माध्यमिक शिक्षा का अर्थ (MEANING OF SECONDARY EDUCATION)
माध्यमिक शिक्षा प्राथमिक और उच्च शिक्षा के मध्य की कड़ी है, जिसके पूर्व प्रारम्भिक शिक्षा और बाद में विश्वविद्यालयी शिक्षा होती है। माध्यमिक शिक्षा के अन्तर्गत 14 से 18 वर्ष के बालक 8 बालिकायें कक्षा 9 से 12 तक की शिक्षा प्राप्त करते हैं। कक्षा 9 एवं 10 को उच्च माध्यमिक तथा ।। और 12 को उच्चतर माध्यमिक स्तर कहा जाता है।
कार्टर वी. गुड ने माध्यमिक शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करते हुये लिखा है कि, "माध्यमिक शिक्षा, शिक्षा का वह समय है, जो सामान्यतः 14 से 18 वर्ष की आयु के बालकों के लिये होता है।"
माध्यमिक स्तर की शिक्षा वास्तव में शिक्षा के क्षेत्र में रीढ़ (Back bone) का कार्य करती है। जिस प्रकार रीढ़ मनुष्य के समस्त शरीर को सम्भाले रहती है, ठीस उसी प्रकार बच्चे के जीवन के निर्माण में इस स्तर की शिक्षा का विशेष महत्व है। यह ऐसी महत्वपूर्ण अवस्था है, जिसमें बालक में तीव्र शारीरिक व मानसिक परिवर्तन होते हैं तथा यह उच्च शिक्षा की आधारशिला भी कही जाती है।
अतः माध्यमिक शिक्षा देश की जनशक्ति का स्रोत है, विश्वविद्यालयों का शैक्षिक स्तर एवं विद्यार्थियों में सीखने की क्षमता आदि बहुत कुछ माध्यमिक स्तर की शैक्षिक नींव पर निर्भर रहते हैं।
हुमायूँ कबीर के अनुसार, "समाज की शिक्षा के किसी भी कार्यक्रम में माध्यमिक शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान होता है। यहाँ से प्राथमिक तथा वयस्क शिक्षा के लिये अध्यापक मिलते हैं।
ये छात्रों को विश्वविद्यालयों तथा उच्चतर अध्ययन की दूसरी संस्थाओं के लिये तैयार करते है। माध्यमिक शिक्षा उच्च कोटि की होने पर ही यह आधुनिक युग की आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है।" अतः माध्यमिक शिक्षा का शिक्षा के क्षेत्र में बहुत महत्व है।
डॉ. आत्मानन्द मिश्न के शब्दों में, "देश के भावी कर्णधार माध्यमिक शिक्षा के ही ढाँचे में बनते और बिगड़ते है। सभी क्षेत्रों में नेतृत्व करने की क्षमता इसी स्तर पर उत्पन्न की जाती है। दुर्भाग्यवश शिक्षा की यह कड़ी जितनी महत्वपूर्ण और अनिवार्य है उतनी ही निर्बल और उपेक्षित भी।”
भारत में माध्यमिक स्कूलों की संख्या जो वर्ष 1950-5। में 7, 146 थी जो बढ़कर वर्ष 1999-2000 11.820 हो गई किन्तु यह संख्या भी स्कूलों में न पढ़ने वाले सभी विद्यार्थियों तथा उच्च प्राथमिक स्कूलों में उत्तीर्ण विद्यार्थियों की बढ़ती संख्या को खपाने में असमर्थ है। अत: प्रारंभिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण के साथ ही माध्यमिक शिक्षा के विस्तार की भी माँग बल पकड़ रही है जिसे पूरा करने के लिए वर्तमान 13वीं पंचवर्षीय योजना में माध्यमिक शिक्षा के विस्तार पर भी बल दिया जा रहा है।
UDISE के सर्वेक्षण के अनुसार भारत में वर्ष 2018-2019 में माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्कूलों की संख्या 150573 तथा 130020 थी जो बढ़कर वर्ष 2019-2020 में माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्कूलों की 151489 तथा 133734 संख्या की वृद्धि हुई है।
माध्यमिक शिक्षा का ऐतिहासिक दृष्टिकोण (HISTORICAL PERSPECTIVE OF SECONDARY EDUCATION)
(1) स्वतन्त्रता से पूर्व विकास (Development before Independence)
हम स्वतन्त्रता से पूर्व भारतीय शिक्षा के इतिहास में उन सीमा चिन्हों का क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं, जिन्होंने हमारे देश में माध्यमिक शिक्षा का सूत्रपात करके, उसके प्रसार में योग दिया एवं समय-समय पर उसके स्वरूप, संगठन आदि में परिवर्तन करने का प्रयास किया।
1. माध्यमिक शिक्षा का सूत्रपात (Starting of Secondary Education)-
माध्यमिक शिक्षा को आधुनिक युग की देन स्वीकार किया जाता है। वैदिकयुगीन एवं मध्ययुगीन शिक्षा व्यवस्था में शिक्षा के केवल दो ही स्तर थे-प्राथमिक एवं उच्च। भारत में माध्यमिक शिक्षा का सूत्रपात करने का श्रेय यूरोपीय मिशनरियों को प्राप्त है। उन्होंने 18वीं शताब्दी के अन्त में इस देश के कुछ भागों में माध्यमिक स्कूलों की स्थापना की।
उनके उदात्त उदाहरण से प्रेरणा प्राप्त करके, 19वीं शताब्दी के आरम्भ में कतिपय राष्ट्र-प्रेमी भारतीयों ने उनके चरण चिन्हों का अनुगमन करके, माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना का कार्य आरम्भ किया। डॉ. एस. एन. मुकर्जी के अनुसार "माध्यमिक स्कूलों की स्थापना का मुख्य उद्देश्य धनी भारतीयों की अपने अंग्रेज शासकों की भाषा को सीखने की माँग को पूर्ति करना था।"
2. माध्यमिक शिक्षा की प्रारम्भिक अवस्था (Primary Stage of Secondary Education) -
माध्यमिक शिक्षा को अपनी प्रारम्भिक अवस्था में भारत के अंग्रेज शासकों से समय-समय पर प्रोत्साहन प्राप्त हुआ, जिसके फलस्वरूप उसने प्रगति के पथ पर अपनी यात्रा आरम्भ की। उसे यह प्रोत्साहन निम्नांकित 4 रूपों में प्राप्त हुआ-
(i) 1839 में कम्पनी के संचालकों ने अपने एक पत्र द्वारा फोर्ट सेन्ट जार्ज (मदास) के गवर्नर को यह आदेश दिया कि प्रशासन कार्य में भारतीयों की सहायता प्राप्त करने के लिये उनको अंग्रेजी की शिक्षा प्रदान की जाये।
(ii) 1835 में लार्ड विलियम बैंटिंक ने मैकॉले के "विवरण पत्र" को स्वीकार करके, यह निश्चय किया कि शिक्षा पर व्यय किया जाने वाला सम्पूर्ण धन अंग्रेजी भाषा के माध्यम से चलाई जाने वाली कक्षाओं में अंग्रेजी की शिक्षा प्रदान करने के लिये व्यय किया जाये।
(iii) 1837 में अंग्रेजी को न्यायालय की भाषा बना दिया गया।
(iv) 1844 में लार्ड हार्डिज ने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयों के लिये कम्पनी की नौकरियों के द्वार खोल दिये।
कम्पनी की इन नीतियों एवं निश्चयों के फलस्वरूप भारतीयों को अंग्रेजी को शिक्षा देने के लिये 18023 तक सम्पूर्ण भारत में 32 मान्यता प्राप्त स्कूलों का निर्माण हो गया
3. 1854 का वुड का आदेश पत्र (Wood's Despatch of 1854)-
इस "आवेदन-पत्र" में शिक्षा से सम्बन्धित निम्नांकित 3 मुख्य बातें थीं-
(i)' आदेश पत्र' में यह घोषणा को गई कि भारत के निवासियों को यूरोप के लेखकों को पुस्तकों और वहाँ के निवासियों द्वारा अर्जित किये जाने वाले ज्ञान से परिचित कराया जाये। इस घोषणा ने माध्यमिक शिक्षा के प्रसार में प्रशंसनीय योग दिया।
(ii)' आदेश पत्र' ने विद्यालयों को आर्थिक सहायता देने के लिये 'सहायता अनुदान प्रणाली' को प्रचलित करने का सुझाव दिया। इस सुझाव ने नवीन माध्यमिक स्कूलों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया।
