माध्यमिक शिक्षा आयोग | मुदालियर कमीशन: (1952-1953)

माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर आयोग)-1952-53 [SECONDARY EDUCATION COMMISSION (MUDALIAR COMMISSION): 1952-53]

माध्यमिक शिक्षा को आधुनिक युग की देन स्वीकार किया जाता है। वैदिक कालीन शिक्षा प्रणाली में शिक्षा के केवल दो स्तर थे-प्राथमिक व उच्च। भारत में माध्यमिक शिक्षा का सूत्रपात करने का श्रेय यूरोपीय मिशनरियों को प्राप्त है, जिन्होंने 18वीं शताब्दी के अन्त में इस देश के कुछ भागों में माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना की।


इन्हीं का अनुसरण करते हुए तथा इनसे प्रेरणा पाकर, 19वीं शताब्दी के आरम्भ में भी कुछ राष्ट्रप्रेमी भारतीयों ने उनके चरणचिन्हों का अनुगमन करके माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना का कार्य आरम्भ किया, जिसका मुख्य उद्देश्य धनी भारतीयों की अंग्रेजी भाषा सीखने की माँग की पूर्ति करना था। अतः इस दिशा में उन्हें प्रारम्भिक अवस्था में भारत के इन अंग्रेज शासकों से प्रोत्साहन भी प्राप्त हुआ।


वह आयोग स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् गठित हुआ, द्वितीय आयोग है, परन्तु माध्यमिक शिक्षा का यह पहला आयोग है। हालांकि स्वतन्त्रता के पूर्व भी, सन् 1882 में माध्यमिक शिक्षा के विषय में हन्टर आयोग का गठन किया गया, जिसने माध्यमिक शिक्षा में सुधार हेतु महत्वपूर्ण सुझाव दिये थे। सन् 1919 में मैडलर शिक्षा आयोग का गठन किया गया, जिसका कार्य माध्यमिक शिक्षा के प्रारूपों में परिवर्तन ताना था।

माध्यमिक शिक्षा आयोग | मुदालियर कमीशन: (1952-1953)

अत: इस आयोग की संस्तुतियों के सम्पादन में माध्यमिक शिक्षा परिषदों (Secondary Education Councils) की स्थापना हुई। जाकिर हुसैन समिति ने माध्यमिक स्तर तक बुनियादी शिक्षा (Basic Education) को योजना प्रस्तुत की, जिसे सर्वप्रथम आचार्य नरेन्द्र देव शिक्षा समिति (सन् 1939), ने लागू किया और इस दिशा में प्रयास के रूप में इलाहाबाद में अध्ययन के प्रशिक्षण म्याविद्यालय की स्थापना हुई।


तत्पश्चात् सन् 1949 में सार्जेन्ट शिक्षा प्रतिवेदन ने शिक्षा योजना की आपक योजना प्रस्तुत की, जिसे क्रियान्वित करने का भार, भारतीय शिक्षा सलाहकार डॉ. ताराचन्द पर आ गया। डॉ. ताराचन्द ने शिक्षा विशेषज्ञों का एक आयोग बनाने की आवश्यकता पर बल दिया।


सन् 1951 में शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने इस माँग को फिर दोहराया। इस समय तक माध्यमिक शिक्षा एकमार्गीय होने के कारण अत्यन्त विस्तृत हो जाने पर भी निरुद्देश्य प्राय ही थी। अतः भारत सरकार 323 सितम्बर, सन् 1952 को मदास विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. लक्ष्मण स्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन किया। अध्यक्ष के नाम पर इसे मुदालियर कमीशन भी कहते हैं। इस आयोग के सदस्य थे-


1. डॉ. लक्ष्मण स्वामी मुदालियर, उपकुलपति, मद्रास विश्वविद्यालय

2 डॉ जॉन क्रिस्टी सदस्य

3. डॉ हंसा मेहता - सदस्य, कुलपति, बड़ौदा विश्वविद्यालय

4 श्री केनेथ रस्ट विलियम- सदस्य शिक्षा निदेशक, बड़ौदा

5. डॉ. के. एल. श्रीमाली- सदस्य प्राचार्य विद्याभवन, उदयपुर

6. डॉ. के. जी. सैयेदेन- सदस्य शिक्षा सचिव

7. श्री जे. ए. तारापोरवाला- सदस्य निदेशक तकनीकी संस्थान, बम्बई

8. श्री एम. टी. व्यास-सदस्य प्राचार्य न्यूऐजा स्कूल, बम्बई

9. श्री. ए. एन. वसु-सचिव केन्द्रीय शिक्षा संस्थान, दिल्ली


आयोग की नियुक्ति के उद्देश्य व कार्यक्षेत्र


1. माध्यमिक शिक्षा में सुधार हेतु सभी पहलुओं की जाँच करना।


2. माध्यमिक शिक्षा के सभी पक्षों का आकलन करके उसके विकास एवं सुधार हेतु सुझाव देना जिसमें पाठ्यवस्तु की व्यवस्था एवं उद्देश्यों का प्रतिपादन करना, प्राथमिक, बेसिक तथा उच्चतर माध्यमिक में परस्पर सम्बन्ध स्थापित करना आदि सुझाव शामिल हैं।


3. माध्यमिक शिक्षा से सम्बन्धित अन्य समस्याओं का समाधान बताना।


माध्यमिक शिक्षा आयोग की संस्तुतियाँ (RECOMMENDATIONS OF SECONDARY EDUCATION COMMISSION)


माध्यमिक शिक्षा का तात्कालिक स्वरूप (Existing Nature of Secondary Education)


आयोग ने विभिन्न राज्यों का दौरा करके माध्यमिक शिक्षा में व्याप्त दोषों का पता लगाया और 28 अगस्त, सन् 1953 को 244 पृष्ठों एवं 14 अध्यायों की रिपोर्ट सरकार के समक्ष प्रस्तुत की। माध्यमिक शिक्षा प्रणाली का तात्कालिक स्वरूप व उसमें व्याप्त दोषों का विवरण निम्न है-


1. माध्यमिक स्तर पर दी जाने वाली शिक्षा का जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि इसका पाठ्यक्रम छात्रों की आवश्यकताओं एवं अभिरुचियों के अनुरूप न होने से इससे छात्रों का समुचित विकास सम्भव नहीं है।


2. शिक्षण विधियाँ एवं पाठ्यक्रम का प्रारूप छात्रों में अपेक्षित गुणों व व्यवहारों के विकास हेतु सक्षम नहीं है, क्योंकि यह पाठ्यक्रम छात्रों में सहयोग, आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, अनुशासन तथा आज्ञाकारिता; जैसे - गुणों का समावेश नहीं करता है। 


3. माध्यमिक शिक्षा संकीर्ण व एकांगी होने के कारण भी छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास नहीं कर पाती है।


4. माध्यमिक शिक्षा प्रदान करने का कोई निश्चित उद्देश्य नहीं है।


5. माध्यमिक शिक्षा पर अंग्रेजी का आधिपत्य होने के कारण सभी छात्र, जो अंग्रेजी में विशेष योग्यता नहीं रखते हैं, विषयों का ज्ञान प्राप्त करने में अक्षम रह जाते हैं।


6. माध्यमिक शिक्षा की परीक्षा प्रणाली भी वैध व विश्वसनीय न होने के कारण, छात्रों की योग्यताओं का समुचित मूल्यांकन नहीं करती है। अत: यह दोष पूर्ण है।


7. माध्यमिक शिक्षा प्रणाली व्यक्ति को जीविकोपार्जन हेतु सक्षम नहीं बनाती है, क्योंकि इस शिक्षा प्रणाली में जीवन सम्बन्धी कार्य प्रणाली तथा समस्याओं का बोध कराने की अपेक्षा पुस्तकीय ज्ञान को ही अधिक महत्व दिया जाता है।


8. माध्यमिक शिक्षा प्रणाली में छात्रों का शिक्षक से निकट सम्पर्क न हो पाने के कारण छात्र गाइड, कुंजी, मॉडल पत्र आदि की सहायता से पढ़ने के कारण विषयों का शुद्ध ज्ञान नहीं प्राप्त कर पाते हैं, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है।


9. कक्षाओं में शिक्षक तथा छात्र अनुपात अव्यावहारिक होता है। अत: शिक्षक छात्रों पर पूरा ध्यान नहीं दे पाते।


10. विद्यालयों में प्रयुक्त शिक्षण विधियाँ छात्रों में विचार स्वातंत्र्य की भावना व स्वतः प्रेरणा की भावना विकसित करने में अक्षम हैं। अत: शिक्षा की गुणवत्ता में हास के कारण योग्य छात्र इस व्यवसाय की ओर आकर्षित नहीं हो पा रहे हैं। शिक्षण पद्धति मुख्यता रटने पर आधारित है और शिक्षा अत्यधिक परीक्षा केन्द्रित है।


माध्यमिक शिक्षा आयोग ने उपर्युक्त दोषों का विवेचन इन पाँच वर्गों में किया है-


1. माध्यमिक शिक्षा अव्यावहारिक तथा भविष्य की तैयारी की दृष्टि से उपयोगी नहीं है।

2. छात्रों का सम्पूर्ण विकास करने में अक्षम है।

3. मातृभाषा को अनुदेशन (Instruction) में महत्व न दिये जाने के कारण शिक्षा का माध्यम उचित नहीं है।

4. माध्यमिक शिक्षा छात्रों में अपेक्षित गुणों का विकास करने में अक्षम है।

5. माध्यमिक शिक्षा द्वारा छात्रों में चारित्रिक गुणों का विकास नहीं हो पाता है।


माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Secondary Education)


आयोग ने भारत में राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए, माध्यमिक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य निर्धारित किए-


