Rural-Urban Continuum: भारत में ग्रामीण- नगरीय सातत्य की अवधारणा की विवेचना

ग्रामीण- नगरीय सातत्य 'की अवधारणा की विवेचना भारत के सन्दर्भ में कीजिए-

भारत में ग्रामीण-नगरीय सातत्य ' पर एक समाजशास्त्रीय निबन्ध लिखिए ।


ग्रामीण तथा नगरीय समुदाय के विभिन्न भेदों को देखते हुए आज एक नवीन अवधारणा का विकास हुआ है, जिसे हम ग्रामीण - नगरीय सातत्य (Rural-Urban Continuum) कहते हैं। यह अवधारणा इस महत्वपूर्ण प्रश्न से सम्बद्ध है कि ग्रामीण - नगरीय भिन्नताएँ एक-दूसरे से पूर्णतया भिन्न रूप से विकसित होती है अथवा यह भिन्नताएँ सापेक्षिक हैं और दोनों समुदायों को एक - दूसरे से जोड़ती हैं ।


आरम्भ में डेवी , बैनेट तथा हॉजर ने इस अवधारणा के द्वारा स्पष्ट किया कि ग्रामीण - नगरीय सातत्य एक ऐसी विचारधारा है जो ग्रामीण समाज को नगरीय समाज से पृथक करके अध्ययन करने पर बल देती है । हरेक दूसरे विद्वानों जैसे सोरोकिन, जिमरमैन , रेडफील्ड, स्पेन्सर, टॉनीज तथा वेबर ने भी इस विचारधारा का समर्थन करते हुए यह स्पष्ट किया है कि अनेक आधारों पर नगरीय समुदाय की प्रकृति ग्रामीण समुदाय से अत्यधिक भिन्न है , अतः इन दोनों समुदायों का अध्ययन पृथक रूप से किया जाना चाहिए । 


विर्थ ( Wirth ) ने अपने शोध - पत्र ' नगरीयता एक जीवन विधि के रूप में ' ( Urbanism as way of Life ) द्वारा यह स्पष्ट किया कि नगरीय तथा ग्रामीण समुदाय में सम्बन्धों की प्रकृति , मनोवृत्तियाँ एवं जीवन स्तर एक - दूसरे से अत्यधिक भिन्न हैं , अतः इन दोनों समुदाय को दो ध्रुवों के रूप में स्पष्ट किया जाना चाहिए । वास्तविकता यह है कि नगरीय तथा ग्रामीण विभेदों पर बल देने वाले जिन आरम्भिक विद्वानों ने इन दोनों समुदायों को दो विभिन्न ध्रुवों के रूप में स्पष्ट किया था , उसे व्यवहार में प्राप्त कर सकना अत्यधिक कठिन है ।


एक प्रतिदिन ( Model ) के रूप में ग्रामीण तथा नगरीय समुदायों की भिन्नता की व्यापक व्याख्या की जा सकती है , लेकिन बर्ट्रेण्ड ( Bertrand ) का कथन है कि " ग्रामीण तथा नगरीय अन्तर केवल तुलनात्मक अंशों में ही होता है तथा इन दोनों ध्रुवों के बीच एक ऐसी भी श्रृंखला स्पष्ट होती है जो इन्हें एक - दूसरे से जोड़ती है । " 



रीसमैन ( Rissman ) ने ग्रामीण - नगरीय विभेद की कटु आलोचना करते हुए लिखा है कि “ ग्रामीण - नगरीय विभेद से सम्बन्धित सिद्धान्त विद्यार्थियों की पाठ्य - पुस्तकों में ही सुरक्षित हैं और उनका केवल परीक्षा के समय ही महत्व होता है । अनुसंधान की प्रविधि के रूप में उनका महत्व कभी भी प्रमाणित नहीं हुआ है । " ग्रामीण - नगरीय सातत्य की प्रकृति को स्पष्ट करते हुए पाहल ( Pahl ) ने लिखा है कि " अतीत में ग्रामीण - नगरीय सातत्य की अवधारणा को नगरीकरण की प्रक्रिया के रूप में समझा जाता रहा था ।


