सार्वभौमीकरण और स्थानीयकरण से आप क्या समझते हैं ? - What do you understand by Universalization and Localization?

सार्वभौमीकरण और स्थानीयकरण से आप क्या समझते हैं ? What do you understand by Universalization and Localization?

भारत की सम्पूर्ण सांस्कृतिक संरचना का निर्माण एक - दूसरे से भिन्न ऐसे कर्मकाण्डों एवं धार्मिक विश्वासों के द्वारा हुआ है जिनका राष्ट्रीय , क्षेत्रीय एवं स्थानीय स्वरूप एक - दूसरे से अत्यधिक भिन्न हैं । ये विशेषताएँ बाह्य रूप से भिन्न होती हैं लेकिन फिर भी आन्तरिक रूप से यह परस्पर सम्बन्धित हैं ।


मैकिम मैरिएट ने उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले में किशनगढ़ी गाँव के अध्ययन के आधार पर भारतीय समाज की धार्मिक जटिलता तथा लघु और वृहत् परम्पराओं के बीच पायी जाने वाली अन्तर्क्रिया को स्थानीयकरण तथा सर्वव्यापीकरण की अवधारणा के द्वारा स्पष्ट किया है ।


स्थानीयकरण की प्रक्रिया साधारणतया अंग्रेजी के शब्द ' Parochial ' का अर्थ ' संकीर्णता ' अथवा ' देहातीकरण ' से समझा जाता है । इस अर्थ में कोई भी वह प्रक्रिया जो समूह की भावना को संकीर्ण बनाती है अथवा समूह में गांवों की स्थानीय विशेषताओं को उत्पन्न करती है , उसे हम स्थानीयकरण की प्रक्रिया कहते हैं ।


स्थानीयकरण की प्रक्रिया का उल्लेख सर्वप्रथम मॉरिस ओपलर ने किया था लेकिन बाद में मैकिम मैरिएट ने जिस रूप में इसकी विवेचना की , उसमें संकीर्णता के तत्व का समावेश न होकर स्थानीय धार्मिक विश्वासों का विशेष महत्व है । मैकिम मैरिएट का विचार है कि अनेक संस्कृतियाँ जब पुरानी पड़ जाती हैं तो उनका वृहत् परम्पराओं में परिवर्तन होने लगता है ।


साधारणतया ऐसी परम्पराओं को स्थानीय विश्वासों तथा स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तित किया जाने लगता है । इसका अर्थ है कि वृहत् परम्परा के अनेक तत्व लघु परम्परा के रूप में विकसित हो जाते हैं । इसके परिणामस्वरूप किसी भी स्थानीय परम्परा के मूल स्वरूप , उसकी उपयोगिता तथा धर्म ग्रन्थों से उसके सम्बन्धों को समझना बहुत कठिन हो जाता है ।


स्वयं एक ही गाँव के व्यक्ति भी ऐसी परम्परा की उत्पत्ति के बारे में एकमत नहीं होते । इसका परिणाम यह होता है कि वृहत् परम्परा से सम्बन्धित विभिन्न विश्वास विभिन्न स्थानों और क्षेत्रों की पृथक् सांस्कृतिक विशेषताएँ बनकर भिन्न - भिन्न रूप ग्रहण कर लेती है । इस आधार पर मैकिम मैरिएट ने लिखा है कि जब वृहत् परम्परा में गाँव की स्थानीय विशेषताओं का समावेश होने लगता है तब इस प्रक्रिया को हम स्थानीयकरण की प्रक्रिया कहते हैं ।


दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है जब स्थानीय विश्वास एक वृहत् परम्परा के प्रसार में बाधा डालकर उसके क्षेत्र को सीमित कर देते हैं तो उसे हम स्थानीयकरण की प्रक्रिया कह सकते हैं । स्थानीयकरण की प्रक्रिया को परिभाषित करते हुए मैरिएट का कथन है कि “ वृहत् परम्परा के तत्वों का नीचे की ओर बढ़ता ( अप - विकसित होना ) तथा उनका छोटी परम्परा के तत्वों से मिल जाना ही स्थानीयकरण की प्रक्रिया कहलाती है ।


