्रायः प्रश्नोत्तर, शंका-समाधान, व्याख्यान और वाद-विवाद द्वारा होता था। गुरु द्वारा उच्चरित मंत्रों को छात्र ध्यानपूर्वक सुनता और कंठस्थ करता था और चिन्तन करता था। अतः गुरु के उच्चारणों को छात्र अनुसरण करता था। उस समय भाषा की शिक्षा के लिये अनुकरण विधि, कला कौशल की शिक्षा के लिये प्रदर्शन एवं अभ्यास विधियों का प्रयोग किया जाता था।


उत्तर वैदिक काल में छोटे बच्चों की शिक्षा के लिये कहानी-विधि और उच्च स्तर के शिष्यों के लिये तर्क-विधि का विकास किया गया। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि उस काल में भी गुरुओं द्वारा मनोवैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाता था, परन्तु इन विधियों का प्रयोग कुछ अपने ही ढंग से होता था। अत: इन विधियों के प्राचीन रूप को निम्न ढंग से स्पष्ट किया जा सकता है-


1. वैदिक काल में प्रारम्भिक स्तर पर भाषा और व्यवहार को शिक्षा प्रायः अनुकरण, आवृत्ति एवं कंठस्थ विधि से दी जाती थी तथा उच्च स्तर पर भी इसका प्रयोग होता था, जिसमें गुरु शिष्यों के सम्मुख वेदमंत्रों का उच्चारण करते थे और शिष्य उनका अनुकरण करके व बार-बार उच्चारित करके कंठस्थ कर लेते थे।


2. शिष्यों को व्याकरण का कोई नियम या वेदों का कोई मन्त्र कंठस्थ कराने हेतु व्याख्या एवं दृष्टान्त विधि के अनुसार गुरु पहले मंत्र की व्याख्या करते थे एवं उसका अर्थ व भाव स्पष्ट करने हेतु उपमा, रूपक और दृष्टान्तों का प्रयोग भी करते थे।


3. वैदिक काल में कृषि, पशुपालन, कला कौशल, सैन्य शिक्षा और आयुर्विज्ञान आदि क्रिया प्रधान विषयों की शिक्षा कथन, प्रदर्शन व अभ्यास विधि द्वारा दी जाती थी। इस विधि में गुरु सर्वप्रथम सिखाई जाने वालो क्रिया को सम्पादन करके दिखाते थे, उसको विधि बताते थे तथा शिष्य उनका अनुकरण कर उसी क्रिया का अभ्यास करते-करते दक्षता हासिल कर लेते थे।


4. उत्तर वैदिक काल में उपनिषदों को शैली के आधार पर प्रश्नोत्तर वाद-विवाद और शास्त्रार्थ विधियों का भी विकास हुआ। प्रारम्भिक वैदिक काल में जहाँ गुरु उपदेश व व्याख्यान देते थे और शिष्य शान्तिपूर्वक सुनते थे, वहीं उत्तर वैदिक काल में शिष्य द्वारा शका प्रस्तुत करने पर गुरु उनका समाधान भी बताते थे। उच्च शिक्षा में उच्च स्तर के शिष्यों व गुरुओं के बीच, अति गूढ़ विषयों पर चर्चा हेतु वाद-विवाद या शास्त्रार्थ भी होता था, जिससे अन्य शिष्य इसे सुनकर अपने तत्वन्धी जान को बढ़ाते थे।


5. वैदिक काल में वेद मन्त्रों की व्याख्या, धर्म, दर्शन एवं अन्य विषयों के सम्बन्ध में दी गई व्यवस्था को शिष्य ध्यानपूर्वक सुनते थे, उसके बाद उस पर मनन करते थे, चिन्तन करते थे और अनुभूत तथ्य का नियमित अभ्यास करते थे। अतः श्रवण, मनन व निदिध्यासन विधि, जो उपनिषदकारों की देन है, का भी इस काल में विकास हुआ।


6. उत्तर वैदिक काल में तर्कशास्त्र जैसे गूढ़ विषयों के शिक्षण हेतु तर्क (Reasoning) विचि का भी विकास हुआ। जिसमें पाँच पद थे, प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, अनुपयोग व निगमन। 


7. इस काल में आचार्य विष्णु शर्मा ने राजकुमारों को नोति की शिक्षा देने हेतु कहानी विधि का प्रयोग करने हेतु कहानियों की रचना की, जो 'पंचतन्त्र' व 'हितोपदेश' के नाम से संग्रहीत है। इस विधि में अन्त में छात्रों से कहानी से प्राप्त शिक्षा के बारे में अवश्य पूछा जाता था। वैदिक कालीन शिक्षण विधियों के सन्दर्भ में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य ये भी हैं-शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा होना तथा गुरुकुलों में कक्षा नायकीय पद्धति का प्रयोग होना। इस विधि में वरिष्ठ या नायक छात्र कनिष्ठ छात्रों को भाषा, साहित्य, धर्म और नीतिशास्त्र आदि विषयों का ज्ञान कराते थे।


अनुशासन (Discipline)


वैदिककालीन शिक्षा में छात्रों को कठोर अनुशासन का पालन करना पड़ता था। छात्रों के लिये अत्यधिक संयम से रहना नियम और ब्रह्मचर्य का पालन करना तथा नियंत्रण में रहना आवश्यक माना जाता था। प्रारम्भिक वैदिक काल में अनुशासन से तात्पर्य शारीरिक, मानसिक व आत्मिक संयम से रहना होता था। शारीरिक संयम के अन्तर्गत-ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना, श्रृंगार न करना, सुगन्धित पदार्थों का प्रयोग न करना, नृत्य एवं संगीत में आनन्द न लेना, मादक पदार्थों का प्रयोग न करना, जुआ न खेलना, गाय को न मारना, झूठ न बोलना व चुगली न करना आदि आते थे।


मानसिक संयम का तात्पर्य - इन्द्रिय निग्रह, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का पालन और काम, क्रोध, लोभ, मोह व मद से दूर रहने से था तथा आत्मिक संयम का तात्पर्य आत्म नियन्त्रण से, जिसमें शिष्य अपने अन्तर्मन से शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वयं को अनुशासित रखता था। परन्तु उत्तर वैदिक काल में शिष्यों द्वारा गुरुओं के आदेशों और गुरुकुलों के नियमों के पालन को ही अनुशासन माना जाने लगा। अनुशासन का पालन न करने पर कुछ विशेष परिस्थितियों में शारीरिक दण्ड देने की स्वीकृति भी थी।


शिक्षक व विद्यार्थी (Teacher and Student)


