ग्रामीण भारत में परंपरागत शक्ति संरचना की प्रमुख विशेषताएं - Salient Features of Traditional Power Structure in Rural India.
परम्परागत ग्रामीण भारत में शक्ति - संरचना के तीन आधार प्रमुख थे— जमींदारी प्रथा, गाँव पंचायत एवं जाति पंचायत। इन्हीं आधारों को ग्रामीण शक्ति - संरचना के वास्तविक स्रोत कहा जा सकता है। इस शक्ति - संरचना में एक ओर जमींदार ग्रामीणों के भौतिक व आर्थिक हितों एवं आकांक्षाओं के प्रतिनिधि थे तो दूसरी ओर गाँव पंचायतों तथा जाति पंचायतों के माध्यम से ग्रामीण राजनीति के स्वरूप का निर्धारण होता था ।
इस दृष्टिकोण से ग्रामीण शक्ति संरचना की परम्परागत प्रकृति को इन्हीं तीन आधारों अथवा स्रोतों की सहायता से समझा जा सकता है ।
( क ) जमींदारी प्रथा के अन्तर्गत शक्ति - संरचना ( Zamindari System and Power Structure ) -
जमींदारी प्रथा एवं ग्रामीण शक्ति संरचना के बीच अन्तर सम्बन्धों की व्यवस्था मुख्यतः सम्पत्ति तथा भूमि अधिकार पर निर्भर थी भारत में जमींदारी प्रथा के पूर्व भू - स्वामित्व का स्वरूप क्या था , इस बारे में विद्वान एकमत नहीं है । इस सन्दर्भ में हेनरी सेन ( H. Maine ) का विचार है कि प्राचीन भारत में पितृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था के अन्तर्गत भूमि पर परिवार के सभी सदस्यों का सामूहिक अधिकार रहता था । परिवार का मुखिया ( कर्ता ) अन्य सभी सदस्यों के साथ मिलकर कृषि कार्य करता था ।
वेडेन पावेल ने भू - स्वामित्व को प्रजातीय सन्दर्भ में स्पष्ट करते हुए बताया कि भारत में विभिन्न प्रजातीय समूहों के आगमन के साथ ही भू - स्वामित्व के अधिकारों में भी परिवर्तन होता रहा । आर्यों के आने से पूर्व भारत में रैयतवारी प्रथा प्रचलित थी जबकि आर्यों ने भूमि पर भू - स्वामित्व की संयुक्त प्रथा प्रारम्भ की जिसे ' संयुक्त ग्रामीण काश्तकारी ' ( Joint Village Tenure ) कहा जाता है ।
भू - स्वामित्व के आधार पर उत्तर प्रदेश के सम्पूर्ण पूर्वी भाग में दो प्रकार के गाँव देखने को मिलते हैं - ताल्लुकेदारी प्रथा वाले गाँव तथा संयुक्त जमींदारी प्रथा वाले गाँव जिन गाँवों में ताल्लुकेदारी प्रथा विद्यमान थी वहाँ गाँव की सम्पूर्ण भूमि पर ताल्लुकेदारी का अधिकार था तथा गाँव के अन्य लोग उस ताल्लुकेदार की रैयत ' कहलाते थे । उन्हें केवल ताल्लुकेदार की भूमि पर कृषि करने का अधिकार था, भूमि पर उनका कोई स्वामित्व नहीं था ।
दूसरी ओर जिन गाँवों में संयुक्त जमींदारी प्रथा का प्रचलन था वहाँ शक्ति संरचना का स्वरूप भी भिन्न था । इसका कारण यह था कि इस प्रथा के अन्तर्गत सम्पूर्ण भू - स्वामित्व अनेक ' थोकों ' में विभाजित था । एक थोक में एक से अधिक नम्बरदार होते थे जो शक्ति की स्वतन्त्र इकाई के रूप में कार्य करते थे ।
( ख ) गाँव पंचायत-
गाँव पंचायत ग्रामीण शक्ति संरचना का वह दूसरा प्रमुख स्रोत है । जिसने गाँवों में शक्ति के आधार पर अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों को एक विशेष रूप प्रदान किया । सम्पूर्ण भारत में यद्यपि गाँव पंचायतों का संगठन समान प्रकृति का नहीं था लेकिन तो भी पंचायतें ही इस तथ्य का निर्धारण करती थीं कि गाँव में विभिन्न व्यक्तियों के अधिकार क्या होंगे और कौन व्यक्ति पंचायत का सदस्य हो सकता है ।
गाँव पंचायत के अधिकार ही इस समय ग्रमीण शक्ति संरचना के वास्तविक आधार थे । इनका कार्य न केवल गाँव के कानून और व्यवस्था को बनाये रखना तथा विभिन्न शिकायतों को सुनना था बल्कि गाँव के विभिन्न जातिगत समूहों के पारस्परिक सम्बन्धों का निर्धारण करना भी गाँव पंचायत का ही कार्य था । यह सच है कि ग्रामीण शक्ति संरचना में इन पंचायतों का स्थान सर्वोपरि था लेकिन व्यावहारिक रूप से पंचायत की शक्ति विभिन्न थोकों के भू - स्वामियों अथवा ताल्लुकेदारों में निहित रहती थी ।
( ग ) जाति पंचायत -
जाति पंचायत परम्परागत ग्रामीण शक्ति संरचना का बहुत आरम्भिक काल से ही एक महत्वपूर्ण स्रोत रही है । जाति पंचायत वह शक्तिशाली इकाई थी जो एक विशेष क्षेत्र के अन्तर्गत अपनी जाति के सदस्यों के व्यवहारों का निर्धारण करती थी तथा अपने द्वारा निर्धारित नियमों की अवहेलना करने वाले व्यक्तियों को दण्ड देती थी । इस दृष्टिकोण से जाति पंचायत में विधायिका और न्यायिक अधिकारों का समावेश राज्य के समान ही देखने को मिलता है ।
