स्वतन्त्र भारत में ग्रामीण समाज में नेतृत्व के उभरते प्रतिमानों की विवेचना करें ।
भारत के ग्रामीण नेतृत्व के बदलते प्रतिमानों की विवेचना-
भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् ग्रामीण नेतृत्व के परम्परागत स्वरूप में महत्वपूर्ण परिवर्तन उत्पन्न हुए हैं । स्वतन्त्रता के पश्चात् एक धर्म निरपेक्ष, समतावादी और लोकतान्त्रिक समाज की स्थापना के लिए ग्रामीण विकास को सर्व प्रमुख आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया गया।
इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ग्रामों में न केवल नवीन विकास योजनाएँ आरम्भ की गई बल्कि, सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक जीवन में ग्रामीणों के सहभाग को भी अनिवार्य समझा जाने लगा। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया के प्रभाव से ग्रामीण नेतृत्व के अन्तर्गत अनेक ऐसे प्रतिमान विकसित हुए जिनका परम्परागत ग्रामीण नेतृत्व में पूर्ण अभाव था । नेतृत्व के इन नवोदित प्रतिमानों को समझ के उपरान्त ही ग्रामीण शक्ति-संरचना से सम्बद्ध इस महत्वपूर्ण पक्ष की प्रकृति को अधिक अच्छा तरह समझा जा सकता है।
( क ) प्रजातांत्रिक नेतृत्व का प्रादुर्भाव-
ग्रामों में आज एक नये प्रजातान्त्रिक नेतृत्व का विकास हुआ है जिसमें व्यक्ति की आनुवंशिक स्थिति , भू - स्वामित्व तथा जातिगत सदस्यता का विशेष महत्व नहीं है । गाँव का नेतृत्व अब उन व्यक्तियों में केन्द्रित है जो सामान्य ग्रामीणों निर्वाचित होते हैं अथवा जिन्हें बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है ।
एक विशेष तथ्य यह है कि इस प्रजातान्त्रिक नेतृत्व में नेता तथा उसके अनुयायियों की शक्ति अथवा प्रतिष्ठा में कोई स्पष्ट विभेद नहीं नहीं होता। इसका तात्पर्य है कि ग्रामीण नेता अन्य व्यक्तियों को अपने व्यवहारों से प्रभावित करने के साथ ही स्वंय ग्रामीणों की आकांक्षाओं से भी प्रभावित होता है । गाँव में नेतृत्व का स्वरूप अब अधिक लौकिक और धर्म - निरपेक्ष है ।
( ख ) शिक्षा का महत्व-
कुछ समय पूर्व तक ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक निरक्षरता होने के कारण नेतृत्व में भी शिक्षा का कोई महत्व नहीं था । वर्तमान समय में नेतृत्व के लिए शिक्षा को आवश्यक समझा जाने लगा है । इसका कारण यह है कि गाँव में आर्थिक , सामाजिक एवं राजनीतिक सम्बन्धों के क्षेत्र में विस्तार होने के फलस्वरूप उसी व्यक्ति से अच्छे नेतृत्व की आशा की जाती है जो शिक्षित हो । नये नियमों के अन्तर्गत अब राज्य की ओर से भी ऐसे निर्देश दिये जाने लगे हैं कि गाँवों में औपचारिक पदों पर कोई पढ़ा - लिखा व्यक्ति ही आसीन हो सकता है ।
( ग ) नेतृत्व में विशेषीकरण –
ग्रामीण नेतृत्व में उत्पन्न प्रमुख परिवर्तनों में से एक यह है कि आज नेता में ही गाँव की सम्पूर्ण शक्ति केन्द्रित नहीं होती बल्कि जीवन के प्रत्येक विशिष्ट पक्ष → तथा विशिष्ट कार्यों से सम्बद्ध पृथक् - पृथक् व्यक्तियों को नेता रूप से मान्यता दी जाने लगी है । वास्तव में ग्रामीण जीवन भी अब इतना विविधतापूर्ण हो गया है कि विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के नेताओं की आवश्यकता होती है ।
उदाहरण के लिए, गाँव - सभा का प्रधान, न्याय पंचायत के पंच, सहकारी समिति का अध्यक्ष, स्कूल का शिक्षक, युवक मण्डल का अध्यक्ष तथा कल्याण समितियों के पदाधिकारी आदि ऐसे नेता है जिनमें सम्पूर्ण गाँव का नेतृत्व विभाजित रूप में देखने को मिलता है ।
( घ ) युवकों का बढ़ता हुआ प्रतिनिधित्व-
ग्रामीण नेतृत्व में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि अब किसी व्यक्ति को नेता बनने के लिए अधिक आयु का होना आवश्यक नहीं है । कुछ समय पूर्व तक ग्रामीणों का यह विश्वास था कि केवल वृद्ध और अनुभवी व्यक्ति ही नेता बन सकता है लेकिन अब अधिकांश ग्रामीणों में नेतृत्व धीरे - धीरे युवा वर्ग हाथों में आता जा रहा है । सम्भवतः इसका मुख्य कारण यह है कि कृषि से सम्बन्धित वर्तमान नवाचारों का प्रशिक्षण तथा ज्ञान प्राप्त करके जब युवा वर्ग गाँव में आता है तो वह सरलता से गाँव का सलाहकार बन जाता है और धीरे - धीरे उनका नेतृत्व ग्रहण कर लेता है ।
( च ) मध्यम वर्ग की प्रधानता-
