पर्यावरण : अर्थ, क्षेत्र एवं प्रकृति

पर्यावरण : अर्थ, क्षेत्र एवं प्रकृति ( Environment: Meaning, scope and nature )

पर्यावरण पृथ्वी पर सभी जीव-जन्तुओं एवं मानव के लिए जीवन का आधार है, जो न केवल मानव बल्कि कई प्रकार के जीव-जन्तुओं व वनस्पति के उद्भव, विकास एवं अस्तित्व का आधार है। सभ्यता के विकास से वर्तमान युग तक मानव ने जो प्रगति ही है, उसमें पर्यावरण की महती भूमिका है तथा मानव सभ्यता एवं संस्कृति का विकास मानव- पर्यावरण के समानुकूल एवं सामंजस्य का परिणाम है। यही कारण है कि अनेक प्राचीन सभ्यताएँ प्रतिकूल पर्यावरण के कारण काल के गर्त में समा गईं तथा अनेक जीवों एवं पादप समूहों की प्रजातियाँ विलुप्त हो गईं और कई पर यह संकट गहराता जा रहा है।

पर्यावरण : अर्थ, क्षेत्र एवं प्रकृति

पर्यावरण (परि = बाहर या चारों ओर, आवरण घेरा) शब्द का शाब्दिक अर्थ है, "वह आवरण जो हमें चारों ओर से घेरे हुए है या आवृत्त किये हुए है।" इस प्रकार प्रकृति में हमारे चारों ओर पाए जाने वाले समस्त जैविक तथा अजैविक तत्व; जैसे-पेड़, पौधे, जंतु, वायु, जल, मृदा इत्यादि सभी मिलकर हमारे पर्यावरण की रचना करते हैं। पर्यावरण से तात्पर्य हमारे चारों ओर के उस वातावरण या परिवेश से है, जिससे हम घिरे हुए हैं।


दूसरे शब्दों में, पर्यावरण वह सब कुछ है; जो प्राणी को चारों ओर से घेरे हुए है और उसे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहा है। यह उन सभी बाहरी दशाओं और प्रभावों का योग है, जो प्राणी के जीवन और विकास पर प्रभाव डालते हैं। यदि हम मानव जीवन का ही उदाहरण लें, तो हम इसे बहुत-सी दशाओं और परिस्थितियों से घिरा पाते हैं। इनमें से कुछ दशाएँ; जैसे- वन्य जीव-जन्तु, वायु, पानी, जल, मौसम, सामाजिक ढाँचा, सामाजिक संस्थाएँ, मान्यताएँ, धर्म, नैतिकता, भाषा, आदर्श इत्यादि मानवीय जीवन को प्रभावित करते रहते हैं।


उपरोक्त सभी दशाओं की सम्पूर्णता ही पर्यावरण है। प्रकृति में उपस्थित उपरोक्त समस्त जीव तथा अजैविक तत्व परस्पर सम्बन्धित हैं और एक-दूसरे को प्रभावित कर एक निश्चित सामंजस्य बनाए रखते हैं। अच्छे पर्यावरण का अर्थ है; इन सभी घटकों के मध्य समुचित संतुलन।


मानव ने अपनी सुविधा, विकास या मनोरंजन के लिए पर्यावरण से जाने-अनजाने छेड़छाड़ की है, जिसके परिणामस्वरूप न सिर्फ जैविक व्यवस्था अस्तव्यस्त हुई; बल्कि अजैविक घटकों में भी संगठनात्मक तथा गुणात्मक परिवर्तन हुए।


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यथा मानव ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जंगलों को काटा, जंगली जानवरों को पालतू बनाया, ऊर्जा प्राप्ति के लिए नदियों की दिशा परिवर्तित की, उन पर बांध बनाए, घरेलू एवं औद्योगिक इकाइयों से निकले अपशिष्टों के द्वारा जल स्रोतों एवं वायुमण्डल को प्रदूषित किया, रासायनिक खादों, उर्वरकों तथा अनेक हानिकारक रसायनों का बिना उनके दूरगामी परिणामों को विचारे, अत्यधिक उपयोग कर पर्यावरण को क्षति पहुँचायी।


उक्त सभी विकासोन्मुख कार्यों के साथ-साथ मानव ने "मानव निर्मित परितंत्र" का निर्माण कर प्रकृति पर विजय पाने की लालसा से कार्य किया, जिनके सम्मिलित परिणाम पर्यावरणीय प्रदूषण, प्राकृतिक संसाधन, परिवर्तित भौगोलिक स्वरूप तथा ऊर्जा संकट के रूप में हमारे सामने हैं, जिन्होंने न सिर्फ मानव वरन् सम्पूर्ण जैवजाति के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है।


पर्यावरण का अर्थ (MEANING OF ENVIRONMENT)


पर्यावरण शब्द को अंग्रेजी में 'Environment' कहते हैं। अंग्रेजी के शब्द Environment का विन्यास करने से स्पष्ट है कि इसमें भी दो शब्द Environ और ment है, जिनमें से Environ का अर्थ 'घेरना' (encircle) और ment का अर्थ 'चतुर्दिश' अर्थात् चारों ओर से है।


इस प्रकार पर्यावरण का अर्थ चारों ओर से घेरना है। वास्तव में Environment शब्द 'Envelop' का पर्याय है। इससे स्पष्ट है कि मनुष्य को जो तत्व सामूहिक रूप में, चारों ओर से घेरे हुए हैं; उसको पर्यावरण कहते हैं। पर्यावरण के अर्थ को और अधिक स्पष्ट रूप में समझने के लिए पर्यावरण के बारे में विद्वानों द्वारा दी गई कुछ परिभाषाओं पर विचार करना उपयुक्त होगा।


अन्सटैसी के अनुसार-"व्यक्ति के वंशानुक्रम के अतिरिक्त, वह सब कुछ पर्यावरण माना जाता है; जो उसे प्रभावित करता है।" "The environment is everything that affects the individual except genes." -Anastasi


सी. सी. पार्क के अनुसार- "मनुष्य एक विशेष स्थान पर, विशेष समय पर, जिन सम्पूर्ण परि. स्थितियों से घिरा हुआ है; उसे पर्यावरण कहते हैं।" "Environment refers to the total of conditions which surround man at a given C. C. Park point in space and time."


विश्व शब्द कोष में पर्यावरण को परिभाषित किया है, "पर्यावरण उन सभी दशाओं, प्रणालियों एवं प्रभावों का योग है; जो जीवों, जातियों के विकास, जीवन एवं मृत्यु को प्रभावित करता है।"


"The entire range of external influences acting on an organism, both, the physical and biological forces of nature surrounding an individual."


"जीवों को सदैव आवृत्त करने वाली भौतिक एवं जैविक शक्तियाँ, जो बाह्य प्रभावों का अंग होती है तथा इन सभी का योग पर्यावरण है; जो जीवों को प्रभावित करता है।" -Encyclopaedia of Britannica


'ए. जी. टॉसले' (A. G. Tansley) ने अपनी पुस्तक "Practical Plant Ecology" में लिखा है, "प्रभावकारी दशाओं का वह सम्पूर्ण योग जिसमें जीव रहते हैं, पर्यावरण कहलाता है।"


'हर्सकोबिट्स' ने अपनी पुस्तक 'Man and His Works' में लिखा, "पर्यावरण उन बाहरी दशाओं और प्रभावों का योग है, जो पृथ्वी तल पर जीवों के विकास चक्र को प्रभावित करते हैं।"


समाजशास्त्री 'मैकाइवर' के अनुसार- "पृथ्वी का धरातल और उसकी प्राकृतिक दशाएँ- प्राकृतिक संसाधन, भूमि, जल, पर्वत, खनिज पदार्थ, पौधे-पशु तथा सम्पूर्ण प्राकृतिक शक्तियाँ, जो पृथ्वी पर विद्यमान होकर मानव जीवन को प्रभावित करते हैं, भौतिक पर्यावरण के अंतर्गत आते हैं।"


विद्वान 'रोशे' के अनुसार-"पर्यावरण एक बाह्य शक्ति है; जो प्रभावित करती है।"


भूगोलवेत्ता 'डडले स्टाम्प' के अनुसार-"पर्यावरण भावों का ऐसा योग है, जो किसी जीव का विकास एवं प्रकृति को परिवर्तित एवं निर्धारित करता है।"


'डेविस' ने पर्यावरण को समझाते हुए लिखा- "मनुष्य के सम्बन्ध में पर्यावरण से अर्थ भूतल पर मनुष्यों के चारों ओर फैले उन सभी भौतिक रूपों से है, जिनसे वह निरन्तर प्रभावित होता रहता है।"


उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि पर्यावरण भौतिक एवं जैविक शक्तियों की समष्टि है, जो मनुष्य के विकास, चिन्तन तथा क्रियाओं को सदैव प्रभावित करती है। पर्यावरण किसी एक कारक का नाम नहीं है। यह अनेक कारकों; जैसे- धरातल, मृदा, जलवायु, खनिज, प्राकृतिक वनस्पति, जलराशियाँ आदि का एक योग है, जिसमें सभी की समान रूप से हिस्सेदारी होती है।


पर्यावरण एक भाववाचक शब्द है, जो सभी कारकों के सम्मिलित प्रभाव के रूप में जाना जाता है। मानव जीवन में पर्यावरण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लेकिन दुःख इस बात का है कि आधुनिक मानव ने अपनी इच्छाओं व आवश्यकताओं की पूर्ति करने में पर्यावरण के विभिन्न तत्वों का इतना दोहन तथा शोषण किया है कि इसका परिणाम पर्यावरण के संतुलन के बिगड़ने एवं उसके गुणात्मक ह्रास के रूप में दिखाई देता है। - अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि जनसाधारण में, पर्यावरण चेतना का विकास किया जाए।


पर्यावरण के प्रकार (TYPES OF ENVIRONMENT)


जब मात्र प्राकृतिक कारकों की विवेचना करते हैं, तो इसे भौतिक पर्यावरण कहा जाता है। जब सांस्कृतिक अथवा मानव निर्मित कारकों, भूदृश्यों और कार्यों की विवेचना की जाती है, तो इसे सांस्कृतिक पर्यावरण कहा जाता है।


भौतिक और सांस्कृतिक जब दोनों ही कारकों और परिदृश्यों के अधिप्रभाव की विवेचना होती है तो इसे भौगोलिक, पर्यावरण कहते हैं अर्थात् जिन उद्देश्यों और परिदृश्यों के आधिक्य की व्याख्या होती है, जिस प्रकार के परिदृश्यों और कारकों को आधारभूत मानते हैं, तो उसे पर्यावरण के नाम से सम्बोधित करते हैं; यथा- नगरीय परिदृश्य और प्रभाव तथा नगरीय कारकों को सम्मिलित कर नगरीय पर्यावरण तथा ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि भू-दृश्य के संदर्भ में अधिप्रभाव की व्याख्या को ग्रामीण पर्यावरण कहा जाता है।


1. भौतिक पर्यावरण (Physical Environment)


भौतिक पर्यावरण से तात्पर्य उन भौतिक अथवा प्राकृतिक अर्थात प्रकृति से बनाए कारकों से है, जिन पर प्रकृति का सीधा नियंत्रण है। मानव का हस्तक्षेप इसके निर्माण में नहीं है, यदि मनुष्य को इस पृथ्वी से हटा लिया जाए, तो जिन प्रक्रियाओं-क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं पर कोई अन्तर न आये, उन सब कारकों को भौतिक पर्यावरण के अन्तर्गत रखा जाता है।


इसका आशय यह है कि जिसका निर्माण और नियंत्रण मनुष्य से परे है, जो प्रकृति प्रदत्त है, वह सब कुछ भौतिक पर्यावरण के अन्तर्गत आता है; जैसे-सूर्य ताप, ऋतु परिवर्तन, स्थिति, भू-वैज्ञानिक संरचना, धरातल, भूकम्प, ज्वालामुखी, खनिज, गिट्टियाँ, वनस्पति, जलाशय, जीव-जन्तु ऐसे कारक हैं, जो प्रकृतिजन्य हैं। इसलिए उक्त सभी कारकों को प्राकृतिक अथवा मौलिक पर्यावरण के अन्तर्गत रखा जाता है।


2. सांस्कृतिक पर्यावरण (Cultural Environment)


सांस्कृतिक पर्यावरण मानव निर्मित तथा मानव का इस पर पूर्ण नियंत्रण होता है तथा संविधान, धर्म, दर्शन, प्रतिमान, आदर्श, मूल्य, सामाजिक परम्पराएँ, रीति-रिवाज, सामाजिक सम्बन्ध, इन अमूर्त तथ्यों के अलावा मूल कारक भी सांस्कृतिक पर्यावरण के अन्तर्गत आते हैं; जैसे- सड़कें, पुल, भवन, आवास, शहर, सुरक्षा, चिकित्सा, शिक्षा केन्द्र, परिवहन स्थल, मनोरंजन स्थल आदि।


मनुष्य पहले इनका निर्माण करता है और फिर इनसे अनुशासित होता है। नगरीय एवं औद्योगिक स्थल पर सांस्कृतिक पर्यावरण विशेष प्रभावी होता है। शिक्षा केन्द्र और सुरक्षा केन्द्रों पर भी सांस्कृतिक और भौगोलिक दोनों कारक प्रभावी होते हैं। सांस्कृतिक पर्यावरण वस्तुतः मनुष्य के भौतिक कारकों के प्रति अनुकूलन-समायोजन-संघर्ष आदि की प्रतिक्रिया-अनुक्रिया के परिणामस्वरूप जन्मा है, जो कृषि, व्यापार, उद्योग, रीति-रिवाज में देखा जा सकता है। वस्तुत: विभिन्न कारक आपस में एक-दूसरे को प्रभावित करते हुए जीव जगत पर संयुक्त प्रभाव छोड़ते हैं। 


अतः इनका प्रभाव एकाकी न होकर संयुक्त होता है। पर्यावरण बाह्यशक्ति है, जो मनुष्य को प्रभावित करती है। दूसरे शब्दों में पर्यावरण वह सब कुछ है, जो किसी वस्तु या मानव को चारों ओर से घेरे हुए है और उसे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहा है। अर्थात् पर्यावरण शब्द जीवों की अनुक्रियाओं को प्रभावित करने वाली समस्त भौतिक एवं जैविक परिस्थितियों का योग है।


अतः संक्षेप में कहा जा सकता है; पर्यावरण के अन्तर्गत भौतिक-सांस्कृतिक अथवा जैविक- अजैविक घटकों को समाहित किया जा सकता है, जो जीव की दशाओं और कार्यों को प्रभावित करता है। इस प्रकार भौतिक कारक के अलावा, सांस्कृतिक कारक भी प्रभावशील हो सकते हैं। पर्यावरण में वे सभी प्राकृतिक एवं मानव निर्मित कारक सम्मिलित हैं, जो प्राणी को चारों ओर से घेरे हुए हैं और प्रभावित करते हैं। निष्कर्षतः पर्यावरण प्रभावशील विभिन्न कारकों का सम्मिलित नाम है।


'भौगोलिक शब्दकोश' के अनुसार- "चारों ओर उन बाहरी दशाओं का योग, जिसके अन्दर एक जीव या समुदाय रहता है या कोई वस्तु उपस्थित रहती है, पर्यावरण कहा जाता है।"


पर्यावरण को निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है-

1. पर्यावरण बाह्य शक्तियाँ हैं।

2. ये बाह्य शक्तियाँ परस्पर सम्बद्ध हैं।

3. जीवन पर इनका संयुक्त प्रभाव पड़ता है।

4. इन शक्तियों का प्रभाव और रूप गत्यात्मक है।

5. पर्यावरण का अधिप्रभाव (Impact) जीवों पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।



पर्यावरण के अवयव (घटक) (COMPONENTS OF ENVIRONMENT)


पर्यावरण अनेक अवयवों से मिलकर बना है। स्थूल रूप से इसे सनातन युग से जड़ और चेतन में बताया गया है, जिसे वैज्ञानिक अजैविक एवं जैविक मानकर विभाजित करते हैं। इसे भौतिक एवं अभैतिक कारकों में बताया जा सकता है। इन घटकों की सर्वप्रथम वैज्ञानिक विवेचना सन् 1918 में वनस्पति शास्त्र में 'ओस्टिंग' ने की और इसको निम्न भागों में प्रस्तुत किया-


1. पदार्थ - (मिट्टी + पानी)

2. दशाएँ- (ताप + प्रकाश),

3. बल-(पवन + गुरुत्व),

4. जीव-(जन्तु + वनस्पति),

5. काल- जलवायु+ समय)।


अतः मनुष्य को प्रभावित करने वाले बाह्य बलों या परिस्थिति को, पर्यावरण के कारक कहते हैं। दूसरे शब्दों में पयर्यावरण का हरेक अंग या भाग जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जीव-जन्तुओं के जीवन काल को प्रभावित करता है: उसे कारक कहते हैं।


पर्यावरणविद् 'डौरेनमिर' (1954) ने पर्यावरण के कारकों को सात वर्गों में बतलाया है-


