समकालीन ग्रामीण भारत में लघु - समुदाय की संकल्पना की उपयोगिता की समीक्षा कीजिए।
रेडफील्ड ने लघु समुदायों की अवधारणा में जिन आधारों एवं प्रतिमानों को स्पष्ट किया है उनके सन्दर्भ में यह बात ध्यान में रखनी होगी कि भारत के ग्रामीण जीवन को समझने में यह अवधारणा कितनी उपयोगी है ? वस्तुतः इसी दृष्टिकोण से प्रभावित होकर भारतीय विद्वानों ने अनेक आनुभविक अध्ययन सम्पन्न किये हैं । इन अध्ययनों में पाया गया कि अनेक ग्राम लघु समुदायों की विशेषताओं के अनुरूप पाये गये, जबकि अनेक ग्राम ऐसे भी थे, जिनमें लघु समुदायों की ऊपर वर्णित महत्वपूर्ण विशेषताओं का अभाव था।
भारतीय ग्रामों का ' लघु समुदाय के रूप में अध्ययन करने वालों में मैकिम मेरियट ( Mackim Marriott ), डी.एन. मजूमदार ( D.N. Majumdar ), एम. एन. श्रीनिवास ( M.N. Srinivas ), एस.सी. दुबे ( S.C. Dube ) एवं बी.आर. चौहान ( B.R. Chauhan ) के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । भारतीय सन्दर्भ में लघु समुदाय की अवधारणा का अध्ययन करने पर एक सामान्य निष्कर्ष यह प्राप्त होता है कि आकार के दृष्टिकोण से भारतीय गाँव अपेक्षाकृत काफी छोटे हैं । इसके सदस्यों के मध्य घनिष्ठ , प्रत्यक्ष एवं प्राथमिक सम्बन्ध पाये जाते हैं ।
इसी आधार पर ' एम . एन . श्रीनिवास ' ने लिखा है कि " भारत में प्रत्येक ग्राम एक दृढ़ लघु समुदाय है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे से परिचित होता है । " ' डॉ . बी . आर . चौहान ने राजस्थान के गाँव ' राणावतों की सादड़ी ' का अध्ययन किया एवं लघु समुदाय की उपरोक्त विशेषताओं पर विचार किया । आपके अनुसार लघु समुदाय के आवश्यक तत्वों में लघुता ( गाँव की कुल जनसंख्या 640 पायी गयी ), विशिष्टता एवं समरूपता आदि विशेषताएँ भारतीय ग्रामों में पायी जाती हैं, लेकिन यहाँ आत्म - निर्भरता का प्रत्येक गाँव में अभाव पाया जाता है ।
वस्तुतः लघु समुदायों की उपयोगिता हम भारतीय सन्दर्भ में जब तक पूर्ण रूप से नहीं समझ सकते, जब तक कि हम लघु समुदायों की चारों विशेषताओं के सन्दर्भ में भारतीय समाज को न देखें ।
( क ) विशिष्टता -
सर्वप्रथम हम लघु समुदाय की प्रथम महत्वपूर्ण विशेषता ' विशिष्टता ' को देख सकते हैं । भारतीय गाँवों में विशिष्टता के आधार पर गाँव का प्रत्येक व्यक्ति अपने गाँव की संरचना से अवगत होता है । वह जनता है कि गाँव की सीमा कहाँ से प्रारम्भ होती है एवं कहाँ समाप्त होती है । वे जानते हैं कि जातीय पदसोपान के अनुसार विभिन्न जातियों के आवास कहाँ - कहाँ होंगे । देवी - देवताओं के स्थान , खेत - खलिहान एवं पशुओं के रहने के स्थान से पूरी तरह जागरूक होते हैं ।
इस प्रकार विशिष्टता के आधार पर अधिकांश भारतीय गाँवों के ' लघु समुदाय ' माना जा सकता है । डॉ. बी. आर. चौहान ' राणावतों की मादड़ी में किये गये अध्ययन के आधार पर बताया कि इस गाँव में विशिष्टता ( Distinctiveness ) का गुण पाया जाता है । इस गाँव के लोग गाँव की सीमा से परिचित हैं । लोग पड़ोसियों के रूप में समान जीवन व्यतीत करते हैं । लोगों में हम की भावना ' ( We feeling ) एवं ' सामूहिक चेतना ' पायी जाती है । आर्थिक सम्बन्धों की दृष्टि से , इस गाँव में कृषक , दस्तकार एवं सेवा करने वाली जातियाँ परम्परागत लेन - देन के धन्धों में बँधी हुई है ।
