संस्कृति संवर्धन के उद्विकासवाद का सिद्धांत - Theory of Evolution of Culture.

सांस्कृतिक- संवर्धन के उद्विकासीय सिद्धान्त|Evolutionary Principles of Cultural Promotion.

विकासवाद का सिद्धान्त है कि इस सृष्टि में हर बात का 'सरल से विषम' ( Simple to complex ) की तरफ विकास हो रहा है। शुरू-शुरू में जीव कोष्ठ के प्राणी थे, उनसे अनेक कोष्ठों के प्राणी हुए , शुरू में साधारण अंगों के जीव थे, उनसे विषम अंगों के जीव हुए । हर वस्तु, हर संस्था, हर समुदाय शुरू सरल था, इस सरल से ही विषम बना । विकासवाद के इस सूत्र को पकड़कर इसे भौतिक तथा सांस्कृतिक मानवशास्त्र पर जिन - जिन विद्वानों ने जिस तरह घटाने का प्रयत्न किया, उसका कुछ वर्णन कर देने से विषय अधिक हो जायेगा । 


( अ ) डार्विन ( Darwin )

विकासवाद का प्रवर्तक डार्विन था । इसने ' प्राणिशास्त्र ' के क्षेत्र में विकासवाद के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया । डार्विन ने सर्वप्रथम विकासवाद के इस ' सरल से विषम ' के सिद्धान्त को ' प्राणिशास्त्र ' में घटाकर यह प्रतिपादित किया कि मानव का विकास वानर से हुआ है , और इस विचार ने जब विद्वानों के मस्तिष्क को अपने शिकंजे में कस लिया तब से सरगर्मी के साथ मानवशास्त्रियों ने उस लुप्त - कड़ी को ढूँढ़ना शुरू किया जो वानर तथा मानव के बीच की थी । अर्थात् वह कड़ी वानर भी नहीं थी क्योंकि वानर से आगे विकास हो चुका था , और वह कड़ी मानव भी नहीं थी । क्योंकि अभी पूरा मानव बनने में कुछ कमी थी । 


( ब ) टायलर ( Tylor )

टायलर ने विकासवाद के सिद्धान्त को सांस्कृतिक - मानवशास्त्र में धर्म को चित्रित करने हेतु प्रयुक्त किया । टायलर का मत था प्रागैतिहासिक काल में मानव का विश्वास आत्मा में था । मनुष्य के मर जाने पर उसकी आत्मा में विश्वास होना स्वाभाविक था , क्योंकि शरीर अनेक हैं , इसलिए उनमें निवास करने वाला आत्मा एक न होकर अनेक थी । अनेक आत्माओं में विश्वास के बाद अनेक देवताओं विश्वास का विकास हुआ और धीरे - धीरे वह विश्वास विकास की प्रक्रिया में से गुजरता - गुजरता पहले अनेक देवतावाद और फिर अनेक देवतावाद से एक देवतावाद में परिणत हो गया । इस दृष्टि से विकासवादी मानवशास्त्री टायलर का कहना है कि एक ईश्वर की उपासना पर मनुष्य बहुत पीछे पहुँचा । इसी दृष्टि को सम्मुख रखकर विकासवादी - मानवशास्त्री पुरानी तथा नवीन जातियों के धर्म का अध्ययन करते हैं । 


( स ) मॉर्गन ( Morgan )

अमरीकन मानवशास्त्री लुई मॉर्गन विकासवादी मानवशास्त्री थे । इन्होंने मानव के विकास के तीन क्रमों के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । इनका कहना था कि विकासवाद का ' सरल से विषम ' का सिद्धान्त मनुष्य जाति की संस्कृति के विकास पर ठीक बैठता है । मानव की संस्कृति के विकास में पहली अवस्था वन्य - मानव ' ( Sawage ) की है , दूसरी अवस्था ' असभ्य मानव ' ( Barbarian ) की है , तीसरी अवस्था ' नगर - मानव ' ( Civilized ) की है ।


' वन्य - मानव ' जंगल में फिरता था , भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता था , आचार - व्यवहार में निरा पशु था , ' असभ्य - मानव ' में सभ्यता की बातें तो नहीं विकसित हुई थीं , परन्तु कुछ - कुछ स्पष्ट भाषा का प्रयोग वह करने लगा था , और एक जगह स्थान बनाकर नहीं रहने लगा था । ' नगर - मानव ' एक जगह मकान बनाकर रहने लगा था , भाषा का प्रयोग करने लगा था , सभ्यता के विकास के मार्ग पर चल पड़ा था । इसी नगर - मानव के विकास की शृंखला में हम बीसवीं सदी के लोग एक कड़ी हैं ।


