संस्कृतिकरण से आप क्या समझते हैं? - What is Sanskritisation?

संस्कृतिकरण से आप क्या समझते हैं? संस्कृतिकरण के सहायक कारकों की व्याख्या कीजिए।( What do you understand by Sanskritisation? )

संस्कृतिकरण की प्रक्रिया भारत के लिए नवीन नहीं है । यह किसी न किसी रूप में अति प्राचीन काल से भारतीय समाज को प्रभावित करती रही है । संस्कृतिकरण की अवधारणा को कुछ विद्वान इसलिए एक नवीन प्रक्रिया मानते हैं कि पिछले 25-30 वर्षों में इसके प्रभाव में अत्यधिक वृद्धि हो जाने के कारण यह समाजशास्त्रीय अध्ययन का एक प्रमुख विषय बन गई ।


इस अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम प्रो ० एम 0 एन 0 श्रीनिवास ने दक्षिण भारत के कुर्ग क्षेत्र में परम्परागत सामाजिक संरचना में उत्पन्न सामाजिक गतिशीलता का विवेचन करने के लिए किया । परम्परागत समाज में ब्राह्मणों को कर्मकाण्डीय स्तर पर श्रेष्ठ तथा हिन्दू धर्म और पौराणिक संस्कृति का रक्षक माना जाता था । इस दृष्टिकोण से कर्मकाण्डीय स्तर पर ब्राह्मण जीवन - शैली को अब्राह्मण जातियों की जीवन - शैली से श्रेष्ठ समझा जाने लगा ।


फलस्वरूप जब निम्न जाति के लोगों द्वारा ब्राह्मणों के व्यवहारों का अनुकरण किया जाने लगा तब प्रो ० श्री निवास ने आरम्भ में इस स्थिति को ' ब्राह्मणीकरण ' के नाम से सम्बोधित किया । लेकिन बाद में अनेक अध्ययनों से प्राप्त तथ्यों के आधार पर इसी अवधारणा का संशोधित रूप में ' संस्कृतिकरण ' के नाम से विकास होने लगा ।


अनेक ग्रामीण समाजशास्त्रियों ने अपने अध्ययन के आधार पर यह तथ्य प्रस्तुत किया कि किसी क्षेत्र में निम्न जातियाँ ब्राह्मणों के व्यवहार प्रतिमानों का अनुकरण करती हैं लेकिन अनेक दूसरे क्षेत्रों में यह अनुकरण ब्राह्मणों के व्यवहारों का न होकर किसी भी अन्य उच्च जाति के व्यवहारों का हो सकता है ।


इस दृष्टिकोण से ब्राह्मणीकरण शब्द न केवल अनुपयुक्त है बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन को भी इस आधार पर स्पष्ट नहीं किया जा सकता । इसी कारण डॉ ० श्रीनिवास ने भी बाद में ब्राह्मणीकरण के स्थान पर संस्कृतिकरण शब्द का प्रयोग करना आरम्भ कर दिया ।


सांस्कृतिकरण की परिभाषा देते हुए प्रो 0 श्रीनिवास ने लिखा है , " संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई निम्न हिन्दू जाति अथवा कोई जनजाति अथवा अन्य समूह किसी उच्च और प्रायः द्विज जाति की दिशा में अपने रीति - रिवाज , कर्म - काण्डों , विचारधारा और जीवन पद्धति को बदलने लगती है ।


" साधारणतया इस प्रकार के व्यवहार प्रतिमानों में परिवर्तन करने के बाद एक निम्न जाति सम्पूर्ण जातीय संस्तरण में पहले की अपेक्षा उच्च स्थान का दावा करने लगती है। डा. वी.आर. ने संस्कृतिकरण की परिभाषा देते हुए लिखा है कि, " यह ( संस्कृतिकरण ) एक उपकरण है , जिसके द्वारा हम उस प्रक्रिया को मालूम कर सकते हैं जिसमें निम्न जातियाँ एवं जनजातिया अपने व्यवहार तथा जीवन के तरीके हिन्दू समाज के उच्च वर्गों के अनुसार बदलती मिल्टन सिंगर ने इस बात की ओर ध्यान दिला है कि " संस्कृतिकरण के एक या दो नहीं बल्कि चार या कम-से-कम तीन आदर्श अवश्य मौजूद है ।


प्रो० श्रीनिवास का विचार है कि कुछ विद्वान संस्कृतिकरण का तात्पर्य केवल नई प्रथाओं एवं आदतों को ग्रहण करने तक ही सीमित रखना चाहते हैं लेकिन यह दृष्टिकोण अत्यधिक संकुचित है । क्योंकि संस्कृतिकरण का तात्पर्य मूल रूप से उन कर्मकाण्डों अथवा व्यवहार प्रतिमानों का अनुकरण करने से है जो सांस्कृतिक रूप किसी उच्च समूह की वृहत् परम्पराओं से सम्बद्ध होते हैं ।


इस दृष्टिकोण से उच्च जाति के किसी व्यक्ति अथवा समूह के सभी व्यवहारों का अनुकरण करना संस्कृतिकरण नहीं होता । प्रो ० श्रीनिवास का विचार है कि संस्कृतिकरण एक ऐसी स्थिति है जो जातीय गतिशीलता का स्रोत है तथा संस्कृतिकरण द्वारा उत्पन्न यह गतिशीलता उदग्र ( vertical ) प्रकृति की होती है । 


संस्कृतिकरण के स्त्रोत, कारक या सहायक दशाएँ


श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देने वाले कुछ स्रोतों या कारकों का उल्लेख किया है । वे निम्नलिखित हैं -


