वनोन्मूलन [DEFORESTATION]
मनुष्यों ने बिना सोच-विचार के अपनी आवश्यकताओं के अनुसार पारितंत्र में परिवर्तन कर लिये हैं। उनकी आवश्यकताओं ने, जो लालच से जुड़ी हुई हैं, पर्यावरण को बहुत हानि पहुंचाई है, जिसका प्रभाव भावी पीढ़ी पर अवश्य पड़ेगा।
कृषि, शहरीकरण और औद्योगीकरण के विस्तार के लिये भूमि की आवश्यकता हुई जिसकी आपूर्ति बड़े पैमाने पर वनों का उन्मूलन करके किया गया। वनों की कटाई ने विकसित और विकासशील देशों के परिदृश्य को बदल दिया, बहुत अधिक परिवर्तन आया जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरण सम्बन्धी समस्याएँ पैदा हो गईं। इस पाठ में आप वनोन्मूलन, इसके कारण और पर्यावरण पर उसके प्रभाव के विषय में पढ़ेंगे।
वन (FOREST)
वन हमारे पारितंत्र के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक संसाधन भी हैं। वनों का प्रबन्धन विवेकपूर्वक होना चाहिये न केवल इसलिये नहीं कि वे विभिन्न उत्पादों और उद्योगों के कच्चे माल के स्रोत हैं बल्कि इसलिए कि ये पर्यावरण के सुरक्षा कवच हैं और अनेक प्रकार की सेवाएं भी प्रदान करते हैं।
अनुमानतः पृथ्वी का एक-तिहाई भाग वनों से ढका हुआ है। वनों में जंगली जीवों को पर्यावास मिलता है, इमारती लकड़ी, जलावन की लकड़ी (ईंधन) और अनेक औषधि आदि के ये स्रोत हैं, साथ ही वनों से पर्यावरण का सौन्दर्याकरण भी होता है।
अप्रत्यक्ष रूप से, जंगल मृदा अपरदन (भू-क्षरण) से जलागम (Watershed) की रक्षा करके, नदियों और जलाशयों को गाद से सुरक्षित रखकर तथा भूजल के स्तर को सुरक्षित रखकर मानव का बहुत हित करते हैं। कार्बन, जल, नाइट्रोजन और अन्य तत्वों के चक्र में वनों का महत्वपूर्ण हाथ है।
वन क्या हैं? वन एक जटिल पारितंत्र है जिसमें मुख्य रूप से वृक्ष होते हैं जो असंख्य प्रकार के जीवों के जीवन को सहारा देते हैं। विशिष्ट पर्यावरण, जो अनेक प्रकार के जन्तुओं और पौधों को सहारा है, की संरचना में वृक्ष सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक हैं। पेड़ जंगलों के प्रमुख निर्माता हैं जो वायु को शुद्ध और शीतल करते हैं और जलवायु को नियंत्रित रखते हैं।
वनों को प्राकृतिक वन और मानव निर्मित वन में विभाजित किया जा सकता है। प्राकृतिक वन जे हैं जो स्थानीय वृक्षों से उगने से प्राकृतिक रूप से बन जाते हैं, मानव निर्मित जंगलों के लिए मानव वृक्षों को स्वयं रोपित करके तैयार करते हैं।
जलवायु, मिट्टी का प्रकार, भौगोलिक स्थिति और समुद्र सतह से ऊंचाई जंगलों के विभिन्न प्रकार को निश्चित करने के मुख्य कारक हैं। जंगलों को उनकी प्रकृति और संरचना के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। जिस जलवायु में वे विकसित हैं और जैसा पर्यावरण उनके चारों ओर होता है उसी के अनुसार उनको वर्गीकृत कर दिया जाता है। भारतवर्ष में अनेक प्रकार के जंगल हैं। इनकी श्रेणी केरल और उत्तर-पूर्व के वर्षा वन से मैदानों के पर्णपाती वनों जंगलों तक, पर्वतीय वनों से लद्दाख के अल्पाइन चारागाहों और राजस्थान के मरुस्थल तक हैं।
वनों का महत्त्व (IMPORTANCE OF FOREST)
पर्यावरण के सन्तुलन के लिए वन संसाधन एक महत्त्वपूर्ण साधन हैं। पेड़-पौधे वायुमण्डल से कार्बन डाइऑक्साइड लेते हैं एवं ऑक्सीजन छोड़ते हैं। वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया द्वारा वन वायुमण्डल में जलवाष्प की वृद्धि करते हैं। वन मृदा अपरदन को रोकते हैं, क्योंकि पेड़-पौधों की जड़ें मिट्टी के कणों को बाँधे रखती हैं।
वन पक्षियों, वन्य जीवों और अन्य प्राणियों को सुरक्षित आवास प्रदान करते है। वर्षा का जल पेड़-पौधों की जड़ द्वारा भूमि के नीचे रिसकर चला जाता है। फलतः वर्षा के जल की कम मात्रा ही बहकर नष्ट होती है। वनों से प्राप्त लकड़ी भवन निर्माण, फर्नीचर, कागज और कृत्रिम रेशे बनाने के काम में आती है। इसके अलावा निम्नलिखित बिन्दुओं के द्वारा वन के महत्त्व को स्पष्ट किया जा सकता है-
1. वनों से अनेक लोगों को जीविकोपार्जन में सहायता मिलती है। लकड़ी काटने, चीरने, ढोने, फल-फूल एकत्रित करने में लाखों लोग लगे रहते हैं।
2. वनों में अनेक जीव पाये जाते हैं। इनके शिकार से अनेक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं, जैसे-हाथी के दाँत, फर एवं खाल आदि।