इस विकास को और अधिक विस्तार से मॉर्गन ने प्राचीन संस्कृतियों पर घटाने का प्रयत्न किया है । उनका मत है कि इसमें हर सांस्कृतिक अवस्था के निम्न - मध्यम - उत्तम - ये तीन भेद होते हैं । ' वन्य - मानव ' पहले बिल्कुल निम्न स्तर पर था , उसके बाद जब वह ' आस्ट्रेलॉयड ' प्रजाति के रूप में आया , तब यह उसका मध्यम स्तर था । इस स्तर के बाद उत्तम - स्तर वह था जब ' वन्य - मानव ' पौलीनेशियन रूप में विकसित हुआ ।


इसी प्रकार जब ' वन्य - मानव ' विकसित होता ' असभ्य मानव ' के रूप में प्रकट हुआ , तब ' असभ्य - मानव ' के विकास के भी तीन स्तर के जेनीज थे - निम्न , मध्यम , उत्तम । निम्न स्तर के ' असभ्य - मानव ' ड्ररौक्यूओज थे , मध्यम स्तर उत्तम - स्तर के होमर समय के ग्रीक थे ।


इसके बाद ' असभ्य मानव ' से ' नगर - मानव ' का विकास हुआ जिसमें फिर तीन स्तर थे, निम्न, मध्यम, उत्तम । निम्न स्तर का ' नगर मानव ' तक प्रकट हुआ जब भाषा का विकास हुआ । मध्यम स्तर का नगर मानव का विकास वर्तमान भारत में है । उत्तम स्तर के नगर मानव की सभ्यता तथा संस्कृति का रूप ' यूरोपियन सभ्यता ' है जो दिनों - दिन सभ्यता के क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ती जा रही है ।  संस्कृति के अन्तर्वस्तु के सम्बन्ध में भी मॉर्गन ने प्रत्येक स्थान पर इसी उद्विकासवादी सिद्धान्त को दर्शाया है ।


विशेषकर विवाह , परिवार एवं नातेदारी सम्बन्ध ( Kinship terminology ) इत्यादि के सम्बन्ध में उद्विकास के सिद्धान्त की विवेचना की है । मॉर्गन का विचार है कि परिवार तथा विवाह की संस्थाओं का उद्विकास एक निश्चित पद्धति के अनुसार हुआ है । उसकी विभिन्न अवस्थाओं पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने इस बात पर बल दिया है कि सभी स्थानों पर परिवार का उद्विकास इन्हीं अवस्थाओं से निकल कर हुआ है । 


परिवार की ये अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं-

( 1 ) एक विवाह परिवार ( Monogamous family ) 

( 2 ) पितृसत्तात्मक परिवार ( Patriarchal family ) 

( 3 ) सिन्डेस्मियन या निथुनिकृत परिवार ( Syndasmian family ) 

( 4 ) समूह परिवार ( Punaluant family ) 

( 5 ) रक्त सम्बन्ध परिवार ( Consanguine family )


इसी प्रकार से मॉर्गन के विवाह के उद्विकास की योजना का प्रारम्भ लिंग संकरता ( Sex - promiscuity ) से हुआ तथा एक विवाह ( Monogamy ) उसके उद्विकास की अन्तिम अवस्था है । उसके बीच में जो कुछ अवस्थाएँ मॉगन द्वारा बतायी गयी हैं जिनमें होकर विवाह की यह संस्था गुजरी है । 


आलोचना ( Criticism )

( 1 ) यह सिद्धान्त तथ्यहीन है और समयानुकूल नहीं हैं । ऐसा प्रतीत होता है । कि चिन्तन और मनन के अभाव में केवल कल्पना का आश्रय लेकर सिद्धान्त को प्रतिपादित किया गया है । विकासवादियों का यह विचार कि उनका सिद्धान्त ही संस्कृति में विकास और परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है , तथ्यहीन है , क्योंकि संस्कृति में विकास की विधा अकेले सिद्धान्त से पूर्ण नहीं होती । 