1. मृत

2. वायु,

3. जल,

4, अग्नि,

5. ताप,

6. प्रकाश,

7. जीव-जन्तु।


पर्यावरण के घटकों का सामान्य वर्गीकरण (GENERAL CLASSIFICATION OF COMPONENTS OF ENVIRONMENT)


सामान्य रूप से अधिकतर भूगोलवेत्ताओं के द्वारा पर्यावरण के प्रमुख घटक निम्नलिखित हैं- 


1. अवस्थिति (Location)


अवस्थिति एक ऐसा महत्त्वपूर्ण कारक है, जिसका पर्यावरण के अंग के रूप में भौगोलिक विवेचन किया जाता है। अवस्थिति स्थिर होती है; किन्तु समय के साथ उसकी सापेक्षिक महत्ता बदलती रहती है। अवस्थिति का महत्त्व स्पष्ट करते हुए हंटिंगटन ने बताया कि "ग्लोब पर किसी देश की स्थिति उस देश के भूगोल को समझने के लिए कुंजी है।" भूगोलशास्त्र में अवस्थिति को निम्नलिखित चार रूपों में वर्गीकृत किया गया है-


(i) ज्यामितीय अवस्थिति (Geometric Location)

ज्यामितीय अवस्थिति किसी भौगोलिक प्रदेश की अक्षांश व देशान्तरीय स्थिति होती है, जिसके द्वारा उस प्रदेश की भू-संदर्भ स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है। उदाहरण के लिए, भारत के राजस्थान राज्य की भू-संदर्भ स्थिति 23° 3' से 30° 12' उत्तरीय अक्षांश व 69° 32' से 78° 17' पूर्वी देशान्तरों के मध्य है। इसी प्रकार भारत की भू-संदर्भ स्थिति 8° 4' से 37° 6' उत्तरी अक्षांश तथा 68° से 97° 25' पूर्वी देशान्तर के मध्य है। उपस्थिति कारक का प्रत्यक्ष प्रभाव मृदा, कृषि और वनस्पति संसाधन पर दिखलाई देता है। 


(ii) सामुद्रिक स्थिति (Manire Location)

समुद्र से घिरे हुए तथा समुद्र के सहारे स्थित भौगोलिक प्रदेशों में सामुद्रिक स्थिति का प्रभाव पड़ता है, जबकि महाद्विपीय स्थिति में प्रदेश विशेषकां समुद्र से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। सामुद्रिक स्थिति निम्न प्रकार की होती है-


(अ) द्वीपीय स्थिति (Insular Location),

(ब) तटीय स्थिति (Coastal Location),

(स) प्राय-द्वीपीय स्थिति (Peninsular Location) |


(iii) महाद्वीपीय स्थिति (Continental Location)

सामुद्रिक प्रभाव से दूर स्थलीय हिस्से वाले देशों की स्थिति महाद्वीपीय होती है। यहाँ सामुद्रिक वातावरण की दशाएँ न होकर कठोर भौगोलिक वातावरण होता है, जिसे किसी भी प्रदेश के विकास के लिए प्रतिकूल कहा जा सकता है। नेपाल, भूटान, बोलीविया, नाइजर, जाम्बिया, अफगानिस्तान आदि महाद्वीपीय स्थिति वाले देश हैं। महाद्वीपीय स्थिति में विदेशी व्यापार को भी गति नहीं मिल पाती है।


(iv) व्यापारिक मार्गों की स्थिति (Trade Route Location)

जो देश अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक मार्गों पर स्थित होते हैं, वे तीव्र आर्थिक विकास करते हैं। सिंगापुर के व्यापारिक मार्गों पर स्थित होने से विकास को रफ्तार मिली है। दक्षिण अफ्रीका पूर्व में सिंगापुर के समान स्थिति में था, लेकिन सन् 1869 में स्वेज नहर के निर्माण के बाद इसका महत्त्व कम हो गया है।


(v) समीपवर्ती देशों के संदर्भ में स्थिति (Vicinal Location)

समीपवर्ती देशों के सन्दर्भ में स्थिति को परिभाषित करते हुए बल्केनवर्ग ने लिखा है कि "राज्य के समीप स्थित देशों की संख्या एवं प्रकार क्या है? इसका राज्य की विकास पर प्रभाव पड़ता है।"


2. उच्चावच (Relief)


उच्चावच या भू-आकार पर्यावरण का एक बहुत उपयोगी घटक है। जैसा कि स्पष्ट है, सम्पूर्ण पृथ्वी का धरातल या उच्चावच विविधता से युक्त है। यह विविधता महाद्वीपीय स्तर से लेकर स्थानीय स्तर तक देखी जा सकती है। साधारणतया उच्चावच के तीन स्वरूप पर्वत, पठार एवं मैदान हैं। इनमें भी विस्तार, ऊँचाई, संरचना आदि की क्षेत्रीय विविधताएँ होती हैं और अपरदन एवं अपक्षय क्रियाओं से अनेक भू-रूपों या स्थलाकृतियों का जन्म हो जाता है; जैसे-कहीं मरुस्थलीय स्थलाकृति है, तो कहीं चूना प्रदेश की, तो कहीं हिमानीकृत है, तो दूसरी तरफ नदियों द्वारा निर्मित मैदानी या डेल्टाई प्रदेश हैं। ये समस्त तथ्य सम्पूर्ण जीवमण्डल, महाद्वीप के पर्यावरण को ही नहीं अपितु प्रादेशिक तथा स्थानीय पर्यावरण को भी निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रखते हैं।


(i) उच्चावच का प्रभाव

उच्चावच का प्रभाव पर्यावरण के अन्य कारकों; यथा-जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति, मृदा पर प्रत्यक्ष रूप से होता है, जो कि सामूहिक रूप से मानव के सांस्कृतिक तथा आर्थिक स्वरूप को प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि मैदानी प्रदेश सदैव से सभ्यता के पोषक रहे हैं। अगर यहाँ अन्य कारक उपयुक्त हैं, तो दूसरी तरफ पर्वतीय क्षेत्र असमतल तथा अनियमित धरातल के कारण मानव बसाव एवं अन्य आर्थिक क्रियाओं में बाधक रहे हैं। एक प्रदेश में उच्चावच का प्रभाव वहाँ की जलवायु एवं वनस्पति पर स्पष्ट दिखलाई देता है।


(ii) पर्वतीय क्षेत्रों का प्रभाव

उच्चावच में पर्वतीय क्षेत्रों का पर्यावरण पर बहुत असर होता है। पर्वत श्रेणियों की ऊँचाई, ढाल, विस्तार एवं दिशा का जलवायु एवं प्राकृतिक वनस्पति पर प्रत्यक्ष प्रभाव होता है। यह एक सामान्य नियम है कि जैसे-जैसे ऊँचाई में वृद्धि होती चली जाती है, तापमान में कमी होती जाती है।


तापमान में कमी से जलवायु में परिवर्तन होता रहता है तथा जलवायु में परिवर्तन से प्राकृतिक वनस्पति में परिवर्तन हो जाता है। साधारणतया प्रति 1000 मीटर की ऊँचाई पर 6° से 7° सेल्सियस तापमान कम हो जाता है। अतः सामान्य दशा में पर्वतों के निचले ढालों पर उष्ण, मध्यम ऊँचाई पर शीतोष्ण और अधिक ऊँचाई पर शीत जलवायु प्रवाहित होती है।


हिम रेखा के बाद वर्ष पर्यन्त हिम का जमाव होने से, ध्रुव प्रदेशों के समान स्थिति होती है। जलवायु का यह परिवर्तन अक्षांशीय स्थिति से प्रभावित होता है; जैसे-विषुवत रेखीय प्रदेशों में हिम रेखा अधिक ऊँचाई पर होती है, जबकि शीतोष्ण प्रदेशों में कम और ध्रुवीय प्रदेशों में अत्यधिक, कम या सर्वत्र हिम का जमाव होता है।


जलवायु में हुए इस बदलाव के कारण उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों के पर्वतीय भागों; जैसे-हिमालय आदि के निचले भागों में उष्ण कटिबंधीय वनस्पति, मध्यम ऊँचाई पर शीतोष्ण, इसके बाद कोणधारी वन और तत्पश्चात् छोटे पौधे और फिर हिम-मण्डित प्रदेश, जो वनस्पति रहित प्रदेश होता है।


(iii) पर्वत श्रेणियों का वर्षा पर प्रभाव

पर्वत श्रेणियों का वर्षा पर सीधा प्रभाव होता है। यह उनके विस्तार की दिशा एवं वायु प्रवाह के मार्ग पर निर्भर करता है। अगर पर्वतों का विस्तार वायु मार्ग में अवरोधक है, तो उसके कारण वायु ऊपर होगी, उसका तापमान कम होगा तथा आर्द्रता धारण करने की क्षमता कम होने से वर्षा होगी।