(iii) 'आदेश पत्र' ने मद्रास, बम्बई और कलकत्ता में विश्वविद्यालय स्थापित किये जाने की आज्ञा दी। ये विश्वविद्यालय 1857 में स्थापित कर दिये गये और इनको मैट्रीकुलेशन की परीक्षा लेने का अधिकार दे दिया गया। इस अधिकार ने माध्यमिक शिक्षा पर विश्वविद्यालयों का पूर्ण प्रभुत्व स्थापित कर दिया।
वे अपने हित को ध्यान में रखकर माध्यमिक स्कूलों के पाठ्यक्रम शिक्षा के माध्यम आदि के सम्बन्ध में नीति का निर्धारण करने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि माध्यमिक शिक्षा में दो दोष प्रकट हो गये। वह स्वतः पूर्ण इकाई नहीं रह गई और उसका एकमात्र उद्देश्य छात्रों को विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने के लिये तैयार करना हो गया।
4. 1882 का हण्टर कमीशन (Hunter Commission of 1882)-
इस कमीशन ने माध्यमिक शिक्षा को अत्यधिक साहित्यिक होने के दोष से मुक्त करने के लिये विभिन्न पाठ्यक्रमों (Diversified Course) का सुझाव दिया। उसने यह विचार व्यक्त किया कि हाईस्कूल की शिक्षा को दो भागों में व्यक्त कर दिया जाये 'अ' कोर्स एवं 'ब' कोर्स ('A' Course & 'B' Course) ।
'अ' कोर्स का उदेश्य छात्रों को विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने के लिये तैयार करना हो। 'ब' कोर्स का उद्देश्य छात्रों को व्यावसायिक एवं असाहित्यिक कार्यों के लिये तैयार करना हो। कमीशन के सुझाव एवं विचार के प्रति न तो सरकार ने ध्यान दिया और न जनता ने। फलतः माध्यमिक शिक्षा का अपने पूर्व रूप में प्रसार होता रहा और उस पर विश्वविद्यालयों का प्रभुत्व यथावत् बना रहा।
5. 1904 का भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम ( Indian Universities Act, 1904)-
अधिनियम से पूर्व विश्वविद्यालयों की मेट्रीकुलेशन परीक्षा में उन माध्यमिक स्कूलों के छात्र भी सम्मिलित हो सकते थे, जिनको विश्वविद्यालयों से मान्यता प्राप्त नहीं थी। इस अधिनियम ने विश्वविद्यालयों को केवल मान्यता प्राप्त विद्यालयों के छात्रों को मेट्रीकुलेशन परीक्षा में सम्मिलित होने की आज्ञा देने का और मान्यता सम्बन्धी नियमों का निर्माण करने का अधिकार प्रदान कर दिया।
इसके दो प्रत्यक्ष परिणाम दृष्टिगोचर हुए। पहला, माध्यमिक शिक्षा पर विश्वविद्यालयों का पहले से अधिक कठोर नियन्त्रण स्थापित हो गया। दूसरा, अवांछनीय स्कूल, मान्यता प्राप्त न कर सकने के कारण बन्द हो गये और नये स्कूलों की स्थापना सोच-समझकर की जाने लगी।
विश्वविद्यालयों को अधिनियम द्वारा प्राप्त होने वाले अधिकार का बहुत समय तक उपभोग करने को अवसर नहीं मिला। इसका कारण यह था कि 1905 में राष्ट्रीय आन्दोलन आरम्भ हो गया, जिससे प्रभावित होकर भारतीयों ने विदेशी सरकार से राष्ट्रीय शिक्षा की जोरदार माँग की। इस माँग की पूर्ति सरकार द्वारा न की जाकर, शिक्षाप्रेमी भारतीयों के द्वारा की गई। उन्होंने अनेक स्थानों में राष्ट्रीय विद्यालयों का शिलान्यास करके उनका संचालन करना आरम्भ कर दिया। ये विद्यालय अपने स्वरूप ये माध्यमिक स्कूलों के समान थे, परन्तु राष्ट्रीय शिक्षा पर बल देने के कारण उनसे पूर्णतया भिन्न थे।
6. 1917 का सैडलर कमीशन (Sadler Commission, 1917)-
यह कमीशन, माध्यमिक और विश्वविद्यालय शिक्षा के दोषों का अध्ययन करने के पश्चात् इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि जब तक माध्यमिक शिक्षा में आमूल परिवर्तन करके, उसका पुनसँगठन नहीं किया जायेगा, तब तक न तो उसके दोष दूर होंगे और न उस पर आधारित विश्वविद्यालय शिक्षा के। माध्यमिक शिक्षा के दोषों को दूर करने के लिये कमीशन ने 3 महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये-
(i) माध्यमिक शिक्षा को विश्वविद्यालयों के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा जाये।
(ii) विश्वविद्यालयों से इण्टरमीडिएट कक्षाओं को पृथक् करके, इण्टरमीडिएट कॉलेजों की स्थापना की जाये।
(iii) माध्यमिक शिक्षा से सम्बन्धित सब कार्यों को सम्पन्न करने के लिये, प्रत्येक प्रान्त में माध्यमिक एवं इण्टरमीडिएट शिक्षा परिषद्" का निर्माण किया जाये। 'माध्यमिक शिक्षा के विषय में इस प्रकार के सुझाव प्रथम बार दिये गये थे।
7. 1929 की हर्टाग समिति (Hartog Committee, 1929)-
इस समिति ने यह विचार प्रकट किया कि माध्यमिक शिक्षा की प्रगति तो अवश्य हुई है, पर इस पर मेट्रीकुलेशन परीक्षा का आधिपत्य है। समिति ने यह विचार भी व्यक्त किया कि मेट्रीकुलेशन परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों की विशाल संख्या के कारण माध्यमिक शिक्षा में बहुत अधिक अपव्यय (Wastage) हो रहा है। अपव्यय को कम करने के लिये समिति ने पाठ्यक्रम में व्यावसायिक विषयों को स्थान दिये जाने की सिफारिश की।
8. 1936-37 की वुट-एबट रिपोर्ट (Wood-Abbot Report, 1936-37)-
इस रिपोर्ट ने यह अंकित किया गया कि निम्न माध्यमिक कक्षाओं में अंग्रेजी के अध्ययन पर बल न दिया जाये और हाईस्कूल तक की सब कक्षाओं में भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया जाये।
9. 1944 की सार्जेण्ट रिपोर्ट (Sargent Report, 1944)-
इस रिपोर्ट में माध्यमिक शिक्षा का पुनर्गठन करने के लिये 3 अत्यन्त उपयोगी सुझाव दिये गये-
(i) हाईस्कूल में केवल असाधारण योग्यता के विद्यार्थियों को प्रवेश दिया जाये;
(ii) प्रवेश प्राप्त करने वाले विद्यार्थी के लिये 14 वर्ष की आयु तक शिक्षा ग्रहण करना अनिवार्य कर दिया जाये, और
(iii) साहित्यिक एवं प्राविधिक (Academic and Technical) दोनों प्रकार के हाईस्कूलों की स्थापना की जाये। यदि इन सुझावों को क्रियान्वित कर दिया गया होता, तो आज माध्यमिक शिक्षा का स्वरूप ही भिन्न होता।
उपर्युक्त विवरण इस बात का साक्षी है कि स्वतन्त्रता से पूर्व माध्यमिक शिक्षा को रूपान्तरित करने और उसे वास्तविक जीवन के लिये उपयोगी बनाने के विचार से समय-समय पर आयोगों, समितियों आदि के द्वारा बहुमूल्य सुझाव दिये गये। किन्तु, विदेशी सरकार की उदासीनता के कारण न तो वह समय एवं परिस्थितियों के अनुकूल बनी और न उसके स्वरूप में ही कोई विशेष परिवर्तन हुआ।
सन् 1943 में इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए, हैम्पटन ने लिखा- "थोड़े से महत्त्वपूर्ण अपवादों के अलावा आज का भारतीय हाईस्कूल वैसा ही है, जैसा कि वह 1904 में था, परन्तु उससे थोड़ा सा भिन्न अवश्य है, जैसा कि वह बहुत समय पहले 1884 में था।”
The Indian high school with a few notable exception is must the same today as was in 1904, but little changed from what it was as far back as 1884" -H. V. Hampton: The Education System, "Secondary Education, 1943.
