ग्रामीण भारत में धर्म / ग्रामीण भारत में धर्म की भूमिका - Religion in Rural India in Hindi
ग्रामीण भारत में धर्म
किसी भी सरल और परम्परागत समाज में धर्म व्यक्ति के विचारों और व्यवहारों को प्रभावित करने वाला सबसे प्रभावपूर्ण आधार होता है । यह सच है कि धर्म के पास न तो सरकार के समान कोई स्पष्ट शक्ति होती है और न ही आर्थिक संस्थाओं के समान यह व्यक्ति को कोई निश्चित आर्थिक लाभ प्रदान कर सकता है लेकिन फिर भी ग्रामीण जीवन में धर्म का महत्व सर्वव्यापी और शाश्वत है ।
धर्म व्यक्ति की किसी भौतिक आवश्यकता को पूरा नहीं करता लेकिन ग्रामीण जीवन में व्याप्त विपत्तियों , निराशाओं तथा कुण्ठाओं से व्यक्ति की रक्षा करने में धर्म ने निश्चय ही योगदान किया है । इस दृष्टिकोण से वैयक्तिक तथा सामाजिक क्षेत्र में ग्रामीण धर्म की भूमिका को निम्नांकित , रूप से समझा जा सकता है
( क ) सामाजिक नियन्त्रण का शक्तिशाली माध्यम-
सम्पूर्ण ग्रामीण समुदाय में धर्म सामाजिक नियन्त्रण का सबसे प्रभावपूर्ण साधन रहा है । वर्तमान युग में प्रशासनिक तन्त्र का अत्यधिक विस्तार हो जाने के पश्चात् भी केवल कानूनों और पुलिस के द्वारा ही ग्रामीण जीवन में शान्ति और सुव्यवस्था की स्थापना नहीं की जा सकती । ऐसी स्थिति में धार्मिक विश्वास एकमात्र आधार है जो ग्रामीणों को आत्म - नियन्त्रण की प्रेरणा देकर उनके व्यवहारों को व्यवस्थित बनाता है ।
धर्म के सान्निध्य में जब कोई व्यक्ति असामाजिक अथवा अनैतिक कार्य करता है तो वह स्वयं को पापी समझने लगता है । अचेतन रूप से उसके मन में यह विश्वास बैठ जाता है कि एक आधिदैविक शक्ति उससे अप्रसन्न है जो उसे इसी जीवन में अथवा आगामी जीवन में उसके कृत्य का दण्ड देगी। प्रत्येक स्थान पर यह भावना व्यक्ति को अपराध और दुराचरण करने से रोकती हैं कि एक अलौकिक शक्ति प्रत्येक स्थान पर विद्यमान है तथा ' स्वर्ग के न्यायालय ' में प्रत्येक व्यक्ति को अपने कार्यों का अच्छा या बुरा परिणाम अवश्य मिलेगा।
( ख ) व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक -
धार्मिक विश्वास ही व्यक्ति में ऐसे गुणों को विकसित करते हैं जिनके द्वारा एक संगठित व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है । ग्रामीण जीवन में विपत्ति , अभाव और निराशाएँ व्यक्ति के जीवन को मानसिक रूप से पूर्णतया विघटित कर सकती हैं लेकिन ग्रामीण धर्म अपने विश्वासों के द्वारा ग्रामीणों को सांसारिक निराशाओं से बचाता है और प्रत्येक स्थिति में उन्हें सन्तुष्ट रखने का प्रयत्न करता है ।
अपने धार्मिक विश्वास की सहायता से ग्रामीण अतिवृष्टि , सूखे और महामारी की स्थिति में भी जीवन से निराश नहीं होते । बल्कि इन सभी दशाओं को ' ईश्वर की इच्छा ' समझ कर दुगुने उत्साह से अपने लक्ष्यों को पूरा करने में पुनः लग जाते हैं । ग्रामीण धर्म से सम्बन्धित सभी आयोजन, उत्सव, संस्कार और अनुष्ठान ग्रामीणों के विचारों और व्यवहारों की समाज की प्रत्याशाओं के अनुरूप बनाये रखते हैं । यह स्थिति भी व्यक्तित्व के समन्वित विकास में सहायक सिद्ध हुई है ।
( ग ) विचारों एवं व्यवहारों पर प्रभाव -
यद्यपि सभी समाजों में पारलौकिक विश्वास व्यक्तियों के विचारों और व्यवहारों को सबसे अधिक प्रभावित करते हैं लेकिन ग्रामीण जीवन में इनकी भूमिका अन्य किसी भी संस्था की अपेक्षा कहीं अधिक है । गाँवों में प्रत्येक व्यक्ति जन्म , मृत्यु , सुख - दुःख , सफलता - असफलता , निराशा अथवा उत्साह आदि सभी परिस्थितियों को एक अलौकिक शक्ति की प्रसन्नता अथवा अप्रसन्नता के परिणाम के रूप में ही देखता है । इसके फलस्वरूप न केवल नैतिक विचारों को प्रोत्साहन मिलता है बल्कि सामाजिक सहभाग में भी वृद्धि होती है ।
( घ ) भावात्मक सुरक्षा में सहायक
ग्रामीण जीवन में व्यक्तियों को भावात्मक सुरक्षा प्रदान करने के क्षेत्र में धर्म ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । गाँवों में व्यक्ति अपने जीवन में अनेक प्रकार की अनिश्चितताओं , असुरक्षा तथा अभावों का अनुभव करता रहता है । उसका जीवन इस अर्थ में निश्चित है कि वह केवल दूसरों को ही अनेक प्रकार के दुःखों तथा मृत्यु के शिकंजे में नहीं । देखता बल्कि यह विपत्तियाँ किसी भी क्षण उसके सामने भी आ सकती हैं ।
