Sanskritization: ग्रामीण जाति संरचना पर संस्कृतिकरण का प्रभाव

ग्रामीण जाति संरचना पर संस्कृतिकरण के प्रभाव को दर्शाइए ।

ग्रामीण जाति-व्यवस्था में परिवर्तन की प्रक्रिया को प्रो० श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण की अवधारणा की सहायता से स्पष्ट किया है । परम्परागत ग्रामीण समुदाय में जातीय आधार पर एक ऐसा संस्तरण पाया जाता था जिसमें अनेक प्रकार के निषेधों द्वारा प्रत्येक जाति अपने आचरणों अथवा व्यवहार प्रतिमानों में एक - दूसरे से पृथक थी तथा किसी भी जाति को दूसरी जाति की जीवन शैली का अनुकरण करने की अनुमति प्राप्त नहीं थी।


ग्रामीण जाति संरचना पर संस्कृतिकरण का प्रभाव

संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के माध्यम से प्रो ० श्रीनिवास ने यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया कि जातिगत कठोरता के होते हुए भी जाति - व्यवस्था के अन्तर्गत परिवर्तन की प्रक्रिया सदैव विद्यमान रही है । संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के रूप में निम्न जातियाँ सदैव अपने से उच्च जातियों के व्यवहार - प्रतिमानों अथवा उनकी जीवन - शैली का अनुकरण करती रही हैं ।


जिस क्षेत्र में जो प्रभु जाति होती है उसी को श्रेष्ठ मानकर अन्य जातियाँ उसका अनुकरण करने लगती हैं । इस प्रकार अनुकरण का प्रतिमान केवल ब्राह्मण जातियाँ ही नहीं होतीं बल्कि क्षत्रिय एवं वैश्य जातियाँ भी होती हैं । इस प्रक्रिया के अन्तर्गत निम्न जातियों के व्यक्ति अपने नामों, वेश - भूषा, व्रत - त्यौहारों, कर्मकाण्डों तथा शिष्टता के तरीकों में उच्च जातियों की दिशा में परिवर्तन करने लगती हैं जिसके फलस्वरूप जातिगत पृथक्ता तथा निषेधात्मक कट्टरता में कमी होने लगती है ।


संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत स्थानीय प्रभु जाति को आदर्श मानकर यदि कोई निम्न जाति उसकी जीवन शैली के अनुरूप अपनी जीवन - शैली में परिवर्तन करना आरम्भ करती है तो कभी - कभी गाँवों में इसके कारण निम्न जातियों को अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । जातीय श्रेष्ठता, सामाजिक पृथकता पर ही आधारित होती है, इस कारण प्रभु जातियाँ निम्न जातियों द्वारा किये जाने वाले अनुकरण को अक्सर सहन नहीं करतीं और इस कारण उन्हें ऐसा करने से रोकती हैं । इसके पश्चात् भी प्रभु जातियों द्वारा निम्न जातियों पर लगाये गये प्रतिबन्धों की यह प्रक्रिया लम्बे समय तक नहीं चल पाती और कुछ समय पश्चात् निम्न जातियाँ अपनी स्थिति में कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य कर लेती हैं ।


उदाहरण के लिए, सन् 1936 में पूर्वी उत्तर प्रदेश के सोनपुर गाँव में नोनियों ( एक निम्न जाति ) ने जब सामूहिक रूप से जनेऊ पहनना आरम्भ किया तो जमींदारों ने न केवल उनके जनेऊ तोड़ कर फेंक दिये वरन् उनकी पिटाई भी कर दी परन्तु कुछ वर्ष बाद जब नोनियों ने पुनः जनेऊ धारण करना आरम्भ किया तो जमींदारों द्वारा उनका कोई विरोध नहीं किया गया


इससे स्पष्ट होता है कि उच्च जातियाँ अथवा प्रभु जातियाँ दूरी को बनाये रखने के लिए आरम्भ में निम्न जातियों पर कुछ प्रतिबन्ध अवश्य लगाती हैं लेकिन कुछ समय पश्चात् यह प्रतिबन्ध ढीले पढ़ने लगते हैं और फलस्वरूप ग्रामीण जाति - संरचना में परिवर्तन के तत्व स्पष्ट होने लगते हैं । भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् सभी निम्न जातियों को संवैधानिक संरक्षण मिल जाने के कारण उन्हें उच्च जातियों की जीवन - शैली का अनुकरण करने के पर्याप्त अवसर प्राप्त हो गये हैं ।