3. वनों में पशुओं को चरने की सुविधा प्राप्त होती है।
4. अनेक उद्योगों, जैसे—कागज, दियासलाई, प्लाईवुड, खेल का सामान आदि वनों से कच्चा माल प्राप्त करते हैं।
5. वन नदियों के प्रवाह को नियमित एवं सन्तुलित करते हैं। उनके प्रदूषण को नियन्त्रित करते है, मिट्टी को बहाकर ले जाने से रोकते हैं, बाढ़ रोकते हैं या कम करते हैं। मिट्टी में नमी को बनाये रखते हैं।
6. वनाच्छादित क्षेत्र वायुमण्डल की आर्द्रता बनाये रखते हैं, जिससे अधिक वर्षा की सम्भावना होती है।
7. वनों से औषधियाँ, गोंद, लाख, कत्था, रबर, शहद एवं मोम इत्यादि की प्राप्ति होती है।
8. मनोरंजन स्थल के रूप में विकसित कर इन्हें आय का साधन बनाया जा सकता है।
9. जल चक्र व वायु चक्र को सन्तुलित करने में वनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
10. वन कार्बन डाइऑक्साइड को शोषित करके बदले में ऑक्सीजन गैस देते हैं जो कि विश्वतापन रोकने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं।
11. वन भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं। वृक्षों से भूमि पर गिरने वाली पत्तियाँ आदि सड़-गलकर मिट्टी में मिल जाती हैं। इससे मिट्टी को जीवाश्म की प्राप्ति होती है जो ऊर्जा का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
12. वन उद्योगों एवं वाहनों से होने वाले प्रदूषण को रोकते हैं। घनी वृक्षावली कई प्रकार की विषैली गैसों को अवशोषण करती है। वृक्ष ध्वनि प्रदूषण को भी कम करने में सहायक होते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि वन हमारे लिए एक प्रमुख प्राकृतिक सम्पदा है।
वनों की आवश्यकता (NEED OF FOREST)
इस ग्रह पर मानव का आरम्भिक जीवन वनों के निवासी की तरह ही शुरू हुआ था। आरम्भिक दिनों में मानव भोजन, कपड़े और आश्रय इन सभी आवश्यकताओं के लिये पूरी तरह से वनों पर ही निर्भर था। कृषि के विकास के बाद भी कुछ आवश्यकताओं के लिये मनुष्य वनों पर ही निर्भर था। जलाने के लिये लकड़ी और बहुत से काष्ठ उद्योग के लिये कच्चा माल वनों से ही प्राप्त होता था।
भारतीय वन और भी कई छोटे उत्पादों जैसे सुगंधित तेल, औषधीय पौधे, रेजिन और तारपीन का तेल इत्यादि के स्त्रोत हैं। वन नवीनीकरण संसाधन है जो उत्पादों की एक विस्तृत किस्मों के उत्पादों को प्रदान करते हैं। वन मनुष्य की सौन्दर्य संबंधी आवश्यकताओं को भी पूरा करते हैं और सभ्यता और संस्कृति के विकास के लिये प्रेरणास्रोत बने रहते हैं।
वन अनेक प्रकार के पौधों, जानवरों और सूक्ष्मजीवों के लिए घर हैं। वर्षों से यह पादप जात और प्राणि जात को सुन्दर संसार प्रकृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। वन ही वन्य जीव-जन्तुओं और उनकी प्रजातियों के लिये पर्यावास और भोजन के साथ-साथ ही जलवायु के भीषण प्रकोप से उनकी रक्षा प्रदान करते हैं।
पृथ्वी की जलवायु को नियमित करने के महत्वपूर्ण कार्य के अतिरिक्त वनों का जैविक महत्व जैसे आनुवंशिक विविधता भंडार के लिये भी महत्वपूर्ण हैं। वनों के बहुत से महत्वपूर्ण जीवनाधार कार्यों की सूची नीचे दी गई तालिका में दी जा रही है।
वनों के मुख्य कार्य
उत्पादक कार्य
विभिन्न प्रकार की लकड़ी, फलों का उत्पादन तथा रेजिन, एल्केलॉयड (क्षारोद), सुगंधित तेल, लेटेक्स और औषधीय तत्व जैसे व्यापक यौगिकों का उत्पादन करना।
रक्षात्मक कार्य
विभिन्न जीवों का पर्यावास, मृदा और जल का संरक्षण, सूखे से बचाव। हवा, सर्दी, ध्वनि, शोर, विकिरण, तीव्र गंध और जगहों से बचाव के लिये आश्रय प्रदान करना।
नियामक कार्य
गैसों (मुख्य रूप से कार्बन डाइऑक्साइड और ऑक्सीजन), गैसों के साथ पानी, खनिज तत्वों और विकिरण ऊर्जा को सोखना, भंडारण करना और मुक्त करना। ये सब कार्य वायुमंडलीय और तापमान की स्थिति में सुधार लाते हैं और भूमि की आर्थिक और पर्यावरण सम्बन्धी मूल्य में वृद्धि करते हैं। वन प्रभावी रूप से बाढ़ों और सूखे को भी नियमित करते हैं। इस तरह वे जैव- भू-रासायनिक चक्र के नियामक हैं।
वनोन्मूलन (DEFORESTATION)
वनोन्मूलन एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है जिनके अन्तर्गत पेड़ों की कटाई, जिसमें बार-बार की जाने वाली काट-छांट, पेड़ों का गिरना, जंगल के कूड़े-कर्कट की सफाई, मवेशियों का चरना, जंगल में घूमना और नये पौधों के साथ छेड़छाड़ करना सब कुछ सम्मिलित है।
