निषेध ( taboo ) - निषेध का अर्थ, प्रकृति, प्रकार, उद्देश्य, उत्पत्ति एवं प्रकार्य

निषेध ' का वर्णन कीजिए तथा निषेध ' के प्रकार्यों की विवेचना कीजिए । Describe 'Prohibition' and discuss the functions of 'Prohibition'.

निषेध ( वर्जन ) ( Taboos ) निषेध का अर्थ एवं प्रकृति

डॉ० डी० एन० मजूमदार ने अपनी पुस्तक ( Races and Cultures in India ) में निषेध के अर्थ के नाना प्रकार से स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उन्होंने लिखा है कि निषेध वास्तव में प्रतिबंधक रूढ़ियाँ ' हैं । निषेध नकारात्मक प्रथाएँ या , जैसा कि कुछ विद्वानों का मत है, जान बूझकर लगाये गये या ' संकल्पित निरोध ' है , जो कि एक संस्कृति में लोगों की स्वतंत्रता की सीमाओं को निर्धारित करता है ।


जनजातीय समाजों में प्रथाएँ और निषेध पाये जाते हैं और बने रहते हैं , क्योंकि वे एक व्यवस्थित समाज को बनाये रखने के लिए आवश्यक साधनों के ही अंग हैं । डॉ० मजूमदार के मतानुसार कुछ विद्वान् यह मानते हैं कि निषेधों का पालन उनमें अन्तर्निहित सामाजिक आन्यता या दबाव के कारण होता है , जबकि दूसरे विद्वानों का विचार है । कि निषेधों का पालन इस कारण होता है कि लोग यह विश्वास करते हैं कि अगर उन्होंने जाने अनजाने निषेधों का उल्लंघन किया तो ईश्वर या पूर्वजों की आत्मा उन्हें दण्ड देगी क्योंकि निषेधों में ईश्वर या जीवात्माओं ( Spirits ) की इच्छा निहित होती है । 


निषेध के प्रकार ( Types of Taboos ) - 

फ्रायड ने निषेधों को दो भागों में बाँटा है । 

( 1 ) खाद्य सम्बन्धी निषेध , 

( 2 ) यौन सम्बन्धी निषेध । 


खाद्य सम्बन्धी निषेध में जिस वस्तु को टोटन समझा जाता है उसका प्रयोग नहीं किया जाता । यौन सम्बन्धी निषेध में रक्त सम्बन्धियों के साथ संसर्ग नहीं किया जा सकता । फ्रायड के अनुसार इन दोनों प्रकार के निषेधों की उत्पत्ति पितृ विरोधी भाव ग्रन्थि ( Oedipus Complex ) के कारण हुई है । 


निषेध के उद्देश्य ( Aims of Taboos ) -

निषेधों के तीन उद्देश्य हैं-

( 1 ) उत्पादनात्मक उद्देश्य ( Productive Aims ) , 

( 2 ) संरक्षात्मक ( Protective Aims ) , 

( 3 ) प्रतिबन्धात्मक उद्देश्य ( Preventive Aims ) । 


उत्पादनात्मक उद्देश्य का तात्पर्य -

उन निषेधों से है जो उत्पादन के सम्बन्ध में निश्चित किये जाते हैं । उदाहरण के लिये खेती के बारे में जिन निषेधों को निश्चित किया जाता है । उनका उद्देश्य खेती में उत्पन्न होने वाली बाधाओं को दूर करना है । संरक्षणात्मक उद्देश्य में लोगों को कुछ निश्चित स्थानों में जाने के लिए मना किया जाता हैं । इससे किसी स्थान पर होने वाले खतरों को दूर कर लोगों को सुरक्षित किया जाता है । इस कारण इसे सुरक्षात्मक उद्देश्य कहा गया है । प्रतिबन्धात्मक उद्देश्य ये कुछ लोगों के पारस्परिक सम्पकों को वर्जित किया जाता है । उदाहरणार्थ समान रुधिर में संसर्ग निषेध है । 


निषेधाज्ञाओं की उत्पत्ति ( Origin of Taboos )

निषेधाज्ञाओं की उत्पत्ति के बारे में मत प्रचलित है । इस सम्बन्ध में निम्नलिखित मानवशास्त्रियों के विचार उल्लेखनीय है 

( 1 ) फ्रायड का मत -

फ्रायड के अनुसार , गोत्र - चिन्ह और निषेध , घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं । फ्रायड ने निषेधों को दो भागों में विभक्त किया है । उसके अनुसार प्रथम प्रकार के निषेधों का सम्बन्ध भोजन से है । इस निषेध के अनुसार उस भोजन को ग्रहण नहीं किया जाता जिसका सम्बन्ध टोटम अर्थात् मों चिन्ह से है ।