( 2 ) इस सिद्धान्त का यह दावा कि विश्व में सभी संस्कृतियों का विकास समान रूप से हुआ है , असत्य है — क्योंकि आज भी अनेक संस्कृतियाँ ऐसी पायी जाती हैं । जिनमें आदिम युग के उपकरणों और सांस्कृतिक तत्वों का अस्तित्व मिलता है । इसके दिपरीत बहुत - सी ऐसी संस्कृतियाँ हैं जो अपने प्राचीन सांस्कृतिक उपकरणों को त्याग कर नवीन कलेवर धारण करके उन्नति के शिखर पर पहुँच चुकी है । 


( 3 ) विकासवादी सिद्धान्तों के प्रवर्तकों का यह दावा कि " विभिन्न संस्कृतियों में समान उपकरणों का मिलना सांस्कृतिक विकास के कारण हैं , असत्य है । समान उपकरणों का मिलना कई अन्य कारणों पर आधारित है । जहाँ पर भौगोलिक परिस्थितियाँ समान होती हैं वहाँ पर स्वाभाविक रूप से ही समान उपकरण उत्पन्न हो जाते हैं ।


इसके अलावा प्राचीन काल आवागमन , युद्ध , व्यापार तथा विजयाकांक्षा ने सांस्कृतिक उपकरणों के प्रसार ( Diffusion ) में सहायता प्रदान की है । उपयुक्त और प्रबल सांस्कृतिक उपकरण ग्रहण कर लिये जाते हैं और अनुपयुक्त , क्षमतारहित उपकरणों को कोई भी स्थान प्राप्त नहीं होता रहा है । व्यापार के माध्यम से संस्कृतियों में अनेक उपकरणों का प्रवेश पाना सहज कार्य रहा है । विजय और गुलामी प्रथा भी उपकरणों के प्रसार में महत्वपूर्ण कारक रही है । 


( 4 ) विकासवादी सिद्धान्त के अनुयायियों ने अपनी विचारधाराओं अतिशयोक्ति से काम लिया है । मर्फी ( Murphy ) के अनुसार , " समस्त मानवों के कार्य - कलापों और मस्तिष्क की शक्ति तथा क्षमता में समानता पायी जाती है । " पूर्णतया असत्य है । सभी मानवों की कार्यक्षमता तथा कार्यकुशलता समान नहीं हो सकती । मानवीय कार्यक्षमता पर भौगोलिक वातावरण ( Geographical environment ) का प्रभाव पड़ता है ।


यही कारण है कि उष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों लोग आलसी, कामचोर और सुस्त होते हैं जबकि शीतोष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों के लोग चुस्त, फुर्तीले और सजग होते हैं। मानवीय मस्तिष्क की शक्ति और क्षमता को समान मान लेना भी मूर्खतापूर्ण अभियान है। मानवीय मस्तिष्क की कार्यक्षमता और शक्ति समान होती तो कांगो और अमेजन के बेसिन में रहने वाले पिग्मी और सिर का शिकार करने वालों का बौद्धिक विकास यूरोपवासियों के सदृश होना चाहिए ।


वास्तव में मनुष्य का मस्तिष्क तभी कार्य करता है जबकि उसे अनुकूल वातावरण मिलता है । मिस्र , सिंधु , वीर और सुमेर के निवासियों का मानसिक विकास और आध्यात्मिक उन्नति जिस समय उच्च शिखर पर थी उस समय यूरोप और अमेरिका के निवासी आदिम युग के वातावरण में पल रहे थे । 19 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में इसकी विपरीत स्थिति हो गई । 


निष्कर्ष 

उपर्युक्त आलोचनाओं का यह अर्थ नहीं है कि विकासवादी सिद्धान्त में कोई भी तथ्य नहीं है । इसमें कुछ सभ्यता का अंश अवश्य मौजूद है । यह उनका कथन सत्य है कि संस्कृतियों का अस्तित्व , उद्भव , विकास स्वतन्त्र होता है । परन्तु अन्य संस्कृतियों का आदान - प्रदान उनकी स्वतन्त्रता में बाधक होता है ।


कुछ संस्कृतियों के बारे में उनका यह कथन कि उनका विकास प्राथमिक अवस्था में शनैः शनैः विकसित होता हुआ आधुनिक अवस्था तक पहुँचा है, सत्य है । परन्तु अनेक संस्कृतियाँ ऐसी भी हैं जो उन्नति के शिखर से रसातल में भी पहुँच गई हैं और कुछ ऐसी हैं जो अब भी प्राचीन अवस्था में हैं । अतः इस कथन को सर्वव्यापक नहीं माना जा सकता ।


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