इसको ऐसे भी परिभाषित किया जा सकता है कि जंगलों की हरियाली को इस हद तक हानि पहुंचाना कि उसका प्राकृतिक सौन्दर्य, फल-फूल आदि विकसित न हो सकें। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में वनोन्मूलन, बाढ़ जैसी आपदा की वार्षिक वृद्धि में, प्रमुख कारण हैं।
वनोन्मूलन वृक्षों के आवरण के नष्ट होने को संदर्भित करता है। एक ऐसी भूमि जिसे जंगल के स्थान पर खेती, चारागाह, रेगिस्तान और मनुष्य के आवास के लिये परिवर्तित कर दिया हो।
वन विनाश से आशय (Meaning of Deforestation) -
यदि किसी क्षेत्र में जितने वन नष्ट किये जायें और उसी अनुपात में यदि उनको पुनः स्थापित नहीं किया जाये तो उसे वन विनाश कहते है। वनों की कटाई के साथ-साथ वृक्षारोपण न होने पर वन क्षेत्र निरन्तर कम होता जाता है। इस वजह से वन विनाश की समस्या पैदा होती है।
प्रारम्भ में जब जनसंख्या कम थी और वनों का विस्तार अधिक था तब इस प्रकार की समस्याएँ नहीं थीं, लेकिन जनसंख्या के विस्तार के साथ-साथ वनों के विस्तार में भी जब परिवर्तन होने लगा तब इनका क्षेत्रफल घटने लगा एवं पारिस्थितिकी असन्तुलन की समस्याएँ अधिक उजागर होकर सामने आने लगीं, क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों के तापमान, वर्षा के वितरण, वायु, आर्द्रता आदि में प्रत्यक्ष रूप से परिवर्तन देखा गया।
इसका सीधा प्रभाव हमारी आर्थिक गतिविधियों पर पड़ने लगा। विभिन्न भागों में अकाल की विभीषिका का सामना करना पड़ा या अत्यधिक वर्षा में सभी कुछ नष्ट होने लगा। यह वनों को काटे जाने या नष्ट करने का ही परिणाम था। आइये, हम उन कारणों के बारे में जानकारी प्राप्त करने की कोशिश करते हैं जिनकी वजह से वनों को नुकसान पहुँचता है-
1. वन भूमि पर कृषि विस्तार (Extension of Agriculture on Forest Land) -
तेज गति से बढ़ती जनसंख्या की खाद्य पदार्थ से सम्बन्धित बढ़ती माँग की पूर्ति के लिए नये कृषि क्षेत्रों की आवश्यकता की वजह से वनों का विनाश हुआ है। आदिम जाति के लोग आज भी वनों में निवास करते हैं और वनों पर अपना आधिपत्य मानकर चाहे जहाँ वनों में आग लगाकर कृषि के लिए नवीन भूमि तैयार कर लेते हैं। इस भूमि पर तीन-चार साल कृषि करने के बाद इसे छोड़कर पुनः वनों में आग लगाकर नई जमीन तैयार करते हैं। इस प्रकार वनों का विनाश होता है।
2. वनों में पशुचारण (Pastoral in Forest) -
वनों में पशुचारण की वजह से भी वनों का विनाश होता है।
3. यातायात मार्गों का विकास (Development of Transport Routes)
देश के आर्थिक विकास के लिए रेल एवं सड़कों का विस्तार आवश्यक है। ये रेलमार्ग या सड़कें जब वन क्षेत्र में होकर निकाली जाती हैं तो वहाँ वनों को काटकर भूमि साफ की जाती है जिससे वनों को नुकसान पहुँचता है।
4. बस्तियों एवं नगरों का विस्तार (Development of Villages and Cities)
जनसंख्या की तीव्र वृद्धि से आवास की समस्या से निपटने के लिए, नवीन बस्तियों एवं नगरों का विस्तार हो रहा है। इसके लिए वन भूमि को साफ करके मकान बनाने के लिए भूमि प्राप्त की जाती है। इसी प्रकार नवीन उद्योगों की स्थापना के समय भी वनों का विनाश होता है।
5. वनों में आग लगना-
आग द्वारा वन संसाधनों को अत्यधिक क्षति पहुँचती है। मनुष्य की गलती से जलती सिगरेट, बीड़ी, चिंगारी आदि फेंकने से अथवा अन्य किसी भी प्राकृतिक कारण से वनों में आग लग जाती है। इससे वनों को कई प्रकार की क्षति या नुकसान होता है। जो आग केवल भूमि की सतह पर ही जलती रहती है उससे वृक्षों को कोई विशेष क्षति नहीं होती, परन्तु सतह पर पड़ो हुई पत्तियाँ, घास आदि जल जाते हैं।
इससे मिट्टी को प्राप्त होने वाले जैव पदार्थ नष्ट हो जाते हैं। इस कारण वातावरण को नुकसान होता है। वृक्षों को अधिक क्षति शीर्षाग्नि (Raw fire) से पहुँचती है। यह आग पेड़ की पत्तियों तथा डालों को जलाती हुई हवा के सहारे बड़ी तेजी से फैलती है और अगर किसी प्रकार की रोकथाम नहीं हुई तो इससे सम्पूर्ण वन प्रदेश जल सकता है। ऐसी आग से सम्पूर्ण जीव समुदाय के भी नष्ट होने की सम्भावना रहती है।
