भारत में ग्रामीण नेतृत्व के परम्परागत एवं नवीन स्वरूप का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कीजिए। Present a comparative study of the traditional and new forms of rural leadership in India in Hindi.
भारत में ग्रामीण नेतृत्व के नवीन प्रतिमानों को देखते हुए अनेक विद्वानों का विचार है कि भारत में नवीन ग्रामीण नेतृत्व ग्रामीण पुनर्निर्माण के क्षेत्र में परम्परागत नेतृत्व से अधिक अच्छा सिद्ध नहीं हुआ है। अनेक अध्ययनकर्ताओं की मान्यता है कि ग्रामीण भारत में उदीयमान नेतृत्व आज उतना ही स्वार्थपरक है जितना की नगरीय क्षेत्रों का , इसलिए यहाँ सामान्य ग्रामीण जनता को आत्म-निर्भरता की दिशा में जागरूक बनाने का प्रयत्न पूर्णतया असफल रहा है ।
इसका तात्पर्य है कि नेतृत्व के वर्तमान स्वरूप ने ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक उपयोगी कार्य अवश्य किये हैं लेकिन यह नेतृत्व स्वयं में इतना दोषपूर्ण है कि परम्परागत नेतृत्व से प्राप्त होने वाले लाभों की तुलना में इसे अधिक उपयोगी नहीं कहा जा सकता । इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि हम वर्तमान ग्रामीण नेतृत्व की भूमिका के सन्दर्भ में इसकी परम्परागत नेतृत्व से तुलना करें ।
( 1 ) परम्परागत रूप से ग्रामीण नेतृत्व के निर्धारण में भू - स्वामित्व तथा सम्पत्ति महत्वपूर्ण आधार थे । नेतृत्व साधारतया उन्हीं व्यक्तियों के द्वारा किया जाता था जो गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति होते थे तथा जिनके निर्देशों का पालन करना ग्रामीण अपना नैतिक दायित्व समझते थे । इसका तात्पर्य है कि नेता और अनुयायियों के बीच किसी प्रकार का मतभेद अथवा संघर्ष होने की सम्भावना बहुत कम थी ।
वर्तमान समय में सैद्धान्तिक रूप से भले ही भू - स्वामित्व , सम्पत्ति एवं परिवार की प्रतिष्ठा को एक निर्बल कारक कह दिया जाए लेकिन व्यावहारिक रूप से इन आधारों का प्रभाव आज भी बना हुआ है । डॉ . योगेन्द्र सिंह ने यह स्पष्ट किया है कि ग्रामीण नेतृत्व में आज भी बड़े भू - स्वामियों का स्पष्ट प्रभाव है । इस दृष्टिकोण से वर्तमान नेतृत्व परम्परागत नेतृत्व की तुलना में दोषपूर्ण प्रतीत होता है ।
( 2 ) यह सर्वविदित है कि भारतीय ग्रामों का परम्परागत नेतृत्व सुधार की भावना से सम्बद्ध था। ग्रामीण नेतृत्व राजनीति से सम्बद्ध न होने के कारण रचनात्मक कार्यों , विवादों के निपटारे तथा चरित्र - निर्माण को अधिक महत्व देता था । दैनिक जीवन में नेतृत्व का यह स्वरूप व्यावहारिक था जिससे इसे सम्पूर्ण समूह की निष्ठा प्राप्त हो जाती थी । दूसरे शब्दों में , परम्परागत नेता सम्पूर्ण गाँव का संरक्षक होता था ।
इसके विपरीत वर्तमान युग के लोकप्रिय नेता कहीं अधिक व्यक्तिवादी और स्वार्थपरक हैं । साधारणतया आज का ग्रामीण नेता अपने अनुयायियों की संख्या के आधार पर अपनी राजनीतिक शक्ति को बढ़ाने तथा विभिन्न प्रकार से आर्थिक लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । इस दशा में उसके द्वारा किये जाने वाले राजनीतिक कार्य भी एक प्रदर्शन मात्र होते हैं जिनमें किसी प्रकार की आन्तरिकता नहीं होती ।
( 3 ) ग्रामीण नेतृत्व का परम्परागत स्वरूप ऑरस्टीन ( H. Orenstein ) के अनुसार अनौपचारिक था जिसमें ग्रामीण जीवन को नियन्त्रित करने की एक प्रबल शक्ति निहित थी । इस नेतृत्व में प्रभुत्व का तत्व उतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना कि समर्पण और त्याग का वर्तमान ग्रामीण नेतृत्व एक औपचारिक नेतृत्व है जिसे शक्ति के द्वारा प्रभावपूर्ण बनाये रखने का प्रयत्न किया जाता है ।
