जनजातीय परिवार के विविध स्वरूपों, प्रकारों का उल्लेख कीजिए । Mention the different types and types of tribal family.
जनजातीय समाज में भी परिवार संस्था व्यापक स्तर पर पायी जाती है। संसार के समस्त जनजातीय क्षेत्रों में इनकी संरचना तथा स्वरूप पृथक्-पृथक है। जनजातीय समाज पर सामान्य समाजशास्त्रीय परिवार की परिभाषा लागू नहीं की जा सकती, क्योंकि सभ्य तथा जनजातीय समाज में यौन सम्बन्धों से सम्बन्धित धारणाओं में काफी अन्तर होता है ।
मूल रूप से जनजातीय परिवार को एक ऐसी संस्था माना जा सकता है जिसमें विषमलिंगीय व्यक्तियों को सन्तानोत्पत्ति , उनके पालन - पोषण के अधिकार तथा समस्त सदस्यों के बीच उत्तरदायित्व का न्यायोचित विभाजन होता है । वर्गेश तथा लॉक का और सन्तान या अधिक सन्तानों द्वारा संगठित होता है ।
1. अनिश्चित आकार ( Indefinite size ) -
आदिम समाज में परिवारों के स्वरूप तथा प्रकार के क्षेत्रीय आधार पर इतनी विभिन्नता पाई जाती है कि जनजातीय परिवार का आकार निश्चित नहीं किया जा सकता । कभी एक परिवार में केवल चार - पाँच सदस्य ही होते हैं तो कभी पचास - साठ से भी अधिक ।
2. समानाधिकार ( Isonomy ) -
सिद्धान्ततः जनजातीय परिवारों की संरचना पुरुष प्रधान होती है तथापि स्त्री तथा पुरुष के अधिकारों में बहुत अन्तर नहीं होता । जीवनसाथी के चुनाव से लेकर विवाहोत्तर यौन सम्बन्धों के सन्दर्भ तक दोनों का समानाधिकार रहता है ।
3. आत्मनिर्भरता ( Self dependence ) -
जनजातीय परिवारों की प्रकृति अधिकतर आत्मनिर्भर होती है । वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बाजार य अन्य आर्थिक संस्थाओं पर निर्भर नहीं रहते । उत्पादक की दृष्टि से प्रत्येक परिवार एक पूर्ण इकाई होता है ।
4. श्रम का लैंगिक विभाजन ( Division of Labour based on sex ) -
लगभग सभी परिवारों में श्रम का विभाजन सदस्य के लिंग ( Sex ) से सम्बन्धित होता है । शिकार, लकड़ी काटना तथा कबीले की रक्षा का कार्य पुरुषों का , भोजन बनाना, घर की देखभाल करना , अलाव जलाने के लिए सूखी पत्तियों तथा लकड़ी बटोरने या घर बनाने का कार्य स्त्रियाँ करती है । बच्चे छोटे - मोटे कार्यों में हाथ बंटाते हैं ।
5. यौन स्वच्छन्दता ( Sex Freedom ) -
जनजातीय परिवारों में भावनाओं की दृढ़ता अधक नहीं होती , क्योंकि विवाह के पूर्व तथा विवाह के बाद भी निकटतम सम्बन्धों को छोड़ परिवार के सदस्यों में ही यौन सम्बन्धों की स्वीकृति रहती है । देहरादून का ' खस ' परिवार इसका श्रेष्ठ उदाहरण है ।
6. सामूहिकता ( Collectivity ) -
जनजातीय परिवार समष्टिवाद पर आधारित होते हैं । सामूहिक रूप से घर के सदस्यों की आवश्यकता पूर्ति में एकजुट होकर कार्य करना तथा धार्मिक उत्सवों पर सामूहिक रूप से भाग लेना इन परिवारों का मुख्य लक्षण है ।
जनजातीय परिवार के प्रकार ( Types of Tribal Family )
भारतीय जनजातीय समाज में परिवार के मूलतः दो ही प्रकार पाये जाते हैं-
1. एकाकी या व्यष्टिक परिवार ( Nuclear Family ) परिवार का सरलतम प्रकार व्यष्टिक परिवार कहलाता है । ऐसे परिवार में केवल पति - पत्नी तथा बच्चे , अर्थात् माता - पिता , भाई तथा बहिन सम्मिलित रहते हैं । जब बच्चों का विवाह हो जाता है तो वे अपना केन्द्रीय परिवार अलग बसा लेते हैं । अपनी सन्तान न होने पर ऐसे परिवार में गोद ली हुई सन्तान भी सम्मिलित कर ली जाती है । महादेव , कोली , सन्थाल , भील , कादुर , थारू तथा गुज्जर जनजातियों में ऐसे परिवार पर्याप्त संख्या में पाये जाते हैं ।