" इस परिभाषा के द्वारा मैरिएट ने यह स्पष्ट किया है कि यदि वृहत् परम्पराएँ लघु परम्परा के विकास को रोकना चाहे तो अनेक छोटी और पूर्णतया काल्पनिक परम्पराएँ इन वृहत् परम्पराओं के विकास में बाधा डालकर उनके प्रभाव को कम कर देती हैं ।


इसके फलस्वरूप वृहत् परम्पराओं के अन्तर्गत अनेक छोटी स्थानीय परम्पराओं का विकास हो जाता है । यह संस्कृति का अप - विकास ( downward devolution ) अथवा ह्रासोन्मुख परिवर्तन है जिसे हम स्थानीयकरण की प्रक्रिया कहते हैं । ' मैकिम मैरिएट ने इस प्रक्रिया को पाँच प्रमुख विशेषताओं के अधार पर स्पष्ट किया है- 


1 . नीयकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी समाज की वृहत् परम्पराओं के अन्दर एक स्थान विशेष के विश्वासों और कर्मकाण्डों का समावेश होने लगता है । 


2. यह प्रक्रिया बुद्धि और विवेक को अधिक महत्व नहीं देती । इसका तात्पर्य है कि स्थानीय विश्वासों के अनुसार वृहत् परम्परा में जो परिवर्तन हो जाते हैं उन्हें तार्किक अथवा बौद्धिक आधार पर नहीं समझा जा सकता । 


3 . स्थानीयकरण की प्रक्रिया परम्पराओं को उनके मूल स्वरूप से दूर ले जाती है । इसका अर्थ है कि किसी परम्परा का प्राचीन धर्म ग्रन्थ में जिस रूप में उल्लेख होता है , स्थानीयकरण की प्रक्रिया उस मूल स्वरूप को परिवर्तित करके उस परम्परा को एक नवीन स्वरूप प्रदान कर देती है । 


4. वृहत् परम्पराएँ व्यवस्थित रूप में होती हैं लेकिन जब उनका स्थानीयकरण हो जाता है तो उनसे सम्बन्धित व्यवहारों तथा कर्म - काण्डों में कोई व्यवस्था नहीं रह जाती है । 


5. स्थानीयकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो किसी परम्परा के द्वारा सम्पूर्ण समूह की विशेषता का प्रतिनिधित्व नहीं करती । इस प्रक्रिया के अन्तर्गत एक छोटे - से समूह के विचारों , अनुभवों तथा विश्वासों को ही महत्व दिया जाता है ।


इन विशेषताओं के आधार पर मैकिम मैरिएट ने लिखा है कि " स्थानीयकरण स्थानीय विशेषताओं के प्रसार की प्रक्रिया है , यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो बुद्धिमत्ता के क्षेत्र को सीमित बनाती है , परम्पराओं को उनके मूल रूप से पृथक् कर देती है तथा किसी विशेष परम्परा को कम व्यवस्थित और कम प्रतिनिधि दृष्टिकोण से देखती है । " 


सर्वव्यापीकरण की प्रक्रिया ( process of universalization )


सर्वव्यापीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसकी प्रकृति स्थानीयकरण की प्रक्रिया से पूर्णतः विपरीत है । शाब्दिक रूप से सर्वव्यापीकरण का अर्थ किसी सांस्कृतिक विशेषता का प्रत्येक स्थान में प्रसार होना है । मैरिएट ने इस प्रक्रिया का उल्लेख एक ऐसी स्थिति के लिए किया है जिसमें स्थानीय और छोटी - छोटी परम्पराओं से एक वृहत् परम्परा का निर्माण होता है ।


किसी भी समाज के सांस्कृतिक जीवन को स्पष्ट करने के लिए सर्वव्यापीकरण की प्रक्रिया का उल्लेख सर्वप्रथम रेडफील्ड तथा सिंगर ने किया था । इसका प्रयोग बाद में मैरिएट ने वृहत् और लघु परम्पराओं के पारस्परिक सम्बन्धों को स्पष्ट करने के लिए किया । मैकिम मैरिएट के शब्दों में , " यह समझने के लिए अक्सर प्राचीन संस्कृत कर्मकाण्ड असंस्कृत ( non - sanskritized ) कर्मकाण्डों को हटाये बिना उनसे क्यों जुड़ जाते हैं , हमें उस प्रक्रिया को समझना होगा जो स्वदेशी सभ्यता से सम्बन्धित हैं ।