(10) माध्यमिक शिक्षा का स्वतन्त्रता के पश्चात् विकास (Development of Secondary Education after Independence)-
स्वतन्त्र भारत में नियुक्त की जाने वाली अग्राकित समिति एवं आयोगों ने माध्यमिक शिक्षा को गतिशील बनाने और उसको देश की परिस्थितियों के अनुकूल बनाने की चेष्टा की है-
1. ताराचन्द समिति (Tara Chand Committee, 1948)-
इस समिति का मुख्य उद्देश्य उच्च शिक्षा के माध्यम पर विचार करना था। परन्तु प्रसंगवश इस समिति ने माध्यमिक शिक्षा पर विचार करते हुए निम्न सुझाव दिये
(i) माध्यमिक स्तर की शिक्षा की अवधि 12 वर्ष हो। समिति ने इस अवधि को 5 वर्ष की जूनियर बेसिक शिक्षा, 3 वर्ष की उच्च बेसिक शिक्षा तथा 4 वर्ष की उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के रूप में विभक्त किया।
(ii) माध्यमिक शिक्षा बहु-उद्देशीय होनी चाहिये।
(iii) माध्यमिक शिक्षा की जाँच हेतु एक आयोग की नियुक्ति को जानी चाहिये।
2. विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (University Education Commission, 1948-49)-
इस आयोग का मुख्य उद्देश्य विश्वविद्यालय शिक्षा की जाँच करना था। आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में विचार विश्वविद्यालय शिक्षा के सन्दर्भ में किया है।
इस आयोग ने भारतीय शिक्षा प्रणाली में माध्यमिक शिक्षा को सबसे निर्बल कड़ी बताया और उसमें सुधार किये जाने पर बल दिया। स्वयं कमीशन के शब्दों में "हमारी शिक्षा व्यवस्था में हमारी माध्यमिक शिक्षा सबसे निर्बल कड़ी है और उसमें तत्काल सुधार किये जाने की आवश्यकता है।"
3. माध्यमिक शिक्षा आयोग (Secondary Education Commission, 1952-53)-
इस आयोग ने माध्यमिक शिक्षा की जाँच की। आयोग ने माध्यमिक शिक्षा को एकमार्गीय एवं उद्देश्यहीन बताया। उसने यह मत व्यक्त किया कि माध्यमिक शिक्षा केवल विश्वविद्यालय शिक्षा की पृष्ठभूमि के रूप में कार्य कर रही है जबकि इसे स्वयं में पूर्ण होना चाहिये।
इस शिक्षा का पाठ्यक्रम दोषपूर्ण है। यह बालक के जीवन से सम्बन्धित नहीं है। प्रचलित शिक्षण विधियाँ नई परिस्थितियों के लिहाज में पुरानी पड़ गई है। परीक्षा प्रणाली भी दोषपूर्ण है। इसने सम्पूर्ण विद्यालयी वातावरण को आक्रान्त कर रखा है। यह शिक्षा नीरस एवं पुस्तकीय ज्ञान पर बल देने वाली है।
4. शिक्षा-आयोग (Education Commission, 1964-66)-
इस आयोग की नियुक्ति शिक्षा के सभी स्तरों की जाँच करने के लिये हुई थी। इसने माध्यमिक शिक्षा में सुधार करने के लिये महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये।
माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य (AIMS OF SECONDARY EDUCATION)
केन्द्रीय सरकार द्वारा गठित 1952 में डॉ लक्ष्मणस्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में गठित 'माध्यमिक शिक्षा आयोग' ने माध्यमिक शिक्षा के अग्रलिखित 5 उद्देश्यों की ओर संकेत किया-
1. लोकतांत्रिक नागरिकता का विकास (Development of Democratic Citizenship)
भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में स्वस्थ नागरिकता का विकास आवश्यक है। नागरिकता का अर्थ अधिकारों व कर्तव्यों के ज्ञान के द्वारा अपने दायित्व को पूरा करना है। एक कुशल नागरिक ही देश को विभिन्न समस्याओं का समाधान कर सकता है।
प्राय: अधिकांश बालक माध्यमिक स्तर तक ही शिक्षा ग्रहण करते हैं। अतः इस स्तर पर शिक्षा का उत्तरदायित्व बालकों को लोकतांत्रिक नागरिकता की शिक्षा देना है। लोकतंत्र की सफलता हेतु बोलने व लिखने की योग्यता आवश्यक है। अतः आदर्श नागरिकों में सामाजिकता, अनुशासन, सहयोग, सहिष्णुता, सच्ची देश भक्ति व विश्व नागरिकता के गुणों का विकास होना आवश्यक है।
2. व्यावसायिक कुशलता का विकास (Development of Vocational Efficiency) -
वर्तमन शिक्षा पद्धति मुख्यतः पुस्तकीय व सैद्धान्तिक होने के कारण इसमें कार्यानुभव व श्रम के महत्व का कोई प्रावधान नहीं है। अत: देश में औद्योगीकरण को देखते हुए शिक्षा का प्रत्यक्ष सम्बन्ध उत्पादन से करने हेतु छात्रों की व्यावसायिक कुशलता का विकास किया जाना आवश्यक माना गया, ताकि छात्रों में तकनीकी कुशलता व क्षमता का विकास किया जा सके।
इसके लिये शिक्षा के प्रयोगात्मक पक्ष को अधिक सबल बनाने की आवश्यकता अनुभव की गई। इससे उद्योगों व तकनीकी संस्थाओं में काम करने के लिये कुशल व प्रशिक्षित लोग मिल सकेंगे व देश के प्राकृतिक स्रोतों का अधिकतम लाभ उठा सकने के कारण देश की राष्ट्रीय आय में भी वृद्धि होगी तथा शिक्षा समाप्ति के बाद छात्रों को नौकरी के लिये भटकना नहीं पड़ेगा, क्योंकि व्यावसायिक शिक्षा उन्हें किसी एक निश्चित व्यवसाय को करने के लिये तैयार कर देगी।
3. व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना (Allaround Development of Personality) -
माध्यमिक शिक्षा द्वारा छात्रों में ऐसी रचनात्मक शक्तियों का विकास किये जाने की आवश्यकता अनुभव की गई, जिससे वह अपनी सांस्कृतिक विरासत को समझ सके तथा उनके व्यक्तित्व का भी सर्वांगीण विकास हो सके। इसमें शारीरिक, मानसिक, नैतिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक सभी प्रकार का विकास सम्मिलित है।
अध्यापक को छात्रों के विकास के लिये इस प्रकार का स्वस्थ वातावरण विकसित करना चाहिये, जिससे छात्र अपनी रुचि के अनुसार सृजनात्मक क्रियाओं में भाग ले सकें तथा अपनी रचनात्मक क्षमताओं का सदुपयोग करके अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें।
4. नेतृत्व का प्रशिक्षण देना (Training for Leadership) -
लोकतंत्र की सफलता हेतु उसके नागरिकों का अनुशासित रहना तथा उनमें नेतृत्व के गुणों का होना आवश्यक है। अतः माध्यमिक शिक्षा का उद्देश्य भी विद्यार्थियों को अनुशासन के साथ-साथ नेतृत्व की भी शिक्षा प्रदान करना है। नेतृत्व का अर्थ नेतागीरी से नहीं है, बल्कि नेतृत्व का तात्पर्य उच्च शैक्षिक स्तर पर सामाजिक समस्याओं को स्पष्ट और गहन समझदारी तथा अधिकाधिक कुशलता से है। अत: छात्रों को कुशल नागरिकता का प्रशिक्षण आरम्भ से दिया जाए तथा स्वस्थ नागरिकों की आवश्यकता पूर्ति द्वारा प्रजातन्त्र को सफल बनाया जाए।
