उच्च शिक्षा (HIGHER EDUCATION)
उच्च शिक्षा: भारतीय विश्वविद्यालयों की स्थापना के लगभग डेढ़ शताब्दी बाद अब अगर हम उन पर दृष्टिपात करें, तो मन में यह बात उठे बिना नहीं रहती कि उनके इर्द-गिर्द जो अनगिनत तथा अनूठे अवसर विश्वो पड़े हैं, उनके अनुरूप वे अपने आपको ढाल नहीं पाये। अभी तक तीन बड़े आयोग तथा कई समितियों नियुक्त हो चुकी हैं; फिर भी, वे अभी तक अपने आपको अपने संक्षिप्त इतिहास के जाल से मुक्त नहीं कर पाये हैं।
वे अभी भी परीक्षा संस्थाएँ हैं और उनके छात्र स्वभावतः परीक्षा की सफलता को स्नातक पूर्व जीवन का चरम लक्ष्य मानते हैं। विश्वविद्यालयों की संख्या दिन-रात बढ़ती जा रही है, परन्तु अन्य देशों की अपेक्षा उनके स्तर ऊपर नहीं उठ रहे हैं, और यह जो है सो है ही, इससे भी गम्भीर बात यह है कि विश्वविद्यालय आज भी विदेशी पौधे बने हुए हैं-नवीन भारत से आज भी उनका सामंजस्य नहीं हो पाया है।
उच्च शिक्षा का विकास (DEVELOPMENT OF HIGHER EDUCATION)
आधुनिक भारत में उच्च शिक्षा के विकास का अध्ययन निम्न चरणों में किया जा सकता है; यथा-
1 . कॉलेजों का युग (Era of Colleges),
2. प्रथम विश्वविद्यालयों का युग (Era of First Universities),
3. नवीन विश्वविद्यालयों का युग (Era of New Universities),
4. स्वतन्त्रता का युग (Era of Independence) |
1. कॉलेजों का युग (Era of Colleges, 1757-1857)
सन् 1757 में प्लासी के युद्ध के पश्चात् जब इस देश पर अंग्रेजों का राजनीतिज्ञ प्रभुत्व स्थापित हुआ, तब यहाँ की उच्च शिक्षा अत्यन्त अस्त-व्यस्त दशा में थी। अंग्रेजों ने भारत के हिन्दू एवं मुसलमान शासकों के समान यहाँ के निवासियों के लिये उच्च शिक्षा की व्यवस्था करना अपना कर्त्तव्य समझा। इस दिशा में सबसे पहला कदम वारेन हेस्टिंग्ज ने उठाया, जिसने उच्च शिक्षा के लिये 'कलकत्ता मदरसा' का निर्माण कराया।
'कलकत्ता मदरसा' के निर्माण के उपरान्त सन् 1857 तक उच्च्च शिक्षा के अनेक कॉलेजों को सृष्टि की गई, जिनमें उल्लेखनीय हैं- बनारस संस्कृत कॉलेज, हिन्दू कॉलेज, कलकता, क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास, पचयप्पा कॉलेज, मदास और आगरा कॉलेज।
इस काल में व्यावसायिक कॉलेजों का श्री शिलान्यास किया गया, जिनमें अधिक महत्त्वपूर्ण थे- कलकत्ता मेडिकल कॉलेज, बम्बई मेडिकल कॉलेज और रुड़को इंजीनियरिंग कॉलेज। सन् 1857 में सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत में 27 कॉलेज थे, जिनमें से 23 सामान्य शिक्षा, 3 चिकित्साशास्त्र के और। इंजीनियरिंग का कॉलेज था।
2. प्रथम विश्वविद्यालयों का युग (Era of First Universities, 1857-1916)
सन् 1854 के 'बुड के आदेश पत्र' (Wood's Despatch) के सुझाव के अनुसार सन् 1857 में लन्दन विश्वविद्यालय के आदर्श पर मद्रास, बम्बई और कलकत्ता में विश्वविद्यालयों का शिलान्यास किया गया। उस समय लन्दन विश्वविद्यालय केवल परीक्षा लेने का कार्य करता था। अत: इन तीनों विश्वविद्यालयों का कार्य भी इसी क्षेत्र तक सीमित रहा।
इन्हीं विश्वविद्यालयों के ढंग पर सन् 1882 में पंजाब विश्वविद्यालय की और सन् 1887 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। ये पाँचों विश्वविद्यालय किराये के भवनों में स्थित थे और शिक्षण कार्य से कोई प्रयोजन नहीं रखते थे। ये अपने अधिकार क्षेत्रों में स्थित कॉलेजों को सम्बद्धता (Affiliation) प्रदान करते थे और उनमें अध्ययन करने वाले छात्रों की परीक्षा लेते थे।
इन कॉलेजों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होने के कारण, इस काल में कॉलेज शिक्षा का अत्यन्त द्रुत गति से विस्तार हुआ। सन् 1881-82 में इन कॉलेजों की संख्या 68 थी, जो सन् 1901-02 में यह बढ़कर 179 हो गई। हमारे ध्यान को आकृष्ट करने वाला विश्वविद्यालय का दूसरा सीमा चिन्ह सन् 1902 में लॉर्ड कर्जन द्वारा नियुक्त किया जाने वाला' भारतीय विश्वविद्यालय आयोग' (Indian Universities Commission) है।
इस ' आयोग' को ब्रिटिश भारत में स्थित विश्वविद्यालयों की दशा में भावी सम्भावनाओं की जाँच करने और उनमें सुधार करने के उपायों के विषय में अपने सुझाव देने का आदेश दिया गया। उसके मुझाव को सन् 1904 के 'भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम' (Indian Universities Act) में स्थान प्रदान किया गया।
इस 'अधिनियम' के द्वारा भारतीय विश्वविद्यालयों के कार्यों में विस्तार किया गया और उनके संगठन, प्रशासन एवं अधिकारों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। ये परिवर्तन मुख्यतः 3 रूपों में दृष्टिगोचर हुए-
(1) विश्वविद्यालयों के प्रशासन में सुधार,
(2) उनमें पुस्तकालयों एवं प्रयोगशालाओं की स्थापना, एवं
(3) कॉलेजों पर अधिक कठोर नियन्त्रण हो जाने के कारण शिक्षा के स्तर का उन्नयन। इन वांछनीय परिवर्तनों के बावजूद इस अधिनियम ने नवीन विश्वविद्यालयों की सृष्टि के विचार पर अंकुश लगा दिया। फलस्वरूप, सन् 1916 तक किसी नवीन विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं हुई।
3. नवीन विश्वविद्यालयों का युग (Era of New Universities, 1916-1947)
सन् 1887 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना के पश्चात् सन् 1916 तक किसी विश्वविद्यालय की सृष्टि नहीं हुई। किन्तु, इस अवधि में कॉलेजों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती चली गई। परिणामतः कुछ समय के पश्चात् ऐसी स्थिति आ गई, जब देश के 5 विश्वविद्यालयों (मदास, बम्बई, कलकत्ता, पंजाब और इलाहाबाद) को सब कॉलेजों का भार सम्भालना प्राय: असम्भव हो गया।
इस स्थिति से अवगत होने के कारण लॉर्ड हार्डिंग की सरकार ने सन् 1913 में 'शिक्षा नीति सम्बन्धी सरकारी प्रस्ताव' (Government Resolution on Education Policy) पारित किया। 'प्रस्ताव' में घोषित किया गया कि विश्वविद्यालयों के कार्यभार को हल्का करने के लिये प्रत्येक प्रान्त में एक विश्वविद्यालय की स्थापना की जाये। फलस्वरूप सन् 1917 तक निम्नलिखित 3 विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई- मैसूर विश्वविद्यालय, 1916, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, 1916; और पटना विश्वविद्यालय, 1917।
विश्वविद्यालय शिक्षा का अगला सीमा चिन्ह सन् 1917 का 'कलकत्ता विश्वविद्यालय आहे (Calcutta University Commission) है। इस' आयोग' ने उक्त 'प्रस्ताव' की नीति का समर्थन करते हुए नवीन विश्वविद्यालयों की स्थापना की सिफारिश की।
इस सिफारिश के परिणामस्वरूप सन् 1947 निम्नलिखित विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई-
उस्मानिया विश्वविद्यालय, 1918, ढाका विश्वविद्यालय 1920: अलीगढ़ विश्वविद्यालय, 1921; लखनऊ विश्वविद्यालय, 1921; दिल्ली विश्वविद्यालय 1922; नागपुर विश्वविद्यालय, 1923, आन्ध्र विश्वविद्यालय, 1926: आगरा विश्वविद्यालय, 1927 अन्नामलाई विश्वविद्यालय, 1929, ट्रावनकोर विश्वविद्यालय, 1937; उत्कल विश्वविद्यालय, 194]; सागर विश्वविद्यालय, 1946; और राजपूताना विश्वविद्यालय, 1947।
स्वतन्त्रता काल में उच्च शिक्षा (HIGHER EDUCATION DURING INDEPENDENCE)
हमारे यहाँ उच्च शिक्षा की पद्धति विश्व में सबसे बड़ी पद्धतियों में से एक है। तथापि इसके क्षेत्र में विस्तार और विकास एक समान नहीं रहे हैं। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में अवस्थापना से सम्बनित सुविधाएँ बहुत ही पृथक् पृथक् हैं, जिसकी वजह से अध्यापन और अनुसंधान की कोटि में विभिन्नता आ गई है। विश्वविद्यालयों द्वारा प्रदान किये गये पाठ्यक्रम अक्सर परम्परागत हैं और उनमें से बहुत कम नौकरी तथा वातावरण से सम्बन्धित हैं। मूल्यांकन पद्धति की विश्वसनीयता समाप्त होती जा रही है।
