भारत में कृषक असन्तोष के प्रमुख कारण क्या है? ( What are the main causes of farmer dissatisfaction in India? )
कृषक असन्तोष के सन्दर्भ में कुछ विद्वानों का विचार है कि भारत में कृषक असन्तोष जैसी कोई समस्या विद्यमान नहीं है , इसलिए इसका पृथक रूप से अध्ययन करना उपयोगी प्रतीत नहीं होता । इन लोगों का विचार है कि भारत में कृषकों से कभी भी नियोजित रूप से अपने में असन्तोष को अभिव्यक्त नहीं किया ।
वास्तव में ऐसा निष्कर्ष अत्यधिक भ्रमपूर्ण है । भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कृषक असन्तोष संगठित रूप से अभिव्यक्त न होने का अर्थ यह नहीं है कि हमारे देश में वास्तव कृषक असन्तोष जैसी कोई समस्या नहीं रही । असन्तोष को अभिव्यक्त न किये जाने के अनेक दूसरे कारण थे— सर्वप्रथम , भारतीय कृष्कों का दृष्टिकोण सदैव रूढ़िवादी रहा है तथा उनमें यह साहस कभी नहीं रहा जो औद्योगिक श्रमिकों में देखने को मिलता है ।
दूसरे , वैयक्तिक उत्पादन के कारण कृषकों की मनोवृत्ति पृथकतावादी होती है जिसके फलस्वरूप किसी स्थिति के प्रति संगठित होकर विरोध करना उनके लिए कठिन हो जाता है तीसरे , गाँवों में कृषक बहुत बड़े क्षेत्र में बिखरे हुए होते हैं जिनके फलस्वरूप उनके लिए संगठित रूप से असन्तोष अभिव्यक्त करना बहुत कम सम्भव हो पाता है ।
चौथे , गाँवों में बहुत लम्बे समय तक किसी ऐसे संगठन का अभाव रहा, जो शोषित किसानों को संगठित करके अपनी आवाज उठाने के लिए उन्हें प्रेरित कर सके । इसके अतिरिक्त ग्रामीण ऐसे क्षेत्र में रहते हैं जिन्हें सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टिकोण से पिछड़ा हुआ क्षेत्र समझा जाता है ।
ग्रामीणों का जीवन सामान्य गति से चलने वाला होता है तथा शिक्षा का अभाव होने के कारण कुछ समय पहले तक कृषक असन्तोष स्पष्ट रूप से मुखरित नहीं हो सका । वर्तमान परिस्थितियों में यह आवश्यक है कि उन प्रमुख कारणों को ज्ञात किया जाये जो गाँव मैं कृषक असन्तोष के प्रति उत्तरदायी हैं ।
ऐसे कारणों की कोई निश्चित सूची नहीं बनाई जा सकती परन्तु सुविधा के लिए इन कारणों को निम्नांकित पाँच भागों में विभाजित करके स्पष्ट किया जा सकता है :-
( 1 ) भूमि का असमान वितरण
भारत में जमींदारी उन्मूलन के पश्चात् भूमि के असमान वितरण को समाप्त करने के लिए अनेक अधिनियम पारित किये गये लेकिन उनसे कृषकों को कोई उल्लेखनीय लाभ प्राप्त नहीं हो सका । गाँव में आज ऐसे भी बहुत से भू - स्वामी हैं जिनके पास सैकड़ों एकड़ भूमि है जबकि अधिकांश कृषक ऐसे हैं जो या तो बहुत छोटी भूमि के स्वामी हैं अथवा जो पूर्णतया भूमिहीन कृषकों के रूप में है ।
इस प्रकार एक और बड़े भू - स्वामियों की स्थिति दिन प्रतिदिन सुदृढ़ बनती जा रही है जबकि सीमान्त और छोटे किसानों की स्थिति पहले से भी अधिक दयनीय हो गई है । यह सच है कि सीमान्त कृषक भूमि के स्वामी अवश्य हैं लेकिन अनार्थिक जोत के कारण वे अपनी भूमि से ही आजीविका उपार्जित करने की स्थिति में नहीं है , इसलिए उन्हें बड़े भू - स्वामियों की भूमि पर श्रम करने के लिए बाध्य होना पड़ता है ।