1. लोकतन्त्रीय नागरिकता का विकास (Development of Democratic Citizenship)-


माध्यमिक शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य छात्रों में लोकतन्त्रीय भावना का विकास करना होना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति में सभी प्रकार के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषयों पर स्वतन्त्रतापूर्वक निर्णय लेने की क्षमता का विकास करने वाली हो।


अतः माध्यमिक शिक्षकों का कर्त्तव्य है कि वे अपने छात्रों में बौद्धिक, सामाजिक एवं नैतिक गुणों का विकास करने हेतु, उनमें स्पष्ट चिन्तन (Clear thinking) की योग्यता, बोलने व लिखने में स्पष्टता, समूह के साथ रहने की कला का विकास करने के साथ ही उनमें अनुशासन, सहयोग, सामाजिक संवेगशीलता व सहनशीलता के गुणों का विकास शिक्षा द्वारा करने में उनकी सहायता करें उनमें सच्ची देश भक्ति की भावना का विकास व विश्व नागरिकता की भावना का विकास हो, जिससे वे राष्ट्र की समृद्धि में सहायता कर सकें।


2. व्यावसायिक कुशलता में उन्नति (Progress in Vocational Skill) -


माध्यमिक शिक्षा को जीविकोपार्जन हेतु उपयोगी बनाने हेतु, इसका दूसरा उद्देश्य छात्रों में व्यावसायिक कुशलता का विकास करना होना चाहिए। अत: माध्यमिक शिक्षकों को अपने छात्रों की तकनीकी एवं व्यावसायिक कुशलता अथवा उत्पादकता की वृद्धि पर विशेष ध्यान केन्द्रित करना चाहिए, जिससे वे राष्ट्र की समृद्धि में सहायता कर सकें और अन्तत: जीवन के सामान्य स्तर की उन्नति करने में सक्षम हो सकें। इस हेतु उनमें निम्न दृष्टिकोण पैदा करने की आवश्यकता है-


(1) काम के प्रति नया दृष्टिकोण (New Outlook) विकसित करना।

(2) प्रत्येक स्तर पर तकनीकी कुशलता एवं निपुणता का विकास करना (Promotion of Technical Skill and Efficiency)


3. व्यक्तित्व का विकास करना (Development of Personality) -


माध्यमिक शिक्षा का तीसरा उद्देश्य छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना होना चाहिए। इसके लिए शिक्षा का संगठन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि छात्रों का साहित्यिक, कलात्मक और सांस्कृतिक विकास हो। छात्र अपनी सांस्कृतिक विरासत को भली भाँति समझ सकें और उसके विकास में आधारभूत योगदान दे सकें। इस हेतु पाठ्यक्रमों में कला, शिक्षा, संगीत, नृत्य जैसे विषयों तथा रोचक कार्यों (Hobbies) के विकास को सम्मानित स्थान प्रदान करना चाहिए।


4. नेतृत्व के गुणों के विकास हेतु शिक्षा (Education for Development of Leadership Qualities) -


माध्यमिक शिक्षा का एक अन्य उद्देश्य व्यक्तियों को सामाजिक, राजनीतिक, औद्योगिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में नेतृत्व के उत्तरदायित्व को वहन करने में समर्थ बनाने हेतु, उनमें नेतृत्व गुणों का विकास करना भी है। अतः शिक्षा द्वारा उन व्यक्तियों को नेतृत्व का प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिए, जो अपने सांस्कृतिक क्षेत्रों में नेतृत्व संभालने की योग्यता रखते हैं।


माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन हेतु नवीन संगठनात्मक प्रारूप (New Organisational Pattern for Restructuring of Secondary Education)


माध्यमिक शिक्षा आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के प्रारूप में परिवर्तन का सुझाव दिया है, क्योंकि माध्यमिक शिक्षा आयोग के द्वारा बताये गये उद्देश्यों की प्राप्ति में असफल रही है। अतः माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन हेतु आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-


1. माध्यमिक शिक्षा की अवधि 7 वर्ष की होनी चाहिए और इसका प्रारम्भ प्राथमिक शिक्षा (जूनियर बेसिक) की कक्षा 5 उत्तीर्ण करने के बाद होना चाहिए अर्थात् यह शिक्षा 11 से 17 वर्ष तक की आयु के छात्र-छात्राओं को दी जानी चाहिए।


2. माध्यमिक शिक्षा की यह अवधि दो भागों में विभाजित की जानी चाहिए-

(अ) 3 वर्ष तक जूनियर शिक्षा 

(ब) 4 वर्ष तक उच्चतर माध्यमिक शिक्षा।


3. कक्षा 11 व 12 वाली वर्तमान इन्टरमीडिएट कक्षा के स्वरूप को बदलकर 11 वीं कक्षा को हाईस्कूल तथा 12 वीं कक्षा को विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कर दिया जाना चाहिए।


4. स्नातक पाठ्यक्रम 3 वर्ष का कर दिया जाना चाहिए और माध्यमिक कॉलेजों से विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने वाले छात्रों के लिए एक वर्ष का पूर्व-विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम रखा जाना चाहिए।


5. कक्षा 11 तक उत्तीर्ण छात्रों को विभिन्न व्यावसायिक व प्राविधिक संस्थानों में प्रवेश की अनुमति दी जानी चाहिए।


6. बहुउद्देशीय कॉलेजों/स्कूलों की स्थापना की जानी चाहिए तथा इन स्कूलों में पाठ्यक्रम का विभिन्नीकरण किया जाना चाहिए, जिससे कि छात्र अपने उद्देश्यों, रुचियों और योग्यताओं के अनुसार पाठ्यक्रम का चयन कर सकें।


7. धाभीण विद्यालयों में कृषि-शिक्षा का विशेष प्रबन्ध होना चाहिए और वहाँ उद्यान-कला, पशु-चालन एवं कुटीर उद्योगों की शिक्षा का प्रबन्ध भी किया जाना चाहिए।


8. माध्यमिक विद्यालयों में आन्तरिक मूल्यांकन की व्यवस्था की जानी चाहिए, इसके द्वारा विद्यालय के अनुशासन में सुधार के साथ छात्र का मूल्यांकन भी उचित रूप से हो सकेगा।


9. पर्याप्त संख्या में पॉलीटेक्निक और टेक्निकल विद्यालयों की स्थापना की जानी चाहिए, जो कि या तो स्वतन्त्र रूप से स्थापित हों अथवा बहुउद्देशीय विद्यालयों से सम्बद्ध हों। ये विद्यालय यथा सम्भव विभिन्न उद्योगों से सम्बन्धित कारखानों के पास होने चाहिए।


10. माध्यमिक स्तर पर कुछ विशेष आवासीय विद्यालय भी खोले जायें, जिनमें बालकों को दोपहर का भोजन दिया जाए।


11. योग्य छात्रों को छात्रवृत्तियाँ दी जानी चाहिए।


12. नेत्रहीन व मूक-बधिर व्यक्तियों की शिक्षा के लिए भी विद्यालयों का समुचित प्रबन्ध होना चाहिए।


13. सरकार द्वारा उद्योगों पर उद्योग शिक्षा कर लगाकर; इससे प्राप्त धन टेक्निकल शिक्षा के विस्तार पर व्यय करना चाहिए।


14. बालक-बालिकाओं की शिक्षा में विशेष अन्तर की आवश्यकता न होने पर भी, बालिकाओं के लिए 'गृहविज्ञान' के अध्ययन की समुचित व्यवस्था आवश्यक रूप से होनी चाहिए।


15. पब्लिक स्कूलों को कुछ समय तक यथावत् चलने दिया जाये, परन्तु एक निश्चित अवधि के बाद उनका संगठन अन्य माध्यमिक विद्यालयों की भाँति कर दिया जाना चाहिए।


16. कृषि, इंजीनियरिंग और चिकित्सा आदि के उच्च शिक्षा केन्द्रों में प्रवेश के लिए उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के बाद एक वर्षीय पूर्व व्यावहारिक पाठ्यक्रम संचालित किया जाना चाहिए।


भाषाओं के अध्ययन हेतु संस्तुतियाँ (Recommendations about the Study of Languages)


1. भाषाओं के शिक्षण हेतु पाँच भिन्न भाषा समूहों पर विचार करना चाहिए


(i) मातृभाषा

(ii) प्रादेशिक भाषा यदि वह मातृभाषा न हो

(iii) संघीय (Federal) भाषा

(iv) शास्त्रीय भाषायें-संस्कृत, आरबी, फारसी, लैटिन आदि

(v) अंग्रेजी अन्तर्राष्ट्रीय भाषा।


2. माध्यमिक स्तर पर शिक्षण का माध्यम मातृभाषा या प्रादेशिक भाषा हो।


3. विद्यालय पाठ्यक्रम में 'हिन्दी' अनिवार्य विषय होना चाहिए, क्योंकि यह केन्द्र की सरकारी (Official) भाषा है, पत्र व्यवहार (Correspondence) की भाषा है तथा राष्ट्रीय एकता को दृढ़ता प्रदान करने में सहायक है।


4. इसके साथ ही आयोग ने पाठ्यक्रम में संस्कृत को भी उचित स्थान देने का सुझाव दिया है।


5. माध्यमिक स्तर पर अंग्रेजी एक अनिवार्य विषय बना रहना चाहिए, क्योंकि यह राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय महत्व की भाषा है और यदि राष्ट्रीय भावना से उत्तेजित होकर पाठ्यक्रम से अंग्रेजी को हटा दिया जावेगा तो उसका हानिकारक प्रभाव पड़ेगा।


माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम (Curriculum of Secondary Education)


माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम प्रस्तुत करने से पूर्व आयोग ने प्रचलित शिक्षा के पाठ्यक्रम में कुछ दोषों का उल्लेख किया है तथा इसे अनुचित, अवास्तविक, अमनोवैज्ञानिक, संकीर्ण पुस्तकीय व अप्रगतिशील बताते हुए इसका खंडन किया है। पाठ्यक्रम में निहित दोषों का उल्लेख निम्न प्रकार है-