5. चरित्र का निर्माण करना (Character Building) -
शिक्षा का मूल उद्देश्य चरित्र का निर्माण करना है, क्योंकि उच्च चरित्र ही मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता है। अतः विद्यालयों का यह दायित्व होना चाहिये कि वे छात्रों का विकास चारित्रिक व नैतिक आधारों पर करें। सचरित्र से अनेक सद्गुण में का विकास होता है, अत: हमें छात्रों के चरित्र निर्माण पर विशेष बल देना चाहिये।
माध्यमिक शिक्षा की कुछ प्रमुख समस्याएँ (SOME IMPORTANT PROBLEMS OF SECONDARY EDUCATION)
स्वतन्त्र भारत में माध्यमिक शिक्षा का विकास तीव्र गति से हुआ है। किन्तु इस विकास का प्रबन्ध केवल उसकी संख्यात्मक वृद्धि से है, गुणात्मक उन्नति से नहीं। समय-समय पर किये ने वाले प्रयासों के बावजूद न तो उसकी संरचना में कोई विशेष परिवर्तन हुआ है और न उसकी उयोगिता में कोई विशेष अभिवृद्धि। वह हमारी शिक्षा व्यवस्था की अब भी सबसे निर्बल कड़ी है।
वास्तविक जीवन से असम्बद्ध है। वह उन मूलभूत आवश्यकताओं के प्रति कोई ध्यान नहीं देती जिनकी पूर्ति प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रौढ़ जीवन में चाहता है। इस प्रकार हमारी प्रचलित माध्यमिक साक्षा में अनेक दोषों और समस्याओं का समावेश हो गया। हम कुछ प्रमुख समस्याओं और उनके समाधान पर निम्नलिखित पंक्तियों में प्रकाश डाल रहे हैं-
1. समस्या उद्देश्यहीनता (Aimlessness)-
हमारी माध्यमिक शिक्षा की उद्देश्यहीनता एक वयंसिद्ध सत्य है। वस्तुतः इस शिक्षा का जो उद्देश्य पराधीन भारत में था, वही स्वाधीन भारत में भी है। माध्यमिक शिक्षा ग्रहण करने वाले भारतीय छात्रों के केवल दो उद्देश्य होते हैं- उच्च शिक्षा की किसी संस्था में प्रवेश पाना या जीविकोपार्जन हेतु कोई छोटी-मोटी नौकरी प्राप्त करना।
उपर्युक्त दो उद्देश्यों में से किसी एक की प्राप्ति के लिये विद्यार्थीगण अपने सुख एवं स्वास्थ्य को आहुति देकर पुस्तकों को विषय सामग्री को कण्ठस्थ करने में अपना समय व्यतीत करते हैं और उनके अभिभावक अपने सुख एवं स्वास्थ्य पर धन व्यय न करके, उसे उनको दे देते हैं। किन्तु कि विद्यार्थियों को अपने उद्देश्य की प्राप्ति में असफलता मिलती है, वे एवं उनके अभिभावक दोनों भग्नाश का शिकार बनकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं।
समाधान निश्चित उद्देश्य (Definite Aims)
माध्यमिक शिक्षा को उपकारी एवं गुणकारी बनाने के लिये उसके उद्देश्यों को सतर्कता से निश्चित किया जाना परम आवश्यक है। उपयुक्त उद्देश्यों के अभाव में उसका सफल और सार्थक होना असम्भव है। यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य किस आधार पर निर्धारित किये जाने चाहिये ? इस विषय में डॉ. एस. एन. मुकर्जी का परामर्श है "माध्यमिक शिक्षा स्वयं में पूर्ण होनी चाहिये और उसे छात्रों को उच्च शिक्षा के लिये तैयार करना चाहिये।
उसे कुछ छात्रों को जीवन में प्रवेश करने के लिये और दूसरों को विश्वविद्यालय में प्रवेश करने के लिये तैयार करना चाहिये।" "माध्यमिक शिक्षा आयोग' ने भारत की वर्तमान आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों के सम्बन्ध में शिक्षा के जो उद्देश्य निर्धारित किये हैं वे भी उपयुक्त हैं। इन उद्देश्यों का विवेचन 'माध्यमिक शिक्षा आयोग' नामक अध्याय में किया जा चुका है।
2. समस्या छात्र अनुशासनहीनता (Student Indiscipline)
वर्तमान माध्यमिक शिक्षा की एक नवीन जटिल समस्या देशव्यापी छात्र अनुशासनहीनता की है। इसके लिये छात्रों पर दोषारोपण करना, उनके प्रति असीम अन्याय करना है। इसका कारण यह है कि अनुशासनहीनता के लिये छात्र नहीं, वरन् अनेक शैक्षिक, आर्थिक एवं सामाजिक कारण उत्तरदायी हैं।
इन कारणों में सबसे अधिक गम्भीर हैं अनुपयुक्त पाठ्यक्रम, दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली, उद्देश्यहीन शिक्षा, सहशिक्षा का प्रचलन, जातीय पक्षपात, आर्थिक कठिनाइयाँ, सामाजिक मान्यताओं में परिवर्तन, छात्रों के प्रति अध्यापकों की उदासीनता, राजनीतिक दलों का छात्रों को प्रोत्साहन, कामोद्दीपक चलचित्र, अश्लील गीत-साहित्य इत्यादि। इन सब कारणों के फलस्वरूप छात्रों में अनुशासनहीनता की इतनी तीव्र गति से वृद्धि हो रही है कि छात्र-वर्ग, समाज के भाल पर कलंक की कालिमा को प्रतिदिन अधिक ही अधिक गहरा करता चला जा रहा है। यदि इस समस्या का तुरन्त समाधान नहीं किया गया तो वह असाध्य रोग बनकर हमारे देश के लिये दारुण दुःख का कारण बन सकती है।
समाधान कुछ सुझाव (Some Suggestions)
देश में सर्वत्र विद्यमान छात्र अनुशासनहीनता की समस्या का समाधान करने के लिये 6 उपायों का सुझाव दिया जा सकता है।
पहला, माध्यमिक शिक्षा को दोषमुक्त करके, समयानुकूल बनाया जाये, ताकि वह वयस्क जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सके।
दूसरा, छात्रों को अनुशासन का महत्त्व बताकर, उनके हृदय में अनुशासन के प्रति प्रेम एवं श्रद्धा जाग्रत की जाये।
तीसरा, छात्रों एवं शिक्षकों में पारस्परिक प्रेम एवं आदर को भावना जाग्रत करके, उनमें मधुर सम्बन्धों की स्थापना की जाये।
चौथा, एक कानून बनाकर छात्रों को राजनीतिक आन्दोलन में भाग लेना दण्डनीय अपराध घोषित कर दिया जाये।
पाँचवीं, सरकार द्वारा कामुक साहित्य, गीतों और चलचित्रों पर कठोर प्रतिबन्ध लगा दिया जाये। छठवाँ, हुमायूँ कबीर के अनुसार "विद्यालयों में प्रदान की जाने वाली शिक्षा में नैतिक सामग्री को समाविष्ट करने का प्रयास किया जाये।" "An attempt should be made to introduce ethical content in instruction imparted in schools." Humayun Kabir: Letters on Discipline.