1. बड़े नगर , मंदिर तथा तीर्थस्थान ये संस्कृतिकरण के अन्य स्रोत रहे हैं । ऐसे स्थानों पर एकत्रित जनसमुदाय में सांस्कृतिक विचारों तथा विश्वासों के प्रसार हेतु उचित अवसर उपलब्ध होते रहे हैं । भजन मण्डलियों , हरि कथा तथा पुराने व नये संन्यासियों ने संस्कृतिकरण के प्रसार में विशेष रूप से योग दिया है । बड़े नगरों में प्रशिक्षित पुजारियों , संस्कृत स्कूलों व महाविद्यालयों , छापेखाने तथा धार्मिक संगठनों ने इस प्रक्रिया में सहायता पहुँचायी है । 


2. राजनीतिक व्यवस्था इस व्यवस्था में विशेषतः नीचे के स्तरों पर अनिश्चितता पायी जाती है । ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि क्षत्रिय वर्ण एक ऐसा वर्णन रहा है जिसमें सभी किस्म के समूह सम्मिलित होते रहे हैं । इस सम्बन्ध में एक प्रमुख आवश्यकता यही रही है कि ऐसे समूह के पास राजनीतिक शक्ति होनी चाहिए ।


यही पर परिस्थिति है जिसमें संस्कृतिकरण का विशेष रूप से महत्त्व था । जो भी व्यक्ति राजा या राज्य के प्रधान के रूप में स्थिति प्राप्त करने में सफल हो सका , उसके लिए क्षत्रिय बनना आवश्यक था , चाहे जन्म से उसकी जाति कोई भी क्यों न हो । चारण या भाट जाति ऐसे राजा के क्षत्रिय बनने में सहायक होती थी ।


यह उनका सम्बन्ध किसी क्षत्रिय वंशावली से जोड़ देती थी । ऐसे राजा को अपने जीवन का तरीका परम्परागत क्षत्रियों के समान बदलना पड़ता था । इन्हीं के समान धार्मिक अनुष्ठान भी करने पड़ते थे । ऐसा करने के लिए उसे ब्राह्मणों का समर्थन प्राप्त करना पड़ता था । राजा या शासक और उसकी जाति संस्कृतिकरण के प्रभावशाली स्त्रोत रहे जो अन्य जातियों के लिए सांस्कृतिक जीवन पद्धति का एक विशिष्ट प्रतिमान प्रस्तुत करते हैं । 


3. संचार तथा यातायात के साधन - संचार तथा यातायात के साधनों ने संस्कृतिकरण को देश के विभिन्न भागों तथा विविध समूहों में फैलने में योग दिया है । संस्कृतिकरण के परिणामस्वरूप निम्न जातीय समूहों ने उच्च जातियों की जीवन पद्धति और सांस्कृतिक विचारों एवं विश्वासों को अपनाया अवश्य है , साथ ही इसके परिणामस्वरूप परम्परागत संस्कृति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन भी आये हैं ।


निम्न जातीय समूहों और उच्च जातियों में सांस्कृतिक आदान - प्रदान भी हुआ है । लघु व दीर्घ परम्पराओं को आपस में एक - दूसरे से घुलने - मिलने का अवसर मिला है । फलस्वरूप एक ऐसी सरलीकृत तथा एकरूप संस्कृति का विकास हो सका है जो अशिक्षित लोगों की आवश्यकताओं के अनुरूप भी है । धरातल पर कुछ 


4. शिक्षा - निम्न जातियों में शिक्षा का प्रचार होने पर भी शिक्षित व्यक्तियों में उच्च जातियों की जीवन - शैली को अपनाने की लालसा जाग्रत हो जाती है । 


5. सामाजिक सुधार आन्दोलन- देश के विभिन्न भागों में निम्न जातियों की स्थिति को सुधारने एवं उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा को ऊँचा उठाने के लिए अनेक सुधार आन्दोलन हुए हैं । आर्य समाज , प्रार्थना समाज और गांधी प्रयत्नों के परिणामस्वरूप निम्न जातियों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन हुआ और उन्होंने अपना संस्कृतिकरण किया । 


6. आर्थिक सुधार - देश के विभिन्न भागों में कई निम्न जातियों ने नवीन आर्थिक सुविधाओं का लाभ उठाकर अपने जीवन के तरीकों को उच्च जातियों के समान बनाने और द्विज वर्ण समूह अपने को सम्मिलित करने का प्रयत्न किया है । 


7. नवीन संविधान एवं कानून - स्वतन्त्रता के बाद देश में नवीन संविधान अपनाया गया । जिससे जाति , धर्म , रंग , लिंग , प्रजाति व जन्म के साथ किसी भी नागरिक के प्रति भेदभाव न बरतने की बात कही गयी है ।


1955 ई . में अस्पृश्यता निवारण अधिनिम ने जातीय छुआछूत को कानूनन समाप्त कर दिया और इसे दण्डनीय अपराध घोषित किया है । 1954 ई . का विशेष विवाह अधिनियम अन्तर्जातीय विवाहों की स्वीकृति देता है । इन अधिनियमों ने भी संस्कृतिकरण करने के लिए निम्न जातियों को प्रोत्साहन दिया है । 


8. नगरीकरण - भारत में औद्योगीकरण के कारण बड़े - बड़े नगरों का निर्माण हुआ है । बड़े नगरों में जातीय भेदभाव में कमी आयी है और प्रभु जाति तथा उच्च जाति का निम्न जातीयों पर नियन्त्रण भी शिथिल हुआ है । वहाँ अपनी असली जाति को छुपाकर उच्च जाति में सम्मिलित होना और नया नाम रख लेना भी सरल है । फिर नगरों में निम्न जाति द्वारा उच्च जाति के खान - पान , रहन - सहन , विश्वास , कर्मकाण्ड व जीवन शैली को अपनाने पर कोई विरोध भी नहीं करता है।


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