यह वर्षा पर्वत श्रेणी के वायु अभिमुख ढाल पर ही होती है, दूसरा अर्थात् वायु विमुख ढाल में वृष्टि छाया प्रदेश में रहकर शुष्क या बहुत कम वर्षा प्राप्त करता है। वर्षा की इस मात्रा में परिवर्तन के कारण पर्वत के दोनों ढालों पर वनस्पति में भी अन्तर होता है।


लेकिन यदि पर्वत का विस्तार वायु की दिशा में होगा, तो उसका प्रभाव वर्षा पर नगण्य होता है; जैसा कि राजस्थान की अरावली पर्वतमाला का है। पर्वतीय धरातल स्थानीय रूप से जलवायु एवं वनस्पति को अत्यधिक प्रभावित करता है। कई बार ये शीत अथवा गर्म हवाओं को रोककर स्थानीय मौसम में परिवर्तन का कारण बनते हैं।


(iv) पर्वतीय ढाल की प्रकृति

पर्वतीय ढाल पर प्रकृति की तीव्र, मध्यम एवं मन्द सूर्य ताप की मात्रा, जल प्रवाह की गति, मृदा अपरदन एवं वनस्पति पर प्रभाव होता है। उत्तरी गोलार्द्ध के उच्च क्षेत्रों में जहाँ तीव्र ढाल होता है; वहाँ दक्षिणी ढाल पर अधिक सूर्य ताप और उत्तरी ढाल ठण्डे होते हैं, जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में इसके विपरीत होता है।


इस सूर्य ताप की मात्रा में तापमान एवं तद्नुसार प्राकृतिक वनस्पति में अन्तर आ जाता है। मृदा की बनावट पर भी ढाल की तीव्रता का प्रभाव होता है, यहाँ तक कि बहते हुए जल के साथ ज्यादातर मृदा बह जाती है और वहाँ केवल चट्टानें रह जाती हैं।


अतः संक्षेप में, उच्चावच का जहाँ पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है; वहीं जनसंख्या, निवास, कृषि, परिवहन, उद्योग आदि आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों पर भी प्रभाव पड़ता है। पर्वतीय क्षेत्र आज भी वनों के संरक्षक हैं। यद्यपि इन पर संकट आया हुआ है। कुछ क्षेत्रों में खनन के लिए भी पर्वतों को नष्ट किया जा रहा है। वास्तव में उच्चावच प्रादेशिक एवं क्षेत्रीय पारिस्थितिकतंत्र को सन्तुलित रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।


3. जलवायु (Climate)


जलवायु पर्यावरण का नियंत्रक घटक है, क्योंकि इसका असर पर्यावरण के अन्य कारकों; यथा-प्राकृतिक वनस्पति, मृदा, जलराशियों, जीव-जन्तुओं आदि पर सबसे अधिक होता है। यही नहीं मानव स्वयं भी जलवायु से बहुत प्रभावित होता है; उसका भोजन, वस्त्र, आवास, व्यवसाय ही नहीं, अपितु कृषि उत्पादन, जनसंख्या का घनत्व आदि भी इससे प्रभावित होते हैं।


जलवायु मूल रूप से सूर्यताप अर्थात् प्रकाश एवं तापमान, वर्षा, आर्द्रता एवं हवाओं का सम्मिलित स्वरूप है, जो विश्व के कई हिस्सों में ही नहीं, अपितु एक देश में भी परिवर्तित होती रहती है। जलवायु में परिवर्तन के अनुसार ही पर्यावरण की दशाओं एवं पारिस्थितिकी तंत्र में भी परिवर्तन दिखलाई देता है। जलवायु के प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं-


(i) सूर्य का प्रकाश (Sunlight)

प्रकाश का आदि स्रोत सूर्य है, जो कि वनस्पति को बहुत प्रभावित करता है। वनस्पति की कई क्रियाएँ: यथा- फोटो सिन्थेसिस, क्लोरोफिल निर्माण, श्वसन, गर्मी प्राप्त करना, बीजों का अंकुरण, विकास एवं वितरण आदि इससे प्रभावित होता है। प्रकाश की प्राप्ति पर वायुमण्डल में उपस्थित गैस, बादलों की सघनता, वायुमण्डल में विस्तीर्ण धूल के कण, वनस्पति, जल एवं स्थल की प्रकृति का असर होता है। केवल वनस्पति ही नहीं, अपितु जीव-जन्तु और स्वयं मनुष्य पर भी इसका विविध प्रकार से प्रभाव पड़ता है।


(ii) तापमान (Temperature)

तापमान का सीधा प्रभाव वायुमण्डल के अतिरिक्त वनस्पति, पशुओं एवं मनुष्य पर होता है। तापमान जीवन के लिए आवश्यक है, चाहे धरातल पर वनस्पति, पशु पक्षी या अन्य जीवाणु हों या समुद्री जीव-जन्तु हों। मनुष्य के सभी क्रिया-कलापों का सीधा सम्बन्ध तापमान से होता है।


यह एक सामान्य नियम है कि अत्यधिक तापमान या बहुत न्यून तापमान, जीवन के लिए हानिकारक होता है। वनस्पति का तापमान से सीधा सम्बन्ध होता है, जो कि अक्षांशीय स्थिति एवं ऊँचाई के साथ परिवर्तित होता जाता है। विषुवत रेखीय प्रदेशों में उच्च तापमान एवं वर्षा अतिसघन वनों का कारण, जबकि मध्यम अक्षांशों में घास के मैदान, पतझड़ वाले वन और शीत प्रदेशों के सीमावर्ती भाग में कोणधारी व उसके टुण्ड्रा प्रदेश की वनस्पति और फिर हिममण्डित प्रदेश। यही क्रम ऊँचाई की वृद्धि के साथ भी देखा जा सकता है।


(iii) वर्षा (Rain)

जलवायु का अन्य प्रमुख घटक वर्षा है। यह मानव, वनस्पति या जीव-जन्तु सभी के जीवन का स्रोत है। पृथ्वी के विशाल क्षेत्र पर जल का विस्तार है, जिससे निरन्तर वाष्पीकरण के माध्यम से जलवाष्प वायुमण्डल में प्रवेश करती है तथा संघनन की क्रिया के माध्यम से पुनः वर्षा एवं अन्य रूपों में धरातल पर आ जाती है।


जल का वायुमण्डल में प्रवेश एवं पुनः वर्षा के रूप में आना एक चक्र के रूप में चलता रहती है, इसे 'जल चक्र' के नाम से जाना जाता है। पृथ्वी तल पर वर्षा का वितरण अत्यधिक असमान है। एक ओर वर्षपर्यन्त अधिक वर्षा वाले क्षेत्र हैं तथा दूसरी तरफ शुष्क मरुस्थलीय क्षेत्र और कहीं मध्य या सामान्य वर्षा के प्रदेश हैं। इसी के अनुसार वहाँ का पर्यावरण होता है।


एक ओर विषुवत रेखा के प्रदेशों के सघन वन हैं, जहाँ प्रकाश भी धरातल तक नहीं पहुँच पाता, दूसरी तरफ सवाना घास के मैदान तथा कहीं शुष्क मरुस्थलीय कंटीली झाड़ियाँ हैं। वर्षा के द्वारा कृषि की कई उपजों के उत्पादन का निर्धारण होता है। अति वर्षा बाढ़ का कारण बन जाती है तो वर्षा के अभाव में सूखा और अकाल पड़ जाता है।


(iv) आर्द्रता (Humidity)

जलवायु का अन्य घटक आर्द्रता है, जो कि वायु में विद्यमान रहती है। तापमान के अनुरूप वायु में आर्द्रता धारण करने की शक्ति होती है तथा यही नमी तापमान के गिरने पर वर्षा, कोहरा, धुन्ध व हिम आदि के रूप में प्रकट होती है। हवाओं का सीधा सम्बन्ध वायुदाब एवं तापमान से होता है। हवायें उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब की तरफ चलती हैं। विश्व में वर्षपर्यन्त चलने वाली व्यापारिक, पछुआ तथा ध्रुवीय हवाएँ एवं चक्रवात भी चलते हैं। ये सभी हवाएँ जलवायु अर्थात् तापमान, वर्षा आदि को प्रभावित करती हैं और इनका प्रभाव वनस्पति एवं मानव पर भी होता है।


किन्तु संक्षेप में कहा जा सकता है कि जलवायु पारिस्थितिकी तंत्र का नियंत्रक है। विश्व के वृहद् जलवायु विभाग विश्वव्यापी पर्यावरण की दशाओं को नियन्त्रित करते हैं, वहीं प्रादेशिक तथा स्थानीय जलवायु की दशा क्षेत्रीय पर्यावरण की नियंत्रक है।