वैदिक काल में शिक्षकों को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। राजा के साथ ही प्रजा भी उनकी सेवा में हाथ जोड़कर समर्पित भाव से उपस्थित रहती थी। शिक्षकों को ईश्वर के बाद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। गुरुओं को इतना अधिक आदर मिलने का कारण संभवतः उनका अति विद्वान्, स्वाध्यायी, धर्मपरायण व सच्चरित्र होना था। ये गुरु अतिज्ञानी होने के साथ ही अतिसंयमी भी होते थे।


ये देव रूप में प्रतिष्ठित होते थे तथा इन्हें धियावसु (जिसकी बुद्धि हो धन है), सत्यजन्मा (सत्य को जानने वाला) और विश्ववेदा (सर्वज्ञ) आदि विशेषणों से सम्बोधित किया जाता था। ये अपने गुरुकुलों के पूर्ण स्वामी होने के साथ ही शिष्यों के प्रति पूर्ण उत्तरदायित्व की भावना भी रखते थे तथा गुरुकुलों की सम्पूर्ण व्यवस्था हेतु उत्तरदायी होते थे। इस प्रकार ये अपने शिष्यों के सर्वांगीण विकास हेतु प्रयत्नशील रहते थे।


वैदिक काल में अविवाहित बच्चों को ही गुरुकुलों में प्रवेश मिलता था। ये शिष्य ब्रह्मचर्य क का पालन करने के कारण ब्रह्मचारी कहलाते थे। ये सात्विक भोजन करते थे सादा वस्त्र पहनते थे तथा व्यसनों से दूर रहते थे। गुरुकुल के नियमों का पालन व गुरु सेवा इनका परम कर्त्तव्य होता तथा इनकी दिनचर्या बहुत नियमित रहती थी। ये सूर्य डूबने के पहले सन्ध्या भोजन और रात्रि में गुरु सेवा के बाद विश्राम करते थे।


गुरु-शिष्य सम्बन्ध (Teacher-Taught Relationship)


वैदिक काल में गुरु शिष्य के मध्य अभिभावक एवं छात्र का सम्बन्ध स्थापित हो जाता था। गुरु शिष्यों को पुत्रवत् व शिष्य गुरुओं को पितातुल्य मानते थे। एक बार गुरुकुल का विधि सम्पत ब्रह्मचारी बनने के बाद बालक के सुख-दुःख, शिक्षा-दीक्षा, भोजन, आवास, वस्त्र तथा अन्य समस्त आवश्यकताओं का उत्तरदायित्व गुरु द्वारा ही वहन किया जाता था।


अतः माता-पिता अपनी सन्तान की तरफ से पूर्ण निश्चिन्त हो जाते थे। गुरुकुलों की व्यवस्था भी गुरु और शिष्य दोनों संयुक्त रूप से व सुचारु रूप से कार्य विभाजन द्वारा करते थे। गुरुओं के शिष्यों के प्रति कर्त्तव्य और शिष्यों के गुरुओं के प्रति कर्तव्यों को हम निम्न विवरण द्वारा समझ सकते हैं।


जहाँ तक गुरु के कर्तव्यों का प्रश्न है, इस युग में गुरु के अनेक कर्त्तव्य थे। गुरु छात्र के न केवल मानसिक विकास हेतु ही उत्तरदायी था वरन् उसे छात्र के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना पड़ता था। शिष्य के व्यक्तित्व में यदि कोई अभाव, त्रुटि, दोष अथवा कमी रह जाती थी तो मौलिक रूप से गुरु ही उसके लिये उत्तरदायी समझा जाता था। गुरु का यह कर्त्तव्य था कि वह अपने शिष्यों की पुत्रवत् सेवा करे।


गुरु अपने शिष्य के आचार-विचार, रहन-सहन, स्वास्थ्य, भरण-पोषण आदि सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उत्तरदायी होता था। प्रत्येक गुरु अपने योग्य शिष्य को उतना ज्ञान देता था, जितना कि गुरु जानता था। गुरु यह नहीं सोचता था कि यदि उसने अपना समस्त ज्ञान अपने शिष्य को दे दिया तो एक दिन शिष्य उससे भी अधिक ख्याति प्राप्त कर लेगा। यदि कोई गुरु ऐसा सोचता था तो वह' आचार्य' कहलाने योग्य नहीं रहता था।


अतः गुरु शिष्य को उतना ज्ञान देने का यथासंभव प्रयत्न करता था, जितना वह जानता था। इस वातावरण में रहकर शिष्य वास्तव में शिष्य नहीं रह जाता था, वह गुरु परिवार का पुत्र जैसा बन जाता था। ऐसे भी अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनमें गुरु के वात्सल्य के कारण शिष्य अपने घर तक को भुला देते थे। ।


गुरु के इस वात्सल्यमय व्यवहार के बदले शिष्य अपने गुरु का हृदय से सम्मान करता था शिष्य के लिये गुरु ब्रह्मा से भी महान् था। गुरु को शिष्य पिता का आदर तथा माँ की श्रद्धा प्रदान करता था। आश्रम अथवा गुरुकुल में रहकर शिष्य अपने गुरु की एक पुत्र के समान सेवा किया करता था।


वह गुरु को प्रातः एवं सन्ध्या समय प्रणाम करता, दाँतुन का प्रबन्ध करता, आश्रम के लिये जल तथा अग्नि का प्रबन्ध करता, गुरु के वस्त्रादि को स्वच्छ करता, आश्रम के लिये गायों की सेवा करता, आश्रम की सफाई, ईंधन आदि की व्यवस्था करता था। उस समय ऐसा समझा जाता था कि बिना गुरु की सेवा के ज्ञानार्जन असंभव है। अतः शिष्य अपने गुरु की तन-मन से सेवा तथा आदर करता था।


शिष्य गुरु की सेवा के साथ ही गुरु का आवश्यकता पड़ने पर मार्गदर्शन भी करता था। शिष्य गुरु की धर्मानुकूल सभी आज्ञाओं को सहर्ष शिरोधार्य करता था तथा उनका पालन करना अपना अहोभाग्य समझता था। किन्तु कभी-कभी कोई गुरु धर्म के प्रतिकूल आचरण करते तो शिष्य गुरु की आज्ञा का पालन करने के लिये बाध्य न था, वरन् इस परिस्थिति में शिष्य गुरु को विनम्र शब्दों में उचित परामर्श भी देने का अधिकारी समझा जाता था किन्तु शिष्य ऐसा परामर्श केवल उसे एकान्त में ही दे सकता था।


शिक्षा के अन्य पक्ष (OTHER ASPECTS OF EDUCATION)


