माध्यमिक शिक्षा की प्रमुख समस्याओं का वर्णन कीजिए।
माध्यमिक शिक्षा की समस्यायें स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में माध्यमिक विद्यालयों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई, लेकिन शिक्षा की गुणात्मक में वृद्धि न हो सकी। माध्यमिक शिक्षा के स्तर में वृद्धि होने के बजाय नित्यप्रति गिरावट ही होती गई। माध्यमिक शिक्षा जीवनोपयोगी नहीं हो पा रही है तथा सामाजिक अपेक्षाओं को पूर्ति नहीं कर पा रही है। समय-समय पर किये गये अनेक प्रयासों के बाद भी माध्यमिक शिक्षा को सरंचना में एकरूपता स्थापित नहीं हो पा रही है। माध्यमिक शिक्षा की प्रमुख समस्याओं को नीचे अंकित किया गया है-
1. शिक्षा के निश्चित उद्देश्यों की कमी
माध्यमिक शिक्षा उद्देश्यविहीन है। माध्यमिक शिक्षा का वर्तमान उद्देश्य किसी उच्च संख्या में प्रवेश प्राप्त करना तथा छोटी-मोटी नौकरी प्राप्त करना है। पराधीन नहीं भारत में माध्यमिक शिक्षा के जो उदेश्य के लगभग के हो उद्देश्य अभी भो व्याप्त है।
इस उद्देश्यहीनता के फलस्वरूप बालक का भविष्य अन्धकारमय होता जा रहा है। फलत: माध्यमिक शिक्षा जीवन से सम्बद्ध नहीं हो पा रही है। मात्र परीक्षा उत्तीर्ण करना ही शिक्षा का उद्देश्य नहीं है। उद्देश्यहीनता के कारण आज की शिक्षा विद्यार्थियों में नैतिक गुणों को विकसित नहीं कर पा रही है। दिन-प्रतिदिन छात्रों में अनुशासनहीनता बढ़ती जा रही है। मुदालियर कमीशन के अनुसार माध्यमिक शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य
(1) लोकतांत्रिक नागरिकता का विकास
(6) व्यावसायिक कुशलता में वृद्धि,
(क) व्यक्तित्व का विकास तथा
(iv) नेतृत्व का विकास करना है, जबकि आज को माध्यमिक शिक्षा इन उद्देश्यों करने में अपने आप को सर्वथा असम पा रही है।
2. योग्य एवं प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी
वर्तमान माध्यमिक विद्यालयों में योग्य शिक्षकों की कमी है, क्योंकि जाम-पहचान, राजनैतिक दबाव तथा अर्थ के आधार पर योग्य शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हो पाती है। आरक्षण नियम के आधार पर प्राय: अयोग्य अध्यापकों की नियुक्ति की समस्या और भी जटिल होती जा रही है। स्पष्ट है कि योग्य तथा निष्ठावान अध्यापकों के अभाव में योग्य तथा निष्ठावान विद्यार्थियों की उपलब्धता सन्देह के घेरे में आ जाती है।
3. निम्न शिक्षण-स्तर
वर्तमान माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षण का स्तर निम्न है। यद्यपि माध्यमिक शिक्षा को संरचना को नया स्वरूप प्रदान करने के लिए शिक्षा का पुनसंगठन किया जा रहा है। फलतः माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्य-विधियों तथा कार्यक्रमों में अनेक परिवर्तन किये जाने के बाद भी इनका कार्यान्वयन ठीक ढंग से नहीं हो या रहा है। इन विद्यालयों में उत्साही शिक्षकों को भी कमी है। फलत: शिक्षण का स्तर उच्च नहीं हो पा रहा है।
4. तीन-तीन भाषाओं का अध्ययन
माध्यमिक विद्यालयों में सरकार की भाषा-सम्बन्धी नीति के कारण भाषा-समस्या का स्वरूप और समस्यामक हो गया है। मुदालिवर आयोग के अनुसार उच्च माध् यमिक स्तरों पर विद्यार्थियों द्वारा दो भाषाओं का अध्ययन किया जाना चाहिए, जबकि कोठारी आयोग ने संशोधनोपरान्त सुझाव दिया कि निम्न माध्यमिक स्तर पर तीन भाषाओं तथा उच्च माध्यमिक स्तर पर दो भाषाओं का अध्ययन किया जाना चाहिए।