4. प्राकृतिक वनस्पति (Natural Vegetation)


प्राकृतिक वनस्पति के अन्तर्गत सघन वनों से लेकर कंटीली झाड़ियों, घास एवं छोटे पौधे, जो कि प्राकृतिक परिस्थितियों में पल्लवित हों, सम्मिलित किये जाते हैं। प्राकृतिक वनस्पति जलवायु, उच्चावच एवं मृदा से अस्तित्व में आती है और इनमें जो परिवर्तन होता है, उसके अनुरूप प्राकृतिक वनस्पति में भी परिवर्तन होता है। जहाँ प्राकृतिक वनस्पति पर्यावरण की उपज है वहीं वह पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी को भी बहुत प्रभावित करती है।


5. मृदा (Soil)


मृदा धरातल की ऊपरी उथली परत का सामान्य नाम है, जिसका निर्माण चट्टानों के लगातार अपक्षय एवं अपरदन तथा कार्बनिक पदार्थों के मिश्रण के फलस्वरूप होता है। अतः मृदा विभिन्न प्रकार के रासायनिक तत्त्वों का समावेश होता है, जिससे यह कई प्रकार की वनस्पतियों एवं उपजों को पोषकता प्रदान करती है। मृदा का सबसे अधिक महत्व वनस्पति एवं कृषि के लिए है, क्योंकि यही पौधों को आधार प्रदान करती है और पौधों पर प्राणियों का जीवन निर्भर करता है।


मृदा का निर्माण चार घटकों - खनिज पदार्थ, कार्बनिक पदार्थ, मिट्टी-जल और मृदा वायु से होता है। सामान्य रूप से मृदा तीन तरह की अर्थात् रेतीली, चिकनी और दुमट होती है। मृदा प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से वनस्पति को प्रभावित करती है। पौधों के लिए पोषक तत्व तथा जल, मृदा से ही प्राप्त होते हैं। मृदा की रासायनिक संरचना में नाइट्रोजन, कार्बन और जल मुख्य होता है। इसके अतिरिक्त पोटैशियम, मैग्नीशियम, कैल्शियम, सिलिका आदि अनेक तत्त्व होते हैं।


एक अन्य महत्वपूर्ण तत्त्व जीवांश पदार्थ है जो कि वनस्पति से प्राप्त होता है। मृदा का उपजाऊपन इसके महत्व में वृद्धि करता है। क्षारीय तथा अम्लीय मृदा सामान्य पौधों की वृद्धि में बाधक होती है। भूमि का जल तथा वायु से कटाव अनेक क्षेत्रों में खास समस्या है। यह समस्या वनों के विनाश से और अधिक होती जा रही है, जो कि पर्यावरण अवकर्षण का एक प्रमुख कारण है। पर्यावरण के तत्त्व के रूप में मृदा वनस्पति को जीवन प्रदान करने वाली एवं कृषि उपजों के उत्पादन में सहायक भूमिका निभाती है और यह नमी संग्रहित करके वाष्पीकरण की प्रक्रिया में सहयोग देती है।


6. जल राशियाँ (Water Bodies)


प्राकृतिक जलराशियों में महासागर, सागर, झीलें, नदियाँ एवं प्राकृतिक जलाशय शामिल किये जाते हैं। महासागर सम्पूर्ण विश्व के जीव-जगत या जीवमण्डल अथवा विश्व पारिस्थितिकीय-तन्त्र को नियंत्रित करते हैं। जलवायु पर महासागरों व सागरों का बहुत प्रभाव होता है।


वायुमण्डल में नमी की मात्रा, वाष्पीकरण, तापमान में कमी आदि प्रभाव वृहद् जलराशियों का होता है। समुद्र का जलवायु पर समकारी प्रभाव होता है अर्थात् वहाँ तापमान न तो बहुत उच्च, न ही निम्न हो पाता है। समुद्री पवनें सदैव जल वर्षा प्रदायक होती हैं। समुद्र का अपना सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र होता है, जिसमें समुद्री जीव-जन्तु, वनस्पति का वहाँ के पर्यावरण के अनुरूप विकास होता है।


इसी प्रकार झील पारिस्थितिक तंत्र एवं तालाब पारिस्थितिक तंत्र का विकास होता है। नदियाँ जल प्रदायक होती हैं और मैदानी भागों को उपजाऊ बनाने का काम करती हैं, साथ ही डेल्टाई प्रदेश में दलदल भाग का विकास करती हैं। सभी प्रकार की जलराशियाँ जल चक्र के संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।


7. जैविक कारक (Biotic Factor)


विभिन्न जीव-जन्तु और पशु, मनुष्य के आर्थिक कार्यों को प्रभावित करते हैं। जन्तुओं में गतिशीलता की दृष्टि से वनस्पति से ज्यादा श्रेष्ठता होती है। वे अपनी जरूरतों के अनुसार प्राकृतिक पर्यावरण से अनुकूलन कर लेते हैं। जन्तुओं में स्थानान्तरणशीलता का गुण होने के कारण, वे अपने अनुकूल दशाओं वाले पर्यावरण में प्रवास भी कर जाते हैं।


फिर भी इन पर पर्यावरण का प्रत्यक्ष प्रभाव दिखलाई देता है। समान दशाओं वाले वातावरण के प्रदेशों में जन्तुओं में पृथकता पाई जाती है। मरुस्थलीय वातावरण के जन्तुओं में भिन्नता पाई जाती है। उदाहरण के लिए-थार एवं अरब के मरुस्थलीय भागों में पाये जाने वाले ऊँटों में भी भिन्नता पाई जाती है।


जन्तुओं के सामान्य वर्ग पर्यावरणीय लक्षणों के अनुसार ही विकसित होते हैं; जैसे-घास के मैदानों में चरने वाले पशु रहते हैं, जबकि वनों में मुख्य रूप से पेड़-पौधों की टहनियाँ खाने वाले पशु रहते हैं। पृथ्वी पर जीव-जन्तुओं का वितरण वनस्पति की उपलब्धता के अनुसार ही होता है; जिसको जलवायु, मृदा, उच्चावच आदि तत्त्व नियंत्रित करते हैं।


जन्तुओं के प्रकार


पृथ्वी पर कई तरह की जलवायुगत दशाओं एवं वनस्पति जगत के प्रकारों के अनुसार निम्नलिखित दो प्रदेशों के जन्तु पाये जाते हैं-


(i) वनों के जन्तु (Forest Animals)


उष्ण कटिबंधीय वर्षा प्रचुर सघन वनों में वृक्षों पर रहने वाले जन्तु इस वर्ग में शामिल हैं। यहाँ बन्दर, छिपकली, पक्षी कई तरह के सर्प तथा कीट-पतंगे प्रमुख रूप से पाये जाते हैं। कांगो, अमेजन जैसी नदियों में घड़ियाल, मगरमच्छ आदि जलचर रहते हैं। मानसूनी तथा उष्ण कटिबंधीय वनों में हाथी, गैंडा, जिराफ, हिरण, भैंसा, भेड़िया, सियार तथा लोमड़ी आदि थलचर पाये जाते हैं।


(ii) घास भूमि के जन्तु (Grassland Animals)


उष्ण और शीतोष्ण घास प्रदेशों में हिरण, जेबरा, जंगली चौपाये तथा नीलगाय आदि पशु प्रमुखता से मिलते हैं।


उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पर्यावरण कई तत्त्वों का सम्मिलित रूप है। उपयुक्त वर्णित तत्त्वों के अलावा अनेक जीव-जन्तु एवं सूक्ष्म जीवाणु भी पर्यावरण के अंग होते हैं। कुछ विद्वान खनिजों को भी प्राकृतिक तत्त्वों में शामिल करते हैं। लेकिन खनिज स्वतः उद्भूत न होकर खनन क्रिया से सक्रिय होते हैं। अतः मानवीय क्रिया में शामिल किये जाते हैं।


उपर्युक्त वर्णित पर्यावरण के सभी तत्त्व एकाकी रूप में तो प्रभावित करते ही हैं, वस्तुतः इनका सामूहिक प्रभाव ही पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र को नियंत्रित करता है। पर्यावरण तथा प्रदूषण के अध्ययन में पर्यावरण के तत्त्वों का अत्यधिक महत्व है।


पर्यावरण का क्षेत्र (SCOPE OF ENVIRONMENTAL)