भंगी व ढोली जैसी सेवावर्गीय जातियाँ इस गाँव में रहती हैं जिनका निवास अन्य गाँव में भी है । इस ग्राम में स्थानीय देवी - देवताओं से सम्बन्धित संस्कारात्मक उत्सवों की दृष्टि से भी विशिष्टता पायी जाती है । अलग - अलग अवसरों पर विभिन्न देवी - देवताओं की पूजा गाँव के लोगों में एकता का भाव पैदा करती है । इसी प्रकार आर्थिक एवं संस्कारात्मक क्षेत्र में लघु समुदाय के रूप में इस ग्राम में विशिष्टता का गुण पाया जाता है , यद्यपि कुछ लोग अपनी सेवाएं प्रदान करने हेतु दूसरे गाँवों से भी आते हैं ।
( ख ) लघुता -
लघु समुदाय की दूसरी विशेषता ' लघुता ' को यदि हम भारतीय सन्दर्भ में देखने का प्रयास करें तो हम पायेंगे कि यह विशेषता भी अधिकांश भारतीय गाँवों में विद्यमान है । भारत में लगभग 55 प्रतिशत गाँव ऐसे हैं जिनकी संख्या 500 व्यक्तियों से भी कम है । डॉ . चौहान के मत में ' राणावतों की सादड़ी ' के अध्ययन से भी स्पष्ट होती है कि यह गाँव लघुता की विशेषता रखता है । यहाँ की कुल जनसंख्या 640 है । अतः इस ग्राम का आकार छोटा माना जाता है ।
( ग ) समरूपता -
लघु समुदाय की तृतीय विशेषता ' समरूपता ' ( Homogeneity ) का जहाँ तक प्रश्न है , यह कहा जा सकता है कि कुछ समय पहले तक यह विशेषता भारतीय ग्रामों पायी जाती थी । समान मनोवृत्तियों , धार्मिक कर्मकाण्डों की समानता , व्यवहारों की समरूपता का समान सांस्कृतिक प्रतिबद्धता उनकी विशेषताएँ थी । लेकिन धीरे - धीरे भारतीय ग्रामों की यह समरूपता विभिन्नता में बदलती गयी ।
आज अनेक प्रकार की असमानता भारतीय ग्रामों में देखी जा सकती है । लेकिन एक तथ्य स्पष्ट है कि यदि हम इस विशेषता का मूल्यांकन नगरीय समुदाय की तुलना में करेंगे तो हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि आज भी लघु समुदाय के अनुरूप एक स्पष्ट समरूपता भारतीय ग्रामों में दिखायी देती है । डॉ . चौहान ने अपने अध्ययन के आधार पर यह स्पष्ट किया है कि ग्रामीण जीवन से सम्बन्धित विभिन्न पक्ष समान गति से परिवर्तित नहीं होते ।
कुछ क्षेत्रों एवं कुछ लोगों में परिवर्तन की गति अधिक तीव्र होती है , तो कुछ में धीमी । कुछ जातियों का आधुनिकीकरण तेजी से होता जो उस है तो कुछ का धीमी गति से, जबकि कुछ इस दृष्टि से बहुत ज्यादा पिछड़ गये है । ' राणावतों की सादड़ों ' में शनैः शनैः समरूपता की अपेक्षा जटिलता एवं विजातीयता ( Heterogeneity ) बढ़ती जा रही है । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि ' समरूपता ' भारतीय ग्रामों में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोच होती है ।
( घ ) आत्मनिर्भरता-
लघु समुदाय की अन्तिम महत्वपूर्ण विशेषता ' आत्मनिर्भरता है । भारतीय गाँवों में इस विशेषता का निरन्तर अभाव होता जा रहा है । जनसंख्या के दृष्टिकोण से आज अधिकांश गाँव आत्मनिर्भरता की श्रेणी में नहीं रखे जा सकते । अनेक ऋणग्रस्त कृषक एवं भूमिहीन किसान अपने गाँवों को छोड़कर अन्यत्र बस जाते हैं । मजदूरी आदि के लिए अनेक स्थानीय कृषक दूसरी जगह कार्य करने लगे हैं । यही नहीं विवाह , सामाजिक सम्पर्क एवं व्यावसायिक स्वरूप के कारण गाँव की सामाजिक संरचना में भी आत्मनिर्भरता नहीं दिखायी देती है ।
