भारत में विभिन्न सामाजिक आन्दोलनों के फलस्वरूप अनेक सामाजिक परिवर्तन हुए हैं । इन परिवर्तनों का क्षेत्र सती प्रथा की समाप्ति से लेकर हरिजनों की दलित स्थिति में परिवर्तनों तक फैला हुआ है । जो निम्न है—
( 1 ) सती प्रथा-
सती प्रथा की समाप्ति सती प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा की समाप्ति राजा राममोहन राय तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे समाज सुधारकों द्वारा चलाये गये आंदोलनों का ही परिणाम है । इन आंदोलनों के कारण ही एक अच्छा परिवर्तन हमारे सामने आया है और सती प्रथा आज शून्य के समान है । हम तो यह जानते ही हैं कि सती प्रथा के अन्तर्गत विधवाओं के प्रति समाज का निर्देश है कि वे अपने पति के साथ उसी की चिता में जिन्दा ही जलकर अपने जीवन का अन्त कर दें ।( 2 ) विधवा पुनर्विवाह -
विधवाओं के लिए फिर से विवाह करना समाज में मना है । अनेक धार्मिक तथा सामाजिक आधारों पर इसे उचित ठहरा जाता है । पर आज का कोई भी सभ्य समाज इन आधारों को स्वीकार नहीं कर सकता । हिन्दू परिवार में आज भी विधवाओं की जो दुर्दशा है , उसे वे लोग है समझ सकते हैं जो ऐसे कुछ परिवारों को जानते हैं जिनमें विधवायें पलती हैं ।परिवार में उनकी स्थिति एक दासी के समान होती है और साथ ही समस्त सामाजिक प्रतिबन्ध उन्हीं पर लादा जाता है । दूसरों की सेवा करना धर्म है , दूसरों के देख - रेख करना उनका कर्तव्य है और अपने समस्त सुख , आशा , आकांक्षा अपने व्यक्तित्व का विकास करने की इच्छा , अपना एक घर बसाने की अभिलाषा आदि सबको त्याग देना ही उनका आदर्श है ।
इसका परिणाम यह होता है कि विधवाओं के व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता है और वे समाज पर एक बोझ बनकर रह जाती है । बाल - विधवाओं की दशा और भी दयनीय है । यह अन्याय है कि बाल - विधवाओं को वैवाहिक व सामान्य जीवन के समस्त सुख और समृद्धि से वंचित किया जाय जो कि विवाह का अर्थ तक समझने से पहले ही विधवा हो गई हैं । अतः विधवाओं के पुनर्विवाह को प्रोत्साहित करने के लिए ब्रह्म समाज , आर्य समाज , गांधी जी आदि के द्वारा व्यापक आंदोलन किया गया और इस स्थिति में परिवर्तन लाया गया है ।
( 3 ) बाल विवाह कम होना-
आज भी बाल - विवाह प्रथा का प्रचलन भारत में विशेषकर भारतीय गाँवों में अत्यधिक है । इससे बाल - दम्पत्ति के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है , दुर्बल संतान उत्पन्न होती है , पति - पत्नी के , विशेषकर पत्नी के व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता है । बच्चे को जन्म देते समय कम आयु की माताओं की मृत्यु अधिक होती है , कम आयु से बच्चा उत्पन्न होना शुरू हो जाने से जनसंख्या बढ़ती है , योग्य जीवन साथी का चुनाव नहीं हो पाता है तथा बाल - विधवाओं की संख्या भी देश में बढ़ती है । इन सब कारणों को देखते हुए ब्रह्म समाज , आर्य समाज आदि ने बाल विवाहों को रोकने के लिए आंदोलन चलाया और परिवर्तन लाने में कुछ सफल हुए ।( 4 ) पर्दा प्रथा-
पर्दा प्रथा भारतीय समाज की एक और कुप्रथा है और रोचक बात यह है कि इस प्रथा को सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रतीक के रूप में सुप्रतिष्ठित कर दिया गया है । यही कारण है कि इसका प्रचलन भारत की उच्च जातियों में अधिकतर देखने को मिलता है । इस प्रथा का विशेषकर प्रचलन मुसलमानों के आने के बाद हुआ है और मुस्लिम स्त्रियों ने ग्रहण किया है । इस प्रथा की उपयोगिता उस जमाने में शायद कुछ रही हो , पर आज की दुनिया में तो यह बिल्कुल ही अचल है । पर्दा प्रथा का तात्पर्य है स्त्रियों की गतिशीलता को रोकना और उन्हें परिवार की चारदीवारियों के बीच कैदियों के समान रहने को मजबूर करना । इससे स्त्रियों की शिक्षा रुक जाती है। और पुरुष अपनी मर्यादा के लिए, स्त्रियों के व्यक्तित्व का विकास बिलकुल भी नहीं हो पाता है ।( 5 ) भारत में सामाजिक आंदोलन दहेज प्रथा में परिवर्तन -
विशेषकर हिन्दू समाज जिन कुप्रथाओं का आज भी बुरी तरह शिकार हैं , उनमें से वर - मूल्य प्रथा , जिसे लोकप्रिय शब्दों में हम दहेज प्रथा कहते हैं , एक है । आज भी परिवार में लड़कियों को एक बोझ समझा जाता है , क्योंकि अधिकतर माता - पिता के लिये उस दहेज की रकम को जुटाना सम्भव नहीं होता है जिसे कि लड़कियों के विवाह के समय में उनको चुकाना पड़ता है । इस प्रथा के कारण अनेक लड़कियाँ आत्महत्या करके अपने माँ बाप की ' दहेज के दानव ' से रक्षा करती हैं ।( 6 ) जातिवाद की घटना-