वैदिक काल में सामान्य व विशिष्ट प्रकार की शिक्षा की तो उत्तम व्यवस्था थी परन्तु जनशिक्षा, स्त्री शिक्षा का पूरी तरह विकास नहीं हुआ तथा व्यावसायिक, धार्मिक व नैतिक शिक्षा का स्वरूप भी आज से भिन्न था। अत: इन सम्प्रत्ययों पर अलग से विचार करना आवश्यक है—


जनशिक्षा (People Education) -

वैदिक काल में प्रारम्भिक शिक्षा की व्यवस्था परिवारों में ही होने के कारण जनशिक्षा का प्रचलन नहीं था। शिक्षित परिवार के बच्चे ही प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करते थे। उच्च शिक्षा को व्यवस्था गुरुकुलों में ही होने के कारण व इन गुरुकुलों के निर्जन स्थान पर स्थित होने के कारण सभी बच्चे इसमें प्रवेश नहीं ले पाते थे।


प्रारम्भिक वैदिक काल में तो चारों वर्णों के बच्चों को अपनी-अपनी योग्यतानुसार शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। परन्तु उत्तर वैदिक काल में उच्च वर्ण के बच्चों को ही वर्णानुसार कर्म की शिक्षा दी जाती थी व शूद्रों को उच्च शिक्षा के अधिकार से वंचित कर दिया जाता था। (अत: यह व्यवस्था जन शिक्षा के प्रतिकूल थी।)


स्त्री शिक्षा (Woman Education)-

प्रारम्भिक वैदिक काल में पुरुषों के समान ही स्त्रियों को भी शिक्षा प्राप्ति के अधिकार के कारण, स्त्रियों को वेदों का अध्ययन करने की स्वतन्त्रता थी और वे पुरुषों के साथ यज्ञ में भाग लेती थीं व शास्त्रार्थ भी करती थी। परन्तु उत्तर वैदिक काल में, वर्णानुसार शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था के कारण शूद्र वर्ण की स्त्रियों को तो उच्च शिक्षा के अधिकार से वंचित कर ही दिया गया था।


सामान्य परिवारों की बच्चियाँ भी उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाती थीं। यद्यपि इस काल में अपाला, विश्वधारा, रोमाशा, शाश्वती और घोषा जैसी विदुषी महिलायें हुई, परन्तु वास्तविकता यही थी कि उस पूरे काल में स्त्री शिक्षा बहुत सीमित थी। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि स्त्री शिक्षा उपेक्षित हो रही थी।


व्यावसायिक शिक्षा (Vocational Education)-

प्राचीन भारत में मानव जीवन में धर्म का विशेष स्थान होने के बावजूद व्यावसायिक शिक्षा को भी आवश्यक मानकर उसकी भी समुचित व्यवस्था की गई थी। वास्तविकता यही है कि प्रारम्भिक वैदिक काल में शिष्यों को धर्म, दर्शन, भाषा, साहित्य व नीतिशास्त्र के ज्ञान के साथ ही उनकी योग्यतानुसार तथा उत्तर वैदिक काल में उनके वर्णानुसार कर्म (व्यवसाय) की शिक्षा दी जाती थी।


ब्राह्मणों को पठन-पाठन और कर्मकाण्ड एवं यज्ञादि कार्य करने, क्षत्रियों को राजनीति और रणकौशल की और वैश्यों को कृषि, पशुपालन, हीरे-जवाहरातों की पहचान एवं मूल्य अनुमान, मसालों के क्रय-विक्रय (वाणिज्य) की शिक्षा दी जाती थी। शूद लोग जीविकोपार्जन के लिये सेवा कार्य के साथ-साथ कताई, बुनाई, रंगाई, वास्तुकला, चित्रकला और शिल्पकार्य भी करते थे। इन सब कार्यों की शिक्षायें अपने-अपने परिवारों में इन क्रियाओं में भाग लेकर प्राप्त करते थे।


इस प्रकार मुख्यतः तीन प्रकार की व्यावसायिक शिक्षा का उल्लेख इस काल में मिलता है-

(1) सैनिक शिक्षा (Military Education),

(2) चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा (Medical Education)

(3) वाणिज्य शिक्षा (Commercial Education)।


वैदिककालीन मुख्य शिक्षा केन्द्र (MAIN EDUCATION CENTRES IN VEDIC PERIOD)


वैदिक काल में प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था परिवारों और उच्च शिक्षा की व्यवस्था गुरुकुलों में होती थी। उत्तर वैदिक काल में यही गुरुकुल बड़े-बड़े नगरों और तीर्थ स्थानों पर स्थापित होने लगे थे, जो बाद में उच्च शिक्षा के केन्द्र के रूप में विकसित हुये। इनमें से प्रमुख शिक्षा केन्द्र निम्न हैं-


1. तक्षशिला-

यह नगर उस काल में उत्तरी भारत के तत्कालीन गांधार नरेश तक्ष के नाम से बसाया गया था, जो बाद में राजधानी के रूप में परिवर्तित हो गया। तक्ष ने यहाँ देश के विभिन्न भागों से विद्वानों को बुलाकर बसाया व उन्हें गाँव के गाँव दान में दिये तथा उन पर शिक्षा व्यवस्था का कार्य सौंपा। जिसके कारण यह नगर एक शिक्षा के केन्द्र के रूप में विकसित हुआ।


यहाँ संस्कृत भाषा और साहित्य, व्याकरण, चारों वेदों और धर्म तथा दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् निवास करते थे। परिणामतः उस काल में तक्षशिला वैदिक साहित्य, धर्म, दर्शन और आयुर्विज्ञान के शिक्षा के मुख्य केन्द्र में विकसित होकर 7वीं शताब्दी तक ब्राह्मणीय शिक्षा का प्रमुख केन्द्र बन गया।


2. मिथिला-

मिथिला प्रारम्भ से ही धर्म, दर्शन और अध्यात्म की शिक्षा का मुख्य केन्द्र रहा था परन्तु उपनिषद् काल में तो यह वैदिक शिक्षा के मुख्य केन्द्र के रूप में विकसित हुआ। इस नगर में धर्म और दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् रहते थे तथा दूर-दूर से लोग धर्म और दर्शन की शिक्षा प्राप्त करने आते थे। यहाँ बिना किसी भेदभाव के शिक्षा दी जाती थी। उत्तर वैदिक काल में यहाँ कला कौशल एवं सैनिक शिक्षा की भी व्यवस्था हुई।