भूमिहीन कृषक सबसे अधिक श्रम करने के पश्चात् भी गाँव में सबसे अधिक शोषित जीवन व्यतीत कर रहे हैं । इस वर्ग के कुछ कृषक किराये अथवा अर्द्ध - बटाई पर भी खेती करते हैं परन्तु व्यावहारिक रूप से उन्हें भू - स्वामियों की दया पर आश्रित रहना पड़ता है ।
इस सन्दर्भ में बसु तथा भट्टाचार्य ने पश्चिमी बंगाल और तमिलनाडु के उदाहरण देते हुए बताया है कि यहाँ बटाईदार कृषक कुल भूमि के 25 प्रतिशत से लेकर 46 प्रतिशत तक भाग पर कृषि करते हैं लेकिन जागिरों की समाप्ति के पश्चात् भी उनकी स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है ।
आन्द्रे बिते ने अपने अध्ययन के द्वारा यह ज्ञात किया कि तंजौर जिले में एक ओर भू - स्वामियों के पास सैकड़ों एकड़ भूमि है जबकि अधिकांश ग्रामीण आज भी भूमिहीन कृषकों के रूप में कार्य कर रहे हैं । ऐसे किसानों को अपनी उपज का 70 प्रतिशत से 75 प्रतिशत तक भाग जागीरदारों को देना पड़ता है ।
इस स्थिति से गाँवों में छोटे कृषकों के शोषण तथा उनके तनावों का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है । वास्तव में यही स्थिति भारत में असन्तोष का सर्वप्रमुख कारण है ।
( 2 ) कृषकों में भाग्यवादी और स्थिति के कृषक जागरूकता-
परम्परागत भारतीय कृषक अत्याधिक रूढ़िवादी , अन्धविश्वासी , प्रति निराशावादी थे । उनकी यह धारणा थी कि उनकी सामाजिक - आर्थिक स्थिति स्वयं उनके भाग्य का परिणाम है जिसमें वे अपने प्रयासों से कोई परिवर्तन नहीं कर सकते ।
आज शिक्षा के प्रसार , नगरीयता तथा पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से इस भी अपने अधिकारों के प्रति बढ़ती जाती है , उनमें आर्थिक अब कही अधिक विषमताओं तथा धारणा में व्यापक परिवर्तन सजग हो गया है । अपनी स्थिति के प्रति हुए हैं । भारत में सामान्य कृषक कृषक में जैसे - जैसे जागरूकता असन्तोष भी बढ़ता भारत के कृषक संगठित होकर निरन्तर असंतोष व्यक्त कर रहे हैं ।
संगठित करने के लिए संघों का जाता है । आज कृपकों में जागरूकता उत्पन्न होने का ही परिणाम है कि सम्पूर्ण विभिन्न राज्यों में निर्माण भी किया जा चुका है जैसे , पंजाब में ' पंजाब कृषकों को यूनियन ' , हरियाणा में ' किसान संघर्ष समिति ' , तमिलनाडु में ' तमिल खेतिहर संघ ' तथा " खेबुत समाज ' आदि । खेती बाड़ी गुजरात में
( 3 ) कृषक ठोकारी तथा अर्द्ध - बेकारी में वृद्धि -
भारत में तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण पिछले तीन दशकों में भूमि पर जनसंख्या का दबाव बहुत अधिक बढ़ गया । कृषि श्रमिकों को पहले भी पूरे वर्ष भर काम मिलने में कठिनाई होती थी परन्तु हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप जब कृषि में स्त्रीकरण का उपयोग बढ़ा तो इससे कृषि श्रमिकों के सामने बेरोजगारी की समस्या और अधिक गम्भीर हो गई ।