जातिवाद जाति प्रथा से सम्बन्धित एक भयंकर सामाजिक भावना है जिससे प्रभावित होकर लोग अपनी जाति के हित के सम्मुख अन्य जातियों के सामान्य हितों की अवहेलना और प्रायः हनन करने को तैयार हो जाते हैं । मानव - भावनाओं का एक संकुचित रूप जातिवाद प्रजातंत्र के लिए घातक है क्योंकि यह विभिन्न जातियों को एक - दूसरे से पृथक् करता है ; यह श्रमिक - अकुशलता को बढ़ावा देता है क्योंकि नौकरियों की नियुक्ति जाति के आधार पर होती है , न कि कुशलता के आधार पर पर , जातिवाद से प्रेरित होकर अपनी जाति के सदस्यों को हर प्रकार की सुविधा प्रधान करने के लिए अनेक अनुचित और अन्यान्य उपायों पर सहारा लिया जाता है , जिससे कि नैतिक पतन होता है , साथ ही जातिवाद के आधार पर विभिन्न जातियों के आपस में बंट जाने से राष्ट्रीय एकता तथा प्रगति में बाधा उत्पन्न होती है ।( 7 ) अस्पृश्यता का अन्त - भारत में सामाजिक आंदोलन
अस्पृश्यता भारतीय जाति - व्यवस्था पर एक काला धब्बा और सबसे बड़ा कलंक है । आज भी इसका भंयकर रूप हमें निरन्तर डरा ही रहा है । अस्पृश्य जातियों को परम्परागत रूप में छूना और देखना तक मना है , समाज में उनकी स्थिति सबसे नीची है । शिक्षा , धर्म , पेशे का चुनाव आदि अनेक सामाजिक , धार्मिक तथा आर्थिक नियोग्ताओं का शिकार ये अस्पृश्य जाति के सदस्य हैं । आज भी भारत के गाँव में उनकी दशा सन्तोषजनक नहीं है । छुआछूत की भावना के कारण सामाजिक तथा राजनैतिकता एकता स्थापित होने में बाधा उत्पन्न होती है , समाज का एक अच्छा-सा अंश अछूत बनकर इस प्रकार रह जाता है कि वह अपनी ही राष्ट्र की प्रगति में अपना योगदन नहीं कर पाता है ।( 8 ) अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन-
जाति द्वारा नियमित विवाह अन्तर्जातीय विवाह पर रोक लगाता है तथा अन्तर्विवाह का आदेश देता है जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही जाति या उपजाति में विवाह करना पड़ता । है । इस प्रथा का प्रभाव यह होता है कि समाज छोटे टुकड़ों में सदा के लिए बंटा रहता है । सामाजिक और राष्ट्रीय एकता में बाधा उत्पन्न होती है दहेज प्रथा को प्रोत्साहन मिलता है , योग्य जीवन साथी के चुनाव में कठिनाई उत्पन्न होती है ।( 9 ) भारत में सामाजिक आंदोलन: नशाखोरी पर रोक -
भारतवर्ष एक ऐसा देश है जहाँ पर कि नशाखोरी को एक धार्मिक स्वीकृति मिली हुई है या यूं कहा जा सकता है कि धर्म की आड़ में नशाखोरी के औचित्य को प्रस्तुत किया जाता है ।जैसे कि - गाँजा - भाँग का सेवन इसलिए किया जाता क्योंकि उसे शंकर जी भी सेवन करते थे । इसलिए आज भी भारत के साधु लोगों में इसका बहुत प्रचार देखने को मिलता है । उसी प्रकार धार्मिक कार्यों के लिए भी शराब आदि का प्रयोग बहुत से समुदायों में प्रचलित है । नशाखोरी व्यक्तिगत जीवन को विघटित करती है , स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव डालती है , समाज में अपराध बढ़ते हैं , श्रमिकों की कार्य कुशलता घटती है और पारिवारिक जीवन नरक के समान हो जाता है ।( 10 ) धार्मिक अन्धविश्वास व आडम्बरों का कम होना-
अन्त में सामाजिक आंदोलन के अन्तर्गत धार्मिक अन्धविश्वासों व आडम्बरों को कम करने के प्रयत्न ब्रह्म समाज , आर्य समाज , प्रार्थना समाज , रामकृष्ण मिशन तथा गांधी जी के द्वारा किये गये हैं और इस दिशा में वे परिवर्तन लाने में सफल भी हुए । हैं । आज भी ऐसे अनेक अन्धविश्वासों के शिकार भारतवासी बने हुए हैं जिनके कारण राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय जीवन में हमें पर्याप्त हानि हो रही है ।इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि उपरोक्त सामाजिक कुप्रथाओं को दूर करने में लिए विभिन्न सामाजिक विधान पारित किये जा चुके हैं ।
- सती प्रथा निषेध अधिनियम ( 1829 ) सती प्रथा को दण्डनीय अपराध करार करता है ,
- हिन्दू विधव पुनर्विवाह अधिनियम ( 1856 ) विधवाओं की पुनर्विवाह सम्बन्धी निर्योग्यताओं को दूर करता है ,
- बाल - विवाह निरोधक अधिनियम ( 1929 ) बाल - विवाह को रोकने के उद्देश्य से पारित किया गया है , विशेष विवाह अधिनियम ( 1954 ) अन्तर्जातीय विवाह की वैधानिक अड़चनों को दूर करता है ।
- दहेज निरोधक अधिनियम ( 1958 ) विवाह की शर्त के रूप में दहेज लेने या देने को दण्डनीय अपराध मानता है । और
- अस्पृश्यता अपराध अधिनियम ( 1955 ) अस्पृश्यता को बढ़ावा देने वालों को दण्ड देने की व्यवस्था करता है ।
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