दोनो आयोगों के विचारों के आधार पर सरकार ने 'त्रिभाषा-सूत्र' को अपनी राष्ट्रीय शिक्षा-नौति में प्रतिपादित कर दिया, अर्थात् माध्यमिक स्तर पर तीन भाषाओं का अध् वयन करना अनिवार्य है। हिन्दी-भाषी राज्यों में हिन्दी, अंग्रेजी और एक आधुनिक भारतीय भाषा, जिसमें दक्षिण की कोई भाषा होनी चाहिए तथा अहिन्दी-भाषी राज्यों में हिन्दी क्षेत्रीय भाषण तथा अंग्रेजी भाषा का अध्ययन किया जाना चाहिए।
5. जनसंख्या विस्फोट
भारत में तीव्र गति से जनसंख्या बढ़ती जा रही है, जो जनसंख्या विस्फोट के स्पष्ट प्रमाण को संकेतक है। जनसंख्या वृद्धि के कारण आदर्श कक्षा का निर्माण नहीं हो पा रहा है। जिए कक्षा में विद्यार्थियों को संख्या 25-30 से अधिक नहीं होनी चाहिए वहीं पर कक्षाओं में विद्यार्थियों को एस 80– 90 तथा 100 कही जा रही है। फलत: अध्यापक व्यक्तिगत रूप से उपाध्यान दे पा रहे हैं तथा उनकी समस्याओं का समाधान नहीं कर पा रहे हैं।
6. दोषयुक्त पाठ्यक्रम
माध्यमिक विद्यालयों में पुराने पाठ्यक्र के अनुसार ही शिक्षा प्रदान की जाती है। माध्यमिक शिक्षा आयोग अनुसार माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम पुस्तकोष सैद्धान्तिक रस बोझिल परम्परागत संकुचित, एकमागीय किशोरों की आवश्यकताओं को पूर्ण न करने वाली, परीक्षा-प्रधान, प्राविधिक तथा व्यवसायिक विषयों का अभाव तथा विद्यार्थियों के वातावरण तथा वास्तविक जीवन एवं सामाजिक जीवन में असम्बद्ध है। अतः इस प्रकार का पाठ्यक्रम विद्यार्थियों के विभिन्न कौशलों का विकास, रुचियों अभिवृत्तियों तथा मूल्यों की भावना जागृत नहीं कर पा रहा है।
7. दोषपूर्ण परीक्षा-प्रणाली:
माध्यमिक शिक्षा पर मैट्रिकुलेशन परीक्षा का एकाधिकार है। परीक्षा ही प्रत्येक हायर सेकेण्डी तथा हाई-स्कूल की कार्यक्षमता, अध्यापक की शिक्षण-दक्षता तथा विद्यार्थी की बौद्धिक योग्यता का निर्धारण करती है। अत: परीक्षा में सफलता प्राप्त करने के लिए छात्र किसी भी स्तर परजाने के लिए उद्यत हो जाता है तथा अनुचित कार्य करने के लिए तैयार हो जाता है।
इसलिए उसमें अपराध वृति उत्पन्न हो जाती है। माध्यमिक शिक्षा आयोग का विचार है कि वर्तमान परोक्षा प्रणाली द्वारा विद्यार्थियों की मानसिक एवं साहित्यिक उपलब्धियों को माप में विश्वसनीयता का अभाव है, क्योंकि प्रचलित निबन्धात्मक प्रकार के प्रश्नों के मूल्यांकन में परीक्षक के मनोभावों का मूर्धन्य स्थान है। फलतः उनके द्वारा प्रदान किये जाने वाले अंकों को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता है।
8. गैर-सरकारी विद्यालयों की अत्यधिक स्थापना
गैर-सरकारी विद्यालयों के अन्तर्गत प्राय: तीन प्रकार के विद्यालय संचालित किये जाते हैं, यथा
(1) निकाय स्कूल
(ⅱ) व्यक्तिगत विद्यालय तथा
(ii) अमान्यता प्राप्त व्यक्तिगत विद्यालय।
भारत में निकाय विद्यालयों की संख्या 12 प्रतिशत है, जो नगरपालिकाओं, म्यूनिस्पिलबोडों तथा शिक्षा परिषदों द्वारा संचालित किये जाते हैं। इनके बारे में माध्यमिक शिक्षा आयोग का विचार है "यपि हम इनको कार्यकुशलता के बारे में कोई अनुचित वक्तव्य नहीं देना चाहते, तथा हमारे पास सिद्ध करने के लिए पर्याप्त प्रमाण है कि इन विद्यालयों में सुधार करने की अत्यधिक आवश्यकता है।"