विश्वविद्यालयों के प्रकार (TYPES OF UNIVERSITIES)
भारत में प्रशासन की दृष्टि से दो प्रकार के विश्वविद्यालय देखने को मिलते हैं; यथा-
1. केन्द्रीय विश्वविद्यालय (Central Universities)-
ये विश्वविद्यालय केन्द्र शासित हैं और इनके व्यय एवं प्रबन्ध का सम्पूर्ण भार केन्द्रीय सरकार पर है। इस प्रकार के निम्नलिखित विश्वविद्यालय हैं-
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली; जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली: इन्दिरा गाँधी नेशनल ओपन यूनीवर्सिटी, दिल्ली; जामिया मिलिया, दिल्ली; अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी, अलीगढ़, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस; विश्वभारती, नॉर्थ ईस्टर्न; हिल, यूनिवर्सिटी, शिलांग, यूनीवर्सिटी ऑफ हैदराबाद: पाण्डिचेरी यूनीवर्सिटी, पाण्डिचेरी; नागालैण्ड यूनीवर्सिटी, नागालैण्ड; असम यूनीवर्सिटी, सिल्वर, तथा तेजपुर विश्वविद्यालय, तेजपुर आदि।
2. राज्य विश्वविद्यालय (State Universities)
ये विश्वविद्यालय, राज्य शासित हैं। इनके व्यय एवं प्रबन्ध का सम्पूर्ण भार राज्य सरकारों पर है। उपर्युक्त केन्द्र विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त शेष सब विश्वविद्यालय राज्य विश्वविद्यालय हैं।
उक्त दोनों प्रकार के विश्वविद्यालयों को उनके संगठन के अनुसार तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है; यथा-
I. सम्बद्धक विश्वविद्यालय (Affiliating University)
यह विश्वविद्यालय अपने अधिका क्षेत्र में स्थित कॉलेजों को मान्यता प्राप्त करता है, उन पर नियन्त्रण रखता है, उनके लिये पाठ्यक्रम निर्धारित करता है और उनमें अध्ययन करने वाले छात्रों की परीक्षाओं का आयोजन करता है। इस प्रकार के कुछ विश्वविद्यालय हैं- आगरा, मेरठ, कानपुर आदि।
II. एकात्मक विश्वविद्यालय (Unitary University)
यह विश्वविद्यालय अपने द्वारा नियुक्त किये जाने वाले शिक्षकों को अध्ययन कार्य सौंपता है और इसका विश्वविद्यालय के प्रशासन पर पूर्ण अधिकार होता है। इस प्रकार के कुछ विश्वविद्यालय हैं- अलीगढ़, बनारस और इलाहाबाद।
III. संघात्मक विश्वविद्यालय (Federal University)
इस विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आसपास के अनेक कॉलेज होते हैं और प्रत्येक कॉलेज विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा प्रदान करता है। भारत में इस प्रकार के कुल चार विश्वविद्यालय है: यथा- दिल्ली विश्वविद्यालय, इन्दौर विश्वविद्यालय, बम्बई विश्वविद्यालय और बंगलौर विश्वविद्यालय।
उच्च शिक्षा के उद्देश्य (OBJECTIVES OF HIGHER EDUCATION)
उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में एक विशेष बात यह है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय में उसका संख्यात्मक विकास अत्यन्त त्वरित गति से हुआ है। साथ ही, दूसरी विशेष बात यह है कि उसका विकास आदि से अन्त तक अनियोजित रहा है। परिणामत: शिक्षा का स्तर गिर गया है, छात्रों में ज्ञानार्जन की अभिलाषा नष्ट हो गई है, शिक्षित व्यक्तियों के समक्ष बेरोजगारी की समस्या उपस्थित हो गई है और सर्वोपरि यह - शिक्षा-देश की वर्तमान एवं भावी आवश्यकताओं को पूर्ण करने में असमर्थ हो गई है।
हमारी उच्च शिक्षा की उद्देश्यहीनता एक सर्वविदित तथ्य है। जमाना बदल गया है, देश की - परिस्थितियाँ बदल गई हैं, पर खेद का विषय है कि उच्च शिक्षा का उद्देश्य भारत में अंग्रेज शासकों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये निर्धारित किया था, वह स्वतन्त्रता प्राप्ति के वर्षों बाद भी अपने पुरातन रूप में उच्च शिक्षा पर अपना अखण्ड साम्राज्य स्थापित किये हुए है।
परतन्त्र भारत में इस उद्देश्य के वास्तवित स्वरूप का वर्णन गन्नार मिरडल के अग्रांकित शब्दों में पढ़िये "विश्वविद्यालय की उपाधियाँ, सरकारी नौकरियों के लिये पासपोर्ट थीं। विद्यार्थियों को शिक्षा नौकरी के लिये, न कि जीवन के लिये तैयार करने के सीमित उद्देश्य से प्रदान की जाती थी।"
"University degrees were the passports to government services. Education was imparted with the limited object of preparing pupils to join the service, not for life." -Gunnar Myrdal: Asian Drama Vol. III, p. 164.
जिस प्रकार उच्च शिक्षा परतन्त्र भारत में व्यक्ति को जीवन के लिये तैयार नहीं करती थी, उसी प्रकार स्वतन्त्र भारत में भी नहीं करती है। इसकी पुष्टि के लिये हुमायूँ कबीर के निम्नलिखित शब्दों का अवलोकन कीजिए- "बहुत बार यह कहा गया है कि विश्वविद्यालय में जो शिक्षा दी जाती है, वह व्यक्ति को व्यावहारिक जीवन के लिये तैयार नहीं करती है।"
उपर्युक्त दोनों उदाहरणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि वर्षों से उच्च शिक्षा का केवल एक हो उद्देश्य है-विश्वविद्यालय की उपाधि से अलंकृत होकर, कोई सरकारी या गैर-सरकारी नौकरी गप्त करना। किन्तु छात्रों द्वारा प्राप्त की जाने वाली उपाधियों में श्रेणियों का अन्तर होता है, उनके द्वारा अध्ययन किये जाने वाले विषयों में अन्तर होता है और सर्वोपरि बड़े आमदियों तक उनकी पहुँच में अन्तर होता है। इन सब बातों का परिणाम होता है-थोड़े-से छात्रों का सरकारी या गैर-सरकारी पदों पर नियुक्त हो जाना और अधिकांश का बेरोजगारों के विशाल समूह में सम्मिलित होना।
इस उद्देश्यहीन शिक्षा का सबसे दूषित प्रभाव ग्रामों से नगरों में अध्ययन करने के लिये आने वाले छात्रों पर पड़ता है। इस प्रभाव के सजीव चित्र के दर्शन हुमायूँ कबीर के अग्रांकित शब्दों में कौजिए-"विश्वविद्यालय, गाँवों के योग्य और होनहार युवकों को शहरों में खींच लाते हैं, परन्तु इस प्रकार गाँवों की जो हानि हो जाती है, उससे शहरों को लाभ हो जाता हो, यह बात नहीं है। गाँव के छोटे से समाज में नेता बनने के बजाय जो कि वे बड़ी आसानी से बन सकते थे- वे शहर की अजात जनसंख्या के हताश और कटु भावना से भरे सदस्य-मात्र बन जाते हैं।"
संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि हमारे विश्वविद्यालयों की उद्देश्यहीन शिक्षा, हमारे देश एवं नवयुवकों के जीवन पर कुठाराघात कर रही है। विश्वविद्यालयों की सोद्देश्य शिक्षा ही राष्ट्र के वैभव और उनके निवासियों की बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक श्रेष्ठता की निर्धारक शक्ति है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर डॉ. आर. के. सिंह ने लिखा है-"देश का वैभव, विश्वविद्यालय से सम्बद्ध होता है। दूषित विश्वविद्यालय सम्पूर्ण राष्ट्र को दूषित कर देता है।"
सन् 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दीक्षान्त भाषण देते हुए पं. जवाहरलाल नेहरू ने विश्वविद्यालय के मूल उद्देश्यों तथा राष्ट्र जीवन में उसकी भूमिका को इन शब्दों में व्यक्त किया-"विश्वविद्यालय का अस्तित्व मानववाद के लिये, सहिष्णुता और विवेक के लिये, विचारगत साहस तथा सत्य की खोज के लिये होता है। उसका लक्ष्य यह होता है कि मानव जाति और भी उच्चतर उद्देश्यों की ओर कदम बढ़ाये। राष्ट्र और जनता का श्रेय इसी में है कि विश्वविद्यालय अपने अस्तित्व का समुचित निर्वाह करते रहें।"