इस प्रक्रिया के विश्लेषण में सीमा - तत्व को कोई महत्व नहीं दिया गया । " “ वास्तव में सामाजिक परिवर्तन की अवधि में आवास की भौतिक दशाएँ और व्यावसायिक स्वरूप इतना महत्वपूर्ण नहीं रहता जितना कि सामाजिक संरचना में उत्पन्न होने वाले परिवर्तन महत्वपूर्ण होते हैं ।


आज यदि कहीं ग्रामीण - नगरीय विभेद विद्यमान भी हैं तो उसका आधार जनसंख्यात्मक अथवा भौतिक नहीं है बल्कि यह सामाजिक प्रक्रिया के रूप में दृष्टिगत होता है । सबसे बड़ा तथ्य तो यह है कि आज विभिन्न क्षेत्रों में पुंज समाजों ( Mass Societies ) का विकास हो रहा है जिसमें नगरीय एवं ग्रामीण विशेषताओं का समन्वित प्रभाव देखने को मिलता है । "


उपर्युक्त सभी कथन यह स्पष्ट करते हैं कि ग्रामीण तथा नगरीय विभेद अन्तिम सीमा पर ही स्पष्ट होते हैं । इन दोनों अन्तिम सीमाओं के बीच आने वाले सभी समुदाय चाहे ग्रामीण कहे जाते हैं . अथवा नगरीय, उनके बीच इतनी समानता है कि उन्हें एक - दूसरे से पूर्णतया पृथक नहीं किया जा सकता । 


बर्गेल ( Bergel ) ने कहा है कि " प्रत्येक व्यक्ति यह जानता हुआ प्रतीत होता है कि नगर क्या है , परन्तु कोई व्यक्ति नगर को समुचित रूप से परिभाषित नहीं कर सका है । ” नगर और गाँव की परिभाषा की अस्पष्टता के कारण ही सर्वमान्य रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि किस स्थान पर गाँव की समा समाप्त हो रही है और कहाँ से नगर की विशेषताएँ प्रारम्भ हो रही है ।


सम्भवतः इसीलिए गिस्ट और हलबर्ट ने यह निष्कर्ष दिया है कि " ग्रामीणता और नगरीयता का विभाजन सामाजिक जीवन के तथ्यों पर आधारित नहीं है बल्कि यह केवल एक मौखिक अवधारणा है । " व्यावहारिक रूप से ग्रामीण नगरीय सातत्य का तात्पर्य उन ग्रामीण और नगरीय विभेदों से है जो दोनों समुदायों को एक - दूसरे की तुलना को स्पष्ट करते हैं तथा उनके बीच निरन्तरता को बनाये रखते हैं । भारतीय सन्दर्भ में यह धारण और भी अधिक उपयुक्त प्रतीत होती है । 


ग्रामीण नगरीय मूल्य व्यवस्थाओं में अन्तर

भारतीय ग्रामीण जीवन परम्परात्मक है और इसीलिए यह परम्पराओं , प्रथा , रूढ़िवादिता तथा धर्म पर आधारित है । मूल्य - व्यवस्था की आधारभूत इकाइयाँ भी ऐसी हैं । इसे इनके सन्दर्भ में देखा जा सकता है । ये तत्व निम्नलिखित हैं 


( 1 ) सामुदायिक भावना -

ग्रामीणजन में ' एक - भावना ' , ' हम भावना पायी जाती है । लोग सम्पूर्ण ग्राम को अपना परिवार मानते हैं । वे एक - दूसरे के प्रति सहानुभूति रखते हैं और सुख दुःख में भाग लेते हैं । इस प्रकार के मूल्य का नगरों में नितान्त अभाव है । एक ही मुहल्ले - पड़ोस में रहने वाले एक - दूसरे को मुश्किल से पहचानते हैं।