1. यह पाठ्यक्रम शैक्षिक प्रवृत्ति को पुरानी विषयवस्तु तक ही सीमित होने के कारण समाज की वर्तमान समस्याओं को सुलझाने में सहायक नहीं है। अतः यह संकीर्ण धारणा पर आधारित (Narrowly Conceived) है।


2. वर्तमान पाठ्यक्रम पुस्तकीय व सैद्धान्तिक (Bookish and Theoretical) है तथा इसमें क्रियात्मक पक्ष की अपेक्षा सैद्धान्तिक एवं शैक्षणिक पक्ष पर अधिक जोर दिया गया है।


3. पाठ्यक्रम में विषयों की भरमार के बावजूद पाठ्यसामग्री समृद्धशाली एवं महत्वपूर्ण नहीं है।


4. वर्तमान पाठ्यक्रम व्यक्तित्व भिन्नता पर आधारित न होने के कारण किशोरों की विभिन्न आवश्यकताओं तथा योग्यताओं के अनुकूल नहीं है। हाईस्कूल के कोर्स में रखे गये कुछ 'ऐच्छिक विषय' (Optional Subjects) संकीर्ण तथा सीमित हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि पाठ्यक्रम व्यापक आधार पर आधारित किया जाए, जिससे कि छात्रों की विभिन्न योग्यताओं को उनके अनुकूल वातावरण में विकसित किया जा सके।


5. वर्तमान पाठ्यक्रम अमनोवैज्ञानिक होने के साथ ही साथ परीक्षा केन्द्रित (Examination Centred) भी हैं।


6. वर्तमान पाठ्यक्रम में तकनीकी एवं व्यावसायिक पाठ्यक्रम का अभाव है। पाठ्यक्रम निर्धारण में निहित दोषों को देखते हुए, माध्यमिक शिक्षा आयोग ने पाठ्यक्रम निर्माण के निम्नलिखित सिद्धान्त बताये हैं


1. अनुभव की पूर्णता का सिद्धान्त (Principle of Totality of Experience),

2. विविधता व लचीलेपन का सिद्धान्त (Principle of Variety and Flexibility),

3. समुदाय केन्द्रित का सिद्धान्त (Principle of Community Centred),

4. अवकाश का सिद्धान्त (Principle of Leisure),

5. सह-सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Correlation),


पाठ्यक्रम के विषय (Subject of Curriculum)


आयोग ने माध्यमिक शिक्षा की अवधि को जिन दो स्तरों पर विभाजित किया है, उनके पाठ्यक्रम में निम्नांकित विषयों को स्थान दिया है-


1. मिडिल अथवा जूनियर हाईस्कूल के विषय-निम्न माध्यमिक पाठ्यक्रम में निम्न विषय रखे जायें

(1) भाषायें, 

(2) समाज विज्ञान, 

(3) सामान्य विज्ञान 

(4) गणित, 

(5) कला एवं संगीत, 

(6) शिल्प 

(7) शारीरिक शिक्षा व पाठ्यक्रम क्रिया प्रधान हो।


2. उच्च एवं उच्चतर माध्यमिक स्तर के विषय- इस स्तर पर पाठ्यक्रम में विविधता होनी चाहिए। कुछ अनिवार्य विषय सभी के लिए होंगे

(1) भाषायें, 

(2) सामान्य विज्ञान 

(3) सामाजिक अध्ययन, 

(4) हस्त शिल्प।


इन विविध विषयों के अन्तर्गत निम्नांकित सात समूह होंगे-

(1) मानव विज्ञान, 

(2) विज्ञान, 

(3) प्राविधिक, 

(4) वाणिज्य, 

(5) कृषि विज्ञान, 

(6) ललित, कलाएँ 

(7) गृह विज्ञान।


इसके अतिरिक्त आयोग ने इस बात की भी सिफारिश की है कि माध्यमिक शिक्षा के उच्चतर स्तर पर पाठ्यक्रम के विषयों का विभिन्नीकरण (Diversification) किया जाना चाहिए, ताकि वे छात्रों की अभिरुचियों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। इस उद्देश्य से आयोग ने पाठ्यक्रम के विषयों का दो भागों में विभाजन किया है (अ) आन्तरिक विषय (Core Subjects) और

(ब) वैकल्पिक विषय (Optional Subjects) ।


(अ) आन्तरिक विषय (Core Subjects)-

1. मातृभाषा या प्रादेशिक भाषा,

2. निम्नलिखित में से चुनी जाने वाली कोई एक और भाषा- 


(i) हिन्दी (उन छात्रों के लिए, जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है), 

(ii) प्रारम्भिक अंग्रेजी (उन छात्रों के लिए, जिन्होंने जूनियर माध्यमिक स्तर पर इसका अध्ययन नहीं किया है), 

(iii) उच्च अंग्रेजी (उन छात्रों के लिए, जिन्होंने जूनियर माध्यमिक स्तर पर अंग्रेजी का अध्ययन किया है),

(iv) हिन्दी के अतिरिक्त एक अन्य आधुनिक भारतीय भाषा,

(v) अंग्रेजी के अतिरिक्त एक अन्य आधुनिक विदेशी भाषा,

(vi) एक शास्त्रीय भाषा।


(ब) वैकल्पिक विषय समूह (Optional Subject Group) मानव विज्ञान 


(1) एक शास्त्रीय भाषा या अन्य में ली गई एक भाषा, 

(2) इतिहास, 

(3) भूगोल, 

(4) अर्थशास्त्र और नागरिकशास्त्र, 

( 5 ) मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र, 

(6) गणित, 

(7) संगीत, 

(8) गृहविज्ञान।


इसी प्रकार पूर्व में बताये गये सभी सात वर्गों में अलग-अलग विषयों का विवेचन किया गया है।


शिक्षण विधियों के सन्दर्भ में संस्तुतियाँ (Recommendations Regarding Teaching Methods)


आयोग के अनुसार, उचित शिक्षण विधियों के अभाव में सर्वोत्तम पाठ्य क्रिया भी प्रभावी नहीं हो पाती है, तो कई बार प्रगतिशील शिक्षण विधियों के प्रयोग से असंतोषजनक व अमनोवैज्ञानिक पाठ्यक्रम को भी रोचक व प्रेरणादायक बनाया जा सकता है, परन्तु खेद की बात है कि आज भी हम परम्परागत तथा अनुपयोगी शिक्षण विधियों का प्रयोग कर रहे हैं, जिसके कारण प्रचलित शिक्षा दोषपूर्ण बनी हुई है।


ये शिक्षण विधियाँ छात्रों में उचित दृष्टिकोण और मूल्यों का निर्माण न कर पाने से काम के प्रति अभिरुचि व लगाव उत्पन्न नहीं कर पार्टी तथा इन यान्त्रिक विधियों द्वारा केवल रटने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन, अध्ययन के प्रति अभिप्रेरणा का अभाव पाया जाता है। अतः सीखने सिखाने की प्रक्रिया को वास्तविक रूप से प्रभावशाली व सफल बनाने के लिए शिक्षण विधियों में सार्थक परिवर्तन को आवश्यकता है। शिक्षण विधियों से सम्बन्धित कुछ सुझाव अग्र हैं-


1. शिक्षण विधियाँ छात्रों में वांछित मूल्यों एवं दृष्टिकोणों का विकास करने में सक्षम होनी चाहिए। अत: इनका उद्देश्य केवल कुशलतापूर्वक सूचना प्रदान करना ही नहीं होना चाहिए।


2. शिक्षण विधियों द्वारा विद्यार्थियों में काम के प्रति वास्तविक लगाव (Real Attachment उत्पन्न होना चाहिए, ताकि वे ईमानदारी के साथ कुशलतापूर्वक कार्य करने को इच्छुक हों।


3. शिक्षण विधियों में मौखिक बातों तथा रटने की प्रवृत्ति पर जोर देने की बजाय उद्देश्यपूर्ण एवं वास्तविक स्थिति पर बल दिया जाना चाहिए।


4. शिक्षण विधियों द्वारा विद्यार्थियों को विभिन्न समस्याओं के समाधान में प्राप्त ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग करने की योग्यता का विकास होना चाहिए तथा इनके व्यावहारिक उपयोग (Practical Application) के पर्याप्त अवसर भी दिये जाने चाहिए।


5. शिक्षण विधियाँ इस प्रकार प्रयुक्त की जायें कि वे छात्र को व्यक्तिगत अभिव्यक्ति द्वारा ज्ञान प्रदान करने में सक्षम हों। उन्हें भी स्पष्ट चिन्तन व अभिव्यक्ति का अवसर मिलना चाहिए।


6. छात्रों में सामाजिक जीवन एवं सहयोगी कार्यों के गुणों के विकास हेतु उन्हें समूहों में कार्य करने के अधिकाधिक अवसर मिलना चाहिए।


7. प्राविधिक शिक्षण विधियों को लोकप्रिय बनाने हेतु 'प्रयोगात्मक' तथा 'प्रदर्शनात्मक' विद्यालयों की स्थापना विभिन्न स्थानों पर करनी चाहिए।


पाठ्यपुस्तकों सम्बन्धित संस्तुतियाँ (Recommendations Related Textbooks)


मुदालियर आयोग ने पाठ्यपुस्तकों में सुधार हेतु तथा निर्धारित पाठ्यपुस्तकों के स्तर को सुधारने के लिए, सर्वोच्च पाठ्यपुस्तक कमेटी के निर्माण की अनुशंसा की। इस कमेटी में, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश (High Court Judge), सार्वजनिक सेवा आयोग (Public Service Commission) का एक सदस्य, उप-कुलपति (Vice-Chanceller), मुख्याध्यापक/मुख्याध्यापिका, दो विशेष योग्यता सम्पन्न शिक्षाशास्त्री व शिक्षा निर्देशक (Director of Education) शामिल होना चाहिए। शिक्षा निर्देशक को इस कमेटी का सचिव होना चाहिए तथा कमेटी के सदस्यों की कार्य-अवधि पाँच वर्ष होनी चाहिए। इस समिति (कमेटी) के निम्नलिखित कार्य होने चाहिए-


1. माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्रम में सम्मिलित प्रत्येक विषय के लिए विशेषज्ञ समीक्षकों (Expert Reviewers) की कमेटी बनाना।


2. समय-समय पर दो या तीन सदस्यों पर आधारित विशेषज्ञ-कमेटी नियुक्त करना, जो सम्बन्धित पुस्तकों की उपयोगिता पर विस्तृत रिपोर्ट दे सके।


3. आवश्यकतानुसार पाठ्य-पुस्तकों तथा अन्य पुस्तकों की रचना के लिए विशेषज्ञों को आमन्त्रित करना।


4. स्कूलों के लिए आवश्यक पाठ्यपुस्तकों तथा अन्य पुस्तकों के प्रकाशन का प्रबन्ध करनी तथा पुस्तकों के विक्रय से प्राप्त धनराशि को व्यवस्थित करना।


5. लेखकों के उचित पारिश्रमिक की व्यवस्था तथा उन प्रकाशकों को भी रायल्टी (Royalty) देना जिनकी पुस्तकें स्कूलों हेतु स्वीकृत की गई हैं।


6. शेष विक्रय से प्राप्त धनराशि का प्रयोग, गरीब व योग्य विद्यार्थियों को छात्रवृत्तियाँ देना सुयोग्य विद्यार्थियों हेतु आवश्यक पुस्तकों की व्यवस्था स्कूल के बच्त्वों के लिए दूध, खाने आदि की व्यवस्था में सहयोग तथा माध्यमिक शिक्षा के विकास हेतु अन्य सहायक साधनों की व्यवस्था करने में सहयोग हेतु, किया जाना चाहिए।


पाठ्यपुस्तक कमेटी को कागज के प्रकार, चित्र व्यवस्था छपाई आदि का भी निश्चित स्तर स्थापित करना चाहिए। इसके साथ ही चित्रकला के विकास के लिए विकास खंडों का एक मग्रहालय स्थापित करना चाहिए तथा चित्रकला शैली का अद्यतन प्रशिक्षण प्रदान करने हेतु केन्द्रीय सरकार द्वारा या तो नई संस्था खोली जाए या पूर्व स्थित कला स्कूलों की सहायता की जानी चाहिए।


इसके साथ ही निर्धारित पाठ्यपुस्तकों में जल्दी-जल्दी परिवर्तन की प्रथा को समाप्त करना, भाषाओं के सम्बन्ध में प्रत्येक कक्षा हेतु निश्चित पुस्तक का निर्धारण तथा पाठ्यपुस्तकों को राजनीति व धार्मिक सिद्धान्तों (Religious Ideology) से मुक्त करना आदि सुझाव भी इसी आयोग ने दिये। जिसमें पाठ्यपुस्तकों का गुणात्मक सुधार हो सके व आदर्श पाठ्यपुस्तकें तैयार हो सके। प्रान्तों को यह भी स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि वे इन पुस्तकों को अपना लें या अपनी आवश्यकताओं के अनुसार इनमें परिवर्तन कर लें।


धार्मिक शिक्षा से सम्बन्धित संस्तुतियाँ (Recommendations Related Religious Education)


आयोग के विचार में धार्मिक शिक्षा विद्यालयों में केवल ऐच्छिक आधार पर और नियमित विद्यालय घण्टों से बाहर दी जा सकती है। ऐसी शिक्षा विशेष मत (Fits) से सम्बन्धित बच्चों तक ही सीमित रहेगी और प्रबन्धकों एवं माता-पिता की सहमति से दी जायेगी। अतः धार्मिक शिक्षा को ग्रहण करने के लिए किसी छात्र को विवश नहीं किया जायेगा।


चरित्र निर्माण की शिक्षा सम्बन्धी संस्तुतियाँ (Recommendations Related Character Building Education)


'आयोग' ने चरित्र निर्माण की शिक्षा पर अत्याधिक बल दिया है और इसके विषय में अग्रलिखित सुझाव दिये हैं- 


1. छात्रों के चरित्र का निर्माण करना सभी शिक्षकों का अनिवार्य उत्तरदायित्त्व होना चाहिए।


2. प्रत्येक विद्यालय के प्रत्येक कार्यक्रम का उद्देश्य चरित्र निर्माण की शिक्षा देना होना चाहिए।


3. विद्यालय-विस्तृत समाज के अन्दर लघु समाज है। अत: जिन मूल्यों और दृष्टिकोणों का राष्ट्रीय जीवन के लिए महत्व है, उनको विद्यालय जीवन में प्रतिबिम्बित किया जाना चाहिए।


4. छात्रों में उत्तम अनुशासन की भावना का विकास करने के लिए, उनमें और शिक्षकों में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किए जाने चाहिए।


5. विद्यालयों में स्वशासन प्रणाली (System of Self Governance) को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाये।


6. विद्यालयों में' अतिरिक्त पाठ्यक्रम क्रियाओं' (Extra Curricular Actvities) एवं 'पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं' को स्थान दिया जाना चाहिए।


7. 17 वर्ष से कम आयु के छात्रों को राजनैतिक कार्यों से अलग रखने हेतु कानून बनाया जाए। 


8. सभी विद्यालयों में NC.C. First aid, Scouting, एवं जूनियर रेड क्रास की व्यवस्था की जाए।


शारीरिक एवं स्वास्थ्य शिक्षा सम्बन्धी संस्तुतियाँ (Recommendations about Physical and Health Education)


आयोग ने छात्रों की शारीरिक एवं स्वास्थ्य शिक्षा सम्बन्धी सेवाओं के प्रति ध्यान दिए जाने क आवश्यकता पर बल देते हुए निम्न सुझाव दिये हैं-


1. इन राज्यों में स्कूल स्वास्थ्य सेवा (School Medical Service) की सुसंगठित योजन क्रियान्वित की जानी चाहिए।


2. सभी विद्यालयों के सब छात्रों को एक वर्ष में कम-से-कम एक बार स्वास्थ्य परीक्षा अवश्य की जानी चाहिए।


3. कठिन रोगों से ग्रस्त छात्रों की स्वास्थ्य परीक्षा बार-बार की जानी चाहिए।


4. रोगी छात्रों व छात्राओं का 'विद्यालय स्वास्थ्य अधिकारी' (School Health Officer) द्वा मुफ्त उपचार किया जाना चाहिए।


5. छात्रावासों एवं सावास विद्यालयों (Residential Schools) में विद्यार्थियों के लिए पौष्टिक तथा संतुलित भोजन का प्रबन्ध किया जाना चाहिए।


6. शारीरिक शिक्षा में प्रशिक्षण स्वास्थ्य शिक्षा के समस्त पहलुओं को सम्मिलित करके पर्याप्त व्यापक होना चाहिए। भारतीय प्रशिक्षण केन्द्र के रूप में कुछ संस्थाओं को मान्यता प्रदान करनी चाहिए।


परीक्षाओं एवं मूल्यांकन सम्बन्धी संस्तुतियाँ (Recommendations about Exams and Evaluation)


1. बाह्य परीक्षाओं की संख्या कम होनी चाहिए और निबन्धात्मक प्रकार के परीक्षाओं में आत्मनिष्ठता के तत्व को, वस्तुनिष्ठ परीक्षणों को लागू करके और प्रश्नों के प्रकार में भी परिवर्तन द्वारा कम किया जाना चाहिए।


2. छात्रों की सर्वांगीण प्रगति व उपलब्धियों को जानने हेतु समय-समय पर उनके द्वारा कृत कार्य के अभिलेखों का मूल्यांकन करना चाहिए।


3. अन्तिम मूल्यांकन में आन्तरिक परीक्षाओं और विद्यालय अभिलेखों को समुचित महत्व देना चाहिए।


4. बाह्य एवं आन्तरिक परीक्षाओं में छात्रों के कार्य का श्रेणीकरण और मूल्यांकन हेतु अंकात्मक (अंकन) के स्थान पर सांकेतिक प्रणाली अपनानी चाहिए।


5. पाठ्यक्रम के पूर्ण होने पर केवल एक ही सार्वजनिक परीक्षा होनी चाहिए।


6. अन्तिम सार्वजनिक परीक्षा पर पूरक परीक्षा प्रणाली (Compartmental Examination System) प्रारम्भ किया जाना चाहिए।


अध्यापक शिक्षा हेतु संस्तुतियाँ (Recommendations about Teachers Education)


आयोग ने माध्यमिक स्तर पर योग्य अध्यापक प्रदान करने हेतु अध्यापक प्रशिक्षण की आवश्यकता का अनुभव किया। यह अध्यापक प्रशिक्षण दो प्रकार का हो-एक माध्यमिक शिक्षा पास अध्यापक जिसके लिए दो वर्षीय अध्यापक प्रशिक्षण होना चाहिए। दूसरे स्नातक परीक्षा पास अध्यापक, जिनका प्रशिक्षण काल अभी तो एक वर्ष का हो परन्तु बाद में दो वर्ष का कर दिया जाए।


इस प्रकार ये अध्यापक प्रशिक्षण संस्थाएँ दो प्रकार की होनी चाहिए, जिनमें प्रथम कोटि की प्रशिक्षण संस्थाएँ एक बोर्ड के अधीन होनी चाहिए। तथा दूसरे प्रकार की स्नातकों की प्रशिक्षण संस्थाएँ विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध और उन्हीं के अधीन होनी चाहिए। इन संस्थाओं का नियन्त्रण पृथक् संस्थाओं द्वारा होना - बाहिए। कुछ अन्य सुझाव निम्न प्रकार हैं-