3. केकय-

केकय तत्कालीन केकय राज्य की राजधानी था। उपनिषद् काल में यह शिक्षा का मुख्य केन्द्र था तथा मिथिला की भाँति यहाँ भी धर्म, दर्शन, अध्यात्म और वेदों की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था थी। केकय नरेश अश्वपति स्वयं बड़े विद्वान् थे तथा विद्वानों का आदर करते थे। वे समय-समय पर राजधानी में विद्वत् सम्मेलन करते थे। यहाँ कला-कौशलों, व्यवसायों और सैनिक शिक्षा की भी उत्तम व्यवस्था थी।


4. प्रयाग-

वैदिक काल में, इस क्षेत्र के गंगातटवर्ती क्षेत्रों में अनेक ऋषि आश्रम थे, जो धर्म और दर्शन की शिक्षा के मुख्य केन्द्र थे। अतः बड़े-बड़े विद्वान् यहाँ अपनी शंकाओं का समाधान करने आते थे। यह स्थान धर्म एवं दर्शन की शिक्षा के केन्द्र के रूप में ही विकसित हुआ।


5. काशी-

यह भारत के पूर्वी भाग में स्थित है तथा प्रारम्भ से ही ऋषियों की तपोभूमि व विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ का मुख्य केन्द्र रहा है। काशी नरेश अजातशत्रु, उपनिषदीय ज्ञान (ब्रह्म विद्या) के पंडित होने के कारण, अपने शासन काल में यहाँ विद्वानों को आमंत्रित किया करते थे और यहाँ आत्मा परमात्मा तथा ब्रह्म के स्वरूप के विषय में शास्त्रार्थ कराया जाता था। तभी से यह केन्द्र विभिन्न मतों की शिक्षा और शास्त्रार्थ के केन्द्र के रूप में विकसित हुआ।


6. काँची-

काँची दक्षिण भारत का एक तीर्थ स्थान है तथा भारत के नक्शे में काँजीवरम् नाम से अंकित है। उत्तर वैदिक काल में यहाँ वेदों के विद्वानों ने पहुँचकर लोगों को वैदिक धर्म और दर्शन की शिक्षा देना शुरू कर दिया था। तब से लेकर आज तक यह ब्राह्मणीय शिक्षा का मुख्य केन्द्र बनकर विकसित हो रहा है।


वैदिक शिक्षा प्रणाली का मूल्यांकन (EVALUATION OF VEDIC EDUCATION SYSTEM)


वैदिक शिक्षा प्रणाली के प्रमुख गुण (Merits of Vedic Education System)


वैदिककालीन शिक्षा प्रणाली को अपने देश में भारत की वर्तमान परिस्थितियों, आवश्यकताओं सम्भावनाओं और आकांक्षाओं की दृष्टि से देखने व समझने पर इसमें निम्नलिखित गुण परिलक्षित होते हैं-


1. निःशुल्क शिक्षा (Free Education)-

वैदिक काल में गुरुकुलों में शिष्यों से किसी भी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता था तथा शिष्यों के आवास, भोजन व वस्त्रादि की व्यवस्था भी निःशुल्क होती थी। इन पर हुये व्यय की पूर्ति समाज के सम्पन्न वर्ग द्वारा प्राप्त दान, भिक्षाटन व गुरुदक्षिणा से ही होती थी। आज भी संसार के सभी देशों में एक निश्चित स्तर तक की शिक्षा निःशुल्क है।


2. शिक्षा का व्यापक अर्थ (Broad Meaning of Education) -

वैदिक काल में, गुरुकुल शिक्षा पूरी करने के बाद भी छात्रों को आलस्य न करने की शिक्षा दी जाती थी। अतः वे जीवन में अन्य कार्यों को करते हुये भी निरन्तर ज्ञानार्जन करने का प्रयास करते थे। अतः वैदिक शिक्षा पद्धति शिक्षा से सम्बन्धित उन समस्त पक्षों पर विचार करती है, जिनका सामना मनुष्य को अपने जीवन में समय-समय पर करना पड़ता है। अतः इसका स्वरूप व्यापक है। आज भी संसार के प्राय: सभी देशों में सतत् शिक्षा की व्यवस्था है।


3. शिक्षा के व्यापक उद्देश्य (Broad Aims of Education)-

वैदिक काल में शिक्षा द्वारा मनुष्यों का शारीरिक व मानसिक विकास किये जाने के अतिरिक्त उन्हें सामाजिक एवं राष्ट्रीय कत्र्तव्यों का बोध कराकर उनका नैतिक व चारित्रिक विकास भी किया जाता था। उन्हें व्यावसायिक शिक्षा के साथ ही आध्यात्मिक विकास हेतु भो प्रेरित किया जाता था। परन्तु सर्वाधिक बल ज्ञान के विकास, चरित्र निर्माण और आध्यात्मिक विकास पर दिया जाता था। अतः शिक्षा प्राप्ति के उद्देश्य भी व्यापक थे।


4. शिक्षा की व्यापक पाठ्यचर्या (Broad Curriculum of Education) -

वैदिक काल में मनुष्य के प्राकृतिक, सामाजिक व आध्यात्मिक तीनों पक्षों के विकास पर बल दिये जाने के कारण, इन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु पाठ्यचर्या में परा (आध्यात्मिक) व अपरा (भौतिक) दोनों प्रकार के विषयों और क्रियाओं को स्थान दिया जाता था। अतः शिक्षा के बहुपक्षीय उद्देश्यों के कारण शिक्षा को पाठ्यचर्या अतिव्यापक थी।


5. व्यक्ति का सर्वांगीण विकास (All round Development of a Person) -

वैदिककालौन शिक्षा मनुष्य को वास्तविक मानव धर्म, अध्यात्म, ज्ञान-विज्ञान और निदिध्यासन के माध्यम से जीवन की सर्वोच्च उपलब्धियों को प्राप्त करने का अवसर प्रदान कर जीवन के चरम लक्ष्य 'मुक्ति' हेतु प्रेरित करती है। इस प्रकार यह शिक्षा व्यक्ति की आन्तरिक शक्तियों का विकास करने के साथ उसका सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि से भी विकास करती है, जिससे व्यक्ति का सर्वांगीण विकास सम्भव होता है।


6. बाह्य नियंत्रण से मुक्त स्वायत्त शिक्षा (Education Free from External Control) -

वैदिककालीन शिक्षा पद्धति किसी प्रकार के समाज, राज्य अथवा बाहरी नियंत्रण को स्वीकार नहीं करती थी। गुरुकुल में शिक्षा पर आचार्य का पूर्ण उत्तरदायित्व व नियंत्रण होने के कारण यह पूरी तरह स्वायत्त शिक्षा यो, क्योंकि शिक्षा सम्बन्धी समस्त गतिविधियों पर गुरु स्वतंत्र निर्णय ले सकते थे।