3. समस्या निर्देशन का अभाव (Absence of Guidance)
भारत के अनेक माध्यमिक स्कूलों में निर्देशन कार्यक्रमों का अभाव है। इन स्कूलों में निर्देशन न केवल छात्रों की दृष्टि से, वरन् शिक्षकों एवं प्रधानाचायों की दृष्टि से भी आवश्यक है। छात्रों की दृष्टि से इसलिये आवश्यक है, क्योंकि अपरिपक्व मस्तिष्क वाले होने के कारण वे अपनी क्षमताओं के अनुकूल पाठ्य विषयों का चयन करने में असमर्थ होते हैं।
त्रुटिपूर्ण चयन का परिणाम होता है परीक्षा में उनकी असफलता, और असफलता अपव्यय का कारण बनती है। जहाँ तक शिक्षकों एवं प्रधानाचायों का प्रश्न है, निर्देशन उनको अपने छात्रों की अभिरुचियों एवं योग्यताओं का ज्ञान प्रदान करता है, जिससे उत्पन्न होकर वे उनकी शैक्षिक प्रगति में अधिक योग दे सकते हैं।
समाधान निर्देशन की व्यवस्था (Provision for Guidance)
'माध्यमिक शिक्षा आयोग' की सिफारिश के अनुसार भारत के 13 राज्यों में निर्देशन सेवाओं (Guidance Services) की व्यवस्था कर दी गई है, जिनसे लगभग 3,000 माध्यमिक स्कूलों के छात्र, शिक्षक एवं प्रधानाचार्य लाभान्वित हो रहे है। अतः हम कह सकते हैं कि अब तक छात्रों को निर्देशन प्रदान करने की दिशा में जो कार्य किया गया है, वह केवल नाममात्र के लिये है। आवश्यकता इस बात की है कि भारत के प्रत्येक हाईस्कूल और हायर सेकण्डरी स्कूल के छात्रों के लिये निर्देशन सेवाओं को सुलभ बनाया जाये।
शिक्षा आयोग का मत है कि निर्देशन एवं मन्त्रणा को शिक्षा का एक आवश्यक अंग माना जाये। वह केवल समस्यात्मक बालकों के लिये ही नहीं वरन् समस्त बालकों के लिये हो। इसका ध्येय उनको समय-समय पर अपने निर्णयों एवं व्यवस्थापनों को निर्धारित करने में सहायता प्रदान करना होना चाहिये। 'शिक्षा-आयोग' ने विद्यालय शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर इसके सम्बन्ध में निम्नांकित मुझाव दिये हैं
(अ) प्राथमिक स्तर पर निर्देश-
1. प्राथमिक विद्यालय की निम्नतम कक्षा से निर्देशन देना आरम्भ किया जाये।
2. प्राथमिक विद्यालयों से पृथक् रूप में परामर्शदाता नियुक्त करना कठिन है, क्योंकि उनकी संख्या बहुत अधिक है। यह व्यवस्था बहुत खर्चीली होगी।
अतः व्यावहारिक दृष्टिकोण से उनके शिक्षकों को प्रशिक्षण काल में निर्देशन सम्बन्धी बातों का ज्ञान दिया जाये जिससे वे इस कार्य को सफलतापूर्वक चला सकें। उन्हें इस काल में सरल निदानात्मक परीक्षणों तथा व्यक्तिगत विभिन्नताओं से आवश्यक रूप से अवगत कराया जाये।
3. प्रशिक्षण विद्यालयों में निर्देशन सेवाओं (Guidance Service) को संचालित किया जाये।
4. प्राथमिक शिक्षकों के लिये सेवाकालीन पाठ्यक्रम (In-Service Course) की व्यवस्था की
5. प्रादेशिक भाषाओं में व्यावसायिक साहित्य का निर्माण किया जाये। जाये।
6. प्राथमिक शिक्षा की समाप्ति पर छात्रों तथा उनके अभिभावकों को आगे की शिक्षा के लिये विषयों के चयन करने में सहायता प्रदान की जाये।
(ब) माध्यमिक स्तर पर निर्देशन-
1. माध्यमिक स्तर पर निर्देशन छात्रों की रुचियों एवं योग्यताओं के विकास में सहायक हो।
2. सभी माध्यमिक विद्यालयों का न्यूनतम निर्देशन कार्यक्रम तैयार किया जाये।
3. 19 माध्यमिक स्कूलों के लिये एक परामर्शदाता नियुक्त किया जाये। परन्तु विद्यालय के अन्य शिक्षक परामर्शदाता को निर्देशन के कार्यों में आवश्यक सहयोग प्रदान करें।
4. प्रत्येक जिले में कम-से-कम एक विद्यालय में निर्देशन का विस्तृत कार्यक्रम संचालित किया जाये, जो उस जिले के समस्त विद्यालयों के लिये आदर्श का कार्य करे।
5. माध्यमिक विद्यालयों के समस्त शिक्षकों को प्रशिक्षण काल या सेवाकाल में निर्देशन सम्बन्धी तथ्यों से अवगत कराया जाये।
6. भारतीय परिस्थितियों में निर्देशन से सम्बन्धित समस्याओं पर अनुसंधान कार्य और इससे सम्बन्धित साहित्य तैयार कराया जाये।
शिक्षा आयोग के उपर्युक्त सुझाव बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। आयोग ने निर्देशन की आवश्यकता का अनुभव किया। इसी कारण उसने प्राथमिक स्तर से ही इसकी व्यवस्था पर बल दिया।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की संशोधित कार्य योजना 1992 के अनुसार शैक्षिक तथा व्यावसायिक चयन के सम्बन्ध में छात्रों, अभिभावकों तथा शिक्षकों को आवश्यक निर्देशन देने के लिये व्यावसायिक निर्देशन उपलब्ध कराया जायेगा। निर्देशन कार्यक्रमों का लक्ष्य छात्रों को विभिन्न पाठ्यक्रमों में रोजगार के अवसरों के बारे में सूचित करना, सेवायुक्त प्रशिक्षण (On the Job Training) और नियोक्ताओं (Employers) से मिलकर कार्य करते हुए व्यवस्थापन (Placement) प्रदान करना होना चाहिये।
अतः प्रत्येक राज्य तथा संघ शासित क्षेत्र में व्यवस्थित निर्देशन की व्यवस्था की जानी चाहिये। इस कार्य को आधारभूत कोर्स के शिक्षकों को सौंपा जा सकता है। परन्तु उन्हें इस कार्य को सौंपने से पूर्व व्यावसायिक निर्देशन के विषय में पर्याप्त प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिये।
शैक्षिक और व्यावसायिक निर्देशन के वर्तमान राज्य ब्यूरो (State Bureaus) को राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् के परामर्श से शिक्षकों को उनके सम्बद्ध राज्यों के लिये प्रशिक्षित करने का दायित्व लेना चाहिये। राज्यों/केन्द्र शासित क्षेत्रों को भी मीडिया के माध्यम से सूचना प्रदान करते हुए व्यावसायिक कार्यक्रम को लोकप्रिय बनाना चाहिये। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् ने कुछ वीडियो फिल्म तथा इश्तहारों का निर्माण किया है जिनका उपयुक्त प्रयोग किया जा सकता है।
4. समस्या-शिक्षण का निम्न स्तर (Low Standard of Teaching) -
वर्तमान माध्यमिक शिक्षा की एक विकट समस्या शिक्षण का निम्न स्तर है। पिछले कुछ वर्षों से माध्यमिक शिक्षा को संरचना (Pattern) को नवीन स्वरूप प्रदान करने के लिये, उसका पुनर्गठन किया जा रहा है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उसके उद्देश्यों, पाठ्य विधियों एवं कार्यक्रमों में अनेक परिवर्तन किये जाते हैं। परिणामतः आज के माध्यमिक स्कूल 10 या 10 वर्ष से अधिक पहले के माध्यमिक स्कूल नहीं है, उनको अनेक नवीन कार्य एवं उत्तरदायित्व सौंपे गये हैं। उनकी सफलता मुख्यतः दो बातों पर निर्भर है उपयुक्त शिक्षण विधियाँ एवं उत्साही शिक्षक।
जहाँ तक शिक्षण विधियों का प्रश्न है, वे सर्वथा अनुपयुक्त हैं। इसका कारण यह है कि प्रचलित शिक्षण विधियाँ केवल कुछ सीमा तक छात्रों का मानसिक विकास करती हैं। वे निर्जीव, नीरस एवं अमनोवैज्ञानिक होने के कारण न तो छात्रों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर प्रतिक्रिया करती हैं और न उनके समस्त गुणों का विकास करने में सहायता देती हैं। जहाँ तक उत्साही शिक्षकों का प्रश्न है, उनकी उपलब्धि की सुदूर भविष्य में भी आशा नहीं है। इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए 'माध्यमिक शिक्षा-आयोग' ने लिखा है "हमें इस बात से अत्यधिक दुःख हुआ कि शिक्षकों की सामाजिक स्थिति, वेतन और कार्य की दशाएँ अत्यन्त असन्तोषजनक हैं। वास्तव में, हमारा सामान्य विचार यह है कि समग्र रूप में उनकी स्थिति पहले से बहुत अधिक खराब है।"
