वैदिक कालीन शिक्षा के स्वरूप, आदर्श, उद्देश्य एवं मूल्यांकन

वैदिक कालीन शिक्षा के स्वरूप, आदर्श, उद्देश्य एवं मूल्यांकन ( Nature, ideals, objectives and evaluation of Vedic period education )

वैदिक कालीन शिक्षा का स्वरूप 

वैदिक शिक्षा पद्धति वेदों पर ही आधारित है और वैदिक साहित्य के अन्तर्गत वैदिक संहिता . ब्राह्मण व आरण्यक ( उपनिषद ) ग्रंथों की भी गणना है । वेद न केवल भारत के लिए अपितु सारे संसार हेतु प्राचीन साहित्य है। डॉ० भगवतशरण उपाध्याय ने तो ऋग्वेद को प्राचीनतम ग्रंथ मानते हुए उसका रचनाकाल लगभग 3000 ई० पू० और 1415 ई० पू० के मध्य माना है।


आचार्य सायण ने कृष्ण यजुर्वेद के भाष्य की भूमिका में वेद का अर्थ बताया है ' वेद वह है ज इष्ट प्राप्ति व अनिष्ट वस्तुओं के दूरीकरण का अलौकिक उपाय बताने वाला हो। 'वेद' शब्द ‘विद’ धातु से बना है जिसका कि अर्थ ' जानन ' अर्थात् ज्ञान ही है ।


आर्यों का समस्त ज्ञान भंडार वेद ही है । वेद में गद्य भाग भी है पर मूलतः उसमें पद्म भाग की ही अधिकता है । वैदिक गद्य को यजुष , पद्म को ऋचा व गीतात्मक पद्य को साम माना जाता है तथा वेद में तीन प्रकार के पदों के होने के कारण ही वेद ' त्रयी ' भी कहलाते हैं । ऋचाओं व सामों का एक समूह ' सूक्त ' कहलाता है और ' सूक्त ' का शाब्दिक अर्थ उत्कृष्ट उक्ति या सुभाषित होता है ।


वेद व्यास ने वैदिक सूक्तों को संहिता रूप में संगृहीत किया और उनके द्वारा संकलित वैदिक संहितायें चार हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद इनमें ऋग्वेद प्राचीन है । उनमें 1,017 सूक्त हैं । ऋग्वेद 10 मंडलों में विभक्त है । प्रत्येक सूक्त व वाचा मंत्र के साथ उनके ऋषि और देवता का नाम भी दे दिया गया है । यजुर्वेद के शुक्ल यजुर्वेद व कृष्ण यजुर्वेद नामक दो प्रधान रूप उपलब्ध हैं और शुक्ल यजुर्वेद को वाजसनेयी संहिता भी कहते हैं । तीसरे वेद के अतिरिक्त चतुर्थ वेद अथर्ववेद है । इसमें बहुत कुछ मौलिकता है ।


वैदिक शिक्षा पद्धति

वैदिक युग में शिक्षा का स्वरूप मौखिक ही था। वैदिक शिक्षा पद्धति के दो रूप थे-


1. ऋग्वैदिक मंत्रों का सृजन हुआ और 

2. दूसरे के द्वारा इनका संरक्षण प्रथम का सम्बन्ध चिन्तन में था और दूसरे का स्मरण की बाह्यात्मक पद्धतियों से तथा प्रथम के द्वारा नूतन का अन्वेषण निर्धारण हो सका जबकि द्वितीय के द्वारा उनका संरक्षण, संवर्द्धन व प्रसरण सम्भव हुआ । वैदिक काल में आचार्यों-गुरुओं को सर्वप्रथम देव रूप में प्रतिष्ठित किया गया।


अग्निप्रचेता ( विशेष ज्ञानी ), विश्ववेदा ( सर्वज्ञ ), जानवेदा ( जो कुछ उत्पन्न हुआ उसे जानने वाला ), धियावसु ( जिसकी बुद्धि ही धन है ), सत्यजन्मा ( सत्य को जानने वाला ), विश्वानि वयुनानि विद्वान ( विविध विद्याओं को जानने वाला ), धीनां यन्ता ( बुद्धि को प्रगति देने वाला ) आदि विशेषण भी उपलब्ध होते हैं ।