कृषि में यन्त्रीकरण को प्रोत्साहन मिलने बड़े किसान स्वयं कृषि करने लगे जिसके फलस्वरूप बटाई पर कृषि करने वाले किसानों से भूमि वापस ली जाने लगी । इससे बटाई पर कृषि करने वाले लाखों कृषक बेरोजगार हो गये । इनमें से बहुत से कृषक व्यवसाय के लिए नगरीय क्षेत्रों की ओर जाने लगे । देश में जब लाखों करोड़ों कृषक इन दशाओं में अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करने में असफल रह जाते हैं तो स्वाभाविक रूप से उनका असन्तोष अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है ।
( 4 ) हरित क्रान्ति से उत्पन्न असमानता -
भारत में जब हरित क्रान्ति को एक आन्दोलन के रूप में प्रारम्भ किया गया तर्भ डॉ . वी.के.आर.बी. राव ने यह सम्भावना व्यक्त की थी कि कृषि की नवीन नीति से कृषकों में अनेक असमानताएँ उत्पन्न होगी जिसके फलस्वरूप बहुत बड़ी संख्या में कृषक परिवारों में असंतोष व्याप्त हो जायेगा ।
साथ ही यह परिवर्तन समाजवादी विचारधारा के भी विपरीत होगा । यह सम्भावना बहुत कुछ सत्य प्रमाणित हुई । हरित क्रान्ति के अन्तर्गत अधिक उपजाऊ और सम्पन्न क्षेत्रों पर अधिक ध्यान दिया गया जबकि देश की आवश्यकता यह थी कि पिछड़े हुए और अकालग्रस्त क्षेत्रों के विकास पर अधिक ध्यान दिया जाता ।
यही वह स्थिति है । जिसके फलस्वरूप ग्रामीण असमानताओं में पहले से अपेक्षा और अधिक वृद्धि हो गई तथा बहुत बड़े ग्रामीण क्षेत्र में अनेक प्रकार के सामाजिक , आर्थिक तथा राजनीतिक तनाव बढ़ने लगे । बाद में यह तनाव कृषक असंतोष के लिए उत्तरदायी सिद्ध हुए ।
एक अध्ययन के अनुसार आरम्भ में हरित क्रान्ति का लुभावन पाश कृषकों को अधिक रूचिकर था परन्तु अब इसकी आर्थिक पोल सामने आने लगी है । हरित क्रान्ति के सबसे चहेते राज्य पंजाब और हरियाणा में उभरा कृषक असन्तोष इसकी पहली झलक है ।
( 5 ) राजनीतिक कारक -
हमारे देश में कृषकों का बहुत बड़े क्षेत्र में बिखरा होना राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए सदैव एक समस्या रही है । सम्भवतया यही कारण है कि अधिकांश राजनीतिक दल सामान्य कृषक वर्ग की स्थिति को समझने तथा उनके निकट आने में अधिक रूचि नहीं ले पाते ।
इसके पश्चात् भी कृषक वर्ग का 85 प्रतिशत भाग जो अनेक समस्याओं से ग्रस्त था , कुछ विशेष राजनीतिक दलों की गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु बन गया । दो वर्षों के जनता शासन को छोड़कर भारत में कांग्रेस ही सदैव सत्ता में रही , इसलिए उसकी ओर कृषक असन्तोष को प्रोत्साहन दिये जाने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता ।
कुछ अन्य बड़े दल जिन्हें गाँव बड़े कृषकों का संरक्षण मिला हुआ था , उन्होंने केवल साम्यवादी दल ने ही कृषकों की समस्याओं को लेकर विभिन्न प्रकार के आन्दोलन आरम्भ किये । पश्चिमी बंगाल , बिहार , आन्ध्र प्रदेश एवं केरल में जो भी कृषक आन्दोलन चलाये गये उनमें प्रत्यक्ष रूप से साम्यवादी दलों का ही सहयोग रहा है ।