समाधान-कुछ सुझाव (Some Suggestions)-
वर्तमान माध्यमिक स्कूलों में शिक्षण स्तर को समुन्नत बनाने के लिये दो सुझाव दिये जा सकते हैं-शिक्षण की विधियों एवं शिक्षक स्थिति में सुधार। शिक्षण विधियों के सुधार के सम्बन्ध में माध्यमिक शिक्षा आयोग ने जो सुझाव दिये हैं, वे प्रशंसनीय है और उनकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित हैं-
1. शिक्षण विधियों में 'क्रिया पद्धति' (Activity Method) एवं 'योजना पद्धति' (Project Method) का प्रमुख स्थान होना चाहिये।
2. शिक्षण विधियों को छात्रों को व्यक्तिगत प्रयासों से ज्ञान का अर्जन करने और उसे प्रयोग करने का अवसर देना चाहिये।
3. शिक्षण विधियों को छात्रों में कार्य को प्रेम, कुशलता, ईमानदारी और पूर्ण रूप से करने को शक्तिशाली इच्छा उत्पन्न करनी चाहिये।
4. शिक्षण विधियों को छात्रों की वैयक्तिक विभिन्नताओं के प्रति ध्यान देना चाहिये और सभी को प्रगति करने के समान अवसर देने चाहिये।
शिक्षण स्तर को उच्च बनाने का दायित्व शिक्षक पर है। यदि शिक्षक थोड़ी-सी ईमानदारी से अपने दायित्व का निर्वाह करता है तो शिक्षण के स्तर को उच्च बनाया जा सकता है। सरकार ने शिक्षक की स्थिति को सुधारने के लिये जितने प्रयास किये हैं, उतने शिक्षक ने अपने शैक्षिक दायित्व के निर्वाह के लिये प्रयास नहीं किये हैं।
राज्य व केन्द्र सरकार द्वारा माध्यमिक शिक्षा योजनाएँ (STATE AND CENTRAL GOVERNMENT PLAN FOR SECONDARY EDUCATION)
1. राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (Rashtriya Madhyamik Shiksha Abhiyan)-
वर्ष 2009 में माध्यमिक शिक्षा तक पहुँच व वृद्धि करने तथा इनकी गुणवत्ता में सुधार लाने के उद्देश्य में इस अभियान को शुरू किया गया। इसके प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित है
(i) शिक्षा के न्यूनतम स्तर को कक्षा 9 तक और सार्वत्रिक पहुँच को माध्यमिक शिक्षा तक उठाना।
(ii) विज्ञान, गणित और अंग्रेजी पर ध्यान दिये जाने के साथ अच्छी गुणवत्ता माध्यमिक शिक्षा को सुनिश्चित करना।
(iii) उच्चतर प्राथमिक विद्यालयों को माध्यमिक विद्यालयों तक उन्नयन करना।
(iv) मौजूदा माध्यमिक विद्यालयों का सुदृढ़ीकरण।
(v) अध्यापकों को सेवाकालीन प्रशिक्षण प्रदान करना और विद्यालय भवनों और अध्यापकों के आवास गृहों की प्रमुख मरम्मत का प्रावधान करना। ग्यारहवीं योजना के तीसरे वर्ष के दौरान भी आर. एम. एस. ए. के अन्तर्गत अच्छी प्रगति हुई थी।
2. माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक स्कूलों की छात्राओं के लिए बालिका छात्रावास निर्मित करने एवं चलाने की योजना (Scheme for Building Girls Hostels)
वित्तीय वर्ष 2008-09 में शुरू की गई यह योजना पूर्णतः केन्द्र प्रायोजित है। इसके अन्तर्गत शैक्षिक रूप में पिछड़े हुए 3500 ब्लॉकों में 100 सोट वाले बालिका छात्रावास स्थापित किये जाते हैं। इस योजना का मुख्य उद्देश्य लड़कियों को माध्यमिक स्कूल में बनाये रखना है ताकि वे स्कूलों की दूरी अपनी वित्तीय स्थिति अथवा अन्य सामाजिक कठिनाइयों के कारण पढ़ाई जारी रखने से वंचित न रह जायें।
इस योजना में कक्षा 9 से 12 में पढ़ने वाली अनुसूचित जाति और जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय तथा बी. पी. एल. परिवारों की 14-18 आयु वर्ग की छात्रायें है।
3. स्कूलों में विज्ञान शिक्षा को बढ़ावा देना (Encouraging Science Education in Schools)
विज्ञान शिक्षा को सुधारने के लिए 1986 में केन्द्र प्रायोजित योजना के रूप में इसे शुरू किया गया। योजना के तहत शिक्षकों को भी गणित एवं विज्ञान का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस योजना का एक प्रमुख भाग स्कूली स्तर पर छात्रों को अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञान ओलम्पियाड में भागीदारी करवाना है।
4. माध्यमिक स्तर पर अशक्तों के लिए समावेशी शिक्षा (IEDSS: Integrated Education for Disabled at Secondary Stage)-
इस योजना की शुरुआत वर्ष 2009 में हुई। इस योजना के अन्तर्गत केवल माध्यमिक स्तर पर कक्षा 9 से 12 तक पढ़ाई करने वाले बच्चे शामिल किये जाते हैं जो अशक्त व्यक्ति अधिनियम, 1995 तथा राष्ट्रीय ट्रस्ट अधिनियम 1999 के अन्तर्गत परिभाषित एक या अधिक अशक्तता से ग्रस्त हैं और उनकी आयु 14 से 18 वर्ष के ऊपर है। यह पूर्णतः केन्द्र प्रायोजित योजना है। योजना के लिए वर्ष 2011-12 के बजट में 100 करोड़ रुपये आबंटित किये गये हैं।
5. मॉडल स्कूल (Model School)
पूरे देश के शैक्षिक रूप से पिछड़े ब्लॉकों में राज्य सरकारों के तहत उत्कृष्टता बैंचमार्क के रूप में कार्य करने के लिए 2500 उच्च गुणवत्ता वाले विद्यालयों को स्थापित करने की नई केन्द्र प्रायोजित स्कीम का प्रथम चरण वर्ष 2008-09 में शुरू किया गया है। इस योजना की मुख्य विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं
(i) स्थान (Place) इन 3500 मॉडल विद्यालयों को शैक्षिक रूप से पिछड़े ब्लॉकों (ई बी. बी.) में स्थापित किया जायेगा।
(ii) जमीन (Land) इन विद्यालयों के लिए जमीन को राज्य सरकारें अभिनिर्धारित करेंगी और निःशुल्क प्रदान करेंगी।
(iii) शिक्षा का माध्यम (Type of Education) राज्य सरकारें शिक्षा के माध्यम का निर्णय लेंगी तथापि अंग्रेजी के शिक्षण और बोलचाल की अंग्रेजी पर विशेष ध्यान दिया जायेगा।
(iv) कक्षाएँ (Classes)- इन विद्यालयों में कक्षा VI से XII तक तथा IX से XII तक की कक्षायें होंगी।
(v) प्रबन्धन (Management) इन विद्यालयों को राज्य सरकार की समितियाँ केन्द्रीय विद्यालय संगठन के विद्यालयों की तरह संचालित करेंगी।
कक्षा VI से XII तक अथवा IX से XII तक की कक्षाओं वाले दो अनुभागों वाले विद्यालयों की आवर्ती और अनावर्ती दोनों प्रकार की लागत का हिस्सेदारी पैटर्न 75 25 होगा। विशेष श्रेणो के राज्यों के लिए हिस्सेदारी पैटर्न 90 10 होगा।
6. प्लस टू स्तर पर माध्यमिक शिक्षा के व्यवसायीकरण की योजना (Vocationalisation of Secondary Education at +2 Level)
वर्ष 1988 से यह योजना शुरू की गई, जिसे वर्ष 1992-93 में कुछ संशोधन करके लागू किया गया। अब तक इस योजना ने लगभग 10,000 स्कूलों में 21,000 अनुभागों के रूप में विशाल अवसंरचना का सृजन किया है। योजना की शुरुआत से लेकर अब तक 765 करोड़ रुपये अनुदान राशि जारी की गयी है तथा प्लस टू पर 10 लाख छात्रों को व्यवसायीकरण शिक्षा का प्रावधान किया गया है। वर्ष 2011-12 में 25 करोड़ रुपये परिव्यय का प्रस्ताव है।
7. छात्राओं के लिए हॉस्टिल सुविधाओं का विकास (Development of Hostel Facilities for Girls Students) -
