श्रमिक आंदोलन: भारत में श्रमिक संघ आंदोलन की भूमिका || Role of Trade UnionMovement in India in Hindi

 Role of Trade Union Movement in India in Hindi

भारत में श्रमिक संघ आंदोलन की भूमिका, श्रमिक संघ पर एक लेख लिखिए, श्रमिक आंदोलन का विकास, भारत में श्रमिक आंदोलन के महत्व, श्रमिक संघ आंदोलन का अर्थ एवं परिभाषा-
Role of Trade Union Movement in India in Hindi

श्रमिक एवं श्रमिक संघ आन्दोलन 

आदिमयुगीन समाज में भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु सामूहिक श्रम किया जाता था । इस श्रम के सभी लोग एक स्थान पर बैठ कर खाते थे । किसी व्यक्ति अथवा स्त्री को अमुक प्रकार के श्रम करने पर उसे कुछ दिया नहीं जाता था । 

कालान्तर में कृषि और वैयक्तिक सम्पत्ति के विकास के साथ श्रम करने वाले व्यक्ति को अनाज अथवा रुपया दिया जाने लगा । इस तरह श्रम से कुछ अर्जित करने वाला व्यक्ति श्रमिक कहलाने लगा । इस श्रम के अन्तर्गत शारीरिक व मानसिक दोनों प्रकार के कार्य आते हैं ।

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मार्शल का मत है कि श्रम , आंशिक अथवा पूर्णरूप से किसी आर्थिक लाभ की दृष्टि से किये जाने वाला मानसिक अथवा शारीरिक कार्य है । श्रमिक अपने श्रम के माध्यम से आय करता है । श्रमिक अपने श्रम को निश्चित अवधि के लिये किसी मालिक के यहाँ कार्य करता है और उसके बदले में मालिक उसे मजदूरी अथवा पारिश्रमिक देता है ।

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यह श्रम शारीरिक भी हो सकता है और मानसिक भी । एक मजदूर भी श्रमिक है और एक बड़ा अधिकारी भी श्रमिक का संबंध जीविकोपार्जन से है । संसार भर में यदि कोई आन्दोलन सर्वप्रथम आरम्भ हुआ है तो वह श्रमिक आन्दोलन है । बगैर व्यक्ति के श्रम के बिना कोई भी चीज न तो बन सकती है और किसी वस्तु का उत्पादन ही हो सकता है। 

श्रमिक आन्दोलन का वृहद स्वरूप औद्योगीकरण के पश्चात आरम्भ हुआ । आधुनिक प्रौद्योगिकी युग तक आते-आते श्रमिक संगठित होकर और श्रमिक संघ बनाकर अपनी मांगों के लिये नियोजित ढंग से आन्दोलन चलाने लगे । यह वह समय था जब श्रमिक को उद्योग की एक महत्वपूर्ण इकाई माना जाने लगा ।

उसे औद्योगिक नागरिक की संज्ञा दी जाने लगी । वह मिल , फैक्टरी , कारखाने और सरकारी व गैर सरकारी संस्था और संगठन में एक वस्तु के रूप में नहीं देखा जाने लगा बल्कि वह उत्पादन की एक अभिन्न अनिवार्य इकाई बन गया । यह औद्योगिक क्रांति का वह युग था जिसमें
  • श्रमिकों ने वेतन वृद्धि और काम की दशाओं को स्वस्थ बनाने की माँग की ।
  • अवकाश और निवास की सुविधाओं की माँग की । चिकित्सा सुविधाओं की माँग की ।
  • बोनस की माँग की सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से भविष्य निधि की माँग की । 
जाहिर है पूँजीपति अथवा पूंजीवादी सरकारें श्रमिकों की मांगों को सरलता से मानने वाले नहीं थीं। उनकी आदत शोषण करने की पड़ चुकी थी । यह धूर्त , चालाक और शोषक वर्ग श्रमिकों को अपने जायज अधिकार भी नहीं देना चाहते थे । इसीलिये श्रमिकों ने श्रमिक संघ बनाकर अपनी मांगों के लिये आन्दोलन आरम्भ कर दिया ।

उन्होंने नारा दिया ' दुनियों के मजदूरों एक ' । फ्रांस - क्रांति के नारे में भी यह भावना समाहित थी ।

स्वतंत्रता , समानता और भ्रातृत्व के नारे से सम्पूर्ण विश्व को अपनी ओर आकर्षित किया था । प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति इससे प्रभावित होकर आन्दोलन के लिये खड़ा हुआ था । श्रमिक आन्दोलनों की पृष्ठभूमि में आर्थिक सामाजिक एवं राजनैतिक पक्ष भी हैं जो श्रमिक समस्याओं को उजागर करते हैं और उनकी प्रकृति को भी । 

इस तरह श्रमिक आन्दोलन श्रमिक समस्याओं के गर्भ से जन्मा है । औद्योगीकरण , प्रौद्योगीकरण के साथ श्रमिक समस्यायें भी निरन्तर जटिल होती गयीं । इन समस्याओं का निराकरण भी जटिल प्रक्रिया में गुथ गया । परिणामस्वरूप हड़ताल , घेराव , बन्द , तालाबन्दी आदि कि घटनाओं में वृद्धि होने लगी । इसके साथ श्रमिक आन्दोलनों में भी वृद्धि होने लगी । 

औद्योगिक परिस्थितियों ने श्रमिकों में चेतना का संचार किया । संघर्ष करने की क्षमता को उत्पन्न किया । उनमें जुझारूपन का पैनापन उत्पन्न किया । श्रमिक इन परिस्थितियों में परिपक्व हो रहा था । लेनिन ने 1908 में कहा था " भारतीय मजदूर वर्ग अब इतना परिपक्व हो गया है कि वह वर्ग चेतना के साथ राजनीतिक जन - संघर्ष चला सकता है । " 