बंगाल में कृषक आन्दोलन के अध्ययनकर्ता पी.एन. मुखर्जी , उत्तर प्रदेश में कृषक आन्दोलन के अध्ययनकर्ता राजेन्द्रसिंह एवं तेलंगाना कृषक आन्दोलन के अध्ययनकर्ता रंगाराव ने अपने अध्ययनों के उत्तरदायी रहे हैं । वर्तमान समय में तमिलनाडु और आन्ध्र प्रदेश में चल रहे पृथक् आन्दोलन के लिए भी दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों का समर्थन प्राप्त है ।
जिस प्रकार से नक्सलवादी आन्दोलनों ने कुछ किया हो या न किया हो , सबसे बड़ा काम यह किया कि देश का ध्यान भूमि समस्या की ओर खींचा और उसके आधार पर हो रहे शोषण को उजागर किया । उसी प्रकार साम्यवादी दल ने किसान के साथ हो रहे अन्याय को समाज के सामने लाकर कृषक आन्दोलन के रूप में देश का वातावरण गर्म कर दिया है । वास्तव में ये राजनीतिक दल कृषकों की समस्याओं में रूचि अवश्य लेते हैं लेकिन साथ ही इस रूचि को अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के साधन के रूप में भी देखते हैं ।
अप्रैल 1980 में त्रिपुरा में हुए हिंसक आन्दोलन से भी कृषक असन्तोष की पुष्टि होती है । लोकसभा में गृह मन्त्री द्वारा दिये गये वक्तव्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह आन्दोलन भूमिहीन कृषकों द्वारा बड़े भू स्वामियों की भूमि पर बलपूर्वक अधिकार करने के लिए आरम्भ हुआ था और इस आन्दोलन को मार्क्सवादी दल द्वारा प्रेरणा दी गई । आज की बदली हुई परिस्थितियों में सभी राजनीतिक दल कृषक शक्ति को स्वीकार करने लगे हैं । इसी कारण पिछले एक दशक से किसानों की विशाल रैलियों का आयोजन होता रहा है ।
आरम्भ में आन्ध्र प्रदेश का जो किसान आन्दोलन साम्यवादी द्वारा चलाया जा रहा था उसे बाद में भारतीय जनता पार्टी , कांग्रेस एवं लोकदल का भी सक्रिय समर्थन प्राप्त हो गया । उत्तर भारत में चौधरी चरणसिंह ने इस शक्ति को अपना राजनीतिक आधार बनाने की दिशा में काफी काम किया था । इन सभी दशाओं से यह निष्कर्ष अवश्य निकलता है कि वर्तमान कृषक असन्तोष में राजनीतिक दलों की निश्चय ही एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
यह भी पढ़ें- साम्राज्यवाद के विकास की सहायक दशाएँ ( कारक )
यह भी पढ़ें- ऐतिहासिक भौतिकतावाद
यह भी पढ़ें- अनुकरण क्या है? - समाजीकरण में इसकी भूमिका
यह भी पढ़ें- सामाजिक नियंत्रण में कला की भूमिका
यह भी पढ़ें- फ्रायड का समाजीकरण का सिद्धांत
यह भी पढ़ें- समाजीकरण और सामाजिक नियंत्रण के बीच सम्बन्ध
यह भी पढ़ें- प्राथमिक एवं द्वितीयक समाजीकरण
यह भी पढ़ें- मीड का समाजीकरण का सिद्धांत
यह भी पढ़ें- सामाजिक अनुकरण | अनुकरण के प्रकार
यह भी पढ़ें- सामाजिक नियंत्रण में जनमत की भूमिका
यह भी पढ़ें- सामाजिक नियंत्रण के औपचारिक साधन