सन् 1992 की कार्य योजना में माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर बालिकाओं का दाखिला बढ़ाने के लिये विशेष योजना तैयार करने की सिफारिश की गई। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा के क्षेत्र में गैर सरकारी संगठनों की भागीदारी को बढ़ावा देने के दिशा-निर्देश दिये गये थे। इन दिशा-निर्देशों तथा सिफारिशों को लागू करने के लिये आठवीं योजना में माध्यमिक तथा उच्चतर माध्यमिक स्कूलों में छात्राओं के लिये बोर्डिंग तथा हॉस्टिल सुविधाएँ बढ़ाने की योजना शुरू की गई। इसके अन्तर्गत -
(i) फर्नीचर (इसमें बिस्तर भी शामिल है) और बर्तनों की खरीद तथा मनोरंजन की सुविधाएँ। विशेष रूप से खेलकूद, वाचनालय सामग्री तथा पुस्तकें उपलब्ध कराने के लिये 1500 रुपये प्रति बालिका की दर से एक मुश्त अनुदान दिया जाता है।
(ii) छात्रावास में रहने वाली बालिकाओं के भोजन तथा रसोइये व वार्डन के वेतन के लिए 5000 रुपये प्रति वर्ष प्रति बालिका की दर से सहायता दी जाती है। बशर्ते उस छात्रावास में मान्यता प्राप्त स्कूलों की नौवीं से बारहवीं कक्षा तक की कम-से-कम 25 छात्राएँ रहती हों लेकिन अधिकतम 50 छात्राओं तक ही यह सहायता उपलब्ध होगी।
8. राष्ट्रीय खुला विद्यालय (National Open School)-
इस स्कूल की स्थापना 1986 को राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत नवम्बर, 1989 में एक स्वायत्त संगठन के रूप में भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने की थी। इसका उद्देश्य स्कूली शिक्षा पूरी न कर पाने वालों तथा नियमित कक्षाओं में जाने में असमर्थ लोगों को शिक्षा उपलब्ध कराना था।
जुलाई, 1979 में केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने एक ओपन स्कूल की दिल्ली में स्थापना की थी। इस स्कूल को राष्ट्रीय ओपन स्कूल में शामिल कर दिया गया। राष्ट्रीय ओपन स्कूल को कक्षा से 12 तक पंजीकृत छात्रों की परीक्षा लेने तथा प्रमाण-पत्र देने का अधिकार है। यह अपने प्रारंभिक, माध्यमिक तथा उच्चतर माध्यमिक पाठ्यक्रमों के द्वारा उन छात्रों को पढ़ने का मौका देता है जो अपनी शिक्षा जारी रखना चाहते हैं।
राष्ट्रीय ओपन स्कूल ने छ: से चौदह वर्ष तक की आयु के स्कूल जाने वाले बच्चों तथा प्रौढ़ छात्रों के लिये ओपन प्रारंभिक शिक्षा योजना प्रारम्भ की है। इसके निम्नांकित तीन स्तर हैं-
(अ) प्रारंभिक,
(ब) प्राथमिक, तथा
(स) उत्तर प्राथमिक, जो मानक स्कूल की कक्षा 3,5 तथा 8 के बराबर हैं।
इसके अतिरिक्त यह स्कूल गैर-सरकारी संस्थाओं को प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में प्राथमिक तथा उच् उत्तर प्राथमिक स्तर के लिये सामग्री, मानकीकरण प्रमाण-पत्र आदि के रूप में सहायता प्रदान करता है।
यह स्कूल माध्यमिक स्तर पर शैक्षिक तथा व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करता है। इसका उदेश्य शिक्षा को सर्वसुलभ बनाना, सामाजिक समानता तथा न्याय को बढ़ावा देना और एक ग्रहणशोल ययात्र को बढ़ावा देना है। ग्रामीण नौजवान, बालिकाएँ और महिलाएँ, अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लोग, विकलांग और भूतपूर्व सैनिक जैसे उपेक्षित वर्ग इसकी प्राथमिकता में शामिल हैं।
यह स्कूल 1990 में करीब 40 हजार छात्रों को दाखिला देकर प्रारम्भ हुआ था। आज इसमें देश भर में 4 लाख छात्र शिक्षा ले रहे हैं। देश और विदेश में इसके 1000 अध्ययन केन्द्र हैं। ये अध्ययन केन्द्र व्यक्तिगत सहायता के द्वारा अध्ययन प्रक्रिया को सरल बनाते हैं। यह विश्व के सबसे बड़े ओपन स्कूलों में से एक है।
इस स्कूल के मान्यता प्राप्त केन्द्र मध्य एशिया (दुबई, मस्कट, कुवैत तथा आबुधावी), नेपाल (काठमाण्डू तथा मुतवाल) तथा कनाडा (बैंकूवर) में हैं। इस स्कूल का अपना एक परीक्षा बोर्ड है- 'राष्ट्रीय माध्यमिक तथा उच्चतर माध्यमिक एवं व्यावसायिक परीक्षा बोर्ड' जो माध्यमिक तथा उच्चतर माध्यमिक और व्यावसायिक परीक्षाएँ लेता है।
यह बोर्ड भारत के केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड तथा भारतीय स्कूल सर्टीफिकेट परीक्षा परिषद् के समान है। यह बोर्ड वर्ष में दो बार परीक्षा लेता है- मई तथा नवम्बर में। दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रम, जो इस स्कूल द्वारा प्रदान किया जा रहा है, उसकी पद्धति में निम्नांकित तत्व शामिल है-
(i) स्व-अध्ययन मुद्रित सामग्री - यह सामग्री इस स्कूल के एकादमिक स्टाफ द्वारा तैयार की जाती है।
(ii) व्यक्तिगत सम्पर्क कार्यक्रम- इसके अन्तर्गत कक्षाएँ लगाई जाती हैं और मान्यता प्राप्त संस्थाओं में छात्रों को परामर्श भी दिया जाता है।
(iii) श्रव्य-दृश्य कार्यक्रम - छात्र इन कार्यक्रमों को मान्यता प्राप्त अध्ययन केन्द्रों में जाकर देख तथा प्रयोग कर सकते हैं। अध्ययन केन्द्रों में अभ्यास (प्रायोगिक अध्ययन) की भी व्यवस्था होती है।
9. शैक्षिक टैक्नोलॉजी कार्यक्रम (Educational Technology Programme)-
शिक्षा में व्यापक गुणात्मक सुधार लाने के लिये चौथी योजना अवधि के दौरान सन् 1972 में शैक्षिक टैक्नोलॉजी कार्यक्रम शुरू किया गया। योजना के अन्तर्गत राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण (NCERT) में शैक्षिक टैक्नोलॉजी कक्ष स्थापित करने के लिये शत-प्रतिशत सहायता प्रदान को गई।
इन्सैट के आगमन के साथ एन. सी. ई. आर. टी. में एक केन्द्रीय शैक्षिक टैक्नोलॉजी संस्थान (Central Institute of Educational Technology: CIET) और छः राज्यों- आन्ध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, उड़ीसा तथा उत्तर प्रदेश में राजकीय शैक्षिक टैक्नोलॉजी संस्थान (State Institute of Educational Technology: SIET) स्थापित किये गये। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए शैक्षिक टैक्नोलॉजी योजना में संशोधन किया गया।
इसका उद्देश्य शैक्षिक दूरदर्शन तथा श्रवण कार्यक्रम निर्माण सुविधाओं को सशक्त करना और सातवीं योजना अवधि के दौरान प्राथमिक विद्यालयों को एक लाख रंगीन टेलीविजन तथा पाँच लाख रेडियो-कम-कैमट प्लेयर की सप्लाई करके सुविधाओं का विस्तार करना था। कार्यक्रम तैयार करने का कार्य केन्द्रीय शैक्षिक टैक्नोलॉजी संस्थान तथा सभी छ: राजकीय शैक्षिक टैक्नोलॉजो संस्थाओं में शुरू हो गया।
10. विज्ञान शिक्षा (Science Education)-
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में व्याख्यातित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु केन्द्र ने 1987-88 में विद्यालयों में विज्ञान की शिक्षा में सुधार लाने की शुरुआत की, जिससे विज्ञान की शिक्षा का स्तर सुधरे तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण (Temper) को बढ़ावा मिले।
इस योजना के अन्तर्गत प्राथमिक विद्यालयों में 'साइस किट' उपलब्ध कराने, माध्यमिक तथा उच्च्चतर माध्यमिक विद्यालयों में विज्ञान प्रयोगशालाओं को आधुनिक बनाने तथा अधिक उपकरण तथा सामग्री जुटाने, विज्ञान की शिक्षा के लिये जिला संसाधन केन्द्र खोलने तथा विज्ञान एवं गणित के शिक्षकों को उचित प्रशिक्षण देने के लिये राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों को आर्थिक सहायता दी जाती है। इस योजना में विज्ञान की शिक्षा के क्षेत्र में नई परियोजनाएँ (Projects) बनाने और संसाधन सम्बन्धी मदद जुटाने के काम में लगे स्वयंसेवी संगठनों को भी सहायता दी जाती है।