सन् 1948 में भारत सरकार ने विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की नियुक्ति की। इस आयोग का मत है कि विश्वविद्यालय अपनी प्राचीन पद्धति से आबद्ध नहीं रह सकते हैं। समाज की बढ़ती हुई जटिलता और उसकी बदलती हुई संरचना के कारण विश्वविद्यालयों को अपने उद्देश्यों में परिवर्तन करना आवश्यक है। अपने इस विश्वास के आधार पर राधाकृष्णन् कमीशन ने उच्च शिक्षा के अग्रांकित उद्देश्य निर्धारित किये-
1. विश्वविद्यालय को राजनीतिक, व्यावसायिक, औद्योगिक एवं वाणिज्यिक क्षेत्रों में नेतृत्व ग्रहण कर सकने वाले व्यक्तियों का निर्माण करना चाहिये।
2. विश्वविद्यालय समाज-सुधार के कार्य में महान् योग दे सकते हैं। अतः उन्हें दूरदर्शी, बुद्धिमान तथा बौद्धिक साहस वाले व्यक्तियों को जन्म देना चाहिये।
3. विश्वविद्यालयों को प्रजातंत्र को सफल बनाने के लिये शिक्षा का प्रसार और ज्ञान की खोज कर सकने वाले व्यक्तियों को उत्पन्न करना चाहिये। संस्कृति के अग्रदूतों का निर्माण करना चाहिये। विश्वविद्यालय देश की सभ्यता एवं संस्कृति के रक्षक एवं पोषक हैं। अतः उन्हें सभ्यता एवं शिक्षा आयोग (1964-66) ने उच्च शिक्षा के निम्नांकित उद्देश्यों पर बल दिया-
1. नवीन ज्ञान की प्राप्ति तथा पोषण करना।
2. नई आवश्यकताओं तथा नई खोजों के संदर्भ में प्राचीन ज्ञान और विश्वासों की व्याख्या करना।
3. जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सही किस्म का नेतृत्व प्रदान करना, प्रतिभावान युवक-युवतियों को पहचानना और शारीरिक स्वस्थता के एवं मानसिक शक्तियों के उन्नयन और स्वस्थ रुचियों, मनोवृत्तियाँ तथा नैतिक एवं बौद्धिक मूल्यों के पोषण द्वारा उनकी सम्भावनाओं के भरपूर विकास में सहायता देना।
4 शिक्षा के प्रसार द्वारा समानता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक भेदों को घटाने का प्रयास करना।
5. समाज को ऐसे सक्षम नर-नारी देना जो कृषि कलाओं, चिकित्सा, विज्ञान और टैक्नॉलॉजी में अन्य विविध वृत्तियों में प्रशिक्षित हों और साथ ही सामाजिक सोद्देश्यता की भावना से अनुप्राणित सुसंस्कृत व्यक्ति भी हों।
6. व्यक्ति और समाज में सजीवन के विकास के लिये जिन मनोवृत्तियों तथा मूल्यों की आवश्यकता होती हैं, शिक्षकों तथा छात्रों में और उनके माध्यम से सम्पूर्ण समाज में उन्हीं मनोवृत्तियों एवं मूल्यों का संवर्धन पोषण करना।
स्वतंत्र भारत में उच्च शिक्षा के उद्देश्यों के औचित्य के सम्बन्ध में मत विभिन्नता नहीं हो सकती। भारतीय विश्वविद्यालयों को मानवता एवं सहिष्णुता की शिक्षा देनी चाहिये। उनको नवीन विचारों, सत्य एवं विवेक की खोज करनी चाहिये। उनको राष्ट्र को सशक्त, सम्पन्न तथा प्रगतिशील बनाना चाहिये।
उसको शिक्षकों तथा छात्रों में बौद्धिक, ईमानदारी, साहस तथा वैज्ञानिक भाव (Scientific temper) का पोषण संवर्धन करना चाहिये। उन्हें छात्रों में ही नहीं, वरन् जनसाधारण में भी यथाशक्ति स्वतंत्र एवं अनाशक्त चिन्तन को प्रोत्साहित करना चाहिये, जो निहित स्वार्थों को खुलकर चुनौती दे सकें। उन्हें भारत के बौद्धिक जीवन का केन्द्र बिन्दु बनना चाहिये।
उच्च शिक्षा की कुछ प्रमुख समस्याएँ (SOME MAIN PROBLEMS OF HIGHER EDUCATION)
1. छात्र अनुशासनहीनता (Student Indiscipline)
उच्च शिक्षा की सम्भवतः सबसे विकराल समस्या छात्र अनुशासनहीनता की है। यह कहना पूर्णतया युक्तियुक्त होगा कि इस समस्या की जननी आधुनिक उच्च शिक्षा है, जिसकी छत्रछाया में यह दिन-प्रतिदिन भीमकाय रूप धारण करती चली जा रही है और नित्य नूतन आकृति में प्रकट हो रही है।
कलकत्ता विश्वविद्यालय के भूतपूर्व उपकुलपति प्रोफेसर एन. के. सिद्धान्त ने एक अध्ययन के आधार पर 7 प्रकार के अनुशासनहीन कार्यों का उल्लेख किया है-
(1) उच्छृंखल व्यवहार,
(2) सामान्य दुर्व्यवहार,
(3) यौन सम्बन्धी दुर्व्यवहार,
(4) परीक्षा से सम्बन्धित दुर्व्यवहार,
(5) स्वाधिकारों का दुरुपयोग,
(6) धन-सम्बन्धी अनियमितता और
(7) चोरी एवं सेंधमारी।
यह अनुशासनहीनता के कार्यों की अन्तिम सूची नहीं है; अपितु बानगी मात्र है। इन कार्यों की संख्या में इतनी अधिक वृद्धि हो गई है कि किसी भी सूची को पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। अकारण हड़तालें, अनावश्यक प्रदर्शन, पुलिस से झगड़ा, बल का अनुचित प्रयोग, छोटी-छोटी बातों के लिये अनशन, कक्षाओं से बहिर्गमन, परीक्षाओं का बहिष्कार, शिक्षकों के साथ अभद्र व्यवहार, सार्वजनिक स्थानों में मारपीट, कॉलेजों के भवनों एवं रजिस्ट्रारों के कार्यालयों का अग्निहोम, परीक्षा में अनुचित साधनों का खुलेआम प्रयोग, छात्रसंघों के पदाधिकारियों द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग, युवतियों का अपहरण और उनके साथ बलात्कार- ये सब प्रतिदिन देखे और सुने जाने वाले छात्र अनुशासनहीनता के कुछ नमूने हैं।
यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि उच्च शिक्षा की संस्थाओं में अनुशासनहीनता की समस्या उत्तरोत्तर अधिक-से-अधिक जटिल होती जा रही है। इसलिये, 'भारतीय विश्वविद्यालय प्रशासन' ने यह मत प्रकट किया है-"उच्च शिक्षा के केन्द्रों में अनुशासन बनाये रखने की समस्या प्रतिदिन अधिक गम्भीर होती जा रही है।"
समाधान
कुछ सुझाव (Some Suggestions)
छात्र अनुशासनहीनता की समस्या का समाधान करने के लिये उसके कारणों से अवगत होना आवश्यक है। 'कोठारी कमीशन' ने कुछ कारणों का उल्लेख किया है, जो संक्षिप्त होते हुए भी विस्तृत हैं; यथा-
1. छात्रों का अनिश्चित भविष्य।
2. छात्रों एवं शिक्षकों में पारस्परिक सम्पर्क का अभाव।
3. अनेक शिक्षकों में विद्वता का अभाव एवं छात्रों की समस्याओं में उनकी अरुचि।
4. अनेक पाठ्यविषयों का यांत्रिक एवं असन्तोषजनक स्वरूप।
5. शिक्षा संस्थाओं की विशाल संख्या।
6. शिक्षा संस्थाओं में शिक्षण एवं सीखने की अपर्याप्त सुविधाएँ।
7. शिक्षा संस्थाओं के अध्यक्षों में दृढ़ता, कल्पना एवं कुशलता का अभाव।
8. शिक्षा संस्थाओं के कार्य में राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप।
9. कुछ कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की पारस्परिक राजनीति।
10. देश के सार्वजनिक जीवन में अनुशासन का अभाव।
11. वयस्कों के अनुशासन का निम्न स्तर।
12. वयस्कों में नागरिक चेतना एवं सच्चरित्रता का अभाव।
'भारतीय समाज में हिंसापूर्ण व्यवहार' विश्व पर 'भारतीय मनोवैज्ञानिक एसोसिएशन' की दिल्ली शाखा द्वारा 2 अप्रैल, 1972 को आयोजित परिचर्या में पढ़े जाने वाले लेख में विश्वविद्यालय प्रशासन के दोषों को छात्र अनुशासनहीनता के लिये उत्तरदायी बताया गया और विश्वविद्यालय प्रशासन के निम्नलिखित दोषों का उल्लेख किया गया-
(1) अनिश्चित परीक्षा तिथियाँ,
(2) प्रश्न-पत्रों में कम महत्त्व वाले विषयों पर प्रश्न,
(3) कॉलेज-अध्यापकों के आश्रितों के लिये विशेष सुविधाएँ,
(4) पुस्तकालय सुविधाओं का अभाव,
(5) छात्रावासों की कम संख्या,
(6) विश्वविद्यालय अधिकारियों की निर्दयता और ढीला प्रबन्ध।
इसके अतिरिक्त अनुशासनहीनता के कुछ कारण और भी हैं; यथा
(1) दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली,
(2) अपूर्ण एवं कीमती पुस्तकें,
(3) परिवार का दूषित वातावरण,
(4) शिक्षा संस्थाओं का दूषित वातावरण,
(5) नैतिक शिक्षा का अभाव,
(6) शिक्षकों में नेतृत्व की भावना का अभाव,
