परिवार की उत्पत्ति का उद्विकासीय सिद्धान्त: मॉर्गन - Evolutionary theory of the origin of the family

परिवार की उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्तों में मार्गन द्वारा वर्णित उद्विकासीय सिद्धान्त की विवेचना कीजिए । 

मैकाईवर और पेज के अनुसार, "परिवार पर्याप्त निश्चित यौन सम्बन्ध द्वारा परिभाषित एक ऐसा समूह है जो बच्चों के जनन और लालन - पालन की व्यवस्था करता है। "इन विद्वानों की परिभाषा से यह स्पष्ट है कि परिवार नामक समूह पर्याप्त निश्चित यौन सम्बन्ध द्वारा परिभाषित होता है जिसे परिवार कहते हैं।


दूसरे शब्दों में एक परिवार का जन्म स्त्री-पुरुष के वैवाहिक सम्बन्ध से होता है जिसे हम विवाह कहते हैं । इस प्रकार समाज द्वारा मान्यता प्राप्त ढंग से यौन सम्बन्ध स्थापित करने तथा बच्चों के जन्म और पालन-पोषण की व्यवस्था करने के उद्देश्य से स्थापित समूह को परिवार कहते हैं । 


परिवार की सामान्य विशेषताएँ ( General characteristics of the family )

मैकाईवर तथा पेज ने परिवार की कुछ ऐसी सामान्य विशेषताओं का उल्लेख किया है जो प्रत्येक समाज , प्रत्येक युग और प्रत्येक परिवार में मिलती हैं , चाहे वह परिवार सभ्य समाज का हो या असभ्य समाज का । ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं --- 


( 1 ) विवाह सम्बन्ध - एक परिवार का जन्म स्त्री - पुरुष के वैवाहिक सम्बन्ध से होता है और इसके आधार पर उनमें यौन सम्बन्ध स्थापित होने के फलस्वरूप उत्पन्न सन्तान मिलकर परिवार का निर्माण होता है । 


( 2 ) विवाह का एक स्वरूप - दो या अधिक स्त्री - पुरुष में आवश्यक यौन सम्बन्ध स्थापित करने और उसे स्थिर करने की कोई न कोई संस्थात्मक व्यवस्था या तरीका प्रत्येक समाज में पाया जाता है , जिसे हम विवाह कहते हैं । 


( 3 ) वंश नाम की एक व्यवस्था- प्रत्येक परिवार में कोई न कोई वंश नाम निश्चित करने का एक नियम हुआ करता है जिसके अनुसार एक परिवार विशेष के बच्चों का उपनाम या वंश नाम निर्धारित होता है और उसके वंशजों को पहचानने में मदद मिलती है । 


( 4 ) कुछ आर्थिक व्यवस्था- प्रत्येक परिवार में कुछ न कुछ आर्थिक व्यवस्था अर्थात् जीवित रहने के लिए आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त करने का साधन होता है . जिसके द्वारा परिवार के सदस्यों और बच्चों का पालन - पोषण हो सके । 


( 5 ) एक सामान्य निवास या घर- प्रत्येक परिवार के सदस्यों के रहने के लिए एक सामान्य निवास या घर होता है ।


परिवार की विशिष्ट विशेषताएँ ( Distinctive features of family )

मैकाइवर तथा पेज ने परिवार की ऐसी विशेषताओं का उल्लेख किया है जो दूसरी समितियों में नहीं पाई जाती हैं 


( क ) सार्वभौमिकता - परिवार नामक संस्था अन्य सभी सामाजिक समितियों और संघों से भिन्न है । यह सभी समाजों में और सामाजिक विकास की सभी अवस्थाओं में पायी जाती है । 


( ख ) भावनात्मक आधार - परिवार , यौन सम्बन्ध , बच्चों के लालन - पालन की अभिलाषा , प्रेम , सहयोग , माता - पिता की संरक्षा तथा ऐसी ही अनेक भावनाओं पर आधारित होता है । 


( ग ) रचनात्मक प्रभाव- परिवार सभी व्यक्तियों का सर्वप्रथम सामाजिक पर्यावरण होता है और व्यक्ति के चरित्र निर्माण में इसका प्रभाव सबसे अधिक पड़ता है । शिशुकाल में परिवार का भी प्रभाव पड़ता है वही बाद में व्यक्तित्व के आधारों पर निश्चित करता है । 


( घ ) निश्चित आकार - परिवार का आकार सीमित होता है । किसी भी परिवार के सदस्यों की संख्या दो - चार सौ नहीं होती । इसका कारण यह है कि परिवार के सदस्यों के बीच सम्बन्धों का आधार रक्त सम्बन्ध होता है । 


( ङ ) सामाजिक ढाँचे में केन्द्रीय स्थिति - परिवार सभी संगठनों का केन्द्र है । प्रायः सभी समाजों में समाज का आकार परिवार की इकाइयों से बना होता है । कोई भी समाज परिवार के बिना स्थिर नहीं रह सकता । 


( च ) सदस्यों का उत्तरदायित्व- परिवार अपने सदस्यों पर अनेक उत्तरदायित्व लादता है और उनसे बहुत कुछ आशा करता है । परिवार के सदस्य एक दूसरे के सुख और समृद्धि के लिए समस्त सुखों को बलिदान करने में नहीं हिचकिचाते । 