पर्यावरण विभिन्न कारकों का सम्मिलित नाम है, इसके अन्तर्गत भौतिक और सांस्कृतिक दोनों प्रकार सम्मिलित हैं। पर्यावरण अध्ययन का केन्द्र बिन्दु मनुष्य है, जो अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संसाधनों का विदोहन एवं शोषण करने लगा है, जिसमें संसाधनों की मात्रा एवं गुणों में ह्यस तथा पर्यावरण अवनयन, पारिस्थितिक असंतुलन, प्रदूषण एवं जैव विविधता ह्रास जैसी समस्याएँ वर्तमान में जन्म ले रही हैं।


इन समस्याओं के दुष्परिणाम स्वास्थ्य, प्राकृतिक सौन्दर्य और संसाधन समृद्धि पर पड़ रहा है। अतः इनके अधिप्रभाव का अध्ययन इन समस्याओं के निदान पर्यावरण अध्ययन की विषय-वस्तु है। पर्यावरण अध्ययन के विषय क्षेत्र को अग्रलिखित ढंग से भी समझा जा सकता है-


पर्यावरण अध्ययन की विषय-वस्तु (Scope of Environmental Studies)


(A) पर्यावरणीय समस्याएँ,


प्रकोप एवं संकट


(B) पर्यावरण अवनयन


1. वायु प्रदूषण

2. जल प्रदूषण

3. मृदा प्रदूषण

4. समुद्री प्रदूषण

5. शोर प्रदूषण

6. ताप प्रदूषण

7. आणविक प्रदूषण


(C) पर्यावरण संसाधन ह्रास


1. वन संसाधन

2. जल संसाधन

3. खनिज संसाधन

4. भोज्य संसाधन

5. ऊर्जा संसाधन

6. भूमि संसाधन

7. पशु संसाधन

8. कृषि संसाधन

9. औद्योगिक संसाधन


(D) पारिस्थितिक तंत्र में बाधा - चक्रीयकरण में अवरोध


1. जल चक्र

2. गैसीय चक्र

3. ऑक्सीजन चक्र

4. नाइट्रोजन चक्र

5. अन्य चक्र

6. आहार श्रृंखला

7. आहार जाल एवं ऊर्जा प्रवाह में बाधा

8. पारिस्थितिक अनुक्रम में बाधा

9. पारिस्थितिक पिरामिड में व्यतिक्रम


जैव विविधता ह्रास -


प्रजातियों का विलुप्तीकरण और जैव पिरामिड में व्यतिक्रम


समस्या का कारण-

1. जनसंख्या वृद्धि

2. नगरीकरण

3. औद्योगीकरण

4. उच्च जीवन स्तर

5. वैज्ञानिक एवं तकनीकी, विकास

6. पुनर्चक्रीकरण में बाधायें

7. जैव असंतुलन

8. प्रदूषण या पर्यावरण अवनयन

9. अवशिष्ट पदार्थों का उत्पादन


(G) समाधान


1. वृक्षारोपण

2. भौगोलिक नियोजन

3. भारतीय दर्शन का प्रचार-प्रसार

4. जैव प्रौद्योगिकी का विकास

5. जैव विविधता संरक्षण

6. पर्यावरण प्रबन्धन

7. पर्यावरण नियोजन

8. पर्यावरण संरक्षण

9. सम्पोषित विकास


पर्यावरणीय अध्ययन की बहु-विषयक प्रकृति (THE MULTIDISCIPLINARY NATURE OF ENVIRONMENTAL STUDIES)


पर्यावरणीय अध्ययन प्रकृति एवं मनुष्यों के अन्तर्सम्बन्धों एवं परस्पर प्रभाव का अध्ययन है। पर्यावरण प्रभावशील कारकों का योग है तथा क्रियाशील (प्रगतिशील) मानव, इसके अध्ययन के विषय क्षेत्र हैं। अतः यह अध्ययन विभिन्न विषयों के ज्ञान को समाहित करता है, स्थूल सर्वेक्षणों में प्राप्त समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करता है इसलिए इसकी प्रकृति बहु विषयक हो गई है क्योंकि समस्या के कारण एक न होकर बहु आयामी हैं।


पर्यावरणीय समस्याओं का वैज्ञानिक की भाँति विश्लेषण करती है। उनके स्थानीय कारण स्वयं सर्वेक्षण से खोजना है। साथ ही उनके अधिप्रभावों की वैज्ञानिक विवेचना करने के कारण इसे आधुनिक विज्ञान के विषयों का ज्ञान होना अनिवार्य है। कारण और प्रभाव की व्याख्या मानव समाज के संदर्भ में होती है।


अतः विभिन्न समाजों और शास्त्रों से ज्ञान लेकर उनका उपयोग पर्यावरण के विद्यार्थी को करना पड़ता है। अतः विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन भी अपरिहार्य है। पर्यावरण के विद्यार्थी को समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति, धर्म, दर्शन, नीति शास्त्र आदि का अध्ययन भी अपरिहार्य है। पर्यावरणीय अध्ययन की प्रकृति की पाँच विशेषताएँ हैं-


1. पर्यावरण अध्ययन बहु विषयक प्रकृति रखता है।

2. समस्या के कारणों का वैज्ञानिक विश्लेषण करता है।

3. अधिप्रभावों की व्याख्या समाज के संदर्भ में करता है।

4. इसकी समस्याएँ क्षेत्र एवं काल विशेष से जुड़ी रहती हैं।

5. समस्याएँ और कारण गत्यात्मक प्रकृति रखते हैं-


अतः पर्यावरण का अध्ययन समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, भूगोलवेत्ता, रसायनविद्, वनस्पतिशास्त्री, पारिस्थितिकी शास्त्री, कृषि वैज्ञानिक तथा योजनाविद् बहुत रुचि लेकर करते हैं साथ ही पर्यावरण अध्ययन इन विषयों के शोधकर्ताओं से और अधिक पुष्ट हो रहा है।


इसी कारण पर्यावरण अध्ययन की प्रकृति बहु विषयक है। यद्यपि समस्त विज्ञान और समस्त शास्त्र उच्च अध्ययन में बहुत निकट (अन्तर्विषयी) हो जाते हैं किन्तु पर्यावरण अध्ययन प्रारम्भ से ही बहु आयामी होने के कारण बहुविषयक है और इसके अध्ययन का लक्ष्य मानव हेतु कल्याण करना अर्थात पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान करना है।


पर्यावरण अध्ययन की बहु-विषयक प्रकृति निम्नलिखित है-


1. वनस्पति शास्त्र और पर्यावरण अध्ययन (Botany and Environment Study)

वनस्पति शास्त्र तथा पर्यावरण एक-दूसरे से अन्तर्सम्बन्धित हैं। पर्यावरण ही वनस्पति जगत का आधार है। पर्यावरण के तत्वों जल, वायु, मृदा, तापमान, वर्षा आदि के समानुकूलन से ही वनस्पति जगत अस्तित्व में आता है। पर्यावरण अध्ययन में वनस्पति की पर्यावरण के साथ अनुकूलता का अध्ययन किया जाता है। पर्यावरण में वनस्पति की भूमिका को समझाते हुए यह जानने का प्रयास किया जाता है कि वनस्पति किस तरह पर्यावरण अवनयन के सुधार में सहयोग कर सकती है। इस तरह वनस्पति शास्त्र की जानकारी के बगैर पर्यावरण अध्ययन अधूरा एवं एकांगी है।


2. प्राणीशास्त्र और पर्यावरण अध्ययन (Zoology and Environment Study)

प्राणीशास्त्र पर्यावरण अध्ययन में बहुत ज्यादा सहायक है। यह पर्यावरण अध्ययन का एक प्रमुख पक्ष है। प्राणी शास्त्र में जीव-जन्तुओं के प्रकार, उनकी विविध प्रजातियों का विकास, उनकी शारीरिक संरचना, जीवों का पोषण, जीवों की कार्य-प्रणाली वितरण, स्थानान्तरण आदि का ज्ञान प्राप्त होता है। पर्यावरण अध्ययन में जैविक घटकों का विशेष महत्व है। जैविक घटक में प्राणी मुख्य हैं। पारिस्थितिक तन्त्र में प्राणियों के परस्पर अन्तर्सम्बन्ध का सही अवबोध प्राणी विज्ञान की सहायता से ही होता है।


3. रसायन विज्ञान और पर्यावरण अध्ययन (Chemistry and Environment Study)

रसायन विज्ञान पर्यावरण अध्ययन का आधार है। वायु, जल, मृदा की संरचना, विविध प्रकार की गैसों, वर्षा जल प्रभावों, पारिस्थितिक तन्त्र में चलने वाले विविध चक्रों को रसायन विज्ञान की मदद से समझा जा सकता है। पर्यावरण अध्ययन में विविध प्रकार के पर्यावरण प्रदूषण को रसायन विज्ञान के बगैर समझना मुश्किल है। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण का वनस्पति तथा प्राणियों पर प्रभाव रसायन विज्ञान के अध्ययन से हो जाना जा सकता है।