1. सेवाकालीन प्रशिक्षण (In Service Training)-

प्रशिक्षित अध्यापकों की कमी को - पूरा करने के लिए अभिनव पाठ्यक्रम, (Refresher Courses) लघु गहन पाठ्यक्रम, (Short Intenspire Courses) व्यावहारिक प्रशिक्षण कार्यशाला (Practical Training Workshops) की व्यवस्था होनी चाहिए। अध्यापिकाओं के लिए अंशकालिक प्रशिक्षण (Part Time Training) को सुविधा हो तथा योग्य अध्यापकों हेतु एम. एड. कोर्स का विधान हो।


2. इन प्रशिक्षण महाविद्यालयों में प्रवेश केवल उन प्रशिक्षणार्थियों को दिया जाए, जिनका साक्षात्कार करके इस व्यवसाय के प्रति उनकी अभिरुचि का अध्ययन किया गया हो। इन महाविद्यालयों में किसी प्रकार का शुल्क नहीं होना चाहिए बल्कि प्रत्येक प्रशिक्षार्थी को छात्रवृत्ति मिलनी चाहिए। जो प्रशिक्षार्थी पहले ही कहीं नौकरी करते हैं, उन्हें प्रशिक्षण के दौरान वहीं वेतन मिलना चाहिए तथा उनसे प्रशिक्षण के पाँच वर्ष तक वहीं शिक्षण कार्य करने का प्रतिबद्धता-पत्र (Agreement Letter) भरवा लेना चाहिए।


3. आयोग ने प्रशिक्षणार्थियों में आत्मनिर्भरता के विकास हेतु व सामुदायिक जीवन के - विकास हेतु आवासीय प्रशिक्षण महाविद्यालय (Residential Training College) खोलने का भी ठोस सुझाव दिया तथा इन प्रशिक्षण महाविद्यालयों में अध्यापक वर्ग के मुक्त आदान-प्रदान (Free Exchange) व अध्यापकों की कमी को दूर करने हेतु अंशकालिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम की व्यवस्था का भी सुझाव दिया। -


4. अध्यापकों की नियुक्ति व सेवा सुविधाएँ (Teachers Appointment and Other -Benefits) मुदालियर आयोग का विचार था कि-


(i) सभी प्रकार के विद्यालयों में अध्यापक चयन के लिए एक तरह की पद्धति अपनाई जाए।

(ii) प्राइवेट मैनेजमेन्ट के सभी विद्यालयों में अध्यापकों के चयन हेतु एक समिति बनाई जाए जिसका एक सदस्य विद्यालय का प्रधानाचार्य हो।

(iii) अध्यापक के प्रोवेजन का काल साधारणतया एक वर्ष का हो।

(iv) हाईस्कूल के अध्यापक प्रशिक्षण ग्रेजुएट (Trained Graduate) हों। टेक्निकल विद्यालय के अध्यापक अपने विषय में दक्ष हों। और उन्हें पढ़ाने का प्रशिक्षण प्राप्त हो। हायर सेकेण्डरी स्कूल के अध्यापकों की योग्यता इन्टरमीडिएट विद्यालय के अध्यापकों के समान ही हो।

(v) समान योग्यता एवं समान प्रकार का कार्य करने वाले अध्यापकों के वेतन क्रम समान हीं चाहे वे किसी भी प्रकार के विद्यालयों में पढ़ा रहे हों। इस हेतु विशिष्ट समितियों का गठन किया जाए, जिसमें शिक्षकों के वेतनमानों में सुधार लाया जा सके।

(vi) अध्यापकों को आर्थिक चिन्ताओं से मुक्त करने के लिए 'त्रिमुखी लाभ योजना' अर्थात् = पेन्शन और प्रॉविडेन्ट फण्ड और बीमा (Pension Cum Provident Fund cum Insurance) की प्रथा हर राज्य में लागू हो।

(vii) अध्यापकों की पदच्युति एवं निलम्बन के मामलों की सुनवाई के लिए बोर्ड बनाये जाये तथा योग्य व स्वस्थ अध्यापकों के अवकाश ग्रहण की आयु 60 वर्ष कर दी जाए।

(viii) अध्यापकों को यथासम्भव विद्यालय परिसर के आसपास आवास सुविधा उपलब्ध करार जाए ताकि वे विद्यालय के विभिन्न कार्यों में अधिक सहयोग दे सकें।

(ix) अध्यापकों को शैक्षिक सेमिनार (Educational Seminar) तथा कॉन्फ्रेंस (Conference) में जाने हेतु अवकाश व यात्रा की सुविधायें दी जायें तथा उनके बालकों हेतु स्कूल स्तर की शिक्षा निःशुल्क की जाए।

(x) शिक्षकों तथा उनके बच्चों के लिए मुफ्त चिकित्सा की सुविधा प्रदान की जाए।

(xi) शिक्षकों की प्राइवेट ट्यूशन की प्रथा समाप्त कर दी जानी चाहिए।


शिक्षा के व्यवसायीकरण पर आयोग की संस्तुतियाँ (Recommendations of Commission about Vocationalisation of Education)


1. पाठ्यक्रम के विविधीकरण (Diversification of Courses) की व्यवस्था द्वारा सामान्य मूल्य विषयों (Core Subjects) के साथ-साथ विशिष्ट व्यावहारिक विषयों के शिक्षण की व्यवस्था छात्रों के बहुमुखी विकास हेतु की जानी चाहिए।

2. विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था के लिए बहु-उद्देशीय विद्यालय (Multi-Purpose Schools) खोले जायें, जिनमें व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को तैयार करते समय छात्रों के व्यक्तिगत भेदों का ध्यान रखा जाए।

3. शिक्षा के विविध साधनों की व्यवस्था करने हेतु शैक्षिक निर्देशन को उपयोगी (Facilitate) व सुविधापूर्ण बनाया जाना चाहिए।

4. बहुउद्देशीय स्कूलों की स्थापना से वर्गीकृत बच्चों की समस्या (Wrongly Classified Pupils) का समाधान सम्भव है।


माध्यमिक विद्यालयों में कृषि शिक्षा व तकनीकी शिक्षा (Agricultural Education and Technical Education in Secondary Schools)


हमारे देश की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्वपूर्ण भूमिका होने के कारण सभी प्रदेशों के देहाती क्षेत्रों में कृषि शिक्षा के अवसर प्रदान करने चाहिए। यहाँ कृषि का शिक्षण सैद्धान्तिक न होकर व्यावहारिक होना चाहिए अर्थात् विद्यार्थियों को वास्तविक स्थितियों में काम करने का अवसर देना चाहिए।


इसके साथ ही कृषि सम्बन्धी दो अन्य विषयों - वनस्पति-विज्ञान तथा पशु-पालन को भी सम्बन्धित करना चाहिए। कृषि के लिए पर्याप्त भूमि की व्यवस्था, वैज्ञानिक विधि से कृषि का शिक्षण स्थानीय आवश्यकताओं तथा प्राप्त सुविधाओं पर आधारित उद्योग का प्रशिक्षण आदि उपयोगी सुझाब भी इसी आयोग की देन है।


1. तकनीकी शिक्षा (Technical Education) के सम्बन्ध में आयोग के सुझाव निम्नलिखित हैं 1. अधिक संख्या में पृथक् या बहु-उद्देशीय स्कूलों के भाग के रूप में तकनीकी स्कूल खोले जायें जिनमें, तकनीकी व सामान्य शिक्षा की व्यवस्था हो।


2. बड़े-बड़े नगरों में केन्द्रीय तकनीकी संस्थानों की स्थापना की जाए, जिससे स्थानीय स्कूली की आवश्यकता को पूरा किया जा सके।


3. सभी स्तरों पर तकनीकी तथा टेक्नोलॉजिकल प्रशिक्षण को आयोजित करने हेतु वाणिज्य तथा उद्योग के प्रतिनिधियों का शिक्षण-स्त्रियों के साथ निकट सम्पर्क स्थापित होना चाहिए ताकि स्तर को बनाये रखने में उनके विचारों का भी ध्यान रखा जाए।


4 उद्योगों पर औद्योगिक कर लगाकर, प्राप्त आय को तकनीकी शिक्षा के विकास पर खर्च करना चाहिए।


5 माध्यमिक स्तर पर तकनीकी पाठ्यक्रमों के सुचारु रूप से संचालन हेतु अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद् (All India Council for Technical Education) की स्थापना होनी चाहिए।


सहशिक्षा सम्बन्धी संस्तुतियाँ (Recommendations about Co-Education)


सह शिक्षा को सफल बनाने हेतु आयोग के सुझाव निम्नलिखित हैं-


1. सभी सहशिक्षा संस्थानों में लड़कियों के गृह विज्ञान के अध्ययन हेतु विशेष सुविधायें प्रदान करनी चाहिए।

2. साधारण लोगों की माँग के अनुसार लड़कियों के लिए पृथक् स्कूल स्थापित करने चाहिए।

3. लड़कियों तथा अध्यापिकाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने हेतु सह-शिक्षा संस्थाओं में सुनिश्चित स्थितियों (Definite Conditions) का निर्माण होना चाहिए।


माध्यमिक विद्यालयों में निर्देशन व परामर्श सेवायें (Guidance and Counselling Services in Secondary Schools)


आयोग ने उच्चतर माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रम का विभिन्नीकरण किया, जिससे छात्र अपनी रुचि के विषयों का अध्ययन कर सकें। अतः अनुभवहीन बालकों को चयन में गलती से रोकने हेतु निर्देशन व परामर्श के सम्बन्ध में निम्न सुझाव दिये-