( छ ) सामाजिक नियम - परिवार पर समाज की प्रखर दृष्टि होती है और सामाजिक प्रथाएँ , सामाजिक निषेध और कानून परिवार की रक्षा करते हैं । विशेष विवाह अधिनियम , 1954 के अनुसार जो नियम हैं उसी पर हिन्दू परिवार निर्मित होता।


( ज ) परिवार की स्थायी और अस्थायी प्रकृति- एक समिति के रूप में परिवार स्थायी और परिवर्तनशील होता है क्योंकि मृत्यु , कारावास , त्याग या तलाक से यह भंग हो सकता है किन्तु संस्था के रूप में परिवार सदा बना रहता है ।


परिवार की उत्पत्ति का उद्विकासीय सिद्धान्त ( Evolutionary theory of the origin of the family )

परिवार की उत्पत्ति में इस सिद्धान्त को वेकोद्दन ने प्रस्तुत किया और ल्यूइस मार्गन ने एक सुनिश्चित रूप दिया । श्री ल्यूइस मार्गन ने परिवार के उद्विकास में निम्नलिखित पाँच स्तरों का उल्लेख किया है । इन अवस्थाओं में गुजरता हुआ परिवार अपनी वर्तमान स्थिति पर पहुँचा है । 


( 1 ) रक्त सम्बन्धी परिवार - ये मानव जीवन के प्रारम्भिक काल में पाये जाते थे जिनमें कि यौन सम्बन्ध स्थापित करने के विषय में कोई प्रतिबन्ध न था तथा बिना किसी प्रतिबन्ध के विवाह होते थे । 


( 2 ) समूह परिवार — यह परिवार के उद्विकास में दूसरी अवस्था है इस अवस्था में एक परिवार के सब भाइयों का विवाह दूसरे परिवार की सब बहिनों के साथ हुआ करता था जिसमें प्रत्येक पुरुष सभी स्त्रियों का पति होता था तथा प्रत्येक पत्नी प्रत्येक पुरुष की पत्नी होती थी । इस अवस्था में ऐसा भी होता था कि बहुत से पुरुषों का संयुक्त विवाह बहुत - सी स्त्रियों के साथ हो । पर ये आवश्यक नहीं था कि वे पुरुष आपस में भाई - भाई या रिश्तेदार हों या वे स्त्रियाँ आपस में बहिनें या रिश्तेदार हों । परन्तु अधिकतर या व्यावहारिक रूप से वे भाई या बहिनें ही होते थे । कुछ भी हो इस अवस्था में परिवार अत्यधिक अनिश्चित और अनियन्त्रित था । 


( 3 ) सिडेस्मियन परिवार - यह उद्विकास की तीसरी अवस्था है । इस प्रकार के परिवार में एक पुरुष का एक ही स्त्री के साथ विवाह होता था । पर उसी परिवार में ब्याही हुई स्त्रियों के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करने की स्वतन्त्रता प्रत्येक पुरुष को रहती थी 


( 4 ) पितृसत्तात्मक परिवार — यह परिवार की उद्विकास की चौथी अवस्था है । ऐसे परिवारों में पुरुष का ही एकाधिपत्य था तथा परिवार की सम्पत्ति पर उसका एकाधिकार होता था । इसमें बहुपत्नी विवाह की प्रथा का भी उल्लेख मिलता है । 


( 5 ) एक विवाही परिवार - यह परिवार के विकास की अन्तिम और आधुनिक अवस्था है । इसमें एक पुरुष का एक ही स्त्री के साथ विवाह होता है । इसमें पुरुष की सत्ता या परिवार में स्त्री का आधिपत्य समान रूप से हुआ करता है । वर्तमान सभ्य समाज में इसी प्रकार के विवाहों का प्रचलन है ।


इस सिद्धान्त को आलोचनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो इसमें अनेक कमियाँ हैं , क्योंकि इस सिद्धान्त के द्वारा यह मान लेना कि प्रत्येक समाज में परिवार की उत्पत्ति एक ही तरह से हुई , उचित नहीं प्रतीत होता । वास्तव में यह कल्पना मात्र है । इसे वास्तविक तथ्यों के आधार पर प्रमाणित नहीं किया जा सकता । संसार के प्रत्येक समाजों की भौगोलिक , सामाजिक या सांस्कृतिक परिस्थितियाँ अलग - अलग हैं । इस कारण प्रत्येक समाज में परिवार की उत्पत्ति एक ही ढंग से कैसे हो सकती है ?


इस सिद्धान्त की व्याख्या हमें नहीं मिलती है । श्री रीवर्स ने यह सत्य ही लिखा है कि कामाचार की अवस्था प्रथम अवस्था है । इस धारणा के मुख्य समर्थक श्री मार्गन ने अपना सिद्धान्त जिन आधारों पर बनाया वे सब निरर्थक सिद्ध हो चुके हैं । इस समय न तो हम किसी ऐसी जनजाति का नाम जानते हैं जिसमें कामाचार की अवस्था पाई जाती है और न ही आज हमारे पास इस कल्पना का ही निश्चित प्रमाण है कि भूतकाल में कभी कामाचार की सामान्य अवस्था प्रचलित थी । इसलिए अब इस सिद्धान्त को अधिकांश प्रमुख विद्वान स्वीकार नहीं करते ।


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