2. संयुक्त या एकपक्षीय परिवार ( Extended Family ) - जब अनेक मूल परिवार एक साथ रहते हैं तथा उनकी आर्थिक आवश्यकता की पूर्ति एक इकाई के रूप में होती है तब ऐसे परिवार को वितत या विस्तृत परिवार कहते हैं । प्रायः समस्त सदस्य एक ही वंश परम्परा से सम्बन्धित होते हैं अतः ऐसे परिवारों को एकपक्षीय परिवार भी कहा जाता है । जनजातीय समाज में पितृपक्षीय वितत परिवार अधिक पाये जाते हैं गारो तथा मालाबार के नायरों एवं आसाम में खासी लोगों में मातृपक्षीय वितत परिवार पाये जाते हैं ।
जनजातीय परिवार के स्वरूप ( Tribal Family Forms )
सत्ता , वंश तथा स्थान के आधार पर जनजातीय परिवार के कई स्वरूप पाये जाते हैं । भारतीय परिवेश में इनकी संख्या सात है-
1. मातृवंशीय ( Matrilineal ) -
जब सन्तानों की वंश परम्परा में माता का पक्ष प्रबल होता है तथा उनकी सामाजिक स्थिति का निर्णय माता के वंश अर्थात् नानी पर आधारित होता है , तो ऐसे परिवार मातृवंशीय या मातृनामी कहलाते हैं दादा - दादी से सन्तानों का सम्बन्ध दूरस्थ माना जाता है— इन मातृवंशीय परिवारों के नायरों तथा खासी जनजाति में बहुसंख्यक परिवार ऐसे होते हैं ।
2. पितृवंशीय ( Patrilincal ) -
ऐसे परिवारों में सन्तानों को अपने पिता की वंश परम्परा मिलती है । वंश के विकास का द्योतक पुत्रोत्पत्ति को माना जाता है । इसमें दादा - दादी के निकटस्थ सम्बन्ध रहता है । माँ का वंश महत्वहीन हो जाता है । कुमार , गोल्ड , नागा तथा खरिया में ऐसे परिवार हैं ।
3. मातृसत्तात्मक ( Matriarchal ) –
पारिवारिक सत्ता स्त्री के हाथ में रहती है . तथा आर्थिक , सामाजिक एवं राजनैतिक अधिकार पुरुष को भी प्राप्त रहते हैं । पारिवारिक कलह , लेन - देन आदि में स्त्री का निर्णय सर्वोच्च सम्मान प्राप्त करता है । गृह - कलह की स्थिति में पति को छोड़ने का अधिकार पत्नी को प्राप्त रहता है । खासी , गारो तथा नायर जनजातियों में ऐसे परिवार पाये जाते हैं ।
4. पितृसत्तात्मक ( Partiarchal ) -
पुरुष परिवार का प्रधान होता है । कर्ता तथा नियन्त्रक के रूप में वह मुखिया होता है । सम्पत्ति विवाद तथा झगड़े के निपटारे में वही निर्णायक होता है । खरिया , भील , टोडा , थारू तथा खस जनजातियाँ इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं ।
5. मातृस्थानीय ( Matrilocal ) -
कुछ परिवारों में यह परम्परा पायी जाती है कि विवाह के बाद पति ही पत्नी के मायके में रहता है तथा उत्पन्न होने वाली सन्तानें ननिहाल की भाषा , संस्कृति एवं क्षेत्र से अपने आपको सम्बन्धित मानती हैं । खासी , गारो तथा कुरुम्ब एवं मलपन्तरम् जनजातियों में ऐसे मातृस्थानीय परिवार पाये जाते हैं ।
6. पितृस्थानीय ( Patrilocal ) -
सामान्यतः जिस तरह विवाह के बाद पत्नी ही पति - गृह में निवास करती है तथा आने वाली पीढ़ियाँ ' ददिहाल ' के क्षेत्र , संस्कृति तथा भाषा से सम्बन्धित मानी जाती हैं , वैसे ही पितृस्थानीय परिवार भारतीय जनजातियों में भी पाये जाते हैं । खरिया , भील , चोडा , नागा , लम्बाड़ी तथा संथालों में .ऐसे परिवार पाये जाते हैं ।
7. नव स्थानीय ( Neo local ) -
जब कभी जनजातीय समाज में भगोड़ा विवाह होता है , तब नवविवाहितों को दोनों स्थिति में न तो लड़का लड़की के घर जाकर रहता है और न ही लड़की श्वसुर गृह में परिवार के लोग पनाह नहीं देते । ऐसी रहती है । फलस्वरूप वे या तो कबीला छोड़कर भाग जाते हैं या नयी गृहस्थी बसा लेते हैं ।
दूसरी स्थिति में जिन समाजों में केन्द्रीय परिवार व्यवस्था की मान्यता प्राप्त है , वहाँ भी विवाह के पश्चात् नवविवाहित दम्पत्ति को अपना नया घर बनाकर रहना पड़ता है तथा सन्तानों पर नानी या दादी के स्थान अथवा क्षेत्र का प्रभाव गौण हो जाता है । इनका प्रचार बंजर , लौहपीट , गुज्जर लम्बाड़ी तथा संथालों में अधिक रहा है ।
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