7. विशिष्ट शिक्षा (Special Education)-

उच्च शिक्षा में विशिष्टीकरण का प्रारम्भ वैदिक काल से हो हो गया था। प्रारम्भिक वैदिक काल में जहाँ यह विशिष्टीकरण छात्रों की योग्यता के आधार पर होता था, वहीं उत्तर वैदिक काल में यह छात्रों के वर्ण के आधार पर होने लगा था। आज भी भारत में छात्रों को उनकी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार विशिष्ट शिक्षा व प्रशिक्षण प्राप्त करने के अवसर दिये जाते हैं।


8. उत्तम व प्रभावी शिक्षण विधियों का विकास (Development of Best and Effective Teaching Methods) -

वैदिक काल में गुरुओं ने शिक्षण की अनेक उत्तम व प्रभावी विधियों का विकास किया, जिनमें व्याख्यान विधि, अनुकरण, प्रश्नोत्तर, विचार-विमर्श व विश्लेषण विधि, श्रवण, मनन, निदिध्यासन, तर्क, प्रयोग एवं अभ्यास तथा नाटक व कहानी विधि प्रमुख हैं। आज मनोविज्ञान ने भी अनेक उत्तम व मनोवैज्ञानिक विधियों की खोज इन्हीं विचारों के कारण की है।


9. धर्म व सामाजिकता का समन्वय (Co-ordination of Religion and Sociality) -

वैदिक शिक्षा धर्म व अध्यात्म प्रधान होने के बावजूद इसके पाठ्यक्रम में अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, न्यायशास्त्र, पशुपालन, भूगर्भ विज्ञान, कृषि, चिकित्सा व सैन्य शास्त्र आदि विषय भी सम्मिलित किये गये थे, जिसमें धर्म, अध्यात्म तथा सामाजिक जीवन से जुड़े कार्यों में समन्वय स्थापित करने के अवसर मिल जाते थे। भिक्षावृत्ति के माध्यम से उन्हें सामाजिक समस्याओं और परिस्थितियों की जानकारी हो जाती थी, जिनके आधार पर वे शुरू से सामाजिकता से सम्बन्धित तथ्यों पर विचार-विमर्श करते थे।


10. गुरु एवं शिष्यों का अनुशासित जीवन (Disciplined Life of Teacher and Students) -

वैदिक काल में गुरुकुलों के कठोर नियमों का गुरु एवं शिष्य दोनों ही पालन करते थे। उस काल में गुरु बहुत अनुशासित जीवन जीते थे व गुरुओं के आदर्श आहार-विहार व आचार-विचार का सीधा प्रभाव शिष्यों पर पड़ता था। फलस्वरूप गुरु एवं शिष्य दोनों ही सादा व अनुशासित जीवन जीते थे।


11. गुरु-शिष्यों के बीच मधुर सम्बन्ध (Good Relationship between Teacher and Disciples) -

वैदिक काल में गुरु और शिष्यों के बीच बहुत मधुर सम्बन्ध थे। गुरु शिष्यों पर प्रेम बरसाते थे तथा शिष्य गुरु पर अगाध श्रद्धा रखते थे। गुरु शिष्यों के सर्वांगीण विकास हेतु प्रयासरत रहते थे, तो शिष्य गुरुओं का आदेश मानने व सेवा करने को तत्पर रहते थे, क्योंकि जब तक शिष्यों में गुरुओं के प्रति श्रद्धा नहीं होगी, तब तक वे उनसे कुछ भी सीख नहीं सकेंगे तथा जब तक गुरु शिष्यों के प्रति समर्पित नहीं होंगे, वे उन्हें कुछ सिखा नहीं पायेंगे। अतः दोनों के मध्य मधुर सम्बन्धों का होना अनिवार्य है।


12. संस्कृति का प्रसार व परिरक्षण (Expansion and Preservation of Culture) -

धर्म अध्यात्म, नैतिकता और संयमित जीवन का जो सांस्कृतिक आदर्श वैदिक युग की शिक्षा द्वारा स्थापित किया गया वह इतना सशक्त, स्थायी व प्रभावी था कि आज भी भारत में वैदिक धर्म दर्शन और उसकी सास्कृतिक विरासत अक्षुण्ण बनी हुई है। आज भी सभी कर्मकाण्ड, रीति-रिवाज या पूजा पद्धति वैदिक संस्कृति के अनुसार ही पूरी की जाती है। इस सांस्कृतिक विरासत के प्रसार व परिरक्षण का एक कारण गुरुकुलों की स्वायत्त कार्य प्रणाली भी है।


13. विशुद्ध भारतीय शिक्षा प्रणाली (Pure Indian Education System) -

वैदिककालीन शिक्षा प्रणाली का सबसे मुलभूत गुण उसका विशुद्ध रूप से भारतीय होना है। इसकी, यही विशेषता आज भी शिक्षाविदों को इसकी वर्तमान समय में प्रासंगिकता पर विचार करने को विवश कर देती है। आज भी इसको कुछ कमियों पर यदि ध्यान न दिया जाये, तो यह प्रणाली निश्चय ही ठोस व सकारात्मक परिणाम दे सकती है।


वैदिक शिक्षा प्रणाली के दोष (Demerits of Vedic Education System)


1. शिक्षा पर राज्य का उत्तरदायित्व न होना (No State, Responsibilities at Education) -

वैदिक काल में शिक्षा पूरी तरह से गुरुओं के अर्थात् व्यक्तिगत नियन्त्रण में थी। परिणामत: शिक्षा का कोई सर्वमान्य स्वरूप नहीं विकसित हो पाया। जन शिक्षा की अवहेलना, स्त्री शिक्षा की उपेक्षा हुई तथा शिक्षा में समान अवसर की उपलब्धता भी सुनिश्चित नहीं हो पाई।


2. शिक्षा की अमनोवैज्ञानिक धारणा (Unpsychological Concept of Education)-

वैदिक काल की शिक्षा, जो कि प्राथमिक व उच्च स्तर में विभाजित थी, बाल व किशोरों के मनोविज्ञान के अनुकूल नहीं थी। मनोवैज्ञानिकों ने आज यह सिद्ध कर दिया है कि बाल व किशोर मनोविज्ञान में बहुत अन्तर होता है, अत: शिक्षा को शिशु, बाल, किशोरों के मनोविज्ञान के आधार पर शिशु शिक्षा, प्राथमिक शिक्षा, उच्च प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा आदि स्तरों में विभाजित करना चाहिये तथा उच्च शिक्षा को भी भिन्न-भिन्न वर्गों-कला, वाणिज्य, कृषि, विज्ञान, तकनीकी आदि में विभाजित करना चाहिये।