व्यक्ति का जीवन असुरक्षित है क्योंकि वह अधिकांश प्राकृतिक विपत्तियों को अपने वश में नहीं कर सकता । ग्रामीणों के जीवन में सुविधाओं के अभाव की समस्याएँ भी उनके जीवन की एक प्रमुख असुरक्षा है । इन सभी परिस्थितियों में धर्म ही एकमात्र ऐसी संस्था है जो व्यक्ति को प्रत्येक स्थिति में अनुकूलन करने में सहायता देती है ।
( च ) धर्म लोकाचारों को सुदृढ़ बनाता है -
ग्रामीण जीवन उन अनेक लोकाचारों में व्यतीत होता है जिनका सम्बन्ध समूह-कल्याण में समझा जाता है । धर्म का एक प्रमुख कार्य ग्रामीणों के लिए इन लोकाचारों की अनिवार्यता को स्पष्ट करना और उनके प्रभाव को स्थायी बनाये रखना है । वास्तव में लोकाचारों को ही सामाजिक और नैतिक मूल्य भी कहा जाता है ।
गाँवों में धार्मिक नियम और सामाजिक मूल्य एक-दूसरे से इतने मिले-जुले हैं कि उन्हें एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। मैरिल का कथन है, " लोकाचारों का कार्य सामाजिक कल्याण में वृद्धि करना होता है लेकिन इन लोकाचारों की स्वीकृति धर्म के द्वारा ही दी जाती है। " वास्तव में धर्म अनेक सामान्य मूल्यों का निर्माण करता है, उनके रूप को स्पष्ट करता है, प्रतीकों के रूप में उन्हें स्थायी बनाता है । और अन्त में उन्हें सम्पूर्ण समाज में लागू करता है ।
( छ ) सामाजिक एकीकरण में सहायक
ग्रामीण धर्म का एक प्रमुख कार्य ग्रामीण समुदाय में विभिन्न प्रकार के तनावों तथा संघर्षों को कम करना एवं एकीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देता है । इसके लिए धर्म व्यवहार के समान तरीकों को प्रोत्साहन देकर विभिन्न समूहों तथा व्यक्तियों के विचारों में समानता की भावना उत्पन्न करता है ।
धर्म सदैव सामाजिक कल्याण से सम्बन्धित होता है , व्यक्तिगत स्वार्थों को पूरा करने से नहीं । वास्तव में जब कभी भी व्यक्तिगत स्वार्थों और समूह - कल्याण के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है तब धर्म समूह कल्याण को ही महत्वपूर्ण स्थान देकर सामाजिक एकीकरण में वृद्धि करता है ।
( ज ) सामाजिक परिवर्तन पर नियन्त्रण
सामाजिक परिवर्तन समाज को सदैव विघटित ही नहीं करता बल्कि इसके अनेक लाभ भी हैं । इसके पश्चात् भी ग्रामीण सामाजिक दशाओं में परिवर्तन को उपयोगी नहीं समझा जाता । विभिन्न अध्ययनों से यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रत्येक जीवन परिवर्तन ने ग्रामीण समाज के समक्ष अनेक नवीन समस्याएँ उत्पन्न की हैं । धर्म इस आशंका से ग्रामीण समुदाय की रक्षा करता है ।
( झ ) स्वस्थ मनोरंजन का आधार -
ग्रामीण जीवन में धर्म इसलिए भी एक महत्वपूर्ण संस्था है यह ग्रामीणों को स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करके उन्हें भावनात्मक सुरक्षा प्रदान करता है । यह कार्य धर्म के द्वारा अनेक उत्सवों , पौराणिक गाथाओं , कर्मकाण्डों और संस्कारों के माध्यम से किया जाता है । वास्तविकता यह है कि धर्म के अन्तर्गत इतने अधिक उत्सवों , अनुष्ठानों और संस्कारों का विकास केवल इसलिए हुआ जिससे मनुष्य की विनोदी प्रवृत्ति और उसकी सामूहिकता की प्रवृत्ति को संरक्षण मिलता रहे ।
थॉमस ओडिया ( Thomas O'Dea ) ने लिखा है, " धर्म व्यक्ति का अपने समूह से एकीकरण कराता है , अनिश्चितता की स्थिति में उसकी सहायता करता है , निराशा के क्षणों में उसे ढाँढस बँधाता है , सामाजिक लक्ष्यों के प्रति व्यक्ति को जागरूकता बनाता है, आत्मबल में वृद्धि करता है और सभी को एक - दूसरे के समीप आने की प्रेरणा देता है । " भारत के ग्रामीण जीवन के सन्दर्भ में धर्म ने इन सभी क्रियाओं के द्वारा हमारे समाज को संगठित करने में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । सम्भवतः यही कारण है कि ग्रामीण मन्दिर आज भी गाँव की संरचना का केन्द्र बिन्दु बना हुआ है ।
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