अनेक ग्रामीण अपने विश्वासों को पूरा करने के लिए तीर्थ यात्राओं पर जाने लगे हैं , अतः धार्मिक एवं संस्कारात्मक दृष्टिकोण से भी भारतीय ग्राम को आत्मनिर्भर नहीं माना जा सकता । अनेक जातियाँ जा पहले जजमानी - प्रथा के अन्तर्गत अपने गाँव के सदस्यों को ही सेवाएं प्रदान करती थीं, वे अब विवाह, भोज, मृत्यु आदि अन्य संस्कारों के अवसर पर दूसरे गाँव के लोगों को भी अपनी सेवाएँ प्रदान करने लगे हैं और शेष समय रोजगार के लिए वे किसी कस्बे ( Town ) या नगर ( City ) में चले जाते हैं ।
शिक्षा, चिकित्सा, उपज एवं बिक्री के लिए भी गाँव अब शहरों पर आश्रित होन लगे हैं और अपनी आत्मनिर्भरता को छोड़ते जा रहे हैं। डॉ. चौहान ने भी अपने अध्ययन के आधारपर यह बताया है कि जनसंख्या अर्थव्यवस्था , सामाजिक संरचना , संस्कारात्मक सम्बन्धों के दृष्टिकोण से यह ग्राम अपने सदस्यों के लिए ' जन्म से मृत्यु ' तक का प्रबन्ध है या नहीं ।
आपने स्पष्ट किया है कि जनसंख्या के दृष्टिकोण से ले तो ग्राम इसकी जनसंख्या बदलती रहती है , अतः इसे आत्मनिर्भर नहीं माना जा सकता । यह गाँव इस दृष्टि से भी आत्मनिर्भर नहीं है कि इस गाँव के लोगों में जातीय आधार पर जाये जाने वाले सम्बन्ध अपने निवास के ग्राम तक ही सीमित न होकर बल्कि ' चौखला ' नामक अनेक ग्रामो के क्षेत्र तक विस्तृ होते हैं । आर्थिक निर्भरता एवं प्रशासन की दृष्टि से भी इस गाँव को आत्मनिर्भर नहीं माना जा सकता ।
डॉ. बी. आर. चौहान अपनी कृति 'ए राजस्थान विलेज' में बताया है कि अपनी परम्परागत पृष्ठभूमि में भी गाँव के अन्य गाँवों एवं कस्बों के साथ सम्बन्ध पाये जाते रहे हैं । इन सम्बन्धों के अन्तर्गत धार्मिक, आर्थिक, प्रशासकीय , जाति - संगठनों एवं नातेदारी के सम्बन्ध आते हैं । वर्तमान में तो विभिन्न ग्रामों के पारम्परिक और ग्रामीण - नगरीय सम्बन्धों की मात्रा काफी बढ़ चुकी है ।
मूल्यांकन
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि परम्परात्मक भारतीय ग्रामों , कस्बों एवं नगरों के लोगों के साथ सम्बन्ध पाये जाते थे । अतः डॉ . चौहान के द्वारा अध्ययन किये गये गाँव ' राणावतों की सादड़ी ' के उदाहरण से यह स्पष्ट की प्रथम दो विशेषताएँ ' लघुता ' एवं ' विशिष्टता ' तो पायी जाती है । तीसरी विशेषता ' समरूपता ' के सम्बन्ध में अधिक निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता , क्योंकि यह विशेषता भारतीय गाँवों में आंशिक रूप से ही पायी जाती है । जहाँ तक इसकी अन्तिम विशेषता ' आत्मनिर्भरता ' का प्रश्न है , यह कहा जा सकता है कि इसका भारतीय गाँवों में नितान्त अभाव पाया जाता है । '
मैकिम मेरियट ( Makim Marriott ) द्वारा अध्ययन किये गये गाँव किशनगढ़ी में यह पाया गया कि इसका सम्बन्ध अनेक अन्य ग्रामों के साथ पाया जाता है ।
डॉ . डी . एन . मजूमदार ( Dr. D.N. Majumdar ) ने भी ' मोहाना ग्राम के अध्ययन के आधार पर यह बताया कि ग्रामीण समुदाय में ' समग्रता ' ( Wholeness ) का अभाव पाया जाता है ।
डॉ . एस . सी . दुबे ( Dr. S.C. Dube ) ने भी लगभग यही बात ' शामीर - पेट ' नामक ग्राम के अध्ययन के आधार पर कही है ।
डॉ . चौहान ने बताया कि परिस्थितियों की समीक्षा से ज्ञात होता है कि विशिष्टता और एकात्मीकरणता ( Identifiability ) न कि समरूपता और आत्मनिर्भरता परम्परागत पृष्ठ भूमिवाले ग्रामीण समुदायों, जैसे कि ' राणावतों की सादड़ी ' की विशेषताओं के चित्रित करते हैं ।
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