3. अव्यवस्थित पाठ्यचर्या एवं रटने पर अधिक बल (Irregular Curriculum and Emphasis on Rote Memorization) -

वैदिक काल में सभी गुरुकुलों की पाठ्यचर्या भिन्न-भिन्न थी। इसका एक कारण शिक्षा पर किसी तरह का बाह्य नियन्त्रण न होना भी था, जबकि किसी भी स्तर की शिक्षा की पाठ्यचर्या का पूर्व निश्चित होना अधिक अच्छा होता है। इसके साथ ही मुद्रण कला का विकास न होने से, समस्त ज्ञान स्मरण द्वारा ही सुरक्षित रखा जाता था।


अतः गुरुकुलों में भी शिष्यों को समस्त ज्ञान कंठस्थ करना पड़ता था। धर्म, दर्शन, नीतिशास्त्र व अन्य अनुशासनों व क्रियाओं सम्बन्धी श्लोकों को कंठस्थ रखना योग्यता की परख माना जाता था। अतः यह आधुनिक शिक्षा प्रणाली जो कि रटने की बजाये समझने पर बल देती है, की धारणा के विपरीत था।


4. लोकभाषाओं व धर्म निरपेक्ष विषयों की उपेक्षा (Negligence of Vernacular and Secular Subjects)-

वैदिक कालीन शिक्षा पूर्णतया केवल संस्कृत के अध्ययन व अध्यापन पर आश्रित होने के कारण अन्य लोक भाषाओं की उपेक्षा का कारण बनी। जिसमें अन्य भाषाओं की प्रगति न हो सकी। इसके साथ ही भारतीय शिक्षा के धर्म का आधारभूत स्थान होने से, धर्म निरपेक्ष विषयों की भी उपेक्षा हुई।


5. शूद्रों की शिक्षा की उपेक्षा (Negligence of Shudra's Education)-

भारत में शूदों को हेय दृष्टि से देखे जाने के कारण, प्राचीन भारतीय शिक्षा के द्वार उनके लिये बंद थे। इस प्रकार उनकी शिक्षा की न केवल उपेक्षा की गई बल्कि उन्हें शिक्षा प्राप्ति के अधिकार से वंचित रखकर उनके प्रति घोर अन्याय भी किया गया।


6. जनसाधारण की शिक्षा व स्त्री शिक्षा की उपेक्षा (Negligence of Mass Education and Women Education)- 

उत्तर वैदिक काल में वर्णानुसार कर्म की शिक्षा देना और शूद्रों को उनके अधिकार से वंचित कर देना ही जन शिक्षा का विरोधी कदम था। जबकि एक लोकतांत्रिक प्रणाली में एक निश्चित स्तर तक सभी को निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिये। इसी प्रकार पुरुषों व स्त्रियों के लिये समान शिक्षा की व्यवस्था न किये जाने से भी स्त्री शिक्षा की धोर उपेक्षा हुई व स्त्री शिक्षा के महत्त्व को नकार दिया गया।


7. अप्राकृतिक, अमनोवैज्ञानिक व कठोर अनुशासन (Unnatural, Unpsychological and Hard Discipline) -

वैदिक शिक्षा पद्धति का मुख्य दोष अप्राकृतिक व अमनोवैज्ञानिक अनुशासन था, अतः इसका स्वरूप कठोर था। इसका कारण संभवतः उस समय के गुरुओं का मनोविज्ञान के ज्ञान से परिचित न रहना था। शिक्षा तो एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके लिये सीखने वाले का तत्पर होना अति आवश्यक है।


जब शिक्षा छात्रों की रुचियों, क्षमताओं, आवश्यकताओं और अभियोग्यताओं को ध्यान में रखकर दी जायेगी, तो उनके समक्ष अनुशासन की समस्या नहीं रहेगी, क्योंकि ऐसी स्थिति में उनमें गुरु से असहमति की कोई संभावना ही नहीं रहेगी। जिसके कारण कठोर अनुशासन की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।


8. धर्म को अत्यधिक महत्त्व व विचार स्वातन्त्र्य का अभाव ( Importance to Religion and Lack of Freedom of Thoughts)-

वैदिककालीन शिक्षा में धर्म को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता था। शिक्षा की सम्पूर्ण संरचना धार्मिक आदर्शों पर आधारित होने के कारण शिक्षा के विषय, उद्देश्य व पाठ्यक्रम का निर्धारण धर्म के अनुसार ही किया जाता था, जिसमें छात्रों का अधिकांश समय धर्मशास्त्रों के अध्ययन व कर्मकांडों में ही बीत जाता था।


धर्म को इतना अधिक महत्त्व दिये जाने के कारण ही उनमें यह प्रवृत्ति विकसित हो गई थी कि धर्मशास्त्रों में लिखी बातें ही पूर्णतः सत्य हैं। अत: इन्हीं के अनुसार निष्काम कर्म करने और अपनी इच्छाओं का दमन करने के कारण ही छात्रों में विचार स्वातन्त्र्य का अभाव था।


9. हस्तकार्य व शारीरिक श्रम के प्रति घृणा (Hatred for Hand Work and Physical Labour) -

प्राचीन भारतीय शिक्षा में धार्मिक शिक्षा के अत्यधिक महत्त्व के कारण लौकिक शिक्षा की घोर उपेक्षा हुई। अतः अध्ययन केन्द्रों में लौकिक शिक्षा से सम्बन्धित हस्तकार्यों को कोई स्थान प्राप्त नहीं हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि उच्च वर्ग के छात्र जो इन अध्ययन केन्द्रों पर शिक्षा प्राप्त करते थे, का इन कार्यों से कोई सम्पर्क नहीं रहा, जबकि निम्न वर्ग के व्यक्तियों को इन कार्यों की शिक्षा अपने परिवारों में प्राप्त होती रही। अतः उच्च वर्ग के छात्र इस हस्तकार्य व शारीरिक श्रम को हेय दृष्टि से देखते थे।


वैदिक शिक्षा में उपर्युक्त दोषों के अतिरिक्त कुछ सामान्य दोष भी थे जो निम्न प्रकार हैं-


1. शास्त्रों को प्रधानता दिये जाने से व विचार स्वातन्त्र्य के अभाव से छात्रों में तर्क, चिन्तन व कल्पना शक्ति का विकास न हो सका, जिससे आगे चलकर शिक्षा अधिक संकुचित व रूढ़िवादी बन गई। 


2. यद्यपि शिक्षा प्रजातन्त्र पर आधारित थी, किन्तु इसकी आड़ में स्वेच्छाचारिता की भावना के विकास ने जनतन्त्र की भावना का दुरुपयोग करके विलासिता व भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया।