भारत में प्रत्येक जाति की अपनी - अपनी जाति पंचायतें थीं तथा प्रत्येक जाति पंचायत का उद्देश्य सदस्यों के जीवन को अनुशासित करना था । परम्परागत रूप से जाति - पंचायत का भी एक मुखिया तथा कुछ सामान्य सदस्य होते थे और सामान्य सदस्यों का कार्य किसी भी निर्णय में मुखिया को सहयोग देना होता था । साधारणतया जाति पंचायत के मुखिया का पद आनुवंशिक था । मुखिया ही एक जाति विशेष की सम्पूर्ण शक्ति निहित रहती थी ।
जमींदारी प्रथा का उन्मूलन होने के पश्चात् जाति पंचायतों का न्यायिक स्वरूप दुर्बल पड़ने लगा लेकिन राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र में जाति पंचायत फिर भी शक्ति की प्रमुख स्रोत बनी रही । वर्तमान युग में चुनाव के अवसरों पर इन जाति पंचायतों का वर्चस्व आज भी देखने को मिलता है तथा मताधिकार के लिए जाति - समूह के निर्णय भी बड़ी सीमा तक अपनी जाति पंचायत के द्वारा ही प्रभावित होते हैं ।
उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट होता है कि परम्परागत ग्रामीण शक्ति - संरचना का निर्माण कुछ सीमित लोगों से ही होता रहा था । यद्यपि गाँव पंचायतों के माध्यम से शक्ति के विकेन्द्रीकरण का प्रयास अवश्य किया गया लेकिन स्वतन्त्रता के पूर्व तक गाँव पंचायतें व्यावहारिक रूप से जमींदारों की हित -साधना का ही माध्यम थीं तथा उनमें स्वतन्त्र रूप से कोई निर्णय लेने की क्षमता नहीं थी । जाति पंचायत के मुखिया भी जमींदार की इच्छाओं की अवहेलना नहीं कर पाते थे ।
ग्रामीण शक्ति - संरचना के इस परम्परागत स्वरूप से सम्बन्धित प्रमुख विशेषताओं को संक्षेप में निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है -
( i ) ग्रामीण शक्ति संरचना जिन व्यक्तियों अथवा समूहों से सम्बद्ध थी , उनकी शक्ति का स्वरूप मुख्यतः आनुवंशिक था । इस शक्ति का संचरण केवल जमींदार से उसके पुत्र को ही नहीं होता था । बल्कि गाँव पंचायत तथा जाति पंचायत के मुखिया का पद भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से आनुवंशिक ही था ।
( ii ) यह शक्ति संरचना निरंकुशता की विशेषता से युक्त थी । इसका तात्पर्य है कि जिस व्यक्ति को भी अपने समूह में एक विशेष प्रस्थिति प्राप्त होती थी वह उसका प्रयोग बिना किसी बाधा के स्वतन्त्रतापूर्वक अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए करता था । इस प्रकार शक्ति संरचना में समूह - कल्याण का अधिक महत्व नहीं था ।
( iii ) परम्परागत ग्रामीण शक्ति संरचना में जाति संस्तरण का प्रभाव स्पष्ट रूप से विद्यमान रहा है । साधारणतया निम्न जाति के लोगों को शक्ति - संरचना में कभी भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हो सका । जमींदारों तथा गाँव पंचायतों में निहित शक्ति का उपयोग भी जाति के व्यक्तियों का संरक्षण करने के लिए ही किया जाता था ।
( iv ) वैयक्तिक शक्ति के निर्धारण में भी भू - स्वामित्व तथा परिवार की प्रतिष्ठा का विशेष स्थान था । इसका तात्पर्य है कि छोटे जमींदारों की अपेक्षा बड़े जमींदारों की शक्ति अधिक थी जबकि गाँव पंचायत का मुखिया भी साधारणतया बड़ी भूमि का स्वामी ही होता था । जाति - पंचायत का मुखिया भी वही व्यक्ति बनता था जो बड़ी भूमि का स्वामी होने के साथ ही किसी प्रतिष्ठित परिवार से सम्बद्ध हो ।
( v ) शक्ति - संरचना का स्वरूप मुख्यतः स्थानीय था । प्रत्येक गाँव शक्ति की एक पृथक् इकाई के रूप में ही कार्य करता था तथा जमींदार , गाँव - पंचायत अथवा जाति पंचायत की शक्ति भी एक स्थानीय क्षेत्र से ही सम्बद्ध थी ।
( vi ) ग्रामीण शक्ति - संरचना एक लम्बी अवधि तक सामाजिक संरचना का भी आधार रही । जिस व्यक्ति अथवा समूह में गाँव की शक्ति निहित थी उसी के निर्देशों के आधार पर जातिगत , व्यावसायिक तथा धार्मिक व्यवहारों का निर्धारण किया जाता था ।
( vii ) अन्त में, परम्परागत ग्रामीण शक्ति संरचना के अन्तर्गत सत्ता का तत्व प्रभाव की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण था । इसका अभिप्राय है कि व्यक्ति की शक्ति उसके प्रदत्त अधिकारों से सम्बद्ध थी यद्यपि नैतिक, चारित्रिक अथवा सामाजिक आधार पर शक्ति रखने वाले व्यक्ति का ग्रामीणों पर कोई आन्तरिक प्रभाव नहीं होता था। यही कारण है कि भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् जैसे ही शक्ति सम्पन्न लोगों की वैधानिक एवं प्रथागत सत्ता समाप्त हुई, सामान्य ग्रामीणों पर उनका प्रभाव बहुत तेजी से समाप्त होने लगा ।
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