(7) शिक्षा संस्थाओं में सामुदायिक कार्यों का अभाव, और
(8) निर्देशन एवं परामर्श सेवाओं का अभाव।
अनुशासनहीनता के कारणों का निवारण करने और छात्रों में अनुशासन की भावना उत्पन्न करने के लिये समय-समय पर विभिन्न आयोगों, शिक्षाविदों के द्वारा बहुमूल्य सुझाव दिये गये हैं। हम उनकी चर्चा निम्नांकित पंक्तियों में कर रहे हैं।
(i) उपकुलपतियों का सुझाव
सन् 1969 में भारतीय विश्वविद्यालयों के 'उपकुलपतियों का सम्मेलन' (Vice-Chancellors' Conference) में यह सुझाव दिया गया कि छात्रों को समय-समय पर राष्ट्रीय विकास के कार्यक्रमों, धर्म निरपेक्षता, राष्ट्रीय एकीकरण, संविधान एवं नागरिकता का परिचय दिया जाना चाहिये। यह परिचय उनमें देश के प्रति निष्ठा उत्पन्न करेगा, जिसके फलस्वरूप उनकी अनुशासनप्रियता में वृद्धि होगी।
(ii) भारतीय विश्वविद्यालय-प्रशासन का सुझाव -
भारतीय विश्वविद्यालय-प्रशासन' (Indian University Administration) के अनुसार, अनुशासनहीनता की समस्या का समाधान करने का सर्वोत्तम उपाय यह है कि तरुण छात्रों को क्रियाओं को स्वस्थ दिशाओं में मोड़ा जाये। यह तभी सम्भव है, जब उनके लिये अतिरिक्त शैक्षिक सुविधाओं का आयोजन किया जाये; यथा-खेलकूद, छात्रावासों में सामुदायिक जीवन, भोजनालयों का छात्रों द्वारा प्रबन्ध, वाद-विवाद एवं गोष्ठियाँ, परन्तु शर्त यह है कि इन सब कार्यों में शिक्षक अग्रणी हों।
"The best way of solving the problem of indiscipline is to divert the activities of young students healthy channels including sports, games, co-operativctivities of hostels, self-management of messes, debates and symposia. However, the lead in all these matters should be given by the teachers themselves -Indian University Administration
(iii) राधाकृष्णन् कमीशन का सुझाव
'राधाकृष्णन् कमीशन' के विचारानुसार अनुशासनहीनता को समस्या का समाधान करने के लिये नैतिक शिक्षा की अत्यन्त आवश्यकता है। यह शिक्षा निश्चित रूप से उनके चरित्र का निर्माण कर सकती है। क्योंकि यह शिक्षा श्रेष्ठ साहित्य एवं श्रेष्ठ पुस्तकों में निहित रहती है, इसलिये छात्रों को उनका अध्ययन करने के लिये प्रेरित किया जाना चाहिये। इस सन्दर्भ में 'कमीशन' ने लिखा-" श्रेष्ठ साहित्य, श्रेष्ठतम भावना को जाग्रत करता है और उच्चतम आदर्श एवं आकांक्षा को बढ़ावा देता है। अतः श्रेष्ठ पुस्तकों का अध्ययन, जो हम में आशा का संचार करता है, विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में अनिवार्य है।"
(iv) कोठारी कमीशन के सुझाव
'कोठारी कमीशन' ने छात्र अनुशासनहीनता की समस्या का समाधान करने के लिये बहुत ही सुलझे हुए सुझाव दिये हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं-
1. शिक्षा एवं प्रशासन से सम्बन्धित सब कमियों को दूर किया जाना चाहिये।
2. शिक्षा के सब स्तरों एवं संस्थाओं में सुधार किया जाना चाहिये।
3. छात्र संघ एवं छात्रों की समस्त समितियों में शिक्षक अवश्य होने चाहिये।
4. उच्च शिक्षा की सब संस्थाओं द्वारा छात्रों को निर्देशन एवं परामर्श दिये जाने का कार्य किया जाना चाहिये।
5. छात्रों में स्व-अनुशासन (Self-Discipline) एवं सकारात्मक अनुशासन (Positive Discipline) की भावनाओं का विकास किया जाना चाहिये।
6. छात्रों एवं शिक्षकों में पारस्परिक प्रेम एवं सम्मान पर आधारित एक-दूसरे का साथी होने की भावना का विकास किया जाना चाहिये।
7. सम्पूर्ण विश्वविद्यालय जीवन को, एक माना जाना चाहिये। अत: छात्रों, शिक्षकों एवं प्रशासन के मध्य विभेदीकरण के सब प्रयासों का अन्त किया जाना चाहिये।
8. प्रत्येक विश्वविद्यालय की सभा एवं साहित्यक परिषद् (Court & Academic Council) में छात्रों के प्रतिनिधि होने चाहिये, ताकि वे अपने दायित्वों को समझ सकें और आवश्यकता पड़ने पर अपनी माँगों को प्रस्तुत कर सकें।
9. प्रत्येक कॉलेज एवं प्रत्येक विश्वविद्यालय के प्रत्येक विभाग में छात्रों एवं शिक्षकों की संयुक्त समितियाँ (Joint Committees) होनी चाहिये। इन समितियों की बैठकों में छात्रों की सभी समस्याओं पर विचार किया जाना चाहिये और उनका समाधान खोजने का प्रयत्न किया जाना चाहिये।
10. विश्वविद्यालय के उपकुलपति एवं कॉलेज प्रिंसिपल की अध्यक्षता में एक केन्द्रीय समिति (Central Committee) का निर्माण किया जाना चाहिये। इस समिति में छात्रों एवं शिक्षकों दोनों के प्रतिनिधि उचित अनुपात में होने चाहिये। यह समिति न केवल छात्रों की जटिलतम समस्याओं का समाधान करने में सफल होगी, अपितु छात्रों एवं शिक्षकों में निकट सम्पर्क भी स्थापित करेगी।
11. अनुशासनहीनता के चाहे जो भी कारण हों, छात्रों की इस प्रवृत्ति का दमन करना और उनको सभ्य व्यक्ति बनाना शिक्षा का सर्वप्रथम कार्य है। 'आयोग' के शब्दों में-"शिक्षा चाहे और कुछ करे या न करे, उसे कम-से-कम युवकों एवं युवतियों में सभ्य व्यवहार के मानदण्डों को सीखने और प्रयोग करने की क्षमता उत्पन्न करने का प्रयास अवश्य करना चाहिये।"
उपर्युक्त सुझावों का सतर्कता से अध्ययन करने के पश्चात् हम कह सकते हैं कि अनुशासनहीनता की समस्या का समाधान करने के लिये 8 उपाय विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं; यथा-
(1) उच्च शिक्षा के दोषों का निवारण,
(2) नैतिक शिक्षा की व्यवस्था
(3) निर्देशन एवं परामर्श की व्यवस्था
(4) छात्र क्रियाओं एवं छात्र कल्याण सेवाओं की व्यवस्था,
(5) अतिरिक्त शैक्षिक सुविधाओं का आयोजन
(6) छात्रों एवं शिक्षकों में निकट सम्पर्क,
(7) छात्रों में स्व-अनुशासन की भावना का विकास, और
(8) विश्वविद्यालय की भाषाओं एवं साहित्यिक परिषदों में छात्रों का प्रतिनिधित्व ।
ये उपाय, अनुशासनहीनता की समस्या का समाधान करने में श्लाघनीय योग दे सकते हैं। किन्नु, केवल उपाय ही पर्याप्त नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि छात्र, शिक्षक, समाज, सरकार, अभिभावक एवं राजनीतिक दल- सभी संयुक्त रूप में इस समस्या का उन्मूलन करने के लिये हार्दिक प्रयास करें। इसका कारण यह है कि अनुशासनहीनता का दायित्व किसी एक पर न होकर सब पर है, एकपक्षीय न होकर बहुपक्षीय है।
हम अपने इस विचार की पुष्टि में 'शिक्षा आयोग' के अग्रांकित शब्दों को उद्धृत कर सकते हैं-"यह स्मरण रखना आवश्यक है कि अनुशासनहीनता का उत्तरदायित्व एकपक्षीय नहीं है- यह केवल छात्रों या अभिभावकों या शिक्षकों या राज्य सरकारों या राजनैतिक दलों का उत्तरदायित्व नहीं है, वरन् बहुपक्षीय है। इन सबका इस उत्तरदायित्व में भाग है।"
2. निर्देशन व परामर्श का अभाव (Absence of Guidance & Counselling)
उच्च शिक्षा की संस्थाओं में निर्देश एवं परामर्श सेवाओं का प्रायः पूर्ण अभाव है। अतः छात्र अपनी स्वयं की इच्छा से, अपने अभिभावकों के दवाब से, या किसी अनुभवहीन व्यक्ति के परामर्श से पाठ्यविषयों का चयन करते हैं। इस प्रकार का चयन अनेक छात्रों के समक्ष संकटपूर्ण स्थिति उपस्थित कर देता है। पाठ्यविषयों का थोड़ा-सा अध्ययन ही उनको स्पष्ट संकेत देने लगता है कि वे उनकी रुचियों के अनुकूल नहीं हैं, या उस पर अधिकार प्राप्त करने की उनमें क्षमता नहीं है, या वे उनके भावी जीवन की आवश्यकताओं के अनुकूल नहीं हैं।
इन बातों का पहला दुष्परिणाम होता है- परीक्षा में असफलता और दूसरा दुष्परिणाम होता है- जीवन में असफलता। इस प्रकार, निर्देशन एवं परामर्श सेवाओं के अभाव के कारण अनेक छात्रों को अपने भावी जीवन में पग-पग पर निराशा एवं निष्फलता के झपेटों का शिकार बनना पड़ता है।