भारतीय प्रामों में नेतृत्व का परम्परागत स्वरूप मुख्य रूप से वर्ग से सम्बद्ध था जो या तो बड़े भू - भाग का स्वामी था अथवा उसके पास धन की अतुल शक्ति थी । नवीन प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के पश्चात् आज गाँवों में एक ऐसे नेतृत्व का प्रादुर्भाव हुआ है जो मुख्यतः साधारण किसानों , पशु - पालकों एवं कारीगरों से सम्बद्ध है । मध्यम वर्ग के व्यक्तियों से सामान्य ग्रामीण जल्दी ही अपनी अनुरूपता स्थापित कर लेता है जिसके फलस्वरूप उन्हें नेतृत्व ग्रहण करने तथा किसी विशेष कार्य को करने का निर्देश देने के अधिक अवसर प्राप्त हो जाते हैं ।
( छ ) स्त्रियों एवं दुर्बल वर्गों का प्रतिनिधित्व -
सन् 1992 में विधान में 73 वाँ संशोधन करके अब यह व्यवस्था कर दी गयी है कि गाँव पंचायतों के 33 प्रतिशत सदस्य महिलायें होंगी तथा पंचायतों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों को भी अपनी जनसंख्या के प्रतिशत के अनुपात में ही स्थान दिये जायेंगे । यह एक ऐसी व्यवस्था है जिससे भविष्य में ग्रामीण शक्ति - संरचना उच्च जातियों के एकाधिकार में न रहकर दुर्बल वर्गों से सम्बद्ध होती जायेगी ।
( ज ) नेतृत्व में परिवर्तनशीलता-
परम्परागत नेतृत्व की अपेक्षा वर्तमान ग्रामीण नेतृत्व परिवर्तन की विशेषता से युक्त है । आनुवंशिकता का सिद्धान्त समाप्त हो जाने के कारण अब ग्रामीणों की आकांक्षाओं के अनुरूप ग्रामीण नेतृत्व में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है । एक समय जो व्यक्ति नेता होता है , कुछ समय बाद वही व्यक्ति गाँव वालों के आक्रोश का शिकार भी बन सकता है । इस प्रवृत्ति के फलस्वरूप अब ग्रामीण नेता केवल अधिकार सम्पन्न व्यक्ति ही नहीं होता बल्कि उसे अधिकारों की अपेक्षा ग्रामीणों के प्रति अपने कर्तव्यों के लिए अधिक जागरूक रहना पड़ता है ।
( झ ) सामूहिक नेतृत्व का विकास—
गाँवों में नेतृत्व आज एक सीमित स्तर से हटकर सामूहिक स्वरूप ग्रहण कर रहा है । इसका अभिप्राय है कि परम्परागत रूप से जहाँ प्रत्येक परिवार जाति तथा समूह के नेता पृथक् - पृथक् होते थे और उनकी स्थिति आनुवंशिक रूप से निर्धारित होती थी वहीं आज एक ऐसे नेतृत्व का प्रादुर्भाव हुआ है जिसमें सभी जातियाँ तथा परिवार मिलकर सामूहिक नेतृत्व से सम्बद्ध हो गये हैं । यह सच है कि सामूहिक नेतृत्व भी बहुधा उच्च जातियों में विभाजित है लेकिन ऐसे विभाजन की दृढ़ता अब काफी सीमा तक दुर्बल पड़ती जा रही है ।
( ट ) नेतृत्व राजनीति से सम्बद्ध -
ग्रामीण शक्ति संरचना में विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रवेश के कारण अब नेतृत्व का सामाजिक सुधार से उतना सम्बन्ध नहीं रहा है जितना कि विभिन्न राजनीतिक दलों की गतिविधियों से । वर्तमान स्थिति में अधिकांश गाँव अब भिन्न - भिन्न राजनीतिक दलों के केन्द्र ( pockets ) बन गये हैं । परम्परागत रूप से ग्रामीण नेतृत्व का किसी राजनीतिक विचारधारा से कोई सम्बन्ध नहीं था ।
गाँव के प्रभावशाली व्यक्ति जिस दल के पक्ष में होते थे उसी को सम्पूर्ण गाँव का समर्थन प्राप्त हो जाता था । इसके विपरीत आज प्रत्येक राजनीतिक दल गाँव की जातिगत संरचना को ध्यान में रखते हुए वहाँ अपनी गतिविधियों का संचालन करता है जिसके फलस्वरूप एक ही गाँव अनेक राजनीतिक दलों से सम्बद्ध विभिन्न प्रकार के नेतृत्व से सम्बद्ध हो गया है ।
( ठ ) भू-स्वामित्व, परिवार तथा जाति के प्रभाव में ह्रास -
परम्परागत रूप से ग्रामीण नेतृत्व केवल उन्हीं व्यक्तियों में केन्द्रित था जो बड़ी भूमि के स्वामी थे, प्रतिष्ठित परिवारों से सम्बद्ध थे अथवा उच्च जाति के सदस्य थे । वर्तमान युग में ग्रामीण नेतृत्व का एक ऐसा प्रतिमान विकसित हुआ है जिसमें इन आधारों का कोई महत्व नहीं है ।
जनतांत्रिक चुनाव पद्धति में नेतृत्व का निर्धारण अब किसी समूह की संख्या - शक्ति के आधार पर होने लगा है । इसी का परिणाम है कि आज ग्रामीण नेतृत्व में पिछड़ी और अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि ग्रामीण जीवन में नेतृत्व के केवल नवीन प्रतिमान ही विकसित नहीं हुए हैं बल्कि उन परिस्थितियों में भी परिवर्तन हुआ है जो नेतृत्व के एक विशेष स्वरूप का निर्धारण करते हैं ।
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