फ्रायड के अनुसार दूसरे प्रकार के निषेधों का सम्बन्ध यौन से हैं , जैसे भाई बहिन में शादी का निषेध , समान गोत्र में शादी का निषेध आदि । इन दोनों निषेधों की उत्पत्ति फ्रायड के अनुसार पितृ विरोधी भावना ग्रन्थि के कारण हुई है । मनोवैज्ञानिकों के अनुसार लड़का प्रायः अपनी माँ से अधिक स्नेह करता है और पिता से कम इसी प्रकार लड़की अपने पिता से अधिक स्नेह करती है और अपनी माँ से कम फ्रायड का मत है कि आदिकालीन समाज में परिवार का मुखिया सभी सदस्यों के ऊपर शारीरिक शक्ति से नियंत्रण करता था ।


समूह में जितनी स्त्रियाँ होती थीं उन्हें पुरुष के उपयोग की वस्तु माना जाता था । उसके पुत्र जब वयस्क हो जाते थे तो वे पिता के नियंत्रण के प्रति विद्रोह करते थे और उसकी स्त्रियों को अपनी स्त्री बना देते थे । लेकिन पिता के मरने के बाद उन्हें पश्चाताप होता था । इसलिए किसी पशु अथवा वनस्पति को अपने पिता के स्थान पर मानने लगते थे और उस पशु अथवा वनस्पति को मारना अथवा खाना बन्द कर देते थे ।


इस प्रकार फ्रायड के अनुसार भोजन सम्बन्धी निषेधाज्ञाओं की उत्पत्ति हुई । कालान्तर में वह पशु अथवा वनस्पति उनका गोत्र चिन्ह बन जाता था । इसके अतिरिक्त , आदिकाल में पुत्र जब पिता को मार देते थे तो उनकी स्त्रियों को अपनी स्त्रियाँ बना लेते थे । यह कार्य वे ईर्ष्यावश करते थे । अतः पश्चाताप के बाद यह नियम बन जाता था कि समान रक्त के अन्दर संसर्ग वर्जित है । इसी कारण यौन सम्बन्धी निषेधों का आरम्भ हुआ । जिसके अनुसार माता पुत्र , भाई तथा बहिन में शादी विवाह नहीं हो सकते । 


( 2 ) रैडक्लिफ ब्राउन का मत -

ब्राऊन ने निषेधों की उत्पत्ति का समाज शास्त्रीय विश्लेषण किया है । ब्राउन का मत है कि समाज - व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कुछ बातों का निषेध आवश्यक है । जैसे एक ही गोत्र में विवाह सम्बन्ध से आपसी कलह सम्भव है । इस कारण यौन सम्बन्धी निषेधों की उत्पत्ति हुई । 


( 3 ) बुण्ट का मत -

बुण्ट के अनुसार आदिम समाज में मनुष्य प्रत्येक वस्तु में एक अलौकिक शक्ति का निवास मानता था । इसे ' माना ' कहा गया है । जिसका अभिप्राय अलौकिक शक्ति से है । अतः भय के कारण कुछ वस्तुओं के उपयोग का निषेध किया गया । इस प्रकार अलौकिक शक्ति के प्रकोप से बचने के लिए निषेध की उत्पत्ति हुई । 


निषेध के प्रकार्य ( Functions of Taboo )

डॉ ० डी ० एन ० मजूमदार ने निषेध के तीन प्रकार के कारणों का उल्लेख किया है । उत्पादनकारी या उत्पादक निरोधक और रक्षात्मक । इन तीनों प्रकार्यों को समझाते हुए डॉ ० मजूमदार ने लिखा है कि अगर जनजातीय समाज में यह निषेध है कि नई फसल ने अनाज को तब तक कोई व्यक्ति उपयोग में नहीं लायेगा जब तक कि उसे फसल की देवी को संस्कारात्मक रूप में भेंट नहीं चढ़ा दिया जायेगा, तो यह निषेध उत्पादनकारी प्रकार्य को ही करता है क्योंकि जनजातीय लोगों में यह विशवास प्रवलहै कि देवी - देवता का प्रकोप अनाज के उत्पादन पर पड़ सकता है और अगली बार पैदावार चौपट भी हो सकती है ।


उसी प्रकार अति निकट के सम्बन्धियों में विवाह सम्बन्ध स्थापित न करने के सम्बन्ध में जो निषेध है , वह निषेध के निरोधक प्रकार्य का ही द्योतक अर्थात् इस प्रकार के निषेधों द्वारा पिता और पुत्री में माता और पुत्र में तथा सगे भाई बहनों में होने वाले विवाह की सम्भावना को रोका जाता है । उसी प्रकार अगर यह निषेध है कि जनजातीय मुखिया को कोई छू नहीं सकेगा या उसके अति निकट नहीं आ सकेगा। तो इस निषेध का प्रकार्य निश्चय ही किसी संभावित आक्रमण से मुखिया की रक्षा करना ही है।


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