3. समाधान-
निर्देशन एवं परामर्श की व्यवस्था (Provision of Guidance & Counselling)-
छात्रों की भावी सफलता एवं सम्पन्नता के लिये परम आवश्यक है कि निर्देशन एवं परामर्श सेवाओं को उच्च शिक्षा का अविभाज्य अंग बनाया जाये, ये सेवाएँ प्रत्येक कॉलेज और प्रत्येक विश्वविद्यालय के छात्र को उपलब्ध होनी चाहिये। वे सेवाएँ ही उसकी रुचियों एवं आवश्यकताओं, उसकी क्षमताओं एवं शैक्षिक योग्यताओं का अध्ययन करके, उसे उपयुक्त एवं उपयोगी पाठ्यविषयों का चयन करने में सहायता दे सकती हैं। इतना ही नहीं, ये सेवाएँ उसकी आर्थिक, वैयक्तिक एवं पारिवारिक उलझनों को सुलझाने में भी उसकी सहायता कर सकती हैं।
अतः आवश्यक है कि उच्च शिक्षा की सब संस्थाओं में निर्देशन एवं परामर्श सेवाओं की उत्तम व्यवस्था की जानी चाहिये। ये सेवाएँ छात्रों को संस्थाओं में प्रवेश करने के समय से लेकर उनको छोड़ने के समय तक और उसके पश्चात् भी होनी चाहिये। 'कोठारी कमीशन' ने इस बात पर दुःख प्रकट किया है कि हमारी उच्च शिक्षा की संस्थाओं में निर्देशन एवं परामर्श सेवाओं का एक भी चिन्ह दृष्टिगोचर नहीं होता है।
उसने सिफारिश की है कि सभी संस्थाओं में इन सेवाओं की यथाशीघ्र स्थापना की जानी चाहिये। उसका सुझाव है कि प्रत्येक 1.000 छात्रों वाली संस्था में एक परामर्शदाता (Counsellor) होना चाहिये और यदि संस्थाओं में छात्र संख्या कम है. तो दो या अधिक संस्थाओं के लिये एक परामर्शदाता हो सकता है। निर्देशन एवं पराम काय का को अनिवार्य बताते हुए, 'कोठारी कमीशन' ने लिखा है-"निर्देशन एवं परामर्श का कार्यक्रम जो छात्रों को पाठ्यक्रमों का चयन करने और उनकी संवेगात्मक एवं मनोवैज्ञानिक समस्याओं को सुलझाने में सहायता देता है, उच्च शिक्षा का अभिन्न अंग होना चाहिये।"
'कोठारी कमीशन' के सुझाव की उपयोगिता को स्वीकार करके, दिल्ली और बनारस; जैसे- कुछ विश्वविद्यालयों ने अपने छात्रों के लिये निर्देशन एवं परामर्श का कार्यक्रम आरम्भ कर दिया है। अन्य विश्वविद्यालयों में भी इस कार्यक्रम का सूत्रपात किया जाना आवश्यक है।
3. दोषपूर्ण पाठ्यक्रम (Defective Curriculum) -
स्वतन्त्र भारत में उच्च शिक्षा का इतना अधि एक प्रसार हुआ है कि वह शिक्षा की समस्त उपलब्ध सीमाओं को पार कर गया है। शिक्षा प्रसार के नाम से कुछ स्थानों में कर्मठ समाज-सेवकों ने और अन्य स्थानों में धनार्जन के लिये लालायित लोगों ने घोड़ी-सी भूमि पर कुछ कमरे खड़े करके उनको कॉलेजों की संज्ञा दे रखी है।
नवीन विश्वविद्यालयों की स्थापना और पुराने विश्वविद्यालयों के क्षेत्राधिकारों में न्यूनतम परिवर्तन न होने के कारण इन नाममात्र के कॉलेजों को मान्यता प्राप्त करने में किसी प्रकार की कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता है। इन सब कॉलेजों के पाठ्यक्रमों में प्रायः वही विषय हैं, जिनके शिक्षण के लिये न तो विशेष सुविध ओं की आवश्यकता है और न विशेष साज-सज्जा की; यथा- इतिहास, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र इत्यादि ।
शिक्षा विस्तार के लिये इन कॉलेजों की स्थापना की सराहना अवश्य की जा सकती है, परन्तु इनमें प्रचलित पाठ्यक्रमों की नहीं। इसका कारण यह है कि ये पाठ्यक्रम अनेक दोषों से परिपूर्ण हैं; यथा-कठोरता, विविधता एवं व्यावसायिक विषयों का अभाव, पाठ्यविषयों की छात्रों एवं समाज के लिये अनुपयोगिता और अध्ययन के विषयों की सीमित संख्या। अतः छात्रों को अपनी रुचियों के अनुसार, विषयों का चयन करने का कोई अवसर प्राप्त नहीं होता। फलस्वरूप, उनकी क्षमताएँ कुंठित हो जाती हैं और उनका मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।
यदि हम समग्र रूप में उच्च शिक्षा की संस्थाओं के पाठ्यक्रमों पर दृष्टिपात करें, तो हमें उनका रूप बहुत-कुछ वही मिलता है, जो उक्त कॉलेजों के पाठ्यक्रम का है। अन्तर केवल इतना है कि कुछ शिक्षा संस्थाओं में अध्ययन के विषय अधिक हैं। वास्तविकता यह है कि यद्यपि आज के भारत की आवश्यकताएँ पराधीन भारत की आवश्यकताओं से सर्वथा भिन्न हैं, तथापि पाठ्यक्रमों में कोई विशेष अन्तर परिलक्षित नहीं होता है। उनमें अब भी वही घिसे-पिटे विषय हैं, जो आज से लगभग 50 वर्ष पहले थे।
अत: हम कह सकते हैं कि हमारी उच्च शिक्षा की संस्थाओं के पाठ्यक्रम दोषपूर्ण हैं और आधुनिक भारत के लिये नितान्त निरर्थक हैं। इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए, 'राधाकृष्णन् कमीशन' ने लिखा है-"जो पाठ्यक्रम वैदिक काल में उपयोगी था, उसे 20वीं शताब्दी में बिना परिवर्तन किये प्रयोग नहीं किया जा सकता है।”
समाधान-
पाठ्यक्रम में सुधार (Reform in Curriculum)
'राधाकृष्णन् कमीशन' विचार से सहमत होने के कारण 'कोठारी कमीशन' ने उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में परिवर्तन एवं सुधार करने के लिये निम्नांकित सुझाव दिये हैं-
1. उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम को विद्यालय पाठ्यक्रम से कठोरतापूर्वक सम्बद्ध नहीं किया जाना चाहिये।
2. स्नातक पूर्व स्तर पर पाठ्यक्रम उससे अधिक लचीला होना चाहिये, जितना कि इस समय है।
3. उक्त स्तर पर छात्रों को पाठ्यविषयों का चयन करने के लिये अधिक स्वतंत्रता प्रदान की जानी चाहिये।
4. उक्त स्तर पर सामान्य, विशिष्ट एवं ऑनर्स पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जानी चाहिये।
5. स्नातकोत्तर स्तर पाठ्यक्रमों को परिवर्तित करके अधिक लचीला बनाया जाना चाहिये।
पाठ्यक्रम में सुधार करने के लिये 'कोठारी कमीशन' का सबसे महत्त्वपूर्ण सुझाव यह है कि शिक्षा का देश एवं व्यक्तियों की आवश्यकताओं से सम्बन्ध स्थापित किया जाना चाहिये। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये 'कमीशन' ने पाठ्यक्रम में कार्य अनुभव, व्यावसायिक विषयों और कृषि, विज्ञान एवं प्राविधिक शिक्षा को स्थान दिये जाने का सुझाव प्रस्तुत किया है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने पाँचवीं तथा छठी योजना के दौरान विश्वविद्यालयों तथा कॉलेजों के कला, सामाजिक विज्ञान तथा विज्ञानों के संकायों के प्रथम डिग्री स्तर पर पाठ्यक्रमों की पुनःसंरचना के लिये दिशा-निर्देशन जारी करके और सातवीं योजना के दौरान विज्ञान, मानविकी तथा सामाजिक विज्ञानों में मॉडल पाठ्यचर्याएँ तैयार करने के लिये 27 पाठ्यचर्या विकास केन्द्र (Curriculum Development Centres-CDC) स्थापित करके पाठ्यक्रम फिर से तैयार करने की इच्छा व्यक्त की।
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आयोग ने देश में सन् 1986 से विभिन्न विश्वविद्यालयों में इन पाठ्यचर्या विकास केन्द्रों के माध्यम से 27 विषयों में मॉडल पाठ्यचर्याएँ तैयार करने के लिये एक अतिव्यापक कार्यक्रम शुरू किया। इन्हें अपनाने/अनुकूलन के लिये सभी विश्वविद्यालयों को परिचालित किया गया। तथापि विश्वविद्यालय स्तर पर इस सम्बन्ध में की गई कार्यवाही का निरीक्षण करने के लिये अब तक कोई तंत्र तैयार नहीं किया गया है। कार्य योजना, 1992 में पाठ्यक्रम पुनः तैयार करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये अग्रलिखित सिफारिशें की गईं-
1. सी. डी. सी. द्वारा मॉडल पाठ्यचर्या विकसित करने में निहित व्यापक प्रयासों का विश्वविद्यालय पद्धति में पूर्णरूप से प्रयोग किया जाना चाहिये।