3. अहिंसा व शान्ति को प्रधानता दिये जाने के कारण राष्ट्र की सैन्य शक्ति के निर्माण व अस्त्र-शस्त्र निर्माण पर जोर नहीं दिया गया। फलस्वरूप देश, विदेशी आक्रमणकारियों का सामना करने में विफलता का अनुभव करने लगा।


4. जाति-पाँति के भेदभाव के कारण निम्न वर्ग को हेय दृष्टि से देखा जाता था। अतः निम्न वर्ग अज्ञानता के कारण पिछड़ी दशा में था।


इस विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि प्राचीन भारतीय शिक्षा में अत्यन्त गम्भीर दोष थे, जिसके कारण ही कालान्तर में समयानुकूल न होने के कारण इसका ह्रास होता गया। डॉ. एफ. ई. केई के अनुसार -"प्राचीन भारतीय शिक्षा में अनेक दोष थे। इस शिक्षा को नवीन गति प्रदान करने और रूपान्तरित करने हेतु किसी प्रकार के नवजीवन की आवश्यकता थी।"


वैदिक शिक्षा प्रणाली का मूल्यांकन तथा आधुनिक समाज के लिये ग्रहणीय तत्त्व (EVALUATION OF VEDIC EDUCATION SYSTEM IN RESPECT OF MODERN INDIA AND ACCEPTABLE ELEMENTS FOR MODERN SOCIETY)


यदि हम आधुनिक शिक्षा व्यवस्था पर दृष्टिपात करें तो हमें ज्ञात होता है कि शिक्षा व्यवस्था ने बालक के विकास व इस विकास प्रक्रिया में स्वयं को समझने, परिवार में उसके स्थान तथा समाज के प्रति कर्त्तव्यबोध, जैसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों को खो दिया है। आज की शिक्षा व्यवस्था बच्चे को पूरी दुनिया का ज्ञान प्रदान करने का प्रयास करती है, पर बड़े दुःख की बात है कि शिक्षा हमें अपने स्वयं के बारे में कुछ नहीं बताती, उस समाज के बारे में कुछ नहीं बताती जिसका हम एक हिस्सा हैं।


हम स्वयं अपने विषय में जाने बिना किसी और के बारे में कैसे जान सकते हैं ? आज छात्र अपने स्वयं के लिये व समाज के लिये अजनबी बन गया है। इस हास का कारण आधुनिक विद्यालयी शिक्षा व्यवस्था है, जो हमें अनेक क्षेत्रों में विकास व प्रगति करने का अवसर तो देती है, किन्तु उसकी मानवता व सहयोग से रहने की भावना को दाँव पर लगाकर।


आज समाज में गर्व के साथ बच्चों की उच्च शैक्षिक उपलब्धि व तीव्र प्रतिस्पर्धा की चर्चा तो की जाती है, परन्तु उनमें वफादारी, ईमानदारी, हिम्मत, लगन, धैर्य व आत्मनियन्त्रण जैसे गुण विकसित करने का प्रयास नहीं किया जाता है। अत: वर्तमान शिक्षा गुणात्मकता की तुलना में परिमाणात्मक अधिक है। छात्रों की अनुशासनहीनता, मूल्यों व आदर्शों की कमी को देखते हुये आज प्राचीन शिक्षा व्यवस्था को पुनः यथावत् लागू करना आवश्यक है, क्योंकि वैदिक शिक्षा प्रणाली के अनेक तत्त्वों को आधुनिक शिक्षा में शामिल किया जा सकता है, जो निम्न प्रकार हैं-


1. आधुनिक समाज में,

आज धन की अपेक्षा चरित्र को, भौतिकता की अपेक्षा आध्यात्मिकता को, विज्ञान की अपेक्षा दर्शन को बेहतर समझा जाता है तथा धर्म, ईश्वर, निष्काम कर्म, प्रेम, सत्य, अहिंसा एवं त्याग को महत्त्व दिया जाता है। अतः हमें वैदिककालीन शिक्षा में निहित आदर्शवादिता के गुण को आधुनिक शिक्षा के मूल सिद्धान्त के रूप में अपनाना होगा तथा जीवन निर्माण, चरित्र निर्माण, सादा भोजन व उच्च विचार को शिक्षा में महत्त्वपूर्ण स्थान देना होगा।


2. वैदिक काल में शिक्षा में मनुष्य के प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक तीनों पक्षों के विकास पर जोर दिया जाता था और इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये पाठ्यचर्या में भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकार के विषयों एवं क्रियाओं को स्थान दिया जाता था। आधुनिक शिक्षा में इस विशेषता को अपनाया जा सकता है तथा मनुष्य के आध्यात्मिक तथा भौतिक विकास के लिये व्यापक प्रयास किया जा सकता है।


3. वैदिक काल की एक विशेषता विशिष्टीकरण है।

प्रारम्भिक वैदिक काल में यह विशिष्टीकरण छात्रों की योग्यता के आधार पर होता था, लेकिन उत्तर वैदिक काल में यह छात्रों के वर्ण के आधार पर होने लगा था। आधुनिक शिक्षा में भी यह विशेषत: छात्रों की योग्यता तथा क्षमता के अनुसार ग्रहण की जा सकती है।


4. वैदिककालीन शिक्षा की सबसे प्रमुख विशेषता गुरु शिष्यों के बीच मधुर सम्बन्ध है। वैदिक काल में गुरु शिष्यों की सम्पूर्ण देखभाल करते थे और उनके सर्वांगीण विकास हेतु परिश्रम करते थे। आज के इस भौतिकतावादी युग में वैदिककालीन गुरु शिष्य सम्बन्ध तो स्थापित नहीं किये जा सकते, परंतु यह आशा की जा सकती है कि गुरु शिष्यों के प्रति समर्पित रहें, उनके विकास की ओर प्रयत्नशील हों तथा शिष्य भी गुरुओं का आदर करें।


5. वैदिककालीन शिक्षा की एक विशेषता इसका व्यापक उद्देश्य है। उस काल में शिक्षा द्वारा मनुष्यों का शारीरिक व मानसिक विकास किया जाता था तथा उन्हें सामाजिक एवं राष्ट्रीय कर्त्तव्यों का बोध कराया जाता था। आधुनिक शिक्षा में इस विशेषता को अपनाया जाना चाहिये तथा शिक्षा में बच्चों के नैतिक एवं चारित्रिक विकास पर सर्वाधिक बल देना चाहिये।


6. वैदिक काल में शिक्षा में राज्य तथा समाज की भागीदारी थी। शिक्षा राज्य का उत्तरदायित्व न होकर गुरुजन, राजा (राज्य) और प्रजा (धनी वर्ग) दोनों को शिक्षा की व्यवस्था करने के लिये प्रेरित करते थे। आज भी हमारे समाज, समाज के सहयोग के बिना राज्य अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह नहीं कर पा रहा है।


