सांस्कृतिक संवर्धन के संरचनात्मक - प्रकार्यात्मक उपागम की विवेचना कीजिए ।
प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण प्रकार्यात्मक वह विचारधारा है जिसके अनुसार संस्कृति में एकीकरण का मुख्य कारण संस्कृति के प्रत्येक तत्व का कार्यात्मक रूप से महत्त्वपूर्ण होना है । इस विचारधारा से पहले विकासवादियों तथा प्रसारवादियों में संस्कृति के तत्वों का ऐतिहासिक अध्ययन करने पर बल दिया था । लेकिन प्रकार्यवादियों ने यह स्पष्ट किया कि संस्कृति के प्रत्येक तत्व का कोई न कोई प्रकार्य जरूर होता है तथा इन्हीं प्रकार्यों के आधार पर संस्कृति के सभी तत्व एक दूसरे से सम्बन्धित रहते हैं ।
संक्षेप में, इस दशा में हम ' संस्कृति का एकीकरण करते हैं। वास्तव में प्रकार्यवादी दृष्टिकोण को सबसे पहले दुर्खीम ने परस्तुत किया था लेकिन बाद में मौलिनावस्की तथा रैडक्लिफ ब्राउन ने इस दृष्टिकोण को बहुत व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करके इसके आधार पर संस्कृति के एकीकरण को स्पष्ट किया । मैलिनावस्की ने यह विचार प्रस्तुत किया कि संस्कृति एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक आवश्यकताओं को पूरा करता है।
वास्तविकता यह है कि मनुष्य को अपने प्राणीशास्त्रीय और सामाजिक अस्तित्व कोबनाए रखने के लिए अनेक आवश्यकताओं को पूरा करना जरूरी होता है । इन आवश्यकताओं को पूरा करने के प्रयत्न में ही वह संस्कृति के अनेक तत्वोओं को विकसित करता है । इस प्रकार यह स्वाभाविक हो जाता है कि मनुष्य द्वारा निर्मित संस्कृति का प्रत्येक तत्व एक उपयोगी प्रकार्य अवश्य करता रहे ।
दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि संस्कृति के प्रत्येक तत्व का अस्तित्व और उसकी उपयोगिता इस बात पर निर्भर करती है कि वह मानव की आवश्यकताओं को किस सीमा तक पूरा करता है ।
सामान्य रूप से मनुष्य की आवश्यकताएँ तीन प्रकार की होती हैं-
( 1 ) प्राणिशास्त्रीय आवश्यकताएँ
( 2 ) सामाजिक आवश्यकताएँ
( 3 ) मानसिक आवश्यकताएँ।
प्राणिशास्त्री आवश्यकताओं में मैलिनावस्की ने सात प्रमुख आवश्यकताओं का उल्लेख किया है । सामाजिक आवश्यकताओं के अन्तर्गत हम उन सभी आवश्यकताओं को सम्मिलित करते हैं जो तरह - तरह की संस्थाओं को विकसित करने से सम्बन्धित होती है तथा जिनका उद्देश्य व्यक्ति की आर्थिक जरूरतों को पूरा करना होता है ।
मानसिक आवश्यकताओं को सम्बन्ध उन दशाओं से है जो व्यक्ति के विचारों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को संचरित करती है तथा उसे मानसिक संतुष्टि प्रदान करती है । वास्तव में संस्कृति के सभी तत्वों को विकास मनुष्य की इस विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए होता है । उदाहरणार्थ प्राणिशास्त्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए समाज में अनेक नियमों तथा वस्तुओं का आविष्कार होता है, जबकि सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यक्ति बहुत से आदर्श नियमों, परम्पराओं, प्रथाओं तथा संस्थाओं को विकसित करता है ।
समाज में अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यक्ति ने धनुष - बाण जैसी सामान्य वस्तु से लेकर बड़ी - बड़ी मशीनों तक का आविष्कार किया है । मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भाषा, धर्म, कला तथा तरह - तरह के विश्वास विकसित हुए हैं । मनुष्य की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जितने भी तत्वों का विकास हुआ है, उन सभी को हम संस्कृति के तत्व कहते हैं ।
इनका सम्बन्ध मानव आवश्यकताओं की पूर्ति से होने के कारण इनका कोठी न कोई प्रकार्य अवश्य होता है । उदाहरणार्थ एक विशेष प्रकार का उत्पादन करने के लिए जिस मशीन का निर्माण किया जाता है , उसका प्रत्येक पुर्जी किसी न किसी रूप में उपयोगी होता है । के मैलिनोवस्की का कथन है कि विभिन्न समाजों में संस्कृति के एकीकरण का रूप एक - दूसरे कुछ भिन्न देखने को मिलता है ।
इसका कारण यह है कि प्रत्येक समाज में मनुष्य आवश्यकताओं तथा उन आवश्यकताओं को पूरा करने के साधनों में कुछ मित्रता अवश्य होती . है । इसी के अनुसार विभिन्न समाजों में न केवल संस्कृति के तत्व एक - दूसरे से कुछ भित्र रूप में विकसित होते हैं बल्कि संस्कृति का सम्पूर्ण ढाँचा अथवा संस्कृति का संगठन भी इस मित्र रूप में ग्रहण कर लेता है । मैलिनावस्की ने संस्कृति के तत्वों द्वारा किये जाने वाले प्रकार्य के आधार पर संस्कृति के एकीरकरण को स्पष्ट किया है , इसीलिए आपके दृष्टिकोण को ' प्रकार्यवादी विचारधारा ' के नाम से जाना जाता है ।
संस्कृति के एकीकरण को प्रकार्यवादी दृष्टिकोण से स्पष्ट करने वाले प्रमुख विद्वान रैडक्लिफ ब्राउन हैं । आपके विचार मैलिनावस्की ने संस्कृति के तत्वों द्वारा जहाँ व्यक्ति की आवश्यकताओं को पूरा करने पर अधिक बल दिया है , वहीं ब्राउन ने संस्कृति के तत्वों का मुख्य प्रकार्य सामाजिक अस्तित्व को बनाए रखना माना है । ब्राउन का विचार है कि संस्कृति के प्रत्येक तत्व का कार्य समाज के अस्तित्व को बनाये रखना और उसकी रक्षा करना होता है ।
अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए ब्राउन ने संस्कृति के संगठन की तुलना सावयवी संगठन से की है । आपका कथन है कि एक प्राणी के स्वरूप की रचना बहुत कोशों और अंगों से होती है । यह विभिन्न कोश तथा अंग सम्पूर्ण शरीर को जीवित रखने के लिए जो योगदान करते हैं । उन्हीं को हम इनका प्रकार्य कहते हैं । दूसरे शब्दों में शरीर के प्रत्येक अंग का एक निश्चित प्रकार्य होता है और जब तक यह अंग अपना - अपना निर्धारित संस्कृति के संगठन में भी देखने को मिलती है ।
एक संस्कृति का निर्माण जितने तत्वों से होता है , वे तत्व जब तक अपना प्रकार्य समुचित ढंग से नहीं कर पाता , संस्कृति के एकीकरण में बाधा उदान हो जाती है । इससे स्पष्ट होता है कि संस्कृति का संगठन तथा सामाजिक संगठन परस्पर सम्बन्धित दशाएँ हैं । संस्कृति के प्रत्येक तत्व का कार्य वास्तव में मनुष्य की शारीरिक और मानसिक आवश्यकताओं को पूरा करना नहीं बल्कि सामाजिक संगठन को दृढ़ बनाए रखना होता है । यही सामाजिक संगठन संस्कृति के संगठन को बनाये रखने में योगदान करता है।
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