आदिम ( जनजातीय ) समाज में नारी की स्थिति का वर्णन कीजिए ।
आदिम समाजों में स्त्रियों की प्रस्थिति आदिम समाजों में स्त्रियों की प्रस्थिति के बारे में एक लम्बे समय तक मतभेद बना रहा । इस सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के विचार परस्पर बहुत विरोधी रहे हैं । कुछ विद्वान यह मानते हैं कि सभ्य समाजों की तुलना में जनजातीय समाजों में स्त्रियों की स्थिति को साधारणतया बहुत निम्न और पिछड़ी हुई मानते हैं । सभी समाजों को समान जनजातीय समाजों में भी सिद्धान्त और व्यवहार के बीच एक बड़ा अन्तर देखने को मिलता है ।
इस दृष्टिकोण से मैलीनॉवस्की ने लिखा है कि आदिम समाज में स्त्रियों की प्रस्थिति का मूल्यांकन करने का सही तरीका यह है कि एक ओर हम यह देखें कि स्त्रियों और पुरुषों को पुरुषों की निरंकुशता से बचाने के लिए कौन - कौन से संस्थागत उपाय किए जाते हैं । इसी बात को लोबी ने और अधिक स्पष्ट करते हुए उन चार आधार का उल्लेख किया है , जिनकी सहायता से एक विशेष समाज में स्त्रियों की प्रस्थिति का मूल्यांकन किया जा सकता है । यह आधार है
( 1 ) स्त्रियों के प्रति पुरुषों का वास्तविक व्यवहार ।
( 2 ) समाज में स्त्री की कानूनी और प्रथागत प्रस्थिति ।
( 3 ) स्त्रियों को प्राप्त होने वाले सामाजिक सहभागिता के अवसर ।
( 4 ) स्त्रियों द्वारा किए जाने वाले कार्यों की प्रकृति और उनका विस्तार ।
कुछ विद्वानों का विचार है कि जनजातीय स्त्रियों की प्रस्थिति का सही मूल्यांकन उत्तराधिकार तथा आवास की प्रकृति के आधार पर ही किया जा सकता है । इस दृष्टिकोण से एक सामान्य निष्कर्ष यह दे दिया जाता है कि मातृसत्तात्मक समाजों में स्त्रियों की प्रस्थिति ऊँची होती है , जबकि उन जनजातियों में स्त्रियों की प्रस्थिति नीची है , जहाँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था पायी जाती है ।
ऐसे निष्कर्ष की वास्तविकता समझने के लिए यह आवश्यक है कि मातृसत्तात्मक तथा पितृसत्तात्मक आदिम समाजों में स्त्रियों की प्रस्थिति को समझा जाय । मातृसत्तात्मक व्यवस्था का विशुद्ध रूप यद्यपि आज संसार के किसी भी भाग में उपलब्ध नहीं है लेकिन खासी तथा गारो जनजाति में प्रचलित मातृसत्तात्मक व्यवस्था इस संरचना के काफी निकट है ।
इस स्थिति का मूल्यांकन किया जा सकता सकता है । खासी जनजाति मातृस्थानीय तथा मातृवंशीय है । यहाँ विवाह के पश्चात् पति को अपनी पत्नी के घर जाकर रहना पड़ता है तथा वंश का नाम भी किसी महिला पूर्वज से ही सम्बन्धित होता है । यहाँ तक कि इस जनजाति के अधिकांश देवता भी स्त्री - लिंगीय ही हैं । सम्पत्ति का उत्तराधिकार माँ से केवल उसकी पुत्री को ही प्राप्त होता है । पुरुष यदि स्वतंत्र रूप से कोई आजीविका उपार्जित करता है तो विवाह से पूर्व उस पर माँ का और विवाह के बाद पत्नी का अधिकार होता है ।
त्यौहारों एवं धार्मिक उत्सवों का आयोजन स्त्रियों द्वारा किया जाता तथा जिन पूर्वज आत्माओं की पूजा की जाती है वे भी मुख्यतः स्त्रियाँ होती हैं । खाइरिंग प्रदेश खी पुरोहित और वास्तविक मुखिया भी स्त्री ही होती है । इन तथ्यों से खासी स्त्री की प्रस्थिति को वास्तविक मुखिया भी स्त्री ही होती है । इन तथ्यों से खासी स्त्री की प्रस्थिति को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है ।
इसके बाद भी यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि खासी जनजाति में पुरुषों पर स्त्रियों का पूरा नियन्त्रण नहीं होता । खासी पत्नियाँ जिस शब्द से अपने पति को सम्बोधित करती हैं , उसका अर्थ ' स्वामी ' होता है । विवाह के क्षेत्र में स्त्रियों को निश्चित रूप से काफी स्वतंत्रता मिली हुई है , लेकिन विवाह के सम्बन्ध को तोड़ने वाले किसी भी पक्ष को दूसरे के लिए हर्जाना देना आवश्यक होता है ।