2. इन पाठ्यचर्याओं को अपनाने या अनुकूल बनाने के लिये सभी विश्वविद्यालयों को परिचालित किया जाये और इस कार्यवाही का निरीक्षण करने के लिये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में एक तंत्र बनाया जाना चाहिये।
3. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग पाँच वर्षों में कम-से-कम एक बार मॉडल पाठ्यचर्या को अद्यतन बनाने के लिये कार्य करे।
4. अवर स्नातक पाठ्यक्रमों को पुनः तैयार करने की विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की मौजूदा मार्गदशीय रेखाओं को, जो एक दशक पहले तैयार की गई थीं, सन् 1993-94 तक व्यापक रूप से संशोधित किया जाना चाहिये, ताकि उनमें अद्यतन विकासों, उभरती रोजगार प्रवृत्तियों तथा मूल्य शिक्षा से सम्बन्धित पहलुओं को इनमें शामिल किया जा सके।
5. पाठ्यचर्या के अनुप्रयोग (Application) उन्मुख पाठ्यक्रम को शामिल करके परियोजना और कार्यक्षेत्र के लिये अवसर प्रदान करना प्रथम डिग्री स्तर पर सभी छात्रों को कार्यजगत की जानकारी देने के प्रयास किये जाने चाहिये। पर विश्वविद्यालयों में अध्ययन बोडौं को पुनर्गठित करने से सम्बन्धित ज्ञानम समिति की सिफारिश 6. जब भी केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड द्वारा विचार किया जाये और इसे अनुमोदित किया जाये, तब इसे कार्यान्वित किया जाना चाहिये।
7. सभी स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में दाखिले चयनात्मक आधार पर किये जायें और उपलब्ध सीटों तक ही सीमित रखे जायें। सभी विश्वविद्यालयों के स्नातकोत्तर विभागों को चाहिये कि वे सेमेस्टर, ग्रेडिंग, सतत् मूल्यांकन तथा कीर्तिमान पद्धति को धीरे-धीरे अपना लें।
4. समस्या
दोषपूर्ण परीक्षा- प्रणाली (Defective System of Examination)
कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों में प्रचलित परीक्षा प्रणाली मुख्यतः निबन्धात्मक प्रकार की है। निवन्धात्मक प्रश्न सम्पूर्ण पाठ्यविषय पर आधारित न होकर, उसके केवल एक अंश पर आधारित होते हैं। अतः वर्तमान परीक्षा पद्धति में वैधता, व्यापकता, वस्तुनिष्ठता एवं विश्वसनीयता का पूर्ण अभाव है। इसके अतिरिक्त, इस पद्धति में बाह्य परीक्षाओं का शीर्षस्थ स्थान है और कक्षा कार्य एवं आन्तरिक परीक्षाओं को तनिक भी महत्त्व नहीं दिया जाता है।
हमारी उच्च शिक्षा में दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली की समस्या लगभग एक शताब्दी से विद्यमान है। यह समस्या इतनी त्रासपूर्ण है कि कोई भी छात्र सालभर चैन की नींद नहीं सो पाता है, क्योंकि वह जानता है कि वर्ष के अन्त में होने वाली अन्तिम बाह्य परीक्षा उसके लिये विष की पोटरी बन सकती है। दिल दहलाने वाली इस भयावह परीक्षा ने अनेक आयोगों और समितियों के ध्यान को अपनी ओर बरबस खींचा है।
सन् 1902 में 'भारतीय विश्वविद्यालय आयोग' ने इसके विषय में यह मत व्यक्त किया-"भारत में विश्वविद्यालय शिक्षा का महानतम दोष यह है कि शिक्षण, परीक्षा के अधीन है, न कि परीक्षा, शिक्षण के।" सन् 1949 में 'विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग' ने यह विचार प्रकट किया-"यदि हमसे विश्वविद्यालय-शिक्षा में केवल एक बात के बारे में सुझाव देने के लिये कहा जाये, तो यह सुझाव परीक्षाओं के सम्बन्ध में होगा।"
समाधान
परीक्षा प्रणाली में सुधार (Reform in Examination System)
उच्च शिक्षा में प्रयोग की जाने वाली परीक्षा प्रणाली को दोषमुक्त करने के लिये समय-समय पर, जो सुझाव दिये गये है, उनका संक्षिप्त वर्णन द्रष्टव्य है; यथा-
1. राधाकृष्णन् कमीशन के सुझाव- इस 'कमीशन' के मुख्य सुझाव निम्नलिखित हैं-
1. शिक्षा मन्त्रालय को मूल्यांकन की वैज्ञानिक विधियों का कार्य आरम्भ करना चाहिये।
2. अन्तिम परीक्षा में छात्रों की योग्यता का मूल्यांकन करते समय उनके द्वारा किये जाने वाले कक्षा कार्य पर अवश्य ध्यान दिया जाना चाहिये।
3. प्रत्येक विषय के लिये निर्धारित सम्पूर्ण अंकों में से एक-तिहाई अंक कक्षा कार्य के लिये होने चाहिये।
4. स्नातक पूर्ण स्तर पर छात्रों की परीक्षा प्रत्येक वर्ष के अन्त में स्वतः पूर्ण इकाइयों (Self Contained Units) के रूप में ली जानी चाहिये।
5. स्नातकोत्तर स्तर पर सत्र परीक्षाओं को अन्तिम परीक्षा का अनिवार्य अंग बनाया जाना चाहिये।
6. प्रत्येक विश्वविद्यालय में परीक्षकों का एक स्थायी बोर्ड होना चाहिये, जिसे विश्वविद्यालय और उससे सम्बद्ध कॉलेजों के शिक्षकों को वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की योजनाएँ बनाने में सहायता देनी चाहिये।
2. कोठारी कमीशन के सुझाव
परीक्षा सुधार के सम्बन्ध में 'कोठारी कमीशन' के सुझाव इस प्रकार हैं-
1. सब शिक्षण विश्वविद्यालयों में बाह्य परीक्षाओं का स्थान शिक्षकों के आन्तरिक एवं क्रमिक मूल्यांकन (Internal & Continuous Evaluation) को दिया जाना चाहिये।
2. समस्त सम्बद्धीकरण (Affiliating) विश्वविद्यालयों में बाह्य परीक्षाओं की पूर्ति करने के लिये आन्तरिक जाँचों (Internal Assessments) की पद्धति प्रारम्भ की जानी चाहिये।
3. विश्वविद्यालयों के शिक्षकों को मूल्यांकन की नवीन एवं उन्नत विधियों से परिचित कराया जाना चाहिये।
उल्लिखित आयोगों के सुझावों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। दोनों ने बाह्य परीक्षाओं के महत्त्व को कम करने का प्रयास किया है। इसके अतिरिक्त, दोनों ने आन्तरिक परीक्षाओं एवं मूल्यांकन को नवीन विधियों के प्रयोग पर बल दिया है।
3. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सुझाव
'शिक्षा मन्त्रालय' ने 'राधाकृष्णन् कमीशन' के सुझाव को स्वीकार करके, 'विश्वविद्यालय अनुदान आयोग' (University Grants Commission) से मूल्यांकन की नवीन विधियों एवं परीक्षा प्रणाली में सुधार करने के उपायों के सम्बन्ध में अपना परामर्श देने को कहा। 'आयोग' ने इन कार्यों को सम्पन्न करने के लिये अपने कुछ सदस्यों की एक 'समिति' नियुक्त की। इस 'समिति' ने सन् 1962 में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया, जिसमें परीक्षा में सुधार करने के लिये निम्नलिखित मुख्य सुझाव दिये गये-
1. विश्वविद्यालयों की बाह्य परीक्षाओं में कमी की जाये।
2. छात्रों की प्रगति का मूल्यांकन करने के लिये उनको शिक्षकों द्वारा प्रगति परीक्षाओं (Continuous Assessments) का कार्य आरम्भ किया जाये।
3. शिक्षण कार्य में व्याख्यानों के अतिरिक्त विचार गोष्ठियों (Seminars), ट्यूटोरियल कार्य (Tutorial Work) आदि का भी प्रयोग किया जाये।
4. ट्यूटोरियल कक्षाओं में छात्रों द्वारा किये जाने वाले कार्य का नियमित रूप से मूल्यांकन किया जाये, मूल्यांकन को लिखित रूप में रखा जाये और अन्तिम परीक्षा में उसको महत्त्व दिया जाये।
भारत सरकार इन सुझावों को मान्यता प्रदान कर चुकी है और इनकी पृष्ठभूमि में कार्य आरम्भ हो चुका है। 'पाँचवीं पंचवर्षीय योजना' के अनुसार-"परीक्षा सुधार का कार्यक्रम, जो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आरम्भ किया जा चुका है, पाँचवीं योजना में और तेजी से किया जायेगा।"
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986- परीक्षा सुधार लम्बे अरसे से गम्भीर चर्चा का विषय रहा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में परिकल्पना की गई है कि परीक्षा प्रणाली में सुधार लाया जाना चाहिये, ताकि ऐसी मूल्यांकन प्रणाली सुनिश्चित की जा सके, जो छात्र के विकास के लिये प्रामाणिक तथा विश्वसनीय मानदण्ड होने के साथ-साथ अध्ययन और अध्यापन में सुधार करने वाला सशक्त साधन भी हो। कार्यात्मक दृष्टि से इसका अभिप्राय निम्नलिखित से होगा-