आज कोई भी जाति किसी भी जाति को आदर्श प्रतिमान मानकर अपनी जीवन शैली को उसी के अनुसार परिवर्तित कर सकती है । इसके पश्चात् भी ग्रामीण जीवन में यह तथ्य विशेष महत्वपूर्ण है ।संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में यदि कोई निम्न जाति उच्च जाति को आदर्श मानकर अपनी जीवन शैली में परिवर्तन करती है और कुछ समय पश्चात् उच्च जाति के समान ही स्थिति प्राप्त कर लेने का दावा करने लगती है तो उसके लिए स्थानीय समाज की स्वीकृति मिलना भी आवश्यक होता है ।


ग्रामीण समाज आज भी अपनी प्रकृति से परम्परागत तथा रूढ़िवादी होने के कारण किसी भी जाति समूह की स्थिति में होने वाले ऐसे परिवर्तन को साधारणतया मान्यता प्रदान नहीं करता । इसके फलस्वरूप गाँव की निम्न जातियाँ अपने व्यवहार प्रतिमानों में उच्च जातियों के अनुरूप परिवर्तन करने के पश्चात् भी अपनी जातीय स्थिति को जब तक ऊँचा नहीं उठा पाती जब तक वे अपने मूल स्थान को छोड़कर किसी अन्य स्थान में जाकर न बस जायें ।


भारत के ग्रामों में संस्कृतिकरण की प्रक्रिया ने परम्परागत जाति संरचना में कुछ लाभकारी परिवर्तन उत्पन्न करने के पश्चात् भी अनेक नवीन सामाजिक समस्याओं को जन्म दिया है । इसका तात्पर्य हैं कि इस प्रक्रिया ने कुछ समूहों को अपनी स्थिति में सुधार करने का प्रोत्साहन अवश्य दिया लेकिन इसके फलस्वरूप रूढ़िवादित में पहले से भी अधिक वृद्धि हो गई । इसका कारण यह है कि प्रत्येक निम्न जाति उच्च जातियों के रूढ़िवादी कर्मकाण्डों और परम्परागत आचरणों का अनुकरण करके अपने को अधिक से अधिक पवित्र दिखाने का प्रयत्न करने लगीं ।


इसके फलस्वरूप खान पान , प्रायश्चित से सम्बन्धित अन्ध - विश्वासों , बाल - विवाह , दहेज प्रथा तथा स्त्रियों के सीमित अधिकार जैसी समस्याएँ जो पहले उच्च जातियों तक ही सीमित थीं , उनका प्रसार निम्न जातियों में भी हो गया । वर्तमान युग में संस्कृतिकरण की प्रक्रिया ने ग्रामीण जीवन को दो रूपों में अधिक प्रभावित किया है । एक ओर निम्न जातियों के व्यक्तियों में गाँवों से नगरों में आकर स्वयं को उच्च जाति का सदस्य घोषित करना और इस प्रकार उच्च जातियों से निकटता बढ़ाने की प्रवृत्ति में वृद्धि होना है तो दूसरी ओर देहातों के नवयुवकों द्वारा शहरी जीवन पद्धति को अपनाकर अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाने की मनोवृत्ति को विकसित करना है ।


इन दोनों ही दशाओं से विभिन्न जातियों के बीच पारस्परिक निकटता अवश्य बढ़ी है लेकिन इससे ग्रामीण जीवन की विशेषताओं में ह्रास की समस्या भी उत्पन्न ग्रामीण जाति - संरचना के सन्दर्भ में संस्कृतिकरण का प्रभाव अन्य रूप में भी स्पष्ट हुआ है । जब प्रत्येक जाति - समूह ने अपने से उच्च जातियों के व्यवहारों का अनुकरण करना आरम्भ कर दिया तो सभी द्विज जातियों के कर्मकाण्डों तथा व्यवहार प्रतिमानों के बीच की भिन्नता काफी कम होने लगी । उनके व्यवहारों में आज पहले की अपेक्षा कहीं अधिक समानता परिलक्षित होती है ।


निम्न जातियों ने भी उच्च जातियों के व्यवहारों का अनुकरण करना आरम्भ किया लेकिन उच्च जातियों में उनकी सामाजिक पृथकता आज भी इसलिए बनी हुई है कि द्विज जातियों ने निम्न जातियों को अनुकरण की स्वीकृति प्रदान नहीं की। इसके पश्चात् भी वास्तविकता यह है कि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत आज केवल निम्न जातियों ने ही उच्च जातियों के व्यवहार प्रतिमानों का अनुकरण नहीं किया है बल्कि उच्च जातियाँ भी असंस्कृतिकरण के रूप में निम्न जातियों की जीवन शैली की अनेक विशेषताओं को ग्रहण कर रही हैं ।


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