इस जनजाति में जब स्त्रियाँ यौनिक क्षेत्र में काफी स्वच्छन्द हैं , तो स्वाभाविक है कि पुरुषों को भी अतिरिक्त वैवाहिक यौन सम्बन्ध स्थापित करने की छूट अवश्य मिल जाती होगी । गारो मातृसत्तात्मक व्यवस्था से प्रभावित दूसरी महत्त्वपूर्ण जनजाति है । इस जनजाति में भी सभी लोग अपने को एक ही स्वी - पूर्वज का वंशज मानते हैं तथा बच्चों का मां के द्वारा उत्तराधिकार प्राप्त होता है । सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था इस तरह की है कि परिवार द्वारा इस बार पत्नी की सम्पत्ति का पूरा उपयोग कर सकता है ।
विभिन्न अपराधों और मुख्यतः व्यभिचार के लिए प्राप्त की गई सम्पत्ति फिर कभी भी उस परिवार के बाहर न जा सके । पति अपने जीवनकाल में पुरुषों को कठोर दण्ड दिया जाता है , लेकिन स्त्रियों के लिए ऐसे अपराधों पर सामान्य दण्ड दे का प्रचलन है । इसके पश्चात् भी गारो जनजाति में व्यवहारिक रूप से स्त्रियों का नहीं। यहाँ पुरुष को एक से अधिक स्त्रियों से भी विवाह कर लेने की अनुमति मिल जाते है तथा पत्नी के लिए कोई वधू - मूल्य चुकाने का प्रचलन नहीं है ।
विधवाओं को एक लम्बे तक पुनर्विवाह की अनुमति नहीं मिलती । यदि विधवा के मृत पति का भतीजा उससे विवाह करने का इच्छुक हो, तो वह ऐसे विवाह से इन्कार नहीं कर सकती । इन्कार करने की दशा में उसे इसके लिए हर्जाना देना पड़ता है । इन दोनों उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि मातृसत्तात्मक आदिश समाजों में स्त्रियों की प्रस्थिति ऊँची अवश्य है लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि यहाँ पुरुषों का जीवन पूर्णतया उनके अधीन है । इसके पश्चात् भी यह निष्कर्ष अवश्य दिया जा सकता है, कि वंश - परम्परा एवं उत्तराधिकार स्त्रियों के पक्ष में होने से उनकी सामाजिक स्थिति तुलनात्मक रूप से कुछ उच्च अवश्य हो जाती है ।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अन्तर्गत साधारणतया यह समझा जाता है कि आवास , वंश परम्परा तथा उत्तराधिकार पुरुषों के पक्ष में होने के कारण यहाँ स्त्रियों की प्रस्थिति पूर्णतया पुरुषों के अधीन होती होगी । लेकिन जनजातीय समाजों के सन्दर्भ में ऐसे निष्कर्ष बहुत भ्रमपूर्ण हैं ।
उदाहरण के लिए, गोंड , खस ( Khas ) तथा नागा जनजातियाँ पितृसत्तात्मक हैं लेकिन इनके बाद भी यहाँ स्त्रियाँ पूर्णतया पुरुषों के अधीन नहीं हैं । यह सच है कि गोंड स्त्रियों को अपने पति के साथ एक श्रमिक की तरह काम करना पड़ता है लेकिन पति का चयन करने , विवाह से पूर्व यौतिक सम्बन्ध रखने तथा पति से तलाक लेने में उन्हें बहुत अधिक स्वतन्त्रता मिली हुई है ।
खस जनजाति में एक स्त्री के अनेक पति आपस में भाई - भाई होने के कारण स्त्री को विवाह के पश्चात् अपने पतियों के निवास स्थान पर जाकर रहना आवश्यक होता है । यहाँ उसे विशेष अधिकार और स्वच्छन्दता प्राप्त नहीं हो पाती लेकिन वही स्त्री जब अपने माता - पिता के घर जाती है तो उसे अतिरिक्त वैवाहिक यौन सम्बन्धों की पूरी छूट मिल जाती है । नागा जनजाति पूर्णतया पितृसत्तात्मक है लेकिन विभिन्न नागा जनजातियों में स्त्रियों की प्रस्थित एक - दूसरे से है ।
उदाहरण के लिए, सेमा नागाओं में स्त्रियों की सामाजिक स्थितियों तथा आगामी नागा स्त्रियों बहुत भित्र से अच्छी होती है लेकिन सम्पत्ति पर स्वामित्व और यौन स्वतंत्रता की दृष्टि से ओ तथा अंगामी नागा स्त्रियों को अधिक अधिकार मिले हुए हैं ।
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