Rural Leadership: ग्रामीण नेतृत्व का अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं

ग्रामीण नेतृत्व की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए तथा इसकी प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए ।

ग्रामीण नेतृत्व का अर्थ ( Meaning of Rural Leadership )

ग्रामीण शक्ति संरचना में नेतृत्व का महत्वपूर्ण स्थान है। वर्तमान जटिल समाज में हमारी सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से नेतृत्व पर ही आधारित है। चिताम्बर का कथन है , “ प्रत्येक समाज की शक्ति संरचना के अन्तर्गत कुछ व्यक्ति इतने शक्तिशाली तथा सूझ - बूझ वाले होते हैं जो दूसरों को प्रोत्साहन, प्रेरणा तथा मार्ग दर्शन देकर उनकी क्रियाओं को प्रभावित करते हैं । इसी विशेषता को हम नेतृत्व कहते हैं ।


जबकि ऐसे व्यक्तियों को नेता, शक्ति धारक, शक्ति - सम्पन्न मानव, शक्ति केन्द्र अथवा ' शक्तिशाली अभिजन ' कह सकते हैं । " इसका तात्पर्य है कि जिन व्यक्तियों में एक विशेष समूह अथवा समुदाय की समस्याओं को समझने और उनका समाधान करने की अधिक क्षमता होती है , वे स्वाभाविक रूप से एक छोटे अथवा बड़े क्षेत्र का नेतृत्व करने लगते हैं । इसी दृष्टिकोण से नेतृत्व को एक सामाजिक तथ्य ( social phenomena ) कहा जाता है । यह ध्यान रखना आवश्यक है कि नेतृत्व भी एक तुलनात्मक अवधारणा ( relative concept ) है । 


नेतृत्व की अवधारणा ( Concept of leadership )

विभिन्न विद्वानों ने नेतृत्व की अवधारणा को अनेक प्रकार से स्पष्ट किया है । शाब्दिक रूप से ' नेता ' का तात्पर्य किसी भी ऐसे व्यक्ति से समझा जाता है जो मार्गदर्शक , मुखिया , किसी विषय में कुशल , आज्ञा देन वाला अथवा व्यवहार कुशल हो । 


पिगर ( Pigor ) ने नेतृत्व को परिभाषित करते हुए कहा है , " नेतृत्व व्यक्तित्व और पर्यावरण के सम्बन्धों को स्पष्ट करने वाली एक धारणा है । यह उस स्थिति की विवेचना करती है जिसमें एक व्यक्ति ने एक विशेष पर्यावरण के अन्तर्गत इस प्रकार स्थान ग्रहण कर लिया हो कि उसकी इच्छा , भावना और अन्तर्दृष्टि किसी सामान्य लक्ष्य को पाने के लिए दूसरे व्यक्तियों को अनुशासित करती है तथा उन पर नियन्त्रण रखती है । " 


लेपियर तथा फार्ल्सवर्थ ( Lapiere and Farnsworth ) के अनुसार, “ नेतृत्व वह व्यवहार है जो दूसरे लोगों के व्यवहारों को उससे कहीं अधिक प्रभावित करता है जितना कि दूसरे व्यक्तियों के व्यवहार नेता को प्रभावित करते हैं । ” इस परिभाषा के द्वारा लेपियर ने नेतृत्व को नेता और उसके अनुयायियों के बीच पाये जाने वाले सम्बन्धों के आधार पर स्पष्ट किया है । एक नेता केवल अपने अनुयायियों के व्यवहारों को प्रभावित नहीं करता बल्कि उनके व्यवहरों से स्वयं भी प्रभावित होता है . लेकिन जब नेता का प्रभाव तुलनात्मक रूप से अधिक हो जाता है तभी उसके व्यवहार को नेतृत्व के रूप में स्वीकार किया जाता है । • 


सीमेन तथा मॉरिस ( Seeman and Morris ) के शब्दों में , “ नेतृत्व का तात्पर्य एक व्यक्ति के द्वारा किये जाने वाले उन कार्यों से है जो दूसरे व्यक्तियों को एक विशेष दिशा में प्रभावित करते हैं । " इससे स्पष्ट होता है कि दूसरे व्यक्तियों के व्यवहारों को प्रभावित कर लेना ही नेतृत्व नहीं है बल्कि नेतृत्व का तात्पर्य उनके व्यवहारों को एक निश्चित अथवा इच्छित दिशा की ओर मोड़ना है ।