4. भौतिकशास्त्र एवं पर्यावरण अध्ययन (Physics and Environment Study)

पर्यावरण के कई कारक; जैसे-ताप, प्रकाश, रेडियोधर्मी, ध्वनि आदि का अध्ययन भौतिक शास्त्र में किया जाता है। तापीय, रेडियोधर्मी, ध्वनि प्रदूषण आदि को कम करने के लिए पर्यावरणीय शोध आदि भौतिकशास्त्र में ही किये जाते हैं।


5. मौसम शास्त्र एवं पर्यावरण अध्ययन (Weather and Environment Study)

मौसम सम्बन्धी कारक पर्यावरण को बहुत प्रभावित करते हैं। तापमान, दाब, वायु, वर्षा, हिमपात, ओलावृष्टि, पाला पड़ना, कोहरा आदि के अध्ययन के लिए मौसम विज्ञान का अध्ययन किया जाता है।


6. भूगर्भ विज्ञान एवं पर्यावरण अध्ययन (Geology and Environment Study)

भूगर्भ विज्ञान एवं पर्यावरण अध्ययन में घनिष्ठ सम्बन्ध है। भूगर्भ में होने वाले परिवर्तन जैव मण्डल के पर्यावरण को प्रभावित करते हैं। भूगर्भ में अनेक प्रकार की चट्टानें एवं खनिज पाये जाते हैं। आन्तरिक शक्तियाँ तथा बाह्य शक्तियाँ इन चट्टानों में विखण्डन करके जैव-भूरसायन चक्र को शुरू करने में सहयोग देती हैं। अतः पर्यावरण अध्ययन में भूगर्भ विज्ञान का भी अध्ययन किया जाता है।


7. भूगोल एवं पर्यावरण अध्ययन (Geography and Environment Study)

भूगोल और पर्यावरण का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। ये एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। भूगोल की मुख्य विषय-वस्तु मानव और पर्यावरण के बीच सम्बन्ध का अध्ययन ही है। भूगोल में पर्यावरण की पारिस्थितिक व्याख्या तथा किसी प्रदेश में पर्यावरण तत्वों और मानव वर्ग के बीच जैविक सम्बन्धों, आर्थिक सम्बन्धों और सामाजिक-सांस्कृतिक सम्बन्धों को समझने और उनका मूल्यांकन करने का प्रयत्न किया जाता है। पर्यावरण में भूगोल के महत्व के कारण भूगोल की एक नई शाखा का जन्म हुआ है जिसे पर्यावरण भूगोल कहते हैं।


8. अर्थशास्त्र एवं पर्यावरण अध्ययन (Economics and Environment Study)

अर्थशास्त्र एवं पर्यावरण अध्ययन भी अन्तर्सम्बन्धित हैं। कई आर्थिक क्रियाओं का पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। विकास की अंधी दौड़ में पर्यावरण को नजरन्दाज करते हुए आर्थिक क्रियाएँ सम्पन्न की जा रही हैं। प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध तथा अनियोजित शोषण किया गया है, इससे पर्यावरण अवनयन हुआ है। अतः पर्यावरण व आर्थिक क्रियाओं में सन्तुलन होना बहुत आवश्यक है। इसी कारण अर्थशास्त्र एवं पर्यावरण अध्ययन एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं।


9. राजनीति विज्ञान एवं पर्यावरण अध्ययन (Political Science and Environment Study)

राजनीति विज्ञान एवं पर्यावरण अध्ययन दोनों अन्तर्सम्बन्धित विषय हैं। पर्यावरण के अनेक संघटक जैसे प्राकृतिक दशा, संसाधन, मिट्टी की उर्वरता, जनसंख्या, समुद्रतटीय स्थिति, किसी राष्ट्र के राजनीतिक ढाँचे, सरकार के स्वरूप, अन्य देशों से सम्बन्ध को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में प्रभावित करते है। वर्तमान में तो विश्वव्यापी स्तर पर पर्यावरण की राजनीति होने लगी है।


पर्यावरण पर अन्तर्राष्ट्रीय समझौते होने लगे हैं और कई अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ पर्यावरण की दिशा में कार्य कर रही हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ एवं अनेक राजनीतिक संगठन पर्यावरण संरक्षण की दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। किसी देश की राष्ट्रीय सरकार की नीतियों पर ही राष्ट्र के पर्यावरण का उन्नयन या अवनयन निर्भर करता है। इस तरह राजनीति विज्ञान भी पर्यावरण अध्ययन से सम्बन्धित है।


10. समाजशास्त्र एवं पर्यावरण अध्ययन (Sociology and Environment Study)

समाजशास्त्र मानव की सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं एवं समस्याओं का अध्ययन करता है। पर्यावरण अध्ययन में पारिस्थितिकी एवं मानव सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। आज सामाजिक एवं नैतिक मूल्य बदल रहे हैं।


पुराने समाज में ऐसी कई परम्पराएँ थीं जो प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण को कोई नुकसान न पहुँचाने के लिए उत्प्रेरित करती रहती थीं। किन्तु आज सामाजिक परिवर्तनों के कारण प्राचीन मूल्यों में गिरावट के फलस्वरूप पर्यावरण अवनयन हो रहा है।


जहाँ पहले वृक्ष काटना पाप था, नदियों एवं पर्वतों की पूजा की जाती थी, वहाँ आज वृक्षों की अंधाधुन्ध कटाई की जा रही है, नदियों में अपशिष्ट बहाये जा रहे हैं, उन्हें प्रदूषित किया जा रहा है, पर्वतों को तोड़ा जा रहा है। इन सबके कारण प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोतरी होती जा रही है। पर्यावरण संतुलित रहता है तो समाज का भी विकास होता है।


11. इतिहास एवं पर्यावरण अध्ययन (History and Environment Study)

इतिहास के विविध पक्ष भी पर्यावरण से सम्बन्धित हैं तथा पर्यावरण का भी इतिहास होता है। आज तक अनेक सभ्यताओं का उत्थान-पतन हुआ है। इनके उत्थान एवं पतन में पर्यावरण की भी भूमिका होती है। पर्यावरणी, या असन्तुलन के कारण अनेक प्राचीन सभ्यताएँ समाप्त हो गई हैं।


12. विधि एवं पर्यावरण अध्ययन (Law and Environment Study)

विधि अथवा कानून का भी पर्यावरण अध्ययन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। पर्यावरण संरक्षण के लिए वर्तमान में अनेक नियम-अधिनियम बनाए गए हैं। इन सबके निर्माण एवं अनुपालन हेतु विधि की जानकारी होना जरूरी है।


13. अन्य विज्ञानों से सम्बन्ध (Relation to Other Science)

मृदा विज्ञान, कृषि विज्ञान, अभियान्त्रिकी आदि से भी पर्यावरण अध्ययन का सम्बन्ध है।


अतः इस तरह उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पर्यावरण अध्ययन की प्रकृति बहुविषयी है। यह अनेक विषयों से अन्तर्सम्बन्धित है।


पर्यावरण की आवश्यकता (NEED OF ENVIRONMENT)


मानव एक सामाजिक प्राणी है। अतः उसका परिवार एवं समाज से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। पर्यावरण का अर्थ है- वातावरण। जिसमें सम्पूर्ण प्रकृति-नदियाँ, जलाशय, वन-उपवन, वाटिका, झरने, पर्वत श्रृंखलाएँ, चट्टान, खनिज, पेड़-पौधे, वायु एवं जल का संयोग आता है। मनुष्य पर्यावरण में ही साँसे ले रहा है। अतः शुद्ध पर्यावरण की अत्यन्त आवश्यकता है। कक्षा में छात्र को विस्तृत पर्यावरण के बारे में ज्ञान नहीं कराया जाता है। अवलोकन, प्रायोजन एवं पर्यटन विज्ञान शिक्षण की ऐसी विधियाँ हैं, जो उसे अपने चारों ओर के रहस्य के बारे में अवगत कराती रहती हैं।


प्रकृति का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत तथा रहस्यपूर्ण है, जो कि पर्यावरण के साथ जुड़ा हुआ है। वह प्राकृतिक घटनाओं का ज्ञान तथा उसके कारण ढूँढता है। प्राकृतिक वन सम्पदा प्राथमिक स्तर पर एक मनोहर रूप प्रस्तुत करती है। खेत, बगीचे, झरने, नदी, वाटिकाएँ एवं विभिन्न जीव-जन्तु आदि सभी इस पर्यावरण को सुन्दर एवं स्वच्छ बनाते हैं।