वनों में एक अन्य प्रकार की आग लगती है जिसे मृतिका अग्नि (Soil fire) कहते हैं। इससे मिट्टी में विद्यमान सभी प्रकार के जैव पदार्थ जल जाते हैं। इस अग्नि से तत्काल तो क्षति पहुँचती ही है, साथ ही भविष्य में दीर्घ काल तक पेड़-पौधों के उत्पन्न होने की सम्भावना नहीं रह जाती है। इससे मिट्टी निर्माण की प्रक्रिया भंग हो जाती है। इसके पुनः निर्माण में बहुत समय लगता है।
6. अन्धाधुन्ध लकड़ी काटना (Cutting wood Indiscriminately) -
वनों की क्षति का एक महत्त्वपूर्ण कारण अन्धाधुन्ध लकड़ी काटना भी है। इससे अधिक क्षति उन वनों को होती है जिनमें लकड़ी काटने-निकालने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता है। जलावन या अन्य कार्यों के लिए कच्चे-पक्के सभी प्रकार के वृक्ष काट डाले जाते हैं। इन्हें जंगल से बाहर ले जाने के क्रम में बहुत सारे छोटे पौधे रौंद दिये जाते हैं। कभी-कभी बड़े पैमाने पर जंगल नष्ट कर दिये जाते हैं, पर उनमें वृक्षारोपण पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
7. कीड़ों-दीमकों तथा बीमारियों का प्रकोप (Insects, Termites nad Disease outbreaks)
वनों में विभिन्न प्रकार के कीड़े तथा ऐसी दीमक होती है जो वृक्षों को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं। इस प्रकार के कीड़े एवं दीमकों को देख पाना मुश्किल होता है। इससे पेड़-पौधों को क्षति पहुँचती है। कई बार वृक्षों में कुछ विशेष प्रकार की बीमारियाँ भी लग जाती हैं जिससे वे असमय ही सूख जाते हैं। अगर इन बीमारियों को आरम्भ में ही ध्यान देकर खत्म कर दिया जाये तो वनों का संरक्षण किया जा सकता है।
8. लकड़ी कटाई (Timber Extraction) -
वन विनाश का महत्त्वपूर्ण कारण लकड़ी की भी है जो कि सामान्यतः निम्न कारणों से होता है-
(1) जलावन के लिए।
(2) मकान के लिए खिड़की, किवाड़ एवं फर्नीचर बनाने के लिए।
(3) कागज बनाने के लिए।
(4) अन्य व्यापारिक उपयोग के लिए।
9. खनन (Mining) -
विभिन्न प्रकार के खनिजों के खनन के लिए भी वनों की कटाई की जाती है, जैसे-राजस्थान के अरावली पर्वत के क्षेत्र में संगमरमर, ग्रेनाइट, ताँबा और अन्य पत्थरों ३ धातुओं का खनन करने के लिए तेज गति से वनों का विनाश हुआ है। पर्यावरण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण खनन क्षेत्रों पर भारत के उच्चतम न्यायालय ने खनन पर रोक लगायी है।
10. बाँध और उनका जंगलों एवं वन्य जातियों पर प्रभाव (Dams and their Effect on Forest and Tribal People) -
नदी घाटी बाँध परियोजनाएँ एवं जल विद्युत योजनाएँ भी वन विनाश की गति को तीव्र करती हैं। इन योजनाओं हेतु बड़े-बड़े जंगल काटे जाते हैं। यही कारण है कि इन योजनाओं का विरोध पारिस्थितिकी, वैज्ञानिक तथा पर्यावरण संरक्षण प्रेमियों द्वारा किया जाता है। प्रशान्त घाटी योजना भी एक इसी प्रकार की योजना है, जिसका विरोध किया गया था केरल के पालाघाट जिले में प्रशान्त घाटी नाम का एक क्षेत्र है।
यहाँ के वनों में शोर मचाने वाले साइकेड कीटों की अनुपस्थिति के कारण इसे प्रशान्त घाटी विशेषण दिया गया है। यहाँ के वन संसार में शेष बच रहे उष्ण कटिबन्धीय वर्षा वाले वनों में से एक है। यह घाटी हमारे देश के पश्चिमी पाटयें (Western ghats) में पाये जाने वाले वनस्पतियुक्त पादपजात की दृष्टि से सबसे धनी क्षेत्र है।
इसके अतिरिक्त इन वनों में तेंदुआ (Leopard), साँभर (Sambar), मूषक हिरण (Mouse deer), बार्किंग हिरण (Barking deer), जंगली कुत्ता (Wild dog), सेही (Procupine), हाथी (Elephant) इत्यादि वन्य प्राणियों तथा अनेक रंग-बिरंगे सुन्दर पक्षियों के आश्रय स्थल हैं। शेर के समान पूँछ वाले मैक्यू (Macaque) बन्दर, बड़ी-बड़ी गिलहरियाँ (Raind Squirrels) तथा नीलगिरी कपिमानव (Nilgiri Ape) दुर्लभ जन्तु पाये जाते हैं। यह क्षेत्र उन थोड़े-बहुत वन्य क्षेत्रों में से एक है जिनमें अभी तक मनुष्य का हस्तक्षेप बहुत कम हुआ है। इस क्षेत्र को पाँच लाख साल पुराने जैविक पालने (Biological cradle) की संज्ञा दी जाती है।
वन विनाश का प्रभाव (Impact of Deforestation)
वन विनाश के कारण उत्पन्न होने वाले दुष्परिणाम निम्नलिखित हैं-
1. वन विनाश के कारण वायुमण्डल के ताप में वृद्धि हो रही है, क्योंकि वृक्षों की कमी के कारण पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ती जाती है और ऑक्सीजन की मात्रा में कमी होतो जाती है।