1. शिक्षा अधिकारियों को छात्रों के शैक्षिक निर्देशन के प्रति विशेष ध्यान देना चाहिए तथा उन्हें समय-समय पर व्यवसायों की समुचित सूचना देने हेतु 'जीविकोपार्जन सम्मेलन' (Career Conferences) किये जाने चाहिए।


2. विद्यालयों में 'निर्देशन अधिकारियों' (Guidance officers) और जीविकोपार्जन शिक्षकों (Career Masters) की नियुक्ति की जानी चाहिए।


3. नये प्रकार के विकसित दृश्य साधनों द्वारा विभिन्न स्तर के विद्यार्थियों को विभिन्न व्यवसायों का ज्ञान दिया जाए, जिससे औद्योगिक तकनीकी तथा कृषि सम्बन्धी तथा अन्य व्यवसायों की वास्तविक स्थितियों को समझने में मदद मिल सके।


4. सभी शिक्षा संस्थाओं में प्रशिक्षित निर्देशन अधिकारियों (Trained Guidance Officers) तथा कैरियर मास्टर (Career Masters) की सेवायें प्राप्त करने की व्यवस्था की जाए।


5. इन निर्देशन अधिकारियों तथा कैरियर मास्टरों के प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षण केन्द्र खोले जायें और यथा सम्भव इनमें से कुछ केन्द्रों को शिक्षण कॉलेजों से सम्बद्ध कर दिया जाए, ताकि अध्यापकों को शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन के मूल पाठ्यवस्तु का शिक्षण दिया जा सके।


6. शिक्षा सम्बन्धी निर्देशन के अनुसंधान कार्य हेतु केन्द्रीय अनुसंधान संस्था (Central Research Organisation) की स्थापना की जाए।


7. व्यवसायों के सम्बन्ध में सूचना देने हेतु ' जीविकोपार्जन सम्मेलनों' का आयोजन किया जाए।


8. प्रत्येक प्रदेश में राजकीय शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन ब्यूरों खोले जायें।


प्रशासन पर्यवेक्षण एवं निरीक्षण कार्यक्रम (Administration, Supervision and Inspection Program)


माध्यमिक शिक्षा के प्रशासन के सम्बन्ध में आयोग ने निम्न सुझाव दिये हैं—


1. शैक्षिक विषयों पर शिक्षा मंत्री को परामर्श देने का उत्तरदायित्त्व शिक्षा संचालक पर होगा।

2. केन्द्र तथा राज्यों में एक समन्वय समिति हो, जो शैक्षिक सुधार के उपायों पर विचार करे।

3. केन्द्र तथा राज्यों में एक समन्वय समिति हो जो शैक्षिक सुधार के उपायों पर विचार करे।

4. प्रत्येक राज्य में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड होना चाहिए जिसका अध्यक्ष शिक्षा संचालक हो।

5. केन्द्र के समान राज्यों में भी शिक्षा सलाहकार बोर्ड स्थापित किए जाये।


पर्यवेक्षण एवं निरीक्षण कार्यक्रम पर सुझाव देने से पूर्व आयोग ने पर्यवेक्षण व निरीक्षण सम्बन्धी दोषों की व्याख्या की है।


आयोग के अनुसार निरीक्षण सावधानीपूर्वक किया जाता है। निरीक्षक निरीक्षण में बहुत कम समय लगाता है तथा अधिकतर समय वह स्कूल के प्रशासकीय कार्यों के निरीक्षण में लगा रहता है, जिससे शैक्षणिक पक्ष की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। इसके अतिरिक्त अध्यापकों तथा निरीक्षकों से सीमित सम्पर्क के कारण अध्ययन की समस्याओं का उन्हें बोध नहाँ होता।


इसका एक कारण एक निरीक्षक के अधीन इतने अधिक स्कूलों का निरीक्षण होता है, कि वह सभी स्कूलों के कार्यों से परिचित नहीं हो पाता। अतः वह अध्यापकों को स्कूल के शिक्षण कार्य को सुधारने हेतु उचित निर्देश भी नहीं दे पाता। प्रायः निरीक्षक के आलोचनात्मक व सहानुभूतिहीन व्यवहार के कारण उनके आगमन को भय की दृष्टि से भी देखा जाता है।


उपर्युक्त दोषों को दूर करने हेतु आयोग ने निम्न सुझाव दिये हैं-


1. निरीक्षक को अपनी वास्तविक भूमिका का निर्वहन करना चाहिए।


2. विशिष्ट विषयों जैसे गृहविज्ञान, कला, संगीत आदि के शिक्षण कार्य के निरीक्षण हेतु विशिष्ट निरीक्षक नियुक्त किये जाने चाहिए।


3. निरीक्षकों का चुनाव उनकी उच्च शैक्षणिक योग्यता व पर्याप्त शैक्षणिक अनुभव को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त-दस वर्ष का शिक्षण अनुभव प्राप्त अध्यापक हाई स्कूलों के मुख्याध्यापक प्रशिक्षण महाविद्यालयों के 3 से 5 वर्ष तक अनुभव प्राप्त अध्यापकों का चुनाव किया जा सकता है।


4. निरीक्षक के कर्तव्यों को प्रशासकीय (Administrative) व शैक्षणिक कर्तव्यों (Academic Duties) में बाँटा जा सकता है। प्रशासकीय कर्तव्य रिकॉर्ड, हिसाब किताब तथा कार्यालय के कार्यों के निरीक्षण से सम्बन्धित है, जबकि शैक्षणिक कर्तव्यों के निर्वहन हेतु विशेषज्ञों की एक टीम बना ली जानी चाहिए, जिसका अध्यक्ष निरीक्षक हो तथा अन्य सदस्य सीनियर अध्यापकों या मुख्य अध्यापकों से चुने जाने चाहिए।


ये सदस्य निरीक्षक के साथ स्कूलों के निरीक्षण हेतु जायें तथा दो या तीन दिन तक स्कूल के अध्यापकों के साथ शिक्षा के विभिन्न पक्षों पर विचार विमर्श करना बाहिए, जैसे - पुस्तकालय और प्रयोगशाला सम्बन्धी सुविधायें पाठ्यक्रम, पाठ्य सहायक क्रियाओं का गठन, अवकाश का प्रयोग आदि।


पब्लिक स्कूलों के भविष्य के सम्बन्ध में संस्तुतियाँ (Recommendations about Future of Public Schools)


आयोग ने माध्यमिक शिक्षा का सावधानीपूर्वक निरीक्षण किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यदि पब्लिक स्कूलों का उचित संगठन किया जाये और ठीक प्रकार से प्रशिक्षण दिया जाये, तो इनके दृष्टिकोणों तथा व्यवहार में बदलाव लाकर इन्हें उत्तम नागरिक बनाया जा सकता है। इस दिशा में इन स्कूलों की कार्य प्रणाली में कुछ सिद्धान्तों का अनुपालन आवश्यक है-


1. पब्लिक स्कूलों का राष्ट्रीय शिक्षा के सामान्य ढाँचे के साथ सम्बन्ध होना चाहिए।


2. पब्लिक स्कूलों में सामान्य शैक्षणिक जीवन भारतीय संस्कृति, परम्पराओं तथा दृष्टिकोण अनुकूल होना चाहिए ताकि उनमें अच्छी नागरिकता के गुणों का विकास किया जा सके। इस प्रकार पब्लिक स्कूल भी विद्यार्थियों को गुणात्मक शिक्षा प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। उन्हें विकास की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। अतः इन स्कूलों में सुझावों के अनुसार बदलाव लाकर इन्हें समाप्त करने से बचाया जा सकता है।


माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) की संस्तुतियों का मूल्यांकन (EVALUATION OF RECOMMENDATIONS OF SECONDARY EDUCATION COMMISSION)


किसी वस्तु, क्रिया अथवा विचार का मूल्यांकन कुछ आधारभूत मानदण्डों के आधार पर ही किया जाता है। शिक्षा एक सामाजिक क्रिया होने के नाते, इसका विधान समाज विशेष के उत्थान हेतु किया जाता है, अतः इससे सम्बन्धित किसी भी विचार, क्रिया अथवा योजना का मूल्यांकन उसकी समाज विशेष के लिए उपादेयता के आधार पर ही किया जाता है। इस आयोग के सुझावों का मूल्यांकन एवं गुण-दोष विवेचन वर्तमान भारतीय समाज एवं उसकी भविष्य की आकांक्षाओं और संभावनाओं के आधार पर व कुछ व्यावहारिक सिफारिशों के आधार पर निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत है-


माध्यमिक शिक्षा आयोग के गुण (Merits)


1. माध्यमिक शिक्षा की नवीन अवधारणा व व्यवस्थित प्रशासनिक ढांचा (New concept of Secondary Education and Systematic Administrative Structure)- आयोग ने माध्यमिक शिक्षा की परम्परागत संकल्पना को व्यापक बनाते हुए उसे एक पूर्ण शैक्षिक इकाई के रूप में स्वीकार किया तथा शिक्षा व्यवस्था में केन्द्र सरकार की भागीदारी पर बल दिया। आयोग ने केन्द्र की भाँति प्रान्तों में भी प्रान्तीय शिक्षा सलाहकार बोडों की स्थापना का सुझाव दिया तथा विद्यालयों के नियमित प्रशासन व निरीक्षण पर बल दिया।


2. शिक्षा के व्यापक उद्देश्य (Broad Aims of Education)- आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के व्यापक उद्देश्य प्रस्तुत किए व छात्रों के व्यक्तित्व विकास हेतु उनके शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक व चारित्रिक विकास पर बल दिया। शिक्षा द्वारा लोकतन्त्रीय नागरिकता के विकास से उसका तात्पर्य लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों के ज्ञान और लोकतान्त्रिक जीवन शैली में प्रशिक्षित करने से है। नेतृत्व शक्ति और व्यावसायिक कुशलता का विकास ही तो लोकतन्त्र की सफलता का आधार है।