व्यक्तिगत संस्थाओं द्वारा संचालित विद्यालयों को संख्या कोठारी कमीशन के अनुसार 69.2 प्रतिशत है। ऐसे विद्यालयों की दशा निकाय विद्यालयों को अपेक्षा अधिक शोचनीय है। ऐसे विद्यालयों में राजनीतिक दलों, धार्मिक, संस्थाओं, धनिक वर्गा तथा जातिगत वर्गों के आधिपत्य की प्रधानता है, जो शिक्षकों को निर्धारित वेतन से कम वेतन प्रदान करते हैं। प्रायः ऐसे विद्यालयों के प्रवन्धक शिक्षकों को प्रायः प्रताड़ित करते रहते हैं।
9. निर्देशन तथा परामर्श की समस्या
माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षकों तथा छात्र दोनों को उचित मार्गदर्शन एवं परामर्श नहीं प्राप्त हो पाते हैं, जिनसे वे अपने वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं कर पाते हैं। उचित निर्देशन के अभाव में विद्यार्थी अपने अनुकूल विषयों का चयन नहीं कर पाते हैं। धन की कमी एवं शिक्षकों के अभाव के कारण 1581 दर्शन एवं परामर्श देने को लघुतमध्यमिक विद्यालय में नहीं हो पाती है। निर्देशन के अभाव से शिक्षक भी अपने विद्यार्थियों को अधिकाधियों तथा योग्यताओं के अनुसार उनका विकास नहीं कर पाते हैं।
10. बहुउद्देश्यीय विद्यालयों की समस्यायें
यद्यपि कि विभिन्न पाठ्यक्रमों के कार्यान्वयन हेतु बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना की गई है, लेकिन इन विद्यालयों में अनेक प्रशासनिक तथा व्यावहारिक कठिनाइयों उत्पन्न हो गई है. पथा- हाईस्कूलों को बहुदेशीय विद्यालयों में परिवर्तित करने की समस्या, अभिभावकों द्वारा अस्वीकृति समय-सारणी निर्माण करने में कठिनाई, पाठ्यपुस्तकें की कमी प्रधानाध पक की कठिनाई, आर्थिक कठिनाई, कार्यप्रणाली से अनभिज्ञ होना, विषय-परिवर्तन में कठिनाई स्थानीय आवश्यकताओं के अनुकूल होना आदि।
11. लड़कियों की शिक्षा की समस्यायें
माध्यमिक स्तर पर लड़कियों को शिक्षा तथा व्यवस्था का प्रवन्ध संतोषजनक स्थिति में नहीं है। हंसा मेहता समिति के अनुसार लिंग के आधार पर पाठ्यक्रम में भेद नहीं किया जानाचाहिए। गृहविज्ञान की शिक्षा लड़कियों के लिए अनिवार्य नहीं होनी चाहिए। इनमें शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर शिक्षित किया जाना चाहिए।
12. पाठ्यपुस्तकों की समस्या
माध्यमिक स्ता पर अच्छी पुस्तकों की व्यवस्था नहीं है। फालत: शिक्षण-प्रक्रिया से बांछित उद्देश्यों को प्राप्ति नहीं हो पा रही है। पाठ्यपुस्तकों को अनेक समस्यायें है, यथा-अरुचिकर तथा असम्बद्ध होना, अभनोबैज्ञानिक पाठ्य-सामग्रियों कक्षा जन्य परिस्थितियों का अभाव, भारतीयता का अभाव, सद्भावनाओं का अभाव, नादि।
13. शैक्षिक अवसरों की समानता की समस्या
देश में ऐसे भी क्षेत्र है, जहां सुदूर क्षेत्र तक एक भी विद्यालय स्थापित नहीं हैं। फलत: अधिकांश आदिवासियों के बच्चे शिक्षा से वंचित है। विशेषकर, पहाड़ी तथा जंगलो क्षेत्रों के लोग शिक्षा की प्राप्ति नहीं कर पाते हैं। भारतीय संविधान में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार सभी को प्राप्त है, लेकिन अधिकांश दुर्गम क्षेत्रों के अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा आदिवासियों तथा मलिन बस्तियों के बच्चे शिक्षा प्राप्ति से अछूते हैं। इस प्रकार स्वतंत्र भारत में अभी भी सभी वॉक को शैक्षिक अवसरों की समानता नहीं प्राप्त हो सकी है।
14. एकरूपता का अभाव
भारतवर्ष के माध्यमिक शिक्षा में एकरूपता नहीं है। प्रायः एकरूपता की कमी मुख्यतः तीनी क्षेत्रों में पाई जाती है, यथा
