जनजातीय सामाजिक संगठन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए ।
सामाजिक संगठन क्या है ? ( What is Social Organization )
प्रत्येक समाज में ही कुछ - न - कुछ व्यवस्था हुआ करती है । इस व्यवस्था के अन्तर्गत नेक सामाजिक समूह या समितियाँ, मानव स्वयं तथा सामाजिक सम्बन्धों का एक ताना - बाना आ जाता है । ये सब एक - दूसरे से असम्बद्ध और स्वतंत्र होकर नहीं रहते ।
ये सब एक सम्बद्ध समग्र के संयुक्त भाग हैं और उसी रूप में सब मिलकर सुचारू ढंग से कुछ स्थापित नियमानुसार काम करने रहते हैं, जिसके फलस्वरूप उस समाज के सदस्यों का पारस्परिक सम्बन्ध और सामाजिक जीवन नियंत्रित होता है । इसी को सामाजिक संगठन कहते हैं ।
अतः स्पष्ट है कि सामाजिक संगठन वह व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत समाज के निर्माण भाग , एक - दूसरे से प्रकार्यात्मक सम्बन्ध रखते हुए कुछ न कुछ निश्चित ढंग से बँटे और परम्पराओं से नियंत्रित होते हैं जिसके फलस्वरूप समाज के प्रत्येक सदस्य की स्थिति एवं कार्य निर्धारित तथा उसका पारस्परिक सम्बन्ध नियमित होता है ।
इलियट तथा मैरिल ने सामाजिक संगठन को परिभाषित करते हुए लिखा है कि “ सामाजिक संगठन वह दशा या स्थिति है जिसमें एक समाज की विभिन्न संस्थाएँ अपने स्वीकृत अथवा उपलक्षित उद्देश्यों के अनुसार कार्य कर रही हैं । " जोन्स के अनुसार ,“ सामाजिक संगठन वह व्यवस्था है जिसके द्वारा समाज के विभिन्न भागों में आपस में तथा पूरे समाज के साथ एक अर्थपूर्ण ढंग से सम्बन्ध स्थापित होता है ।
" आदिम सामाजिक संगठन के आधार ( Bases of Primitive Social Organization ) विभिन्न सामाजिक संगठनों के कारकों में विविधता होते हुए भी इनमें महत्त्वपूर्ण तथा सामान्य कारक पिडिंगटन के अनुसार , निम्नवत् हैं - यौन - भेद, आयु, नातेदारी, स्थान, सामाजिक स्थिति, राजनीतिक शक्ति, व्यवसाय, धर्म व जादू, टोटमपाद तथा ऐच्छिक समितियाँ । सामाजिक संगठन के ये दस कारक या आधार अधिकतर आदिम समाजों में पाए जाते हैं ।
सामाजिक संगठन के अन्तर्गत पाई जाने वाली संस्थाओं को , हर्षकॉविट्स के अनुसार मोटे तौर पर दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है प्रथम तो वे जोकि नातेदारी के आधार पर पनपती है और दूसरे वे जिनका कि कोई सम्बन्ध नातेदारी व्यवस्था से नहीं होता ।
आदिम सामाजिक स्तरीकरण ( Primitive Social Stratification )
( 1 ) लिंग भेद ( Sex Dichotomy ) -
संसार की विभिन्न संस्कृतियों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि लगभग सभी समाजों में लिंग के आधार पर स्त्री और पुरुषों की प्रस्थिति एवं उससे सम्बन्धित दायित्वों में महत्त्वपूर्ण अन्तर है । प्राणीशास्त्रीय रूप से यह विश्वास किया जाता है कि स्त्रियाँ कठोर श्रम करने में पुरुषों के समान सक्षम नहीं होती । इसके अतिरिक्त सन्तान को जन्म देने सम्बन्धी अनेक दूसरी असमर्थताओं के कारण भी उनकी प्रस्थिति पुरुषों के समान नहीं हो सकती ।
इस आधार पर बहुत आरम्भिक काल से ही स्त्रियों को बच्चों के पालन - पोषण तथा परिवार की व्यवस्था सम्बन्धित दायित्व दिये जाते रहे हैं जबकि पुरुषों को शिकार , युद्ध तथा पशुओं का पालन जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य दिये जाते थे । जहाँ तक विभिन्न जनजातियों का सम्बन्ध है, प्राणी शास्त्रीय असमर्थता के अतिरिक्त धार्मिक विश्वासों तथा जादुई क्रियाओं के सन्दर्भ में भी स्त्रियों की स्थिति पुरुषों से भिन्न है ।
उदाहरण के लिये नीलगिरि की टोडा जनजाति स्त्रियों को मासिक धर्म के कारण अपवित्र मानती है । वह जनजाति पशु - पालक होने के कारण न केवल भैंस को पवित्र मानती हैं बल्कि उस स्थान को मन्दिर की तरह पूजती हैं जहाँ भैंस बाँधी जाती है । इस स्थिति में स्त्रियों को भैंस के बाड़े में जाने की अनुमति नहीं मिलती । साथ ही टोडा जनजाति के पुरोहित ( पुलोल ) को भी जीवन भर अविवाहित रहना आवश्यक समझा जाता है ।
( 2 ) आयु भेद ( Age differences ) -
आयु के आधार पर स्थिति - भेद भी संसार के प्रत्येक समाज या संस्कृति में पाया जाता है । एक छोटे बच्चे की स्थिति वह कदापि नहीं हो सकती जो कि एक बूढ़े व्यक्ति की होती है । उसी प्रकार किशोर , युवा , प्रौढ़ आदि की भी स्थितियाँ प्रायः प्रत्येक समाज में अलग - अलग होती हैं । यह हो सकता है कि किसी समाज में बच्चों का महत्त्व अत्यधिक हो परन्तु उन्हें वह सम्मान शायद कोई भी समाज नहीं देता जो कि प्रौदों या मिलता है ।
बूढ़ों की स्थिति उन आदिम समाजों में अधिक सुरक्षित होती है जहाँ कि जीति के साधनों को प्राप्त करने के लिये संघर्ष अत्यधिक कटु है । जहाँ इस प्रकार की यति है । अर