2. वनों के विनाश से मिट्टी में जीवाश्म तत्त्व कम होते जाते हैं जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति प्रभावित होती है।
3. वनों के विनाश से मिट्टी के अपरदन में वृद्धि होने लगती है। मिट्टी की ऊपरी सतह जल के साथ बहकर समुद्र में चली जाती है। इससे भी भूमि की उर्वरा शक्ति प्रभावित होती है।
4. वनों की हरियाली वर्षा को आकर्षित करती है। वन विनाश से औसत वार्षिक वर्षा में कमी आ जाती है।
5. वन विनाश से भूमिगत जल का स्तर काफी नीचा चले जाने से प्राकृतिक जलस्रोतों में कमी आ जाती है।
6. वन विनाश से मरुस्थलीयकरण की प्रक्रिया में तेजी आती है।
7. वन विनाश के कारण जलवायु में परिवर्तन हो रहा है। विश्वतापन, अम्ल वर्षा, ओजोन परत में विघटन, वायु प्रदूषण वन विनाश का ही परिणाम है।
8. जंगली जीव पारिस्थितिकी तन्त्र के महत्त्वपूर्ण घटक हैं। वन विनाश से इनकी संख्या में कमी आ रही है, जिससे प्रकृति का सन्तुलन प्रभावित हो रहा है।
9. विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक विपदाएँ, जैसे-सूखा व बाढ़ वन विनाश का ही परिणाम है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार 329 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में से भारत में केवल 75 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर ही वन हैं अर्थात् देश के कुल क्षेत्रफल के 23 प्रतिशत भाग पर वन हैं। लेकिन वायु फोटो एवं उपग्रह से प्राप्त चित्रों के आधार पर निश्चित हुआ है कि 12 प्रतिशत भाग ही वनों से ढका हुआ है।
वैज्ञानिकों के अनुसार पारस्थितिकी तन्त्र के सन्तुलन एवं पर्यावरण को स्वच्छ रखने की दृष्टि ॥ से देश के 33 प्रतिशत भूभाग पर वन होने चाहिए। इसके लिए वनों का प्रवन्धन करना होगा और यह ध्यान देना होगा कि जो वन क्षेत्र है उसकी स्थिति में सुधार करना होगा तथा वन क्षेत्र के 33 प्रतिशत प पर वनों का विस्तार करना होगा।
वनोन्मूलन : समय के साथ वन्यावरण में परिवर्तन (Deforestation: Change in Forest Cover over Time)
अगर किसी क्षेत्र में जिस अनुपात में वनों का विनाश किया गया हो अगर उसी अनुपात में उनको फिर से लगाया नहीं जाये तो यह स्थिति वन विनाश अथवा वनोन्मूलन की स्थिति कहलाती है। वनोन्मूलन के कई कारण हैं जिनमें कुछ मुख्य कारण हैं-
(i) वन क्षेत्रों में पेड़ों को जलाना या काटना
(ii) जंगल में लगी आग
(iii) वन क्षेत्र को जलाकर कृषि भूमि तैयार करना
(iv) शहरीकरण
(v) जनसंख्या वृद्धि
(vi) वैश्वीकरण
(vii) भ्रष्टाचार
(viii) संपत्ति और क्षमता में समान वितरण
(ix) नदी घाटी परियोजना का निर्माण करना
(x) सड़क एवं रेलपट्टी के लिये
(xi) सुरंग निर्माण के लिये इत्यादि
इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि उपर्युक्त ऐसे कई कारण हैं जिसकी वजह से वनों का उन्मूलन हुआ है।
यू. एन. एफ. ए. ओ. (UNFAO) के पास उपलब्ध आँकड़ों के आधार पर पता चलता है कि भो जैसी शताब्दी के मध्य से लेकर वैश्विक वन आवरण लगभग स्थिर रहे हैं। वन आवरण 1954 से बढ़ गया है और वनोन्मूलन की दर में कमी भी आ रही है। विश्व स्तर पर वनोन्मूलन की दर 1980 के दौरान कम हुई है। 1990 में इससे और तेजी से कमी आई। 2000 से 2005 तक और भी तेजी नत से कमी आई है।
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वनोन्मूलन की दरों से पता चल रहा है वैश्विक वन आवरण 2050 तक 10% बढ़ जाएगा जो हमारे देश भारत के क्षेत्रफल के बराबर है, लेकिन कुछ पर्यावरण वैज्ञानिकों का अनुमान यो है कि यदि पुराने वनों की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिये विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाये जायेंगे तो 2030 तक इसका केवल 10% ही शेष रह जायेगा। वर्तमान समय में विश्वस्तर पर 31% भू-भाग पर = का आवरण है।
हमारे देश भारत में वन आवरण का प्रतिशत 21.34 है, जबकि पर्यावरणीय संतुलन के लिये जरूरी है कि धरती के 33% भू-भाग पर जंगल अनिवार्य रूप से विद्यमान हो, लेकिन जनसंख्या विस्फोट की वजह से बढ़ती समस्याओं ने वनों को विनाश के कगार पर पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है जिसे बचाने के लिये जन जागरूकता जरूरी है।