7. शिक्षा को विभिन्न स्तरों में विभाजित करने का शुभारम्भ वैदिककालीन शिक्षा संगठन की ही देन है। उस काल में शिक्षा का संगठन केवल दो स्तरों पर किया गया था, प्राथमिक तथा उच्च। परन्तु शिक्षा को विभिन्न स्तरों में विभाजित करने की नींव उसी काल में रख दी गयी थी। उसी नींव के आधार पर आज शिक्षा विभिन्न स्तरों- शिशु शिक्षा, प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा तथा उच्च शिक्षा आदि में विभाजित है।


8. वैदिककालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषता-शिक्षा के सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक उद्देश्यों का निर्माण, आज भी हमारे देश की शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य हैं। इन उद्देश्यों के अनुसार ही शिक्षा द्वारा मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं चारित्रिक, व्यावसायिक व आध्यात्मिक विकास किया जाता है। समय की माँग के अनुसार इनमें दो उद्देश्य और जोड़े गये हैं-राष्ट्रीय एकता व अन्तर्राष्ट्रीय अवबोध का विकास।


9. वैदिककालीन शिक्षा के प्रारम्भ से ही हमारे देश भारत में शिक्षण की अनेक उत्तम विधि ायाँ- अनुकरण, व्याख्यान, प्रश्नोत्तर, विचार विमर्श, तर्क, नाटक और कहानी का विकास हो चुका था। श्रवण, मनन, निदिध्यासन विधि का विकास हो चुका था और शिक्षण को रोचक व प्रभावी बनाने पर बल दिया जाता था। आज भी मनोविज्ञान के ज्ञान और विज्ञान एवं तकनीक के आविष्कारों के आधार पर विकसित विधियाँ, गहनता से विचार करने पर वैदिक गुरुओं की ही देन नजर आती हैं।


10. अनुशासन के सही सम्प्रत्यय का विकास भी वैदिक काल की ही देन है।

प्रारम्भिक वैदिक काल में अनुशासन से तात्पर्य शारीरिक, मानसिक व आत्मिक संयम से था व उत्तर वैदिक काल में गुरुओं के आदेशों और गुरुकुल के नियमों के पालन से था। आज इस वैदिककालीन अनुशासन के प्रत्यय को दो भागों में विभाजित कर दिया गया है-बाह्य अनुशासन (नैतिक नियमानुसार आचरण) और आन्तरिक अनुशासन (नैतिक नियमों के लिये स्वीकृति और उसके अनुसार आचरण करने की आन्तरिक प्रेरणा) यह हमारी आधुनिक शिक्षा को वैदिककालीन शिक्षा की ही देन है।


11. वैदिक काल में प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था परिवारों में और उच्च शिक्षा की व्यवस्था गुरुकुलों में होती थी। आज भी विभिन्न प्रकार की शिक्षा के लिये विशेष शिक्षण संस्थानों का निर्माण इसी बात को ध्यान में रखकर किया जाता है और भिन्न-भिन्न स्तरों की शिक्षा व्यवस्था, विभिन्न प्रकार के विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों, व्यावसायिक महाविद्यालयों आदि में होती है, जिसकी नींव वैदिक काल में ही रख दी गई थी।


12. आधुनिक युग में जन शिक्षा के महत्त्व को स्वीकृति मिलने का सम्प्रत्यय भी प्रारम्भिक वैदिक काल की ही देन है, क्योंकि उस काल में शिक्षा का अधिकार सभी को प्राप्त था। हालांकि अपवादस्वरूप गुरुकुलों में शूद्रों को शिक्षा प्राप्ति के अधिकार से वंचित कर दिया गया था।


13. वैदिक काल में

स्त्री-पुरुषों की शिक्षा में किसी प्रकार का भेद नहीं किया जाता था, परन्तु स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त करने की समान सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थीं। आधुनिक काल में भी स्त्री-पुरुषों की शिक्षा में किसी प्रकार का भेद नहीं किया जाता है। परन्तु इसकी नींव वैदिक काल में ही रखे जाने से हमें वैदिककालीन ऋषियों व गुरुओं का ऋणी होना चाहिये।


14. वैदिक काल में आज की व्यावसायिक शिक्षा को कर्मशिक्षा कहा जाता था व छात्रों की योग्यता व क्षमता के अनुसार यह शिक्षा उन्हें उपलब्ध होती थी। आज की लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली में भी सभी मनुष्यों को अपनी योग्यता एवं क्षमतानुसार किसी भी प्रकार की व्यावसायिक शिक्षा का अधिकार प्राप्त है।


15. वैदिक काल में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा पर बहुत अधिक बल दिया जाता था। आधुनिक युग में धार्मिक व नैतिक शिक्षा के अभाव में हमारा नैतिक व चारित्रिक पतन होता देखकर, देश में पुनः धार्मिक व नैतिक शिक्षा की आवश्यकता अनुभव हुई व इसे अनिवार्य कर दिया गया है।


16. भारत की आधुनिक शिक्षा प्रणाली में संस्कृत की उपेक्षा की गई है। जबकि अन्य विषयों पर अत्यधिक ध्यान दिया गया है। वस्तुतः संस्कृत भाषा और साहित्य में, मानवता और विश्व भ्रातृत्व की ऐसी अमूल्य निधियाँ हैं, जिनकी न केवल भारत के पाठ्यक्रम में, वरन् सभी देशों के पाठ्यक्रम में आवश्यकता है। प्राचीन काल की शिक्षा प्रणाली से उन महत्त्वपूर्ण तत्वों को भी ग्रहण किया जा सकता है, जो आधुनिक भारत के नैतिक, राष्ट्रीय और सांस्कृतिक भावना में योगदान प्रदान कर सकते हैं।


उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वैदिक युगीन शिक्षा पद्धति विश्व की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा पद्धति कहलाने के लिये पूर्ण सक्षम है, यदि उसमें से कुछ दोषों को निकाल दिया जाये। वैदिक शिक्षा पद्धति गुणों की खान है तथा एक आदर्श व श्रेष्ठतम शिक्षा प्रणाली है। यदि इसे भारत की सम्पूर्ण जनसंख्या तक मनोवैज्ञानिक एवं प्राकृतिक रूप से पहुँचा दिया जाये तो यह भारत को एक बार पुनः सर्वोच्च शिखर पर पहुँचाने के साथ ही पूरे विश्व के लिये अनुकरणीय बन जायेगी।


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