बालक प्रकृति की गोद में जाकर प्राकृतिक दृश्यों का बोध करता है और निरीक्षण कर उन्हें समझ लेता है। आजकल प्राथमिक स्तर पर यूनिसेफ ने एक योजना पर्यावरणीय शिक्षा विद्यालयों में प्रारम्भ कर दी है। इसके द्वारा छात्रों को शिक्षण दिया जाता है, यह शिक्षण अपव्ययी नहीं है। प्राथमिक स्तर पर छात्रों को प्रकृति के रहस्य का बोध एक अन्वेषणकर्त्ता के रूप में करना चाहिए।


पर्यावरण अध्ययन का महत्व (IMPORTANCE OF ENVIRONMENTAL STUDY)


अभी तक के ज्ञात शोधों के आधार पर कहा जा सकता है कि पृथ्वी पर ही जीवन है। इस ग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ पर्यावरण कुछ इस ढंग से संतुलित हुआ जिससे जीवों का उद्भव व विकास हो सका किन्तु वर्तमान में औद्योगिक विकास वैज्ञानिक अनुसंधान और आर्थिक प्रगति के नाम पर युगों से संतुलित पर्यावरण, औद्योगिक क्रांति (सन् 1917) के बाद विगत् कुछ समय में ही पर्यावरण अवनयन, संसाधन ह्रास, पारिस्थितिक असंतुलन से पर्यावरणीय समस्याएँ एवं संकट उत्पन्न हो रहे हैं।


प्रकृति में ही परिवर्तन होता तो सहनीय था किन्तु मनुष्यों के कार्यकलापों से प्रकृति में किये गये हस्तक्षेप से जीवन के अस्तित्व पर संकट आ पहुँचा है। पर्यावरण-अवनयन विश्व की प्रमुख समस्याओं में से एक है। एक मात्र जीवन्त ग्रह की जीवन्त समस्या पर्यावरण अवनयन है। पर्यावरण ह्रास की यदि यही गति रही तो मानव जीवन पर संकट भविष्य में बहुत निकट होगा।


पर्यावरण का अध्ययन पारिस्थितिकी शास्त्र और भूगोल का मूल विषय रहा है, पर्यावरण विगत शताब्दी से नये आयामों में परिवर्तित हुआ अर्थात परिवहन के साधन, औद्योगिक एवं नगरीय विकास, तीव्र जनसंख्या वृद्धि, आधुनिक तकनीक और उच्च जीवन स्तर ने पर्यावरण के नये आयाम स्थापित किये हैं। यथा जल जीवन्त जगत की आत्मा है किन्तु वर्तमान का प्रदूषित जल रोगों का समवाहक हो गया है। वर्तमान में पृथ्वी पर जितनी जनसंख्या है उतनी पहले कभी न थी।


इस जनसंख्या की आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए संसाधनों का शोषण और अधिक तेजी से हो रहा है साथ ही अवांछित (अविघटनशील)] अनुपयोगी, जहरीले पदार्थों का निसृण भी हो रहा है जिससे पुनर्चक्रीकरण में बाधा उत्पन्न हो गई है। अतः पर्यावरण के निरन्तर ह्रास से और उसके दुष्प्रभाव के कारण और निदान के -अध्ययन हेतु पर्यावरण अध्ययन की आवश्यकता वर्तमान युग की माँग है। ज्ञान होने से (कारण जानने से) निदान प्रकट हो जाता है। पर्यावरण संरक्षण और विकास में संतुलन स्थापित हो सके। समपोषित विकास हो।


विनाश रहित स्थायी विकास सम्भव हो सके साथ ही स्थानीय पर्यावरण शुद्ध कर विश्व पर्यावरण संरक्षण को बल मिल सके इसलिए पर्यावरण का अध्ययन वर्तमान युग में बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। पर्यावरण अध्ययन के महत्व को तीन प्रमुख बिन्दुओं में विवेचन किया जा सकता है-


1. औद्योगिक संदर्भ में (Industrial Context)


औद्योगिक क्रांति की लहर से प्रभावित प्रौद्योगिक अग्रसित मानव (Technologically Advanced Man) औद्योगिक युग में आ पहुँचा है। औद्योगिक विकास हेतु आधुनिक उच्च तकनीक के कारण कृषि, वन, खनिज, पशु और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का बहुत अधिक शोषण हो रहा है।


साथ ही औद्योगिक उत्पाद से जहरीले रसायन हवा, पानी, मिट्टी और वायुमण्डल में छोड़े जा रहे हैं जिनसे मानव जनित पर्यावरणीय संकट, समस्याएँ एवं प्रकोपों का जन्म हो रहा है। इस पारिस्थितिक असंतुलन से जैव विविधता को खतरा पैदा हो गया है। उद्योग एवं परिवहन प्रदूषण पैदा करने के प्रमुख कारक हैं अतः इनके प्रबन्धन एवं नियोजन हेतु पर्यावरण विषय अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।


2. नगरीकरण के सन्दर्भ में (Civilization Context)


औद्योगिक विकास के कारण नगरीकरण की प्रकृति आज विश्वव्यापी हो गई है। 21वीं सदी के पूर्वार्द्ध में ही विश्व की आधी जनसंख्या नगरीय हो जाएगी, रोजगार प्राप्ति, चिकित्सा, शिक्षा, सुरक्षा, उच्च जीवन स्तर आदि के आकर्षण में नगरीय जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि विगत सदी में हो चुकी है।


साथ ही निरन्तर होते औद्योगिक विकास, रोजगार के नित अवसर सुलभ होने से नगरों में अनियंत्रित जनसंख्या और अनियोजित आवास के कारण मानव जनित नये प्रदूषित पर्यावरण का जन्म हुआ है अर्थात नगरीय पर्यावरण में ह्रास (गिरावट) हुआ।


इस नये प्रदूषित पर्यावरणीय प्रभाव से प्रकृति के जो तत्व संरक्षण करते हैं, कुप्रभावित हुए, उनकी प्राकृतिक गुणधर्मिता में कमी आयी। यह कुप्रभाव वायु, जल, मृदा, वनस्पतियों आदि में होकर मानवीय स्वास्थ्य और उसकी कार्यक्षमता पर भी पड़ा, अतः भविष्य में पर्यावरण के प्रति जागरूकता का ज्ञान रखना और महत्वपूर्ण होगा।


3. तकनीकी विकास के संदर्भ में (In the Context of Technological Development)


प्रकृति भी पर्यावरण दूषित करती है, किन्तु बहुत शीघ्र संतुलन बिठा कर उसे ठीक कर लेती है किन्तु तकनीकी विकसित कर मानव ने ही पर्यावरणीय समस्या पैदा की है। उस समस्या के समाधान हेतु मानव थे ही सोचना चाहिए। जैव प्रौद्योगिकी, भौमिकी, भौगोलिक नियोजन और पारिस्थितिकी कृषि इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।


निःसंदेह उच्च तकनीक के कौशल से विश्व की पोषण क्षमता में अद्भुत वृद्धि हुई। पृथ्वी पर मानव का निवास विगत 10 लाख वर्षों से है परन्तु जनसंख्या में जितनी वृद्धि 10 लाख वर्षों में नहीं हुई उससे अधिक विगत 100 वर्षों में हो गई। स्वास्थ्य सुविधा में बढ़ोतरी ने औसत उम्र में बढ़ोतरी की, मृत्यु दर घटी, स्थिर जन्म दर के कारण जनसंख्या में वृद्धि हुई।


इस जनसंख्या की आवश्यकता की पूर्ति के हेतु कृषि, वन, खनिज, पशु संसाधनों में दोहन के स्थान पर उच्च तकनीक के कारण शोषण प्रारम्भ हुआ जिससे संसाधन ह्रास और पारिस्थितिक असंतुलन एवं प्रदूषण जैसी समस्याएँ खड़ी हो गईं। पर्यावरण अध्ययन इन समस्याओं के समाधान हेतु प्रयास करता है।


संक्षेप में "पर्यावरण अध्ययन" विषय का जन्म मानव हस्तक्षेप द्वारा परिवर्तित प्राकृतिक पर्यावरण के हास के कुप्रभाव के कारण तथा इस प्रकार के अध्ययन और पर्यावरणीय समस्या का समाधान करने के लिए हुआ है। अतः पर्यावरण का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनके प्रबन्धन और नियोजन क्षेत्रीय पारिस्थितिकी की अनुसार है।


महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय स्तर पर शोध अपरिहार्य अंग है। इससे पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन और पर्यावरण के अवनयन से नये तथ्य प्रकाश में आते हैं अतः स्थानीय पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान शोध के माध्यम से हो सकेंगे।

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