इस योजना का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष स्कूल स्तर पर भारतीय छात्रों को अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञ न ओलम्पियाड में भाग लेने का अवसर प्रदान करना है। भारतीय छात्र अन्तर्राष्ट्रीय गणित ओलम्पियाड में 1989 से, अन्तर्राष्ट्रीय भौतिकी ओलम्पियाड में 1998 से और अन्तर्राष्ट्रीय रसायन- शाम्त्र ओलम्पियाड में 1999 से भाग ले रहे हैं। सन् 2000 में भारतीय छात्र अन्तर्राष्ट्रीय जीव-विज्ञान ओलम्पियाड में भाग लेंगे।
11. केन्द्रीय स्कूल (Central School)-
केन्द्रीय विद्यालय संगठन की योजना को भारत सरकार ने 1962 में दूसरे वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद मंजूरी दी। प्रारम्भ में विभिन्न राज्यों में 20 रेजीमे टल स्कूलों को केन्द्रीय विद्यालयों में परिवर्तित किया गया था। 1965 में एक स्वायत्त निकाय के रूप में केन्द्रीय विद्यालय संगठन की स्थापना की गई, जिसका लक्ष्य केन्द्रीय विद्यालयों की स्थापना तथा उन पर नियंत्रण रखना था।
ये विद्यालय रक्षाकर्मियों सहित केन्द्र सरकार के उन कर्मचारियों के बच्चों के लिये खोले गये जिनके तबादले देश भर में कहीं भी होते रहते हैं, ताकि उन्हें शिक्षा का एक समान पाठ्यक्रम सभी जगह उपलब्ध कराया जा सके। इस समय 874 केन्द्रीय विद्यालय हैं, जिनमें से एक काठमाण्डू तथा एक मास्को में है। सभी केन्द्रीय विद्यालयों में समान पाठ्यक्रम अपनाया जाता है।
12. नवोदय विद्यालय (Navodaya Vidyalaya)-
नवीन राष्ट्रीय शिक्षा-नीति (1986) में किये गये संकल्प - गति-निर्धारक विद्यालय की स्थापना को पूरा करने के लिए नवोदय विद्यालय खोले जा रहे हैं। इनके प्रमुख लक्ष्य अग्र प्रकार हैं-
1. समानता और सामाजिक न्याय के साथ-साथ श्रेष्ठता (Excellence) के लक्ष्य को प्राप्त करना (अनुसूचित जाति एवं जनजाति के बालकों के लिए आरक्षण के साथ)।
2. देश के विभिन्न भागों से आये प्रतिभावान बालकों, अधिकतर ग्रामीण बालकों को साथ-साथ रहने व पढ़ने के अवसर प्रदान करके राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना।
3. उनकी पूर्ण क्षमता को विकसित करना।
4. विद्यालय उन्नयन के राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम में उत्प्रेरक का कार्य करना।
5. प्रतिभावान बच्चों की पारिवारिक, सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति के भेदभाव के बिना उनके सर्वांगीण विकास के लिए आधुनिकतम सुविधाओं सहित श्रेष्ठ स्तर की आधुनिक शिक्षा उपलब्ध कराना।
6 त्रिभाषा फार्मूले के अनुसार तीन भाषाओं में उचित योग्यता प्रदान करना।
7 अनुभव और सुविधाओं के आधार पर शिक्षा में सुधार के लिये केन्द्र के रूप में कार्य करना।
इन नवोदय विद्यालयों की स्थापना का मुख्य लक्ष्य सामाजिक, आर्थिक अथवा अन्य किन्हीं सीमाओं के कारण शिक्षा से वंचित बालकों को गुणात्मक शिक्षा उपलब्ध कराकर उनका सन्तुलित तथा बहुआयामी विकास करना है।
नवोदय विद्यालयों में कक्षा 6 से 12 तक की पढ़ाई की व्यवस्था है। ये विद्यालय केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) से सम्बन्धित हैं। इन विद्यालयों में शिक्षा पूर्णत: निःशुल्क है। छात्र-छात्राओं को आवास, भोजन, पुस्तकें, पाठ्य-सामग्री तथा गणवेश (Uniform) भी निःशुल्क उपलब्ध कराई जाती हैं।
उपर्युक्त योजनाओं के क्रियान्वयन की जब भी बात उठती है तो सरकारी तन्त्र प्राय: पैसों के अभाव की बात उठाता है परन्तु किसी भी राष्ट्रीय योजना के क्रियान्वयन में सवाल पैसों की कमी अथवा अन्य कठिनाइयों का नहीं, बल्कि राष्ट्रीय प्राथमिकताओं और राजनैतिक इच्छा शक्ति का होता है।
इस बात में जरा भी सन्देह नहीं कि शैक्षिक सुधारों के लिए अन्य बातों के अलावा मानवीय एवं भौतिक संसाधनों की कमी को पूरा करने अथवा उनके विस्तार के लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है किन्तु दुर्भाग्य का विषय तो यह है कि हमारे देश में शैक्षिक सुधारों के नाम पर सरकार की थैली प्रायः तंग हो रहती है। जैसा कि देश के जाने-माने शिक्षाविद् डॉ. अनिल सद्गोपाल निःशुल्क एवं अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा के प्रसंग में करते हैं- संसाधनों की कमी तो खैर पुराना बहाना है।
नई आर्थिक नीति को सन् 1991 में घोषणा के बाद सकल राष्ट्रीय अनुपात के रूप में शिक्षा पर किए जाने वाले खर्च में लगातार कमी आई है। संप्रग सरकार के आने के बाद भी राष्ट्रीय आय के कुल प्रतिशत के रूप में यह खर्च कम होता गया है और आज इसका स्तर इतना कम हो गया है कि जो बीस वर्ष पहले था, यानी सकल राष्ट्रीय उत्पाद का महज 3: 5%। कमी इसके बावजूद आई है कि केन्द्र ने शिक्षा के नाम पर 2 प्रतिशत अधिभार वसूला है और सर्वशिक्षा अभियान का लगभग 40 प्रतिशत खर्च विश्व बैंक व अन्य अन्तर्राष्ट्रीय एजेन्सियों में अनुदान या कर्ज के रूप में लिया है।
यानि सरकार की शिक्षा में निवेश करने की राजनैतिक इच्छाशक्ति लगातार घटती गई है। इतिहास में झाँकें तो हमें स्पष्टतः विदित होता है कि किन्हीं-न-किन्हीं कारण में से या तो विशेषज्ञों के सुझावों को तरजीह नहीं दी गई अथवा राजनीतिक पार्टियों के दाँवपेंच और भ्रष्टाचार के चलते हमारी शैक्षिक योजनाएँ वांछित परिणाम हासिल नहीं कर सका।
इसी सन्दर्भ में सबसे सशक्त उदाहरण-कोठारी शिक्षा आयोग (1964-66) द्वारा संस्तुत 'सार्वजनिक शिक्षा की समान विद्यालय प्रणाली' (Common School System of Public Education) की स्थापना और 'पड़ोसी विद्यालय योजना' (Neighbourhood School Plan) है जिसकी शिक्षा के निजीकरण को बढ़ाने वाली ताकतों के चलते निरन्तर अनदेखी हुई है। इसी का परिणाम है कि आज भी इस देश में बहुस्तरीय (Multi-level) स्कूली शिक्षा कायम है।
अमीरों के बच्चों के लिए अलग प्रकार के विद्यालय और गरीब बच्चों के लिए अलग प्रकार के जबकि इन विद्यालयों की शिक्षा सुविधाओं और गुणवत्ता स्तर में जमीन आसमान का अन्तर है। फिर प्राथमिक अथवा माध्यमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण जैसे लक्ष्यों को कैसे पूरा किया जा सकता है।
इसी प्रकार के कुछ अन्य उदाहरण शिक्षा के क्षेत्र में कारपोरेट जगत् की निरंकुशता, राजनीतिक हस्तक्षेप की अधिकता समुचित जवाबदेही का अभाव आदि भी है जिसके चलते प्राथमिक शिक्षा की तरह ही माध्यमिक शिक्षा के सार्वजनीकरण की भी चाल प्रभावित हो रही है।
अत: दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि माध्यमिक शिक्षा जो बहुसंख्य नागरिकों के लिए शिक्षाक्रम में 'टर्मिनस' का कार्य करती है, को यथाशीघ्र सर्वसुलभ और समान रूप से सशक्त व गुणवत्तापरक बनाना व्यक्ति, समाज और देश के हित में है। अतः इसे हमारा राष्ट्रीय दायित्व समझते हुए इसके सार्वजनीकरण हेतु हमें सार्थक प्रयास करने की आवश्यकता है।
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