ग्रामीण नेता आज न केवल चुनाव के समय शक्ति का प्रयोग करता है बल्कि निर्वाचित होने के पश्चात् अपनी सत्ता - शक्ति के द्वारा विरोधी समूहों को हानि पहुँचाने तथा अपने समर्थकों को अवैधानिक रूप से लाभ पहुँचाने का भी कार्य करता है । इसके फलस्वरूप वर्तमान नेतृत्व सम्पूर्ण गाँव अथवा ग्रामीण क्षेत्रों का वास्तविक प्रतिनिधि नहीं होता और न ही उसके प्रति ग्रामीणों की अधिक निष्ठा होती है ।
( 4 ) परम्परागत ग्रामीण नेतृत्व मौलिक रूप से स्थानीय होने के कारण अधिक व्यवस्थित था । एक छोटे से क्षेत्र से सम्बद्ध होने के कारण नेता अपने समूह की समस्याओं को समझने तथा उनका समाधान करने में अधिक समर्थ होता था ।
ग्रामीण नेतृत्व का वर्तमान स्वरूप अधिक व्यापक है जिसका रूप पंचायत से लेकर न्याय पंचायत , विधान सभा तथा लोकसभा तक के चुनावों में देखने को मिलता है । एक बड़े ग्रामीण क्षेत्र से सम्बद्ध नेतृत्व ग्रामीण समस्याओं के समाधान में अधिक सहायक सिद्ध नहीं हुआ है । वास्तविकता तो यह है कि ऐसे नेतृत्व के अन्तर्गत संघर्षो तथा गुटवाद की प्रक्रिया को अधिक प्रोत्साहन मिला है ।
( 5 ) वर्तमान नेतृत्व में अनुसूचित एवं पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व निरन्तर बढ़ता जा रहा । है । समतावादी मूल्यों तथा प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के दृष्टिकोण से इस परिवर्तन को प्रगति के रूप में देखा जा सकता है लेकिन यह भी सच है कि इसके फलस्वरूप ग्रामीण जीवन में अनेक नई समस्याओं का प्रादुर्भाव हुआ है ।
जिन गाँवों में नेतृत्व अनुसूचित जाति के व्यक्तियों को प्राप्त है वहाँ उच्च और निम्न जातियों के बीच संघर्ष भी अधिक होते देखे गये हैं । ऐसे नेतृत्व को सामान्य ग्रामीणों की मान्यता न मिलने के कारण यह अक्सर अप्रभावी हो जाती है और इस प्रकार ग्रामीणों को विकास योजनाओं का अधिक लाभ नहीं मिल पाता । यह दोष अस्थायी हो सकता है लेकिन इससे उत्पन्न समस्याओं का निवारण करने के लिए आज एक नवीन दृष्टिकोण की आवश्यकता है ।
( 6 ) आर्थिक साधनों तथा उनके अधिकतम उपयोग के दृष्टिकोण से भी वर्तमान नेतृत्व को परम्परागत नेतृत्व से अधिक अच्छा नहीं कहा जा सकता । परम्परागत नेतृत्व स्थानीय स्रोतों के उपयोग से ही सम्बद्ध था जिसमें धन के दुरुपयोग की कोई सम्भावना नहीं थी । सार्वजनिक कल्याण कार्यों के लिए ग्रामीण स्वयं ही आर्थिक साधन एकत्रित कर लेते थे तथा उसके उपयोग के लिए उसमें अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करते थे । वर्तमान नेतृत्व बहुत बड़ी सीमा तक सार्वजनिक स्रोतों के दुरुपयोग का एक साधन है तथा इसके अन्तर्गत जन - सहभाग का भी पूर्ण अभाव है ।
यही कारण है कि ग्रामीण विकास योजनाओं पर बड़ी धनराशि व्यय करने के पश्चत् भी इससे प्राप्त होने वाली सफलता की सीमा बहुत कम है, और सामाजिक जागरूकता के यह सच है जाति - पंचायत तथा गाँव - पंचायत के रूप में स्थापित परम्परागत ग्रामीण नेतृत्व अपनी प्रकृति से कुछ कठोर होने के कारण व्यक्तित्व के विकास क्षेत्र में बाधक था लेकिन वर्तमान ग्रामीण नेतृत्व ने जिन समस्याओं को जन्म दिया है उनकी तुलना में परम्परागत नेतृत्व ही अधिक संगत प्रतीत होता है। वास्तविकता यह है कि हम परम्परागत और नवीन ग्रामीण नेतृत्व के लाभ और दोषों के बाद भी इन्हें एक - दूसरे से पृथक नहीं कर सकते।
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