गोत्र क्या है ? अर्थ, परिभाषा, विशेषतायें और महत्व | Gotra kya hai.

गोत्र क्या है ? अर्थ, परिभाषा, विशेषतायें और महत्व

गोत्र क्या है? ( gotra kya hota hai ) गोत्र जनजातीय संगठन की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है । यह वंश समूह का ही एक विस्तृत रूप है , जो कि माता या पिता किसी एक पक्ष के रक्त सम्बन्धियों से मिलकर बनता है माता या पिता किसी के वंश के सभी रक्त सम्बन्धियों को जोड़ने पर और इस प्रकार के वंश समूह में एक ही पूर्वज की सभी सन्तान शामिल करने पर उनसे गोत्र बनता है ।


इस प्रकार कई वंश समूह मिलाकर एक गोत्र बनता है । गांत्र परिवार किसी प्रमुख पूर्वज से शुरू होता है । प्रमुख होने के कारण उस पूर्वज को उस परिवार का प्रातक या संस्थापक मान लिया जाता है और उसी के नाम से परिवार के सब वंशजों का परिचय दिया जाता है । गोत्र सदैव एक पक्षीय होता है । उसके वंशज या तो मातृवंशीय वंश समूह के होते हैं या पितृवंशीय समूह के होते हैं ।


गोत्र की परिभाषा -

मजूमदार और मदान के अनुसार एक गोत्र बहुधा कुछ वंश समूहों का योग होता है जो कि अपनी उत्पत्ति एक कल्पित पूर्वज से मानते हैं जो कि मानव, मानव के समान, पशु, पेड़ पौधा, निर्जीव वस्तु हो सकता है। इस तरह जाहिर है कि गोत्र एक पक्षीय परिवारों का वह संग्रह है जिनके सदस्य अपने को एक वास्तविक या काल्पनिक सामान्य पूर्वज के वंशज मानते हैं।


गोत्र की विशेषतायें -

गोत्र की उपरोक्त परिभाषाओं से गोत्र की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं-

( 1 ) बहिर्विवाह समूह - गोत्र एक बहिर्विवाह समूह है । चूंकि एक गोत्र के समस्त सदस्य अपने को एक सामान्य पूर्वज की सन्तान मानते हैं । इसलिए वे अपने गोत्र के किसी व्यक्ति से विवाह नहीं करते । अपने से बाहर के गोत्र में ही विवाह किया जाता है ।

( 2 ) सामान्य पूर्वज - गोत्र का संगठन एक सामान्य पूर्वज की कल्पना पर आधारित है । यह पूर्वज काल्पनिक भी हो सकता है और वास्तविक भी हो सकता है ।

( 3 ) एकपक्षीय - गोत्र की प्रकृति एक पक्षीय होती है अर्थात् एक गोत्र में या तो माता की तरफ के सभी परिवारों का संग्रह होता है या पिता की तरफ से सभी परिवार शामिल होते हैं । 


भारतीय जनजातियों में गोत्र

भारतीय जनजातियों में लगभग सब कहीं गोत्र के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं । यहाँ तक कामर , चेचू और बिरहोर जैसी पिछड़ी जातियों में भी गोत्र पाये जाते हैं । अण्डमान द्वीप समूह की जनजातियों और कड़ार तथा बेना जनजातियों में गोत्र का अभाव है।


इनके अतिरिक्त अन्य कहीं पर भी गोत्र का अभाव नहीं मिलता। आसाम के नागा लोगों में गोत्र खेल कहलाता है। इनमें रक्त सम्बन्धी अन्तर नहीं पाये जाते। गडन के खासी जनजाति में बहिर्विवाह के सम्बन्ध में कठोर नियम पाये जाते हैं । कोरवा लोग भी बहिर्विवाह गोत्रों में विभाजित हैं ।


संथाल लोगों में सौ से अधिक गोत्र पाये जाते हैं । जिनके पास पौधों , पशुओं और वस्तुओं नाम पर आधारित होते हैं । जनजाति में बहिर्विवाह गोत्र कल्ली कहलाता है और इनमें 50 से अधिक किल्लियाँ हैं । इसी तरह भील, कुर्मी , कुम्हार और भूमिज बहिर्विवाही गोत्रों में विभाजित हैं । 


गोत्र के महत्व

गोत्र के महत्त्व अथवा कार्यों को संक्षेप में निम्नवत् दर्शाया जा सकता है-

( 1 ) गोत्र के सदस्यों में परस्पर सहयोग एवं सुरक्षा की भावना बनी रहती हैं । एक ही रक्त से सम्बन्धित मानने के कारण वे परस्पर एक दूसरे की मदद करते हैं ।

( 2 ) गोत्र के सदस्यों पर नियंत्रण - गोत्र का यदि कोई सदस्य अनुचित कार्य करता है , तो इसके द्वारा उसके व्यवहार को नियंत्रित किया जाता है ।

( 3 ) धर्म एवं धार्मिक क्रियाएं - गोत्र का धर्म एवं धार्मिक क्रियाओं से घनिष्ठ सम्बन्ध हैं ।

( 4 ) बहिर्विवाह - विवाह संस्था को नियंत्रित करने के लिए बहिर्विवाह की प्रथा का पालन कराना गोत्र का कार्य है ।

( 5 ) शासन - जनजातीय समाजों में शासन सम्बन्धी कार्य चलने के लिए प्रधान होता है । अधिकतर यह गोत्र के मुखिया होते हैं ।

( 6 ) सम्पत्ति - गोत्र - संगठित समाजों में अनेक खेत या बगीचे गोत्र की सम्पत्ति हैं । इसकी व्यवस्था का कार्य गोत्र के प्रधान ही करते हैं ।

( 7 ) विधिक कार्य - जनजातीय समाजों में संगठन की रचना इस प्रकार की होती है कि गोत्र के नियमों का प्रसारण सरलता से होने लगता है । संक्षेप में कहा जा सकता है कि गोत्र द्वारा समुदाय की व्यवस्था में सहयोग मिलता है । और इसके द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों को किया जाता है ।


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