3. पाठ्यक्रम के विविधीकरण द्वारा यथार्थवादी दृष्टिकोण का विकास (Development of Realistic Attitude Through Diversification of Curriculum) - आयोग द्वारा सुझाया गया पाठ्यक्रम का विविधीकरण जीवन की समस्याओं के प्रति एक यथार्थवादी शिक्षा का माध्यम था, क्योंकि आयोग केवल साहित्यिक प्रकार की शिक्षा के बुरे परिणामों तथा इसके द्वारा पैदा होने वाली निराशा, बेरोजगारी इत्यादि समस्याओं से पूर्णतया अवगत था।


4. बहुउद्देशीय स्कूलों व ग्रामीण स्कूलों की स्थापना (Establishment of Multipurpose and Rural Schools)-आयोग की रिपोर्ट में, बहुउद्देशीय स्कूल खोलने की संस्तुतियाँ समय की आवश्यकता के बिल्कुल अनुकूल थीं। इसके साथ ही ग्रामीण स्कूलों की स्थापना भी भारत जैसे-कृषकों के देश के लिए सर्वथा उपयुक्त थी।


5. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा (Mother Language as a Medium of Instruction)- आयोग ने माध्यमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को बनाने पर बल दिया है, जो यथार्थ के धरातल पर लिया गया निर्णय है, व हमारे देश के लिए हितकर है।


6. चरित्र निर्माण और अनुशासन पर बल (Stress on Character Building and Discipline) - आयोग ने चरित्र निर्माण और अनुशासन पर बल दिया और इनकी प्राप्ति के लिए ठोस सुझाव भी दिये। इस तरह एक लम्बे समय से चली आ रही अनुशासनहीनता की समस्या को सुलझाने का प्रयास किया।


7. शिक्षकों की दशा में सुधार (Improvement in. Teacher's Conditions) - आयोग ने उचित रूप से अध्यापक की स्थिति (Status) तथा कार्य स्थितियों में सुधार का समर्थन किया है, क्योंकि अध्यापक ही सम्पूर्ण शैक्षिक संरचना की रीढ है। इस हेतु सर्वप्रथम आयोग ने शिक्षकों के प्रशिक्षण की अनिवार्यता के साथ शिक्षक प्रशिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए ठोस सुझाव दिये। उसने शिक्षकों की नियुक्ति के लिए नियम बनाने, उनके वेतनमान बढ़ाने और उनकी सेवाशतों में सुधार करने की संस्तुति भी की, जिससे योग्य व्यक्ति अध्यापन वृत्ति की ओर आकर्षित हुए।


8. परीक्षा प्रणाली व मूल्यांकन में सुधार (Amendment in Exam System and Evaluation) - आयोग ने परीक्षाओं तथा मूल्यांकन से सम्बन्धित ठोस सिफारिशें प्रस्तुत की, जिनका यदि सख्ती से पालन किया जाए, तो इसके परिणाम उत्कृष्ट होंगे। सबसे महत्वपूर्ण सुझाव निबन्धात्मक परीक्षाओं के दोषों को देखते हुए, निबन्धात्मक प्रश्नों की रचना करते समय विचारप्रधान प्रश्न पूछना तथा निबन्धात्मक परीक्षाओं के साथ-साथ वस्तुनिष्ठ परीक्षा की भी व्यवस्था करना था। आज भी हम देखते हैं कि इन सुझावों को स्वीकार करने से परीक्षा प्रणाली में अपेक्षित सुधार हुआ है। वह वस्तुनिष्ठ होने के साथ-साथ विश्वसनीय भी बन गई है।


9. शैक्षिक व व्यावसायिक निर्देशन व परामर्श पर बल (Emphasis on Educational & Vocational Guidance and Counceling)- आयोग ने विद्यार्थियों को अपनी जीवनवृत्तियों (Careers) के उपयुक्त चुनाव हेतु शैक्षिक व व्यावसायिक निर्देशन पर बल देने के साथ उचित परामर्श की आवश्यकता पर भी बल दिया। अतः उसने प्रत्येक विद्यालय में इसकी व्यवस्था करने पर बल दिया। इसके द्वारा बच्चों को उनकी रुचि, रुझान व योग्यता और स्थान विशेष की आवश्यकतानुसार सामान्य एवं व्यावसायिक विषयों के चयन में सहायता की जा सकती है।


10 . निरीक्षण व पर्यवेक्षण प्रणाली के सम्बन्ध में ठोस सुझाव (Concrete Suggestions Regarding Inspection and Monitoring System) - आयोग ने विद्यालयों के उचित रखरखाव व शैक्षणिक स्तर को बनाये रखने हेतु निरीक्षण व पर्यवेक्षण (Inspection and Supervision) की आवश्यकता पर बल दिया व इस दिशा में सार्थक सुझाव दिये।


11. स्त्री शिक्षा व सह शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव (Recommendations about Women Education and Co-Education)- आयोग ने बालक-बालिकाओं की शिक्षा में किसी प्रकार का भेद न करने की संस्तुति की। आयोग की दृष्टि से बालिकाओं को बालकों की भाँति किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्ति का अधिकार होना चाहिए। उसने बालिकाओं के लिए गृहविज्ञान वर्ग - को अतिरिक्त व्यवस्था करने की संस्तुति की। इसके साथ ही जिन क्षेत्रों में अलग से बालिका विद्यालय नहीं है, उन क्षेत्रों में सह-शिक्षा की स्वीकृति दिये जाने की अनुशंसा की।


12. व्यावसायिक शिक्षा का विकास (Development of Vocational Education)- आयोग द्वारा व्यावसायिक शिक्षा को आधुनिक युग में प्रगति हेतु आवश्यक मानते हुए, इससे सम्बन्धित अनेक ठोस व व्यावहारिक सुझाव दिये गये हैं।


माध्यमिक शिक्षा आयोग के दोष (Demerits)


आयोग के सभी सुझाव पूर्णतया उपयुक्त नहीं थे। आज की परिस्थिति में उसके कुछ सुझाव बिल्कुल अनुपयुक्त व दोषपूर्ण थे-


1. माध्यमिक शिक्षा का अस्पष्ट संगठन (Unclear Organization of Secondary Education) - आयोग ने एक ओर 7 वर्षीय माध्यमिक शिक्षा की बात की तो दूसरी ओर कक्षा 6,7 तथा 8 को निम्न माध्यमिक और कक्षा 9,10 तथा 11 को उच्च माध्यमिक वर्ग में बाँटकर कुछ 6 वर्षीय माध्यमिक शिक्षा की बात की।


ये दोनों बातें अस्पष्ट थीं। माध्यमिक कक्षा 11 को माध्यमिक शिक्षा व कक्षा 12 को स्नातक शिक्षा में जोडने सम्बन्धी सुझाव के पीछे भी कोई औचित्य नजर नहीं आता। इसी प्रकार इन्टरमीडिएट कक्षाओं को समाप्त करने का सुझाव भी उचित नहीं है। समय ने यह प्रमाणित कर दिया है कि इन्टरमीडिएट महाविद्यालय, उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों से उत्तम है।


2. बोझिल पाठ्यचर्या (Cumbersom Curriculum) - माध्यमिक स्तर पर तीन भाषाओं और कुल मिलाकर आठ विषयों के अध्ययन से माध्यमिक स्तर की पाठ्यचर्या बोझिल बन गई थी।


3. पाठ्यक्रम के विविधीकरण का आधार स्पष्ट नहीं (The basis for the Diversification of the Curriculum is not Clear) - आयोग ने माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रम हेतु 7 वर्गों का निर्माण किया और सातों वर्गों के लिए कुछ विषय समान रखे और भिन्न-भिन्न वर्गों के लिए भिन्न रखे। कुछ ऐच्छिक विषयों को दो या दो से अधिक वर्गों में भी रखा गया। इस प्रकार ऐच्छिक विषयों का विभिन्न वर्गों में किया गया विभाजन वर्तमान युग के लिए उपयुक्त नहीं है।


4. भ्रामक भाषा नीति (Deceptive Language Policy) - ऐसा लगता था कि आयोग स्वयं भाषा नीति के प्रति सशंकित था और कोई निश्चय कर पाने की स्थिति में नहीं था। आयोग के सभी सदस्यों में एक भी हिन्दी भाषा का समर्थक नहीं था। अत: उसने अंग्रेजी के अध्ययन के विषय में कुछ उलझे हुए सुझाव दिये तथा एक ओर तो उसे अनिवार्य विषयों की सूची में रखा वहीं दूसरों और दो वर्गों के ऐच्छिक विषयों की सूची में अतः इस भ्रामक भाषा नीति द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की जो हानि हुई उसकी भरपाई आज तक न हो सकी।


5. बहुउद्देशीय स्कूलों की स्थापना अव्यावहारिक (Establishment of Multi Purpose Schools Impractical) - आयोग ने माध्यमिक विद्यालयों को बहुउद्देशीय माध्यमिक विद्यालयों में बदलने का सुझाव दिया और सभी स्कूलों में एक साथ अनेक हस्तकौशलों और व्यवसायों की शिक्षा की व्यवस्था का सुझाव दिया, परन्तु इस पर होने वाले व्यय का अनुमान नहीं लगाया जो इसमें प्राप्त लाभों की तुलना में कहीं अधिक था। अतः आयोग की यह संस्तुति अव्यावहारिक होने के कारण इन स्कूलों को बाद में बन्द करना पड़ा।


6. गैर-सरकारी स्कूलों के सन्दर्भ में सुझाव (Suggestions Regarding non-government Schools) - आयोग द्वारा गैर-सरकारी स्कूलों के सन्दर्भ में दिये गये सुझाव भी आशा से अधिक काल्पनिक है। इनमें मौलिकता का अभाव है।