1. अवसर तथा आत्मपरकता (Subjectivity) के अतिशय तत्त्व को समाप्त करना।
2. रटने पर दिये जाने वाले बल को समाप्त करना।
3. ऐसी सतत् तथा व्यापक मूल्यांकन प्रक्रिया का विकास करना, जिसमें शिक्षा के शैक्षिक (Scholastic) तथा गैर-शैक्षिक (Non-academic) दोनों पहलू शामिल हों। यह मूल्यांकन प्रक्रिया सम्पूर्ण शैक्षिक अवधि में चालू रहेगी।
4. ग्रेड्स के निर्धारण के लिये अंकों के स्केलिंग की प्रक्रिया अपनाई जाये। प्रत्येक विश्वविद्यालय इंडिंग के सम्बन्ध में व्यापक मार्गनिर्देश तैयार करेगा, जिनका अनुसरण इसके अधिकार क्षेत्र में आने काले कॉलेजों, संस्थाओं तथा विभागों द्वारा किया जायेगा।
5. शिक्षकों को ग्रेडिंग प्रणाली से परिचित कराने के लिये प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किये जायेंगे।
6. परीक्षा सुधार के साथ-साथ शिक्षण सामग्री तथा शिक्षण विधि में भी सुधार किया जाये।
7. प्रश्न-पत्र निर्माताओं के सघन प्रशिक्षण के लिये कार्यक्रम चलाये जायें।
8. प्रश्न-पत्र निर्माताओं की सहायता के लिये प्रश्न बैंक तैयार किये जायें।
9. ओपन बुक परीक्षा, निदानात्मक मूल्यांकन आदि नवीन विचारों पर प्रयोग किये जायें।
10. संस्थागत मूल्यांकन तथा बाह्य परीक्षाओं के परिणामों को पृथक् पृथक् प्रमाण-पत्रों में दर्शाया जये।
11. संस्थागत मूल्यांकन के प्रमाण-पत्र में शैक्षिक उपलब्धियों तथा अशैक्षिक पक्षों को स्थान दिया जाये।
12. उत्तर-पुस्तिकाओं के अंकन में वस्तुपरकता को सुनिश्चित करने के लिये एक व्यापक अंकन प्रक्रिया विकसित की जाये।
13. एक राष्ट्रीय मूल्यांकन संगठन (N. E. O.) का विकास किया जायेगा, जो पूरे देश में ऐच्छिक आधार पर परीक्षण करेगा, जिससे निष्पादन की तुलना के लिये मानक विकसित किये जा सकें और शिक्षा की गुणवत्ता को नियंत्रित किया जा सके।
14. परीक्षा सम्बन्धी विभिन्न कुप्रथाओं को परिभाषित करने तथा उन्हें संज्ञेय अपराधों की श्रेणी में रखने (गैर-जमानती) के लिये कानून बनाने पर विचार किया जायेगा।
15. स्नातकोत्तर स्तर पर सतत् संस्थागत मूल्यांकन प्रारम्भ किया जाये। प्रारम्भ में यह कार्य एकात्मक विश्वविद्यालयों, डीम्ड विश्वविद्यालयों तथा स्वायत्तशासी महाविद्यालयों में लागू किया जायेगा।
16. स्नातकोत्तर स्तर पर सेमेस्टर प्रणाली को लागू किया जायेगा। आचार्य राममूर्ति समिति ने सिफारिश की थी कि देश की विशालता एवं विविधता के कारण एक परीक्षा सुधार आयोग की आवश्यकता हैं। यह एक स्थायी संस्था होनी चाहिये, जो समय-समय पर परीक्षा सुधार की प्रगति का अनुश्रवण करती रहे। इस आयोग का कार्यक्षेत्र इस प्रकार का हो सकता है-
1. समय-समय पर परीक्षा सुधारों की स्थिति का पुनरावलोकन ।
2. ग्रेडिंग तथा स्केलिंग की वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष पद्धति का समावेश करना।
3. सतत् व्यापक आन्तरिक मूल्यांकन के लिये मानक निर्धारित करना।
4. सेमेस्टरीकरण के लिये रीति निर्धारित करना।
5. परीक्षा सुधारों को, चरणों में पूरा करना, इसके लिये समय निर्धारित करना, जिसके अन्तर्गत मुधार प्रभावी होंगे।
6. परीक्षा सुधारों के सफल कार्यान्वयन के लिये शिक्षकों का अभिविन्यास (Teacher Orientation
5. समस्या
अपव्यय (Wastage)
हमारे देश में उच्च शिक्षा के स्तर पर 'अपव्यय' की समस्या अत्यन्त गम्भीर है। उसकी गम्भीरता का अनुमान 'राधाकृष्णन कमीशन' के अग्रांकित शब्दों से सहज ही लगाया जा सकता है-" सार्वजनिक धन का प्रति वर्ष अति महान् अपव्यय हो रहा है। किन्तु, इससे भी अधिक दुःख की बात यह है कि सार्वजनिक धन की इस महान् हानि के प्रति उतनी ही उदासीनता है, जितनी की छात्रों एवं उनके अभिभावकों के समय, शक्ति तथा धन के नाश और उनकी आशाओं एवं अभिलाषाओं पर भयंकर हिमपात के प्रति।"
डॉ. एस. एन. मुकर्जी ने उच्च शिक्षा में अपव्यय के कुछ आँकड़े इस प्रकार दिये हैं- डिग्री कोसं के प्रथम वर्ष में जितने छात्र प्रवेश लेते हैं, उसमें से 50 प्रतिशत से अधिक बी. ए., बी. कॉम. और बी. एस-सी. की परीक्षा में अनुत्तीर्ण होते हैं। स्नातकोत्तर स्तर पर 20 से 30 प्रतिशत छात्र परीक्षाओं में असफल होते हैं। इस प्रसंग में डॉ. देशमुख के अग्रांकित वाक्य को उद्धृत करना असंगत प्रतीत नहीं होता है-"भारत में विश्वविद्यालय शिक्षा में अपव्यय की मात्रा संसार में सबसे अधिक है।" "The degree of wastage in India of university education is the highest in the world." -Dr. C. D. Deshmukh, Chairman of U. G. C. in 1960
उच्च शिक्षा में होने वाले इस महान् अपव्यय के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-
(1) शिक्षण का निम्न स्तर,
(2) छात्रों की आर्थिक कठिनाइयाँ,
(3) छात्रावासों की सुविधा का अभाव,
(4) योग्य शिक्षकों का अभाव,
(5) उपयुक्त शिक्षण सुविधाओं का अभाव,
(6) अयोग्य छात्रों का उच्च शिक्षा की संस्थाओं में प्रवेश।
समाधान
कुछ सुझाव (Some Suggestions)
उच्च शिक्षा की परिधि में से अपव्यय को भयावह समस्या को निष्कासित करने के लिये निम्नांकित उपायों को प्रयोग में लाया जा सकता है-
1. परीक्षा प्रणाली को परिवर्तित एवं दोषमुक्त किया जाये।
2. बाह्य परीक्षाओं की तुलना में आन्तरिक परीक्षाओं को अधिक महत्त्व दिया जाये।
3. परीक्षाओं में असफल होने वाले छात्रों के लिये परीक्षा एवं पुनः मूल्यांकन की व्यवस्था की जाये।
4. पाठ्यक्रम में छात्रों की अभिरुचियों एवं अभिवृत्तियों के अनुसार अधिक विषयों को स्थान दिया जाये और उनको व्यावहारिक रूप प्रदान किया जाये।
5. ' सार्जेण्ट रिपोर्ट' के अनुसार, हाईस्कूल की परीक्षा में सफल होने वाले विद्यार्थियों में 15 में से केवल । को उच्च शिक्षा ग्रहण करने की अनुमति दी जाये।
6. 'केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड' (CABE) के अनुसार, केवल उन्हीं छात्रों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने की आज्ञा दी जाये, जिनके लिये यह शिक्षा भविष्य में आवश्यक है।'
7. 'कोठारी कमीशन' के अनुसार, 'चयनात्मक प्रवेश प्रणाली' (System of Selective Admission) का प्रयोग करके, केवल योग्यतम विद्यार्थियों को ही उच्च शिक्षा की संस्थाओं में प्रवेश दिया जाये।
6. समस्या
शिक्षा में विशिष्टीकरण (Specialization in Education)
विश्वविद्यालय स्तर पर शिक्षा में विशिष्टीकरण आरम्भ हो जाता है। दूसरे शब्दों में, छात्रों को विभिन्न विषयों का विशेष अध्ययन करने की सुविधा प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार का अध्ययन उनको कुछ विशेष विषयों में दक्षता प्रदान करता है। किन्तु साथ ही इस अध्ययन से उनका दृष्टिकोण असन्तुलित एवं अव्यावहारिक हो जाता है। अत: विशिष्टीकरण के विरुद्ध आम शिकायत यह है कि विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्रात उच्च शिक्षा । करके निकलने वाले छात्रों में शिष्टता, सन्तुलन एवं व्यावहारिकता का अभाव होता है, जो प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति के चरित्र के प्रमुख लक्षण होने चाहिये।