लगभग इसी आधार पर टीड ( Tead ) ने लिखा है, " नेतृत्व एक ऐसी क्रिया है जिसके द्वारा वांछित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए लोगों को सहयोग देने के लिए प्रभावित किया जा सके । उदाहरण के लिए , ग्राम एक सामाजिक इकई है जिसमें एक अथवा अनेक ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता होती है जो अन्य व्यक्तियों के सामने उसके लक्ष्यों का निर्धारण कर सकें तथा उनको प्राप्त करने के लिए सभी लोगों को मिल - जुलकर कार्य करने की प्रेरणा दे सकें । टीड के अनुसार प्रभाव के इसी प्रतिमान को हम नेतृत्व कह सकते हैं । 


उपर्युक्त विवेचन के आधार पर नेतृत्व की विशेषताओं को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है-


( i ) नेतृत्व एक विशेष प्रकार की क्रिया अथवा व्यवहार है जिसमें निर्देश, सुझाव , आग्रह तथा प्रभुत्व जैसे तत्वों का समावेश होता है ।


( ii ) नेतृत्व नेता तथा अनुयायियों के सम्बन्धों की एक विशेष अभिव्यक्ति है । जब एक नेता अपने अनुयायियों के व्यवहारों से प्रभावित होने की अपेक्षा उनके व्यवहारों को अधिक सीमा तक प्रभावित करता है , केवल तभी हम इस स्थिति को नेतृत्व कहते हैं । 


( iii ) नेतृत्व से सम्बन्धित प्रभाव की प्रक्रिया में दबाव का अधिक समावेश नहीं होता । यदि कुछ दबाव होता भी है तो केवल नेता के नैतिक प्रभाव का नेतृत्व को साधारणतया स्वेच्छा से ग्रहण किया जाता है । 


( iv ) नेतृत्व कभी अनियोजित नहीं होता बल्कि इसके द्वारा विचारपूर्वक अनुयायियों के व्यवहारों को एक निश्चित दिशा में मोड़ दिया जाता है । 


परम्परागत ग्रामीण नेतृत्व की विशेषताएँ 


( क ) ग्रामीण नेतृत्व में रक्त सम्बन्धों की प्रधानता -

परम्परागत रूप से ग्रामीण नेतृत्व के अन्तर्गत रक्त समूहों की स्थिरता तथा उनकी प्रधानता स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है । यह सच है कि प्रत्येक गाँव का एक मुखिया अथवा पंच अवश्य होता है लेकिन व्यक्तियों के व्यवहार उस नेता से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं जो उन्हीं के वंश अथवा स्वजन समूह का प्रतिनिधित्व करता हो । व्यावहारिक रूप से प्रत्येक ग्रामीण तथा जनजातीय क्षेत्र में सभी रक्त समूहों का अपना - अपना पृथक् मुखिया होता है तथा उसका कार्य अपने समूह के सभी सदस्यों के विवादों का निपटारा करना और उनका मार्ग निर्देशन करना होता है । 


( ख ) आनुवंशिकता का प्रभाव-

ग्रामीण नेतृत्व सदैव ही अपनी प्रकृति से आनुवंशिक रहा है । इसका तात्पर्य है किसी समूह अथवा सम्पूर्ण गाँव में जिस व्यक्ति को एक बार नेता अथवा मुखिया का पद प्राप्त हो जाता है वह साधारणतया उसी की आगामी पीढ़ियों को हस्तान्तरित होता रहता है । नेतृत्व में परिवर्तन केवल तभी होता है जब कोई नेता या तो ग्रामीणों की आकांक्षाओं को पूर्ण न करके अथवा उसमें ऐसे चरित्रगत दोष उत्पन्न हो जायें कि उसे नेता के रूप में मान्यता देना हानिकारक समझा जाने लगे । 


( ग ) नेतृत्व जातियों में विभक्त-

परम्परागत रूप से भारत के ग्रामों में जाति पंचायत का अत्यधिक प्रभाव होने के कारण प्रत्येक जाति का अपना - अपना पृथक् नेता होता था जिसका कार्य अपनी जाति के सभी सदस्यों के व्यवहारों पर नियन्त्रण रखना तथा आवश्यकतानुसार उन्हें दण्ड अथवा पुरस्कार देना था । इस दृष्टिकोण से एक जति के नेता का दूसरी जातियों के लिए कोई महत्त्व नहीं था, यद्यपि अनेक अवसरों पर विभिन्न जातियों के नेता मिलकर गाँव में सार्वजनिक जीवन से सम्बन्धित निर्णय लिया करते थे । साधारणतया विभिन्न जातियों के सभी मुखिया मिलकर एक सर्वसम्मत नेता के अधीन रहकर कार्य करते थे । सम्पूर्ण गाँव के नेता का पद भी जाति - व्यवस्था के ही आधार पर किसी उच्च जाति के व्यक्ति को प्राप्त होता था । 