7. पाठ्यपुस्तक समिति में उच्च न्यायाधीश की नियुक्ति (High Judge Apointment in Textbook Committee) - पाठ्यपुस्तकों के चयन के लिए गठित समिति के सम्बन्ध में उच्च न्यायाधीश की नियुक्ति अव्यावहारिक सुझाव प्रतीत होता है, क्योंकि एक उच्च न्यायालय का न्यायाधीश किस प्रकार विद्यालयों के लिए पाठ्यपुस्तकों की अनुकूलता का मूल्यांकन कर सकता है।


8. प्रतिवेदन में नारी शिक्षा को वह स्थान नहीं मिला है जिसकी वह अधिकारी थी।


9. आयोग ने लड़के-लड़‌कियों के लिए निर्धारित पाठ्यक्रम में भी कोई महत्वपूर्ण भेद नहीं किया है, जबकि दोनों की आवश्यकतायें बिल्कुल भिन्न-भिन्न है।


10. प्रशासन के सम्बन्ध में आयोग की सिफारिशें अपूर्ण व असन्तुलित हैं।


11. आयोग ने धार्मिक व नैतिक शिक्षा के सम्बन्ध में अनुपयुक्त सुझाव दिये हैं। आयोग के अनुसार स्कूलों में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा की व्यवस्था तब ही की जाए जब अभिभावक चाहें और वह भी स्कूल समय से पहले या बाद में, यह एक उलझा हुआ एवं अव्यावहारिक सुझाव है, क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है।


आयोग की संस्तुतियों का माध्यमिक शिक्षा पर प्रभाव तथा उनसे होने वाले लाभ (IMPACT OF COMMISSION'S RECOMMENDATIONS ON SECONDARY EDUCATION AND ACQUIRED ADVANTAGES)


भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में गठित किये गये समस्त आयोगों में से मुदालियर आयोग (माध्यमिक शिक्षा आयोग) सबसे अधिक वास्तविक तथा व्यावहारिक है। इसने माध्यमिक शिक्षा के सभी सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक पहलुओं पर विचार किया तथा समस्त जटिल व क्लिष्ट समस्याओं पर अत्यन्त वैज्ञानिक विधि से अध्ययन कर उनके समाधान हेतु समुचित सुझाव प्रस्तुत किये, जिनका प्रभाव तथा होने वाले लाभों का विवरण निम्न है-


आयोग के सुझावों व संस्तुतियों के आधार पर भारत सरकार ने सन् 1955 में 'अखिल भारतीय माध्यमिक शिक्षा परिषद् का गठन किया। माध्यमिक शिक्षा की अवधि 11-17 आयु वर्ग के छात्र-छात्राओं हेतु 7 वर्ष कर दी गई। बहुउद्‌देशीय विद्यालयों की स्थापना का सुझाव अपने में पूरी तरह नवीन था, इन विद्यालयों की स्थापना के पीछे आयोग का लक्ष्य, इन विद्यालयों द्वारा छात्रों की समस्त योग्यताओं का पूर्ण विकास करना था, ताकि इसके द्वारा राष्ट्र तथा समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। इस दिशा में प्रयास हेतु आयोग ने यह अनुशंसा की है, कि हाईस्कूल और माध्यमिक कॉलेजों को बहुउद्‌देशीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में बदल दिया जाए।


आयोग की एक अन्य विशेषता यह है कि इसने अपने सुझाव प्रस्तुत करते समय देश की परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं को भी अच्छी तरह ध्यान में रखा। शिक्षा में कृषि शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान देना तथा फसल की बुवाई तथा कटाई के समय अल्पकालीन अवकाश सत्रों का सुझाव इसी बात का प्रमाण है।


आयोग ने शिक्षा को उपयोगी, आकर्षक व व्यावहारिक बनाने हेतु प्राच्य व पाश्चात्य का सुन्दर समन्वय प्रदर्शित करते हुए निर्धारित शिक्षा के उद्देश्यों, धार्मिक शिक्षा आदि सुझाव भारतीय संस्कृति के अनुरूप तथा आधुनिक शिक्षण पद्धतियों का समावेश, शिक्षा का व्यावसायीकरण, शैक्षिक व व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता आदि सुझाव पाश्चात्य संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में दिये।


आयोग ने मातृभाषा को माध्यमिक शिक्षा का माध्यम बनाया जिससे माध्यमिक शिक्षा का प्रसार हुआ। कुछ माध्यमिक विद्यालयों में एन. सी. सी. की व्यवस्था का आरम्भ, सामान्य विज्ञान का अनिवार्य अध्ययन परीक्षा व मूल्यांकन प्रणाली में सुधार एवं शिक्षकों की दशा में सुधार के साथ उन्हें प्रशिक्षण सेवाओं में सहायता देना, वेतनमान और सेवा शर्तों में सुधार आदि ऐसे प्रशंसनीय सुझाव थे, जिससे लोग अध्यापन व्यवसाय की ओर आकर्षित हुए।


इन समस्त तथ्यों को देखते हुए कहा जा सकता है कि आयोग ने अपने सुझाव माध्यमिक शिक्षा का सर्वांगीण सुधार करने की दृष्टि से दिये, जिससे माध्यमिक शिक्षा का पुनसँगठन हुआ। परन्तु दूसरी और आयोग की संस्तुतियों को लागू करने से कुछ हानियाँ भी हुई, जो निम्नवत् हैं-


1. 5+6+3 शिक्षा संरचना को लागू करना व्यर्थ सिद्ध हुआ।

2. 5. अनिवार्य और 3 ऐच्छिक अर्थात् कुल 8 विषयों से माध्यमिक स्तर की पाठ्यचर्या बोझिल हो गई।

3. विभिन्न पाठ्यक्रमों को चलाने में समरूपता नहीं लाई जा सकी और इससे परेशानियाँ बढ़ी, परन्तु लाभ कुछ नहीं हुआ।

4. बहु-उद्देशीय माध्यमिक विद्यालयों की व्यवस्था में बहुत अधिक व्यय हुआ और लाभ कुछ नहीं हुआ। कच्च्त्चे माल की बर्बादी हुई व धन, समय व श्रम भी व्यर्थ गया।


निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि आयोग ने तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा के समस्त पहलुओं का अध्ययन कर उसके दोषों को उजागर किया और उसमें सुधार के उत्तम सुझाव दिये। आयोग की आकांक्षा थी कि भारतीय सन्दर्भ में माध्यमिक शिक्षा को शिक्षा की पूर्ण इकाई के रूप में विकसित किया जाये, जिससे अधिकांश बच्चे अपनी रोजी रोटी कमा सकें, सामान्य जीवन जी सकें और समाज में सम्मानपूर्वक रह सकें।


माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) की संस्तुतियों का मूल्यांकन [EVALUATION OF RECOMMENDATIONS OF SECONDARY EDUCATION COMMISSION (1952-53)]


किसी वस्तु, क्रिया अथवा विचार का मूल्यांकन कुछ आधारभूत मानदण्डों के आधार पर ही किया जाता है। शिक्षा एक सामाजिक क्रिया होने के नाते, इसका विधान समाज विशेष के उत्थान हेतु किया जाता है अतः इससे सम्बन्धित किसी भी विचार, क्रिया अथवा योजना का मूल्यांकन उसको समाज विशेष के लिए उपादेयता के आधार पर ही किया जाता है। इस आयोग के सुझावों का मूल्यांकन एवं गुण-दोष विवेचन वर्तमान भारतीय समाज एवं उसकी भविष्य की आकांक्षाओं और संभावनाओं के आधार पर व कुछ व्यावहारिक सिफारिशों के आधार पर निम्नलिखित बिन्दु संक्षेप में प्रस्तुत हैं-


गुण (Merits)


1. माध्यमिक शिक्षा को नवीन अवधारणा व व्यवस्थित प्रशासनिक ढांचा।

2. शिक्षा के व्यापक उद्देश्य।

3. पाठ्यक्रम के विविधीकरण द्वारा यथार्थवादी दृष्टिकोण का विकास।

4. बहु-उद्देशीय स्कूलों व ग्रामीण स्कूलों की स्थापना।

5. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा।

6. चरित्र निर्माण और अनुशासन पर बल।

7. शिक्षकों की दशा में सुधार।

8. परीक्षा प्रणाली व मूल्यांकन में अपेक्षित सुधार।

9. शैक्षिक व व्यावसायिक निर्देशन व परामर्श पर बल।

10. निरीक्षण व पर्यवेक्षण प्रणाली के सम्बन्ध में ठोस सुझाव।

11. स्त्री शिक्षा व सह शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव।

12. व्यावसायिक शिक्षा का विकास।


दोष (Demerits)


आयोग के सभी सुझाव पूर्णतया उपयुक्त नहीं थे। आज की परिस्थितियों में उसके कुछ सुझाव बिल्कुल अनुपयुक्त व दोषपूर्ण थे, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-


1. माध्यमिक शिक्षा का अस्पष्ट संगठन।

2. बोझिल पाठ्यचर्या का होना।

3. पाठ्यक्रम के विविधीकरण का आधार स्पष्ट न होना।

4. भ्रामक भाषा नीति।

5. बहु-उद्देशीय स्कूलों की स्थापना अव्यावहारिक ।

6. गैर-सरकारी स्कूलों के सन्दर्भ में सुझाव।

7. पाठ्यपुस्तक समिति में उच्च न्यायाधीश की नियुक्ति।

8. प्रतिवेदन में नारी शिक्षा को स्थान न मिलना।

9. लड़के-लड़‌कियों के लिए निर्धारित पाठ्यक्रम में भी कोई महत्वपूर्ण भेद न होना।

10. प्रशासन के सम्बन्ध में आयोग की सिफारिशें अपूर्ण व असन्तुलित होना।

11. धार्मिक व नैतिक शिक्षा के सम्बन्ध में अनुपयुक्त सुझाव।


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