(1) संगठन में
(2) पाठ्यक्रम में तथा
(3) प्रबन्ध एवं प्रशासन में।
शिक्षा के संगठन के अन्तर्गत कहीं माध्यमिक स्तर छठी कक्षा में बारहवीं कक्षा तक, कहाँ छठी से ग्यारहवीं कक्षा तक कहीं पांचवीं से बारहवीं तक तो कहीं आठवीं में बारही तक है। माध्यमिक स्तर पर कहीं एक बार वाह्य परीक्षा का आयोजन किया जाता है तो कहीं दो बार।
15. अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या
प्रायः यह देखा जाता है कि प्रतिवर्ष हाईस्कूल तथा इण्टरमीडिएट कक्षाओं में प्रायः आधे छात्र अनुत्रीण हों जाते है। इसलिए अवरोध में अपव्यय की समस्या उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार तथा सभा के धन समय शक्ति का अपव्यय होता रहता है। यद्धपि की माध्यमिक स्तर की अपेक्षा प्राथमिक स्तर पर अपव्यय तथा अवरोध अधिक होता है।
16. औद्योगिक तथा व्यावसायिक शिक्षा का अभाव
माध्यमिक स्तर पर सामान्य शिक्षा को सर्वोपरि स्थान दिया जाता है। सामान्य शिक्षा को बहुल्यता के कारण माध्यमिक शिक्षा में औद्योगिक पिरचर की कमी है। फलतः माध्यमिक शिक्षा शतव्यक्ति अपन सामूहिक जीवन सफलतापूर्वक व्यतीत नहीं कर सकता है।
17. प्रसार की समस्या
माध्यमिक शिक्षा का प्रसार जनसंख् के नाय के अनुसार नहीं है। देश के अधिकांस लोग माध्यमिक शिक्षा की प्राप्ति में बंचित है। पंचवर्षीय योजनाओं में देरयों की अस्पष्टता, प्रवेश की सुविधाओं का न होना, सरकार तथा प्रवन्ध समितियों में सामन्जस्य का न होना, आवश्यकतानुसार सम्थाओं की संख्या में वृद्धि होना, बजट में असमान होना, निध्यान कर्मचारियों को कमी, शिक्षकों को संतोषजनक तथा सुविधाओं की अप्राप्ति आदि के कारण माध्यमिक विद्यालयों का प्रसार संतोषजनक स्थिति में नहीं हो पा रहा है।
18. अनुशासनहीनता की समस्या
आज माध्यमिक विद्यालयों दिन-प्रतिदिन अनुशासनहीनता की समस्या जटिल होती जा रही है। अक्सर विद्यालयों में हड़ताल, कक्षाओं का बहिष्कार तोड़फोड़, परीक्षाओं में नकल की प्रवृति, पुलिस से मुठभेड़, शिक्षकों के साथ अभद्रता मारपीट, नारेबाजी, आदि की घटनायें सामान्य बात हो गई है। बढ़ती अनुशासनहीनता में मात्र विद्यार्थियों का हो उत्तरदायित्व नहीं माना ज सकता है, बल्कि राजनीतिक दल, शिक्षित बेरोजगारी, कामुक मनोरंजन के साधन तथा किशोरावस्था की समस्याओं को भी प्रमुख घटक माना जा सकता है।
मुख्य रूप से सामाजिक आर्थिक कारण (बेकारी एवं महंगाई, आर्थिक असमानता तथा पक्षपातपूर्ण प्रतियोगिता, औद्योगीकरण के दुष्परिणाम, पातायत तथा संदेशवाहन में वृद्धि, मनोरंजन के साधनों की कमी, पारिवारिक जीवन का विघटन, सामाजिक कुरीतियां आदि), राजनैतिक कारण (राजनैतिक जागृति, राजनैतिक दल, पुलिस की तानाशाही, सरकार की उदासनोता, पक्षपातपूर्ण प्रशासन आदि) शैक्षिक कारण (विद्यालयों को असन्तोषजनक स्थिति, गलत शिक्षा-व्यवस्था शिक्षा का निम्न स्तर, बिना सोचे-समझे शिक्षा में नये प्रयोग, विकि को आवश्यकतानुसार शिक्षा व्यवस्था होना आदि), मनोवैज्ञानिक कारण (विद्यार्थियों की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति, पुरानी एवं नई पीढ़ी के दृष्टिकोण में भिन्नतायें, छत्र-शक्ति एवं साहस का दुरुपयोग, असुरक्षा की भावना, प्राकृतिक इच्छाओं का दमन आदि) के फलस्वरूप भी अनुशासनहीनता की मात्रा में वृद्धि होती जा रही है।
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