बड़े - बड़े नगरों दिल्ली , मुम्बई इत्यादि में तो एक ही मकान में ऊपर वाले नीचे वाले को और नीचे वाले ऊपर वाले को नहीं जानते हैं । किसी की हारी बीमारी से , सुख - दुःख में कोई किसी को पूछता नहीं है । सम्बन्ध औपचारिक होते हैं और उनमें घनिष्ठता का अभाव है । प्रोफेसर बोगार्डस ने यहाँ के सम्बन्धों ( Touch and go relations ) कहा है और इसीलिए शहर के लोग 99 प्रतिशत लोगों को न जानते हुए सारा जीवन बिता देते हैं । यही नगरीय मूल्य है । 


( 2 ) परिवारवादी मूल्य-

ग्रामीण समुदाय में परिवार का विशेष महत्व है । ग्रामीणों में -परिवारात्मकता भरपूर रूप से पायी जाती है । व्यक्ति परिवार को प्रभावित करता है और परिवार व्यक्ति को । परिवार में बड़े - बूढ़े का आदरयुक्त एवं सम्मानपूर्ण स्थान होता है । लोग बड़े - बूढ़ों का आदर करते हैं । यही मूल्य माता , बहन तथा अन्य नाते - रिश्तेदारों के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण पनपाने में सहायक होता है ।


परिवारवादी मूल्य ग्रामों में मुख्य है । यदि हम नगरीय समुदाय का विश्लेषण करे तो हमें ज्ञात होगा कि परिवारवादी यह मूल्य नगरों में अत्यन्त गौण है और इसी के फलस्वरूप नगरों में परिवार का महत्व कम है । माँ - बाप , बड़े भाई - बहन का प्रभाव एवं आदर यहाँ कम देखने को मिलता है । इसी मूल्य के कारण अधिकांश नागरिक जीवन परिवार के बाहर बीतता है । लोग परिवार को कम महत्व देते हैं । 


( 3 ) विवाह सम्बन्धी मूल्य -

वेस्टरमार्क और डॉ . मजूमदार ने विवाह के सम्बन्ध में ग्रामीण व नगरीय मूल्य व्यवस्थाओं में अन्तर स्पष्ट किया है । ग्रामों में जाति अन्तर्विवाह , गोप बहिर्विवाह तथा बाल विवाह का घोर समर्थन किया जाता है जबकि विधवा पुनर्विवाह व विवाह विच्छेद का भयंकर विरोध किया जाता है । नगरों में इसके विपरीत पाया जाता है । अन्तर्जातीय विवाह को वैज्ञानिक तर्क पर उचित कहा जाता है । विवाह - विच्छेद को भी वैधानिक मान्यता दी जाती है । विधवा पुनर्विवाह को भी स्वीकार किया जाता है । विवाह के सम्बन्ध में नगरीय मूल्य अपनी तरह के हैं और प्रामीण मूल्य अपने प्रकार के । 


( 4 ) भाग्य सम्बन्धी मूल्य –

' भाग्यवादिता ' ग्रामवासियों के लिए महत्वपूर्ण मूल्य है । रहा है उसका आधार भाग्य मानना इनके जीवन की महत्वपूर्ण विशेषता है । जीवन में जो कुछ ' कर्मवाद ' पर ये लोग कम विश्वास करते हैं । इसके विपरीत नगरों में भाग्यवादिता को अपेक्षाकृत कम महत्व देते हैं । ' कर्म ही पूजा है ' ( Work is worship ) इनकी मूल्य - व्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग है ।


इनका विश्वास है कि कर्म के द्वारा भाग्य को बदला जा सकता है । डॉ . घुरिये ने लिखा है , ' नगर और ग्रामीण मूल्य - व्यवस्था भाग्यवादिता का अन्तर न केवल उल्लेखनीय है बल्कि पुरातन में नवीनता की ओर एक संकेत भी है । अतः ग्रामीण समाज पुराना समाज और नगरीय समाज नवीन समाज के रूप में अपने - अपने मूल्यों की संस्था है । " 