भारत में वन्यावरण (Forest Cover in India)
केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर द्वारा भारत वन स्थिति रिपोर्ट (ISFR) 2019 जारी की गयी इस रिपोर्ट के मुख्य बिन्दु हैं-
(i) हमारे देश भारत में वर्तमान समय में कुल वनाच्छादित आवरण 7, 12, 249 वर्ग किमी. है, जो कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 21.67 प्रतिशत है।
(ii) वृक्ष आच्छादित क्षेत्र 95,027 वर्ग किमी. है जो कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 2.89 में प्रतिशत है।
(iii) वन तथा वृक्ष का समस्त आवरण 8,07,276 वर्ग किमी. है कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 24.56 प्रतिशत है।
(iv) हमारे देश के 140 पहाड़ी जिलों में वन आवरण 544 वर्ग किमी. (90%) की वृद्धि दर्शाता है। वर्तमान मूल्यांकन में आदिवासी जिलों में RFA/GW के भीतर 741 वर्ग किमी. वन आवरण की कमी और 1, 922 वर्ग किमी. की वृद्धि दर्शाता है।
(v) उत्तरी पूर्वी क्षेत्र में कुल वन क्षेत्र जिनका भौगोलिक क्षेत्र 65.05% है वर्तमान मूल्यांकन में इस क्षेत्र के वनावरण में 765 वर्ग किमी. (0.45%) की कमी देखी गई है। असम और त्रिपुरा को छोड़कर, देश के सभी राज्यों के वनावरण में कमी आई है।
(vi) 2019 के मूल्यांकन की तुलना में मैंग्रोव वन क्षेत्रों में 54 वर्ग किमी. (10%) की वृद्धि हुई है।
(vii) हमारे देश के वनों का कार्बन स्टॉक 7,124, 6 मिलियन टन अनुमानित है जिसमें 2017 के मूल्यांकन की तुलना में 6 मिलियन टन की वृद्धि हुई है।
(viii) 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, क्षेत्रफल की दृष्टि से मध्य प्रदेश देश का सबसे बड़ा वन क्षेत्र है इसके पश्चात् अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और महाराष्ट्र है।
सर्वाधिक वन क्षेत्र वाले राज्य क्षेत्र (वर्ग किमी.)
1. मध्य प्रदेश राज्य 77,482 वर्ग किमी.
2. अरुणाचल प्रदेश 66,688 वर्ग किमी.
3. छत्तीसगढ़ 55,611 वर्ग किमी.
4. ओडिशा 51,619 वर्ग किमी.
5. महाराष्ट्र 50.7789 वर्ग किमी.
(ix) वन आवरण में वृद्धि के मामले में शीर्ष पाँच राज्य कर्नाटक (1,025 वर्ग किमी.) आंध्र प्रदेश (990 वर्ग किमी.) केरल (823 वर्ग किमी.) जम्मू कश्मीर (371 वर्ग किमी.) हिमाचल प्रदेश (334 वर्ग किमी.) (x) प्रतिशत के आधार पर कुल भौगोलिक क्षेत्र के वन आवरण के मामले में, शीर्ष पाँच राज्य मिज़ोरम (85.41%) अरुणाचल प्रदेश (79.63%) मेघालय (76.33%) मणिपुर (75.46%) और नागालैंड (75.31%)। वनों की सुरक्षा के लिये 21 मार्च को विश्व वन दिवस मनाया जाता है।
वनोन्मूलन के कारण (Causes of Deforestation)
वनोन्मूलन का सबसे सामान्य कारण जलाने के लिये, इमारती लकड़ी के लिए और कागज के लिये लकड़ी काटना है। दूसरा मुख्य कारण है खेती के लिये भूमि की आवश्यकता, इसमें फसलों और चारागाह ही जरूरतें भी निहित हैं।
वनोन्मूलन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
(i) कृषि
(ii) स्थानांतरीय जुताई
(iii) जलावन लकड़ी की मांग
(iv) उद्योगों और व्यावसायिक उद्देश्य के लिये लकड़ी की मांग
(v) शहरीकरण और विकास-संबंधी परियोजना
(vi) अन्य कारण
1. कृषि (Agriculture)
वनोन्मूलन के प्रमुख कारणों में से एक कारण कृषि का विस्तृत होना है। मनुष्य ने प्राकृतिक पारितंत्रों को सदा ही इस प्रकार परिवर्तित किया है कि फसलों की वृद्धि के लिये वह अनुकूल हो जाय चाहे कृषि की पारम्परिक या आधुनिक कोई भी पद्धति अपनाई जाय। जैसे-जैसे कृषि उत्पादों की मांग बढ़ती गई अधिक से अधिक भूमि पर खेती शुरू होती गई और इसके लिये जंगलों को समाप्त करते चले गये।
घास के हरे मैदान यहाँ तक कि दलदल और पानी के नीचे की भूमि को भी खेती के लिये प्रयोग में लाया जाने लगा। इस प्रकार उपज प्राप्ति से अधिक पारिस्थितिकीय विनाश ही ज्यादा हुआ। जंगलों की भूमि सफाई के बाद भी पोषक तत्वों के पूर्ण रूप से समाप्त होने के कारण लम्बे समय तक खेती के उपयोग में नहीं आ सकी। खेती के लिये अनुपयुक्त होने वाली भूमि को मृदा अपरदन और अपक्षीर्णन (पतन) उठाना पड़ता है।
2. स्थानांतरीय जुताई (Shifting Cultivation)
मानव इतिहास के आदि काल में शिकार और संग्रहण जीविका के मुख्य साधन थे। स्थानांतरीणीय जुताई या झूम कृषि 12,000 वर्ष पुरानी विधि है जिसके कारण मानव सभ्यता ने भोजन संग्रह से भोजन उत्पादन की ओर कदम बढ़ाया।