छात्रों के चरित्र में उपर्युक्त दोषों का समावेश क्यों हो जाता है, इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए, के. जी. सैयदैन ने लिखा है- "विशिष्टीकरण में एक प्रकार की संकीर्णता एवं अकाल्पनिकता होती है। इसका परिणाम यह होता है कि विज्ञान के छात्रों को कला एवं कविता और सामाजिक एवं राजनैतिक समस्याओं का कोई ज्ञान नहीं होता है और आर्ट्स के छात्रों को इस बात का ज्ञान नहीं होता है कि विज्ञान एवं वैज्ञानिक विधियों से उस विश्व को, जिसमें वे निवास कर रहे हैं, किस प्रकार परिवर्तित कर दिया गया है।"
समाधान -
सामान्य शिक्षा की व्यवस्था (Provision of General Education)
विशिष्टीकरण से उत्पन्न होने वाले दोषों का निराकरण करने के लिये आवश्यक है कि छात्रों द्वारा अर्जित किये जाने वाले विभिन्न अनुभवों एवं ज्ञान के विभिन्न अंगों में सामंजस्य एवं अन्तर्सम्बन्ध हो। जब तक यह नहीं होगा, तब तक उनके दृष्टिकोणों एवं मानसिक शक्तियों का सन्तुलित विकास असम्भव होगा। इस दृष्टि से आवश्यक है कि विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में 'सामान्य शिक्षा' को स्थान दिया जाये।
'सामान्य शिक्षा' के अन्तर्गत विज्ञान, इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, भारतीय संस्कृति आदि सभी विषयों का सामान्य ज्ञान आ जाता है। अत: यह शिक्षा सभी छात्रों को लाभान्वित करेगी। यह शिक्षा कला एवं साहित्य के छात्रों को विज्ञान के विषयों का और विज्ञान के छात्रों को कला एवं साहित्य के विषयों का ज्ञान प्रदान करेगी। फलस्वरूप उनको अपने अध्ययन काल में उन सब बातों का ज्ञान प्राप्त हो जायेगा, जो प्रत्येक शिक्षित पुरुष एवं स्त्री के लिये आवश्यक है।
इसके अतिरिक्त, 'सामान्य शिक्षा' विशिष्टीकरण से उत्पन्न होने वाली संकीर्णता को दूर करके, छात्रों की समस्त मानसिक शक्तियों का सन्तुलित विकास करेगी। यह शिक्षा उनमें जीवन के प्रति उन मान्यताओं एवं दृष्टिकोणों का विकास करेगी, जो उनको वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन व्यतीत करने में अपूर्व सहायता देंगे। अतः वे अपने जीवन में सफलता प्राप्त करेंगे और सुयोग्य नागरिकों के रूप में अपने देश की सेवा करेंगे।
उपर अंकित तथ्यों से सुपरिचित होने के कारण 'राधाकृष्णन् कमीशन' ने सुझाव दिया है कि विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में 'सामान्य शिक्षा' को सम्मिलित किया जाये। इस सुझाव को स्वीकार करके भारत के 15 विश्वविद्यालयों ने अपने छात्रों को 'सामान्य शिक्षा' प्रदान करने का कार्य आरम्भ कर दिया है। ये विश्वविद्यालय हैं- अलीगढ़, आन्ध्र, बनारस, बड़ौदा, जादवपुर, कर्नाटक, केरल, मैसूर, पूना, राजस्थान, सागर, एस. एन. डी. टी., श्री वेंकटेश्वर, उत्कल एवं विश्वभारती।
7. समस्या
शिक्षा का माध्यम (Medium of Instruction)
उच्च शिक्षा में शिक्षा के माध्यम के प्रश्न ने एक अत्यन्त जटिल समस्या उपस्थित कर दी है। इसके दो मुख्य कारण हैं। पहला, अंग्रेजी अति दीर्घ काल से माध्यम के पद पर प्रतिष्ठित है। दूसरा, भारतीय संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया है और 14 अन्य भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई है। ऐसी स्थिति में देश के प्रशासकों के समक्ष समय-समय पर यह समस्या उपस्थित हुई है कि उच्च शिक्षा का माध्यम - अंग्रेजी, हिन्दी या कोई अन्य भाषा होनी चाहिये ?
इस समस्या का समाधान करने के लिये भारत सरकार ने 1956 में 'भाषा आयोग' (Language Commission) की नियुक्ति की। 'आयोग' ने यह निर्णय किया कि अभी उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी द्वारा अंग्रेजी का स्थान ग्रहण किया जाना असम्भव है। अतः कम-से-कम 1965 तक अंग्रेजी को ही शिक्षा का माध्यम रखा जाये।
1966 में 'कोठारी कमीशन' ने 'राधाकृष्णन् कमीशन' की सिफारिश को दोहराते हुए, इस बात पर बल दिया कि विश्वविद्यालय स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं (Regional Languages) को शिक्षा का माध्यम बनाया जाये। साथ ही, उसने यह सुझाव भी दिया कि इन भाषाओं को 10 वर्ष की अवधि में शिक्षा के माध्यम के रूप में ग्रहण कर लिया जाये। किन्तु श्री चक्रवती राजगोपालाचार्य ने इस सुझाव को यह कहकर तिरस्कृत किया-"यदि हम चाहते हैं कि भारत पृथक् द्वीपों में विभाजित न हो, तो अंग्रेजी के स्थान पर 14 क्षेत्रीय भाषाओं को स्थापित करना राष्ट्र के लिये बहुत खराब सौदा होगा।"
श्री राजगोपालाचार्य के विरोध के बावजूद भारत सरकार के तत्कालीन शिक्षा मंत्री, डॉ. त्रिगुणसेन ने यह घोषणा की कि उच्च शिक्षा की सब संस्थाओं में क्षेत्रीय भाषाओं को 5 वर्ष की अवधि में शिक्षा का माध्यम बना दिया जाये। किन्तु, अंग्रेजी के उपासकों द्वारा इस घोषणा का इतना जबर्दस्त विरोध किया गया कि असाधारण दृढ़ता के बावजूद भी डॉ. सेन उनका सामना न कर सके और उनको अपना त्यागपत्र देना पड़ा।
शिक्षा के माध्यम के प्रश्न पर अब भी विवाद चल रहा है। इस प्रश्न को लेकर शिक्षाविदों के दो दल बन गये हैं। एक दल अंग्रेजी का समर्थक है और दूसरा क्षेत्रीय भाषाओं का।
समाधान
शिक्षा का माध्यम क्षेत्रीय भाषाएँ (Regional Languages as Medium of Instruction)
शिक्षा के माध्यम की समस्या का समाधान करने का केवल एक उपाय है। वह यह कि क्षेत्रीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम के पद पर प्रतिष्ठित किया जाये। इसका मुख्य कारण यह है कि व्यक्ति अपनी मातृभाषा में दूसरों के विचारों को भली-भाँति समझ सकता है और अपने विचारों को प्रकट कर सकता है।
अतः यह आवश्यक है कि प्रत्येक क्षेत्र के व्यक्तियों की मातृभाषा अर्थात् क्षेत्रीय भाषा को न केवल उच्च शिक्षा के स्तर पर, वरन् सब स्तरों पर शिक्षा का माध्यम बनाया जाये। हमारे राष्ट्रीय नेताओं- टैगोर, नेहरू और गाँधीजी का अपने देशवासियों को यही परामर्श था।
सम्भवतः इस परामर्श की उपयोगिता से ही प्रभावित होकर 'राधाकृष्णन् कमीशन', 'कोठारी कमीशन', 'भावात्मक एकता समिति' (Emotional Integration Committee), उपकुलपति के सम्मेलन (1967) और भारत सरकार ने क्षेत्रीय भाषाओं को भी माध्यम के रूप में स्वीकार किया है।
यही कारण है कि भारतीय विश्वविद्यालयों में क्षेत्रीय भाषाओं को माध्यम बनाने का कार्यक्रम प्रारम्भ कर दिया गया है। इस समय 35 विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम क्षेत्रीय भाषाएँ हैं और 17 विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर स्तर पर भी क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग किया जा रहा है।
इस स्थान पर अंग्रेजी के सम्बन्ध में दो शब्द लिख देना सम्भवतः अप्रासंगिक न होगा। यदि हम क्षेत्रीय भाषाओं के मोह में फँसकर, अंग्रेजी से सदैव के लिये अपना नाता तोड़ देंगे, तो यह हमारी भयंकर भूल होगी। उच्च शिक्षा की संस्थाओं में छात्रों को क्षेत्रीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी की अध्ययन करने के लिये भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
इसका अध्ययन करने से उनके ज्ञान में वृद्धि होगी और फलस्वरूप शिक्षा के स्तर का उन्नयन होगा। हमें अंग्रेजी को दासता का प्रतीक मानकर न तो उससे घृणा करनी चाहिये और न उसे अपने देश की सीमाओं से बाहर निकालने का उद्योग करना चाहिये। इस सम्बन्ध में हमें डॉ. राधाकृष्णन् के ये शब्द सदैव स्मरण रखने चाहिये- "हमने भले ही अंग्रेजों को अपने देश से निकाल दिया है, पर उनकी भाषा को नहीं निकाला है, और अंग्रेजी पर केवल अंग्रेजों का ही एकमात्र अधिकार नहीं है।”
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