( 5 ) पंच परमेश्वर का मूल्य -

ग्रामवासियों के हेतु पंच सर्वोच्च हैं उनका पद ईश्वर के समान है । उनकी आज्ञा शिरोधार्य है । पंच परमेश्वर के पीछे उस मनोभाव का आदर्श छिपा है जो कि जनमत के महत्व को स्वीकार करता है । यदि कोई पड़ोसी निन्दा करता है या किसी व्यक्ति को पंचायत दण्ड देती है तो यह उस व्यक्ति के लिए कलंक समझा जाता है । नगरों में इसका विपरीत पाया जाता है । वहाँ जनमत को कोई महत्व नहीं देता । कौन क्या सोच रहा है , क्या कह रहा है या कर रहा है किसी से कोई मतलब नहीं । लोग किसी की आलोचना व निन्दा की चिन्ता नहीं करते । 


( 6 ) आयु से सम्बन्धित मूल्य -

ग्रामवासियों के आयु के सम्बन्ध में अपने विचार मूल्य होते हैं । यहाँ वृद्ध लोगों का आदर होता है । ये लोग आयु को सामाजिक प्रतिष्ठा को नापने का पैमाना मानते हैं । आयु के अनुसार दादा , चाचा , काका , बाबा इत्यादि सम्बोधनों का प्रचलन गाँव में अधिक होता है । नगरों में आयु का महत्व उतना अधिक नहीं है । कारण इसका स्पष्ट है । नगरों का आकार बड़ा होता है , रहने वालों की संख्या अधिक होती है इसलिए सम्बन्ध कम घनिष्ठ होते हैं । यहाँ यह असम्भव नहीं है कि नेता छोटी आयु का हो फिर भी सम्मान पाता हो । 


( 7 ) धर्म , प्रथा तथा परम्परा सम्बन्धी मूल्य-

धर्म , प्रथा और परम्परा के प्रति ग्रामीण मूल्य वास्तव में उल्लेखनीय है । प्रो . सेनार्ट ( Senart ) का कहना है कि ' इसी मूल्य के कारण ग्रामीण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म , प्रथा एवं परम्परा एवं निरंकुश शासक के रूप में कार्य करती है और इसी के कारण पाप - पुण्य का विचार , स्वर्ग की अभिलाषा या नरक के प्रति आतंक ग्रामीण जीवन में स्पष्ट है । "


इस प्रकार स्पष्ट है कि ग्रामीण जीवन मुख्यतः धर्म , प्रथा तथा परम्पराओं से नियन्त्रित होता है । यह बात इस रूप में नगरीय समुदाय में देखने को नहीं मिलती है । विद्वान ममफोर्ड ने लिखा हैं , " शहर का प्रत्येक व्यक्ति नास्तिक तो नहीं फिर भी कोई भी यथार्थ रूप में धार्मिक भी नहीं है । प्रथा - परम्परा नगरों में प्रचलित है पर उनका प्रचलन बाजार में खोटे सिक्के की भाँति है। " 


( 8 ) स्त्रियों से सम्बन्धित मूल्य–

ग्रामीण समुदाय में स्त्रियों की स्थिति से सम्बन्धित मूल्य स्त्रियों के कार्यक्षेत्र को परिवार तक ही सीमित कर देता है । उनका स्थान घर की चहारदीवारी हे ओर पुण्य कत्रव्य पति की सेवा है । ' पति परमेश्वर , उनका सर्वोच्च आदर्श एवं मूल्य है । बच्चों की देख रेख , पालन - पोषण इनका उद्देश्य है । न तो घर के बाहर जाने की आवश्यकता है और न ही शिक्षा प्राप्त करने की । '


ग्रामीण मूल्य व्यवस्था के अनुसार स्त्रियाँ अबला हैं , बचपन में उन्हें माँ - बाप का संरक्षण , युवावस्था में पति का और वृद्धावस्था में पुत्र का संरक्षण आवश्यक है । डॉ . मजूमदार के अनुसार, " स्त्रियों के प्रति इस ग्रामीण मूल्य में उन्हें समस्त अधिकारों से वंचित किया है और उनका जीवन पर्दों की आड़ में ही बीतता गया है । " इसके विपरीत नगरीय समाज में इस सम्बन्ध में पृथक मूल्य हैं । यहाँ स्त्रियों को उच्च स्थिति प्रदान की जाती है । उनका क्षेत्र घर की चहारदीवारी तक ही सीमित नहीं रहता । वे शिक्षित भी होती जा रही है|


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