परिभाषा के दृष्टिकोण से स्वदेशी सभ्यता वह है जिससे सम्बद्ध वृहत् परम्पराओं की उत्पत्ति पहले से ही विद्यमान छोटी परम्पराओं के तत्वों के मिलने से होती है । बृहत परम्पराओं की उत्पत्ति की इसी प्रक्रिया को हम सर्वव्यापीकरण की प्रक्रिया कहते हैं । " इस कथन से स्पष्ट होता है कि जब स्थानीय छोटी - छोटी परम्पराओं के तत्वों के मिलने से एक बड़ी परम्परा का निर्माण होता है तथा उनका विवेचन धर्म ग्रन्थों में कर लिया जाता है तब संस्कृति के प्रसार की इस प्रक्रिया को हम सर्वव्यापीकरण कहते हैं ।


मैरिएट का कथन है कि " सर्वव्यापीकरण की प्रक्रिया का तात्पर्य वृहत् परम्परा का उन तत्वों से निर्मित होना है जो छोटी परम्पराओं में पहले से ही विद्यमान होते हैं तथा जिनमें वृहत् परम्पराएँ आच्छादित रहती हैं । " इस कथन से स्पष्ट होता है कि जिन्हें हम वृहत् परम्परा कहते हैं उनका निर्माण अपने आप स्वतन्त्र रूप से नहीं होता बल्कि बहुत - सी छोटी - छोटी परम्पराओं में जो विश्वास और कर्मकाण्ड पहले से ही विद्यमान होते हैं , उन्हें अधिक व्यवस्थित और स्पष्ट रूप दे देने से ही वृहत् परम्पराओं का धीरे - धीरे विकास होता है ।


इसी को हम सर्वव्यापीकरण की प्रक्रिया कहते हैं । वृहत् परम्परा में विद्यमान विकास के इस क्रम से स्पष्ट होता है कि इन बड़ी परम्पराओं में इतनी शक्ति नहीं होती कि वे लघु परम्पराओं को समाप्त कर सकें । व्यावहारिक रूप से लघु एवं वृहत् परम्पराएँ किसी भी समाज में साथ - साथ चलती हैं तथा व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करती हैं ।


संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि लघु परम्पराओं के तत्वों के ऊर्ध्वगामी परिवर्तनों से जिन बड़ी परम्पराओं का निर्माण होता है , उसी प्रक्रिया का नाम सर्वव्यापीकरण है । इस विवेचन के आधार पर सर्वव्यापीकरण की प्रक्रिया की कुछ विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं जिन्हें इस प्रकार समझा जा सकता है-


( i ) सर्वव्यापीकरण की प्रक्रिया का विकास छोटी और बड़ी परम्पराओं के पारस्परिक सम्बन्धों से होता है ।


( ii ) सर्वव्यापीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत लघु परम्पराओं का अस्तित्व समाप्त नहीं होता बल्कि वे अपने अस्तित्व को बनाये रखने के बाद भी अपने से भिन्न एक नई वृहत् परम्परा का निर्माण करती हैं ।


( iii ) पवित्रता के क्षेत्र में लघु और वृहत् परम्पराएँ समान रूप से महत्त्वपूर्ण बनी रहती हैं । इसका तात्पर्य है कि किसी समाज के अधिकांश व्यक्ति इन दोनों परम्पराओं में समान रूप से भाग लेते हैं और दोनों से सम्बद्ध कर्मकाण्डों को पूरा करना आवश्यक समझते हैं ।


( iv ) इस दृष्टिकोण से वृहत् परम्पराएँ बाहरी रूप से नवीन लगने के बाद भी पूर्णतया नवीन रूप होता है । नहीं होतीं बल्कि उनसे सम्बन्धित सभी विश्वास और कर्मकाण्ड किसी लघु परम्परा का ही संशोधित रूप है।


( v ) इस प्रकार सर्वव्यापीकरण स्थानीय धार्मिक विश्वासों और कर्मकाण्डों का एक विस्तार है।