इसे खेती की स्लैश और बर्न विधि के नाम से भी जाना जाता है। इस विधि से खेती करने के लिये 5 लाख हैक्टेयर जंगलों को प्रतिवर्ष साफ कर दिया जाता है। इस प्रकार की खेती में औजारों का बहुत कम प्रयोग होता है और वह भी बहुत उच्च स्तर के यंत्र नहीं होते थे, परन्तु इस प्रकार की खेती ने वनों का विनाश सबसे अधिक किया है, क्योंकि दो-तीन वर्षों की खेती के बाद उस भू-भाग को स्वाभाविक रूप से पुनः ठीक होने के लिये छोड़ दिया जाता था।
इस प्रकार की खेती केवल स्थानीय जरूरतों को ही पूरा करती थी या खेती करने वाले गाँव वालों को सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती थी। आज भी असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालँड, त्रिपुरा राज्यों और अंडमान निकोबार द्वीप समूह में "स्थानांतरीय खेती" की विधि प्रयोग की जाती है।
3. जलावन लकड़ी की मांग (Demand for Firewood)
जलावन की लकड़ी (ईंधन) को खाना पकाने और गर्माहट आदि के लिये ऊर्जा के स्रोत की तरह प्रयोग किया जाता है। लगभग विश्व की कुल लकड़ी में से 44% लकड़ी संसार की ईंधन की आवश्यकता को पूरा करती है। नीचे दी गई तालिका पर दृष्टि डालने से पता चलेगा कि विकसित देशों में ईंधन की आवश्यकता का 16% जलावन लकड़ी से पूरा किया जाता है। भारतवर्ष में लगभग 135-170 मिलियन टन जलावन लकड़ी का प्रयोग होता है जिसके लिये 10-15 हेक्टेयर वन्यावरण को काटना पड़ता है तब शहर और गांवों के गरीबों की ईंधन की आवश्यकता पूरी हो पाती है।
4. औद्योगिक और व्यावसायिक उपयोग के लिये लकड़ी (Lumber for Industrial and Com- mercial use)
लकड़ी, एक बहुपयोगी वन्य उत्पाद है, इसका उपयोग बहुत से औद्योगिक कार्यों; जैसे- लकड़ी की पेटियां, पैकिंग के बॉक्स, फर्नीचर, माचिस, लकड़ी के बक्से बनाने के लिये, कागज और लुग्दी के लिये तथा प्लाईवुड के लिये किया जाता है। विभिन्न औद्योगिक उपयोगों के लिये 1.24 लाख हेक्टेयर जंगल काट दिये जाते हैं। लकड़ी का अनियंत्रित दोहन और अन्य व्यावसायिक कार्यों के लिये लकड़ी के उत्पादों का प्रयोग जंगलों के घटने का मुख्य कारण है।
लकड़ी की देश में वार्षिक खपत का 2% कागज उद्योग में लगता है और इसकी 50% जरूरत बाँस की लकड़ी से पूरी होती है। इस कारण प्रायद्वीपीय भारत के अधिकतम भाग में बांस के भंडार में निरन्तर कमी आती है। उदाहरण के लिये हिमालय के क्षेत्र में सेबों की खेती के कारण देवदार अन्य प्रजाति के वृक्षों का बहुत विनाश हुआ है। सेबों के परिवहन के लिये लकड़ी के बक्से चाहिये। इसी प्रकार चाय और अन्य उत्पादों के परिवहन के लिये प्लाइवुड के पेटी (क्रेट) चाहिए।
5. शहरीकरण तथा विकास परियोजना (Urbanisation and Development Project)
प्रायः विकासशील गतिवधियां वनोन्मूलन को साथ लाती हैं। आधारभूत ढांचे के साथ ही वनों का उन्मूलन सड़कों, रेलवे लाइन, बांध-निर्माण, बस्तियां, बिजली आदि के लिये शुरू हो जाता है। तापीय शक्ति संयंत्र, कोयले, खनिज और कच्चे माल के लिये खनन आदि वनों के उन्मूलन के महत्वपूर्ण कारण हैं।
आजकल आपने गढ़वाल हिमालय क्षेत्र में टिहरी शहर के टिहरी पावर परियोजना के विषय में अवश्य सुना होगा। यह 260.5 मीटर ऊंचा मिट्टी व चट्टानों से भरा बांध है। यह परियोजना भागीरथी और भीलगंगा के संगम पर धारा के साथ-साथ बहाव की ओर स्थित है।
लगभग 4,600 हेक्टेयर के अच्छे वन यहाँ पानी के नीचे डूब गये हैं जिससे वन्यावरण को भारी नुकसान हुआ है। जंगल कभी-कभी प्राकृतिक आपदाओं के कारण भी नष्ट हो जाते हैं; जैसे- अतिचारण, बाढ़, जंगल की आग, बीमारी या दीमकों के आक्रमण से।
वनोन्मूलन के परिणाम (Consequences of Deforestation)
वनोन्मूलन का प्रभाव पर्यावरण पर भौतिक और जैविक दोनों ही प्रकार से पड़ता है।
1. मृदा अपरदन और आकस्मिक बाढ़ें
2. जलवायु में परिवर्तन
3. जैवविविधता में कमी
1. मृदा अपरदन और आकस्मिक बाढ़ें (Soil Erosion and Flash floods)
घटते हुए वन्यावरण और भूजल के असीमित दुरुपयोग और शोषण ने निचले हिमालयों के ढलान अरावली की पहाड़ियों का क्षय (नाश) तीव्रता से कर दिया, जिससे वे भूस्खलन की ओर उन्मुख हो गये। वनों के विनाश ने वर्षा का ढंग भी बदल दिया।