( घ ) अनौपचारिक नियन्त्रण की प्रधानता-

अनौपचारिक नियन्त्रण परम्परागत ग्रामीण नेतृत्व की एक प्रमुख विशेषता है । नियन्त्रण को स्थापित करने के लिए हास्य व्यंग्य , आलोचना , तिरस्कार तथा सामाजिक बहिष्कार आदि ऐसे साधन रहे हैं जिनका ग्रामीण नेता के द्वारा व्यापक उपयोग किया जाता था । कुछ विशेष अवसरों पर गाँव के नेता को यह भी अधिकार था कि तह ग्रामीणों को शारीरिक दण्ड दे सके लेकिन यह कार्य साधारणतया जमींदारों की प्रभुता से ही सम्बद्ध था । 


( च ) नेतृत्व का सामाजिक स्वरूप-

भारत में एक लम्बे समय तक ग्रामीण जीवन मूल रूप से सामाजिक - सांस्कृतिक जीवन था , आर्थिक - राजनीतिक नहीं । इस दृष्टिकोण से ग्रामीण नेतृत्व के अन्तर्गत उन्हीं कार्यों का विशेष महत्व था जिनका सम्बन्ध प्रथाओं , कर्मकाण्डों , सामाजिक व्यवहारों तथा समाज के आदर्श नियमों के पालन से था । इस दृष्टिकोण से गाँव के नेता की प्रतिष्ठा का मूल्यांकन उसकी राजनीतिक शक्ति के आधार पर नहीं बल्कि उसकी सामाजिक - सांस्कृतिक प्रवीणता के आधार पर किया जाता था । पारस्परिकता एक प्रमुख तत्व रहा है । इसका तात्पर्य है कि गाँवों में प्रभाव एक - पक्षीय नहीं होता बल्कि सामान्य ग्रामीणों के भी बहुत बड़ी सीमा तक प्रभावित करती हैं । 


( छ ) नेतृत्व में पारस्परिकता –

बाउन ने यह स्पष्ट किया है कि भारत के ग्रामीण नेतृत्व में नेता का अपने अनुयायियों पर विचार तथा भावनाएँ नेता के व्यवहार पर इसका तात्पर्य है कि गाँव में नेता तथा अनुयायी एक समन्वित इकाई है । दूसरे शब्दों में , अनुयायियों को निकाल कर नेता तथा नेतृत्व की कल्पना नहीं की जा सकती है । 


( ज ) नेतृत्व में प्रतिष्ठा की प्रधानता-

परम्परागत ग्रामीण नेतृत्व में प्रतिष्ठा का तत्व अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा है । इस प्रतिष्ठा के निर्धारण में व्यक्ति की नैतिकता , कार्य - कुशलता , दूरदर्शिता तथा सेवा की भावना का विशेष महत्व रहा है । अपनी इसी नैतिक शक्ति के आधार पर नेता ग्रामीणों को किस विशेष प्रकार के आचरण करने को बाध्य करता है । ग्रामीण नेता अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखना सबसे अधिक अनिवार्य समझता है और इस दृष्टिकोण से वह कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहता है सार्वजनिक आकांक्षाओं के प्रतिकूल हो । 


( झ ) नेतृत्व में सर्वांगीणता —

ग्रामीण नेतृत्व का स्वरूप नगरों के समान विशेषीकृत नहीं होता । यहाँ नेता अपने गाँव के लिए वे सभी कार्य करता है जिनकी ग्रामीणों को आवश्यकता होती है । उदाहरण के लिए , विभिन्न योजनाएँ बनाना , नीतियों का निर्धारण करना , विवाह तथा उत्सवों के समय आवश्यक प्रबन्ध करना , विशेषज्ञ के रूप में कार्य करना , सदस्यों के व्यवहारों पर नियन्त्रण लगाना , पंच एवं मध्यस्थ के रूप में कार्य करना तथा किसी विशेष अवसर पर सम्पूर्ण गाँव का प्रतिनिधित्व करना नेता के विभिन्न कार्य हैं ।


यही कारण है कि ग्रामीण जीवन में नेता एक सत्ताधिकारी नहीं होता बल्कि समूह का आदर्श होता है । भारत में ग्रामीण नेतृत्व की उपर्युक्त विशेषताओं से स्पष्ट होता है कि यहाँ नेतृत्व का स्वरूप व्यापक रूप से अनौपचारिक ही रहा है । यह अनौपचारिक नेतृत्व न केवल ग्रामीण संरचना के अनुकूल था बल्कि ग्रामीण समस्याओं के समाधान तथा विभिन्न जाति - समूहों की एकता के लिए भी इसने रचनात्मक योगदान दिया ।


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