स्थानीयकरण तथा सर्वव्यापीकरण में अन्तर कीजिए । ( difference between localization and ubiquity )


स्थानीयकरण तथा सर्वव्यापीकरण की प्रकृति और धार्मिक जीवन पर इन प्रक्रियाओं के प्रभावों का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि ये दोनों प्रक्रियाएं एक - दूसरे से सम्बद्ध होने के निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है पश्चात् भी एक - दूसरे से भिन्न विशेषताएँ प्रदर्शित करती हैं ।


( i ) स्थानीयकरण का तात्पर्य वृहत् परम्पराओं का नीचे की ओर विकास होना है । इसका अर्थ है कि इस प्रक्रिया में एक बड़ी परम्परा अनेक छोटी - छोटी स्थानीय परम्पराओं को जन्म देती है । सर्वव्यापीकरण का तात्पर्य छोटी - छोटी तथा स्थानीय परम्पराओं का ऊपर की ओर विकास ( upward transformation ) कहोने से है । इसका अर्थ है कि यह प्रक्रिया अनेक छोटी - छोटी परम्पराओं से एक बड़ी परम्परा के निर्माण को स्पष्ट करती है ।


( ii ) स्थानीयकरण की प्रक्रिया परम्पराओं के क्षेत्र को सीमित करती है । दूसरे शब्दों में , इस प्रक्रिया में धार्मिक जीवन से सम्बन्धित संकीर्णता का भाव निहित है । सर्वव्यापीकरण की प्रक्रिया इस अर्थ में उदार है कि यह परम्परा के प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करती है ।


( iii ) स्थानीयकरण के प्रभाव में वृद्धि होने से स्थानीय विश्वासों तथा कर्मकाण्डों की संख्या में वृद्धि होती है । सर्वव्यापीकरण की प्रक्रिया स्थानीय कर्मकाण्डों के प्रसार की विरोधी है ।


( iv ) स्थानीयकरण की प्रक्रिया किन्हीं नये विश्वासों तथा कर्मकाण्डों को जन्म नहीं देती । बल्कि यह पहले से ही प्रचलित बड़ी परम्परा के तत्वों को अनेक छोटी - छोटी परम्पराओं के रूप में विकसित कर देती है । सर्वव्यापीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत अनेक छोटी - छोटी परम्पराओं से एक ऐसी परम्परा का निर्माण होता है जिसकी विशेषताएँ मूल लघु परम्पराओं से पूर्णतया भिन्न होती हैं ।


( v ) स्थानीयकरण एक अव्यवस्थित प्रक्रिया है । इसका तात्पर्य है कि स्थानीय परम्पराओं का स्वरूप प्रत्येक क्षेत्र तथा समूह में एक - दूसरे से कुछ भिन्न देखने को मिलता है । दूसरी ओर सर्वव्यापीकरण की प्रक्रिया इस अर्थ में अधिक व्यवस्थित है कि इससे सम्बन्धित विश्वासों तथा कर्मकाण्डों का स्वरूप सभी क्षेत्रों में लगभग एक जैसा देखने को मिलता है ।


उपर्युक्त विवेचन से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि स्थानीयकरण तथा सर्वव्यापीकरण की प्रक्रियाएँ एक - दूसरे से पूर्णतया भिन्न हैं । अधिकांश क्षेत्रों में यह दोनों प्रक्रियाएँ साथ - साथ कार्य करती हैं तथा दोनों धार्मिक विश्वासों तथा कर्मकाण्डों में वृद्धि करती हैं ।


उदाहरण के लिए , स्थानीयकरण की प्रक्रिया नये - नये विश्वासों को जन्म देकर धार्मिक संकीर्णता को प्रोत्साहन देती है जबकि सर्वव्यापीकरण की प्रक्रिया धार्मिक विश्वासों को अधिक दृढ़ और व्यवस्थित बनाती है । इन दोनों प्रक्रियाओं से जिन परम्पराओं का निर्माण होता है , साधारणतया उन्हें बुद्धि और विवेक के द्वारा उपयोगी प्रमाणित नहीं किया जा सकता । इन प्रक्रियाओं का कार्य केवल मूल परम्पराओं को उनके मौलिक स्वरूप से दूर ले जाना है ।


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