वन्यावरण के कम होने से पानी धरती के ऊपर बहता रहा जिसके साथ मिट्टी की ऊपरी सतह बहकर नदियों के तल में गाद की तरह बैठ गई। वन मिट्टी के अपरदन को, भू-स्खलन को रोकते हैं जिससे बाढ़ और सूखे की तीव्रता कम होती है। विश्वव्यापी मिट्टी के नुकसान में भारत में मिट्टी की ऊपरी सतह का नुकसान 18.5% है। यह एक गम्भीर बात है क्योंकि भारत के पास विश्व के भूक्षेत्र का केवल 2.4% है।
2. जलवायु परिवर्तन (Climate Change)
वन स्थानीय अवक्षेपण को बढ़ाते हैं और मिट्टी की पानी रोकने की शक्ति को समृद्ध बनाते हैं, चल-चक्र को नियन्त्रित करते हैं। पेड़ों से जो पत्तियाँ या कूड़ा-करकट गिरता है उसकी सड़न से मिट्टी को पोषकता मिलती है और वह उर्वरक होती है। वन मृदा अपरदन, भूस्खलन को सीमित करते हैं और बाढ़ों और सूखे की तीव्रता को भी कम करते हैं। वन वन्यजीवों के निवास होते हैं इससे समाज का सौन्दर्य, पर्यटन और सांस्कृतिक मूल्य विकसित होता है।
वनों का जलवायु पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जंगल वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को सोख लेते हैं और ऑक्सीजन (प्राणवायु) और कार्बन डाइऑक्साइड का अनुपात वातावरण में उचित मात्रा में रखते हैं। वनों केकारण ही हवा में, जिसमें हम सांस लेते हैं, ऑक्सीजन की मात्रा उचित बनी रहती है। वन, वातावरण में जल-नियमन (जल-चक्र) को नियंत्रित रखने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं और जलवायु और वातावरणीय आर्द्रता को नियमित रखने में पर्यावरणीय सहयोगी का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य करते हैं।
शताब्दी की एक महत्वपूर्ण समस्या वातावरण में उष्णता (ऊष्मा) का संचयन होना है जिसे शीशे को बनी पौधशाला का प्रभाव (ग्रीनहाउस प्रभाव, Green house effect) जाना जाता है। इस प्रभाव का मुख्य कारण वनोन्मूलन ही है। सम्पूर्ण हिमालय का पारितंत्र खतरे में हैं और असंतुलित होती जा रही है क्योंकि हिमरेखा पतली होती जा रही है और बरहमासी झरने भी सूखने लगे हैं। वार्षिक वर्षा भी 3 से 4% कम होने लगी है। दीर्घकालीन सूखा तमिलनाडू और हिमाचल प्रदेश जैसे क्षेत्रों में भी होने लगा जहाँ ये पहले जाने ही नहीं जाते थे।
3. जैवविविधता (Biodiversity)
जीवन के प्रत्येक रूप को जैवविविधता कहा जाता है। जैवविविधता (Biodiversity, जैविक विविधता) विविधता का माप है, इसमें सभी जीवित प्राणियों और वस्तुओं के प्रकारों का समावेश जैवविविधता में होता है। जैवविविधता को कई प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है जिसमें प्रजातियों में अनुवांशिक स्ट्रेनों (भिन्नताओं) की संख्या और क्षेत्र की विभिन्न पारिस्थितिकीय भिन्नताएं निहित हैं।
किसी विशेष क्षेत्र में (स्थानीय विविधता) या किसी विशेष प्रकार के पर्यावास में (पर्यावास विविध ता) या पूरे विश्व में (विश्वव्यापी विविधता) रहने वाली विभिन्न जाति-प्रजातियों की संख्या को सामान्य रूप से जैवविविधता कहा जाता है। जैवविविधता स्थिर नहीं होती है। विकास के साथ साथ समय परिवर्तन से कुछ नई प्रजाति जन्म ले लेती हैं और कुछ प्रजाति लुप्त हो जाती हैं।
विश्वव्यापी स्तर पर हमारा ज्ञान अधूरा है, लगभग 1.4 मिलियन प्रजातियों को अभी तक पहचाना गया है। पृथ्वी पर रहने वाली विभिन्न प्रजाति अनुमानतः 10 और 100 मिलियन के बीच है। जैव-विविधता के संरक्षण के लिए बहुत सोच-विचार और चिन्ता की जा रही है। जैव विविधता के सरंक्षण से एक बड़ा लाभ यह होगा कि मानव प्रयोग और कल्याण के लिये अनेक प्रकार के उत्पाद उपलब्ध होंगे। यह कृषि के लिये बहुत बड़ा सम्भावित स्रोत है। साथ ही कृषि और उद्योग के लिये भी उपयोगी स्रोत है।
जैव विविधता में कमी आने के कुछ कारण इस प्रकार हैं-
• शिकार, चोरी से शिकार और व्यावसायिक शोषण।
•वन्य जीवों के निवासों को हटाना या उनसे छेड़छाड़ करना।
• कुछ निवास स्थानों/जीव प्रकारों को नष्ट करना।
• पशुपालन।
• नये क्षेत्र में नई विदेशी प्रजाति को रखना जो स्थानीय प्रजातियों के लिये खतरा बन जाती हैं।
कीटनाशकों का प्रयोग।
• ड्डिी, दीमक आदि कीड़े, औषधीय शोध और चिड़ियाघर।
ऊपर के सभी कारण जैवविविधता पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।