भारत में औद्योगिक श्रमिकों का अस्तित्व 1850 के लगभग हुआ । यह समय वह था जब प्रथम कपड़ा मिल , पहली चटकल और पहली रेलवे चली । इसके साथ ही 1835 तक चाय श्रमिकों की पहचान बन चुकी थी । इस तरह उद्योगों के चारों तरफ श्रमिकों का एक जाल बिछता जा रहा था । श्रमिक विभिन्न प्रकार के उत्पादन के कार्यों से जुड़ता जा रहा था । 

औद्योगिक श्रमिकों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती जा रही थी । इसके साथ श्रमिक समस्याओं में वृद्धि हो रही थी । काम के घंटे अत्यधिक थे और पारिश्रमिक कम से कम था । अत्याचार और शोषण की सीमायें जब भी किसी शासन ने पार की है , आन्दोलन हुए हैं । 

एम्प्रेस मिल के मजदूरों की हड़ताल श्रमिक आन्दोलन की आहत देते हैं । वैसे श्रमिक संघ आंदोलन औद्योगिक श्रमिकों की हड़ताल का व्यवस्थित रूप में , हमें , प्रथम फैक्टरी एक्ट के पास होने के पश्चात यानी 1881 के बाद दिखायी पड़ता है ।

फैक्टरियों में काम की दशाओं में कोई सुधार दिखाई नहीं पड़ रहा था । इसलिये 23 और 26 सितम्बर 1884 को एक ज्ञापन 5,500 श्रमिकों के हस्ताक्षर सहित द्वितीय फैक्टरी कमीशन को दिया गया जिसमें कहा गया कि इतवार को उन्हें पूर्ण अवकाश दिया जाय । प्रत्येक दिन उन्हें 30 मिनट का भोजन अवकाश का समय दिया जाय । कार्य की अवधि का आरम्भ प्रातः 6.30 से हो और सूर्यास्त तक रहे । प्रत्येक माह की 15 तारीख तक वेतन दे दिया जाय । 

यदि श्रमिक काम के समय घायल हो जाता है तो जब तक वह ठीक नहीं हो जाता उसे पूरा वेतन दिया जाय । यदि श्रमिक का कार्य करते समय कोई अंग भंग हो जाता है तो जीवन पर्यन्त पेन्शन दी जाय जिससे उसकी जीविका चलती रहे । 

यह मांगें स्पष्ट रूप से इस बात का प्रमाण हैं कि भारत में श्रमिक आन्दोलन का आरम्भ 1884 से नियोजित और सुगठित रूप से आरम्भ होता है । इन ज्ञापनों को हस्ताक्षर सहित इन्होंने उस समय के भारत के गवर्नर जनरल को भी भेजा कि उनकी समस्याओं का निराकरण किया जाय और उनकी मांगें मानी जाय । 

अपनी माँग का दबाव बनाने हेतु उन्होंने 10,000 फैक्टरी कर्मचारियों की सभा बम्बई में की । सप्ताह में एक दिन का अवकाश की मांगें मान ली गयी ।

श्रमिकों की यह प्रथम बहुत बड़ी सफलता थी इस सफलता के कारण उन्होंने ' बाम्बे मिल हैन्डस एसोसियेशन की स्थापना की । इन्होंने प्रथम फैक्टरी 1881 को संशोधन करने के लिए 1890 को एक ज्ञापन फैक्टरी लेबर कमीशन को दिया । 

वास्तव में , ' बाम्बे मिल हैण्डस एसोसियेशन ' मजदूरों की एक समिति थी न कि श्रमिक संगठन का कोई संघ ए ० आर ० देसाई का यह मानना है कि यदि 1908 के बम्बई के सूती मिलों के श्रमिकों की हड़ताल छोड़ दी जाय जो कि तिलक के बन्दी बनाने पर हुई थी तो " मजदूरों का आन्दोलन 1914-18 के विश्व युद्ध के बाद ही शुरू हुआ

लेकिन उसके पहले भी यदाकदा भारतीय मजदूरों के संघर्ष होते रहे थे । ये संघर्ष स्वतः स्फूर्त थे , और उनका कोई निश्चित जागरूक और सचेत वर्ग उद्देश्य नहीं था । " उस समय की परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए देसाई इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि 1918 के पश्चात् श्रमिकों में एक नई वर्ग चेतना का जन्म हुआ । अपने को संगठित करने का जज्बा उत्पन्न हुआ । अपने को शक्तिशाली बनाने के लिये ट्रेड यूनियन के विकास की ओर अग्रसर हुए । व्हिटली कमीशन की रिपोर्ट में इस बात का वर्णन प्राप्त होता है—

“ 1918-19 के जाड़े में कुछ हड़तालें हुई दूसरे साल के जाड़े में हड़तालों की संख्या और बढ़ी और 1920 21 में जाड़े में संगठित उद्योग में औद्योगिक हड़तालें आम हो गई । असल कारण था कि लोगों ने वर्तमान स्थिति में हड़तालों की शक्ति को समझा और इस बात को मजदूर संघठन कर्ताओं के आविर्भाव , जनसाधारण को युद्ध से मिली शिक्षा , उद्योगों के विस्तार से श्रमिकों की संख्या में कमी , जो इन्फ्लूएंजा के संक्रामक होने की वजह से और बढ़ी , आदि कारकों से मदद मिली । "

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