प्राचीन काल में विद्यार्थी इस जगत् के सम्पूर्ण विप्लव और विद्रोह से प्रकृति की रमणीय गोद में अपने गुरु के चरणों में बैठकर जीवन की समस्याओं का श्रवण, मनन और चिन्तन करता था। पर्वत की चोटी पर पड़ी हुई प्रथम हिम कणिकाओं की भाँति उसका जीवन पवित्र था जीवन उसके लिए प्रयोगशाला था। सत्य की केवल मानसिक अनुभूति , एक तर्कपूर्ण विचारधारा पर्याप्त नहीं यद्यपि प्रथम सीढ़ी के रूप में एक उद्देश्य बिन्दु के समान आवश्यक है । ' ऐसा भारतीयों का विश्वास था।


प्राचीन भारतीय विद्यार्थी ने प्रत्यक्ष रूप में महान सत्य की अनुभूति की ओर समाज का निर्माण उसी के अनुरूप किया । ही विद्यार्थी वेद पाठ आरम्भ कर देते थे। मंत्र प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में पक्षियों के जागने से गान एक ललित कला के रूप में विकसित हो गया था। गुरु के अधरों से प्राप्त किया हुआ ज्ञान ही शुद्ध वैदिक ज्ञान समझा जाता था अर्थात् पद्धति मौखिक थी। ऋग्वैदिक आर्यों को लेखने कला की जानकारी नहीं थी पर ऋग्वेद में न केवल अक्षर शब्द का प्रयोग मिलता है अपितु आरा लेखन यंत्र का भी संकेत है । 


वैदिक कालीन शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्श

प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श निम्नवत थे-


1. ईश्वर भक्ति एवं धार्मिकता

वैदिक शिक्षा में धर्म का प्रमुख स्थान था इसीलिए धार्मिकता की भावना को विकसित करने के लिए शिक्षा को माध्यम बनाया गया । इस युग में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना था । डॉ० आर० के० मुकर्जी के अनुसार, " भारत में विद्या तथा ज्ञान की खोज केवल ज्ञान प्राप्ति के लिए ही नहीं हुई , अपितु उनका विकास धर्म के एक आवश्यक अंग के रूप में हुआ । वे धर्म के मार्ग पर चल कर मोक्ष प्राप्ति या आत्म - ज्ञान का एक क्रमिक प्रयास माने गये ।


अतः इस प्रकार जीवन के चरम उद्देश्य प्राप्ति का माध्यम शिक्षा को बना दिया गया यह उद्देश्य या मोक्ष या मुक्ति। धार्मिक भावना के विकास के लिए विभिन्न प्रकार के संस्कारों का आयोजन किया गया था। विद्यार्थी जीवन में यज्ञ , संध्या, हवन, प्रार्थना, धार्मिक प्रवचन, व्रत तथा उपवास को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया था। गुरुकुल की समस्त दिनचर्या धार्मिकता की भावना से ओत - प्रोत थी । इस प्रकार वैदिक शिक्षा का सर्वोपरि उद्देश्य आत्म - बोध प्राप्त करके मोक्ष या मुक्ति प्राप्त करना था । " 


2. चरित्र निर्माण

वैदिक शिक्षा का दूसरा महत्त्वपूर्ण उद्देश्य चरित्र निर्माण करना था । प्राचीन शिक्षाशास्वी आचरण की शुद्धता तथा चरित्र - बल पर विशेष बल देते थे । मनुस्मृति में स्पष्ट रूप से लिखा है- “ केवल गायत्री मंत्र का ज्ञान रखने वाला सच्चरित्र ब्राह्मण, समस्त वेदों के ज्ञाता चरित्रहीन विद्वानों से कहीं श्रेष्ठ है । चरित्र - निर्माण के लिए आत्मसंयम , नियंत्रण , इन्द्रिय - निग्रह तथा ब्रह्मचर्य व्रत के पालन पर अत्यधिक जोर दिया जाता था । विद्यार्थी जीवन में सादगी पर अत्यधिक जोर दिया जाता था। गुरु भी चरित्र - विकास के निमित्त निरन्तर सदाचार के उपदेश देते थे । " -


3. व्यक्तित्व का विकास

व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास भी शिक्षा का एक प्रमुख आदर्श था। सर्वांगीण विकास का तात्पर्य है- शरीर , मन तथा आत्मा का संतुलित तथा समरूप विकास करना। छात्रों में आत्म-विश्वास, आत्म-सम्मान की भावना, आत्म - संयम, विवेक, आत्म-निग्रह आदि गुणों का विकास किया जाता था जिससे उनके व्यक्तित्व का सम्यक् विकास हो सके । छात्रों के शारीरिक विकास के लिए व्यायाम, प्राणायाम, सूर्य नमस्कार तथा योग आदि की व्यवस्था थी । बौद्धिक विकास के लिए उनकी जिज्ञासा की प्रवृत्ति को जाग्रत किया जाता था और आध्यात्मिक विकास के लिए धार्मिक साहित्य का अध्ययन अनिवार्य था । 


4. नागरिक ' सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन

वैदिक शिक्षा का चौथा प्रमुख उद्देश्य नागरिक तथा सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन था। छात्रों को भावी राष्ट्र का निर्माता समझा जाता था। अतः उसे परोपकारिता तथा सामाजिकता की शिक्षा दी जाती थी । समावर्तन संस्कार के समय गुरु दीक्षान्त भाषण में नागरिक तथा सामाजिक कर्त्तव्यों की व्याख्या करता था। गुरुकुलों में छात्रों को प्रारम्भ से ही परोपकार, अतिथि सत्कार, गरीबों की सेवा आदि विषयों की शिक्षा दी जाती थी जिससे कि वे आगे चलकर समाज के उपयुक्त तथा उपयोगी नागरिक बन सकें। 


5. सामाजिक सुख और कौशल की उन्नति

शिक्षा का उद्देश्य व्यावहारिक क्षेत्र में कुशल नागरिकों का निर्माण करना था । वैदिक शिक्षा में केवल छात्रों के आध्यात्मिक विकास पर ही जोर नहीं , दिया जाता था बल्कि भौतिक तथा व्यावसायिक सुख की प्राप्ति पर भी ध्यान दिया जाता था । शिक्षा द्वारा छात्रों में व्यावसायिक क्षमताओं का भी विकास किया जाता था जिससे वे स्वतंत्र रूप से जीविकोपार्जन कर सकें । 


6. राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसारण

यह वैदिक शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य था । शिक्षा द्वारा विद्यार्थी अपने पूर्वजों की संस्कृति आत्मसात् करता था । इसके बाद वह अपने पूर्वजों की सांस्कृतिक परम्पराओं का संरक्षण तथा प्रसारण भी करता था। शिक्षा के द्वारा वर्षों तक देश की चेतना का अस्तित्व बना रहा। वैदिक काल से लेकर निरन्तर आज तक शिक्षित वर्ग अपने ज्ञान के द्वारा भावी पीढ़ी को शिक्षित करता रहा। इस प्रकार सहस्रों वर्षों तक वेदों के अलिखित रहने पर भी उनका अस्तित्व अक्षुण्ण बना रहा।


वैदिककालीन एवं मध्यकालीन शिक्षा में अंन्तर

मध्यकालीन शिक्षा

1. शिक्षा का स्वरूप सामूहिक था । 

2. ' नारी ' शिक्षा की उपेक्षा थी । 

3. मुस्लिम शिक्षा कट्टर थी । 

4. छात्रों का जीवन सुविधापूर्वक होता था । 

5. शिक्षा का मुख्य उद्देश्य राजसुख को प्राप्त करना था। 

6. प्रायः शिक्षा मदरसों तथा मकतबों में दी जाती थी । 7 छात्रों की दिनचर्या का स्वरूप राजसी था । यही कारण है कि शिक्षा की प्रकृति ' राजसी ' थी ।


वैदिक कालीन शिक्षा

1. शिक्षा का रूप व्यक्तिगत था । 

2. 'नारी' को शिक्षा में स्थान दिया गया था। 

3. प्राचीन शिक्षा सहिष्णु थी । 

4. प्रायः छात्रों का जीवन कठोर होता था। 

5. शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना था। 

6. गुरु गृह एवं आश्रम ही शिक्षा के केन्द्र थे । 

7. छात्रों की दिनचर्या का स्वरूप सात्विक था। यही कारण था कि शिक्षा की प्रकृति ' सात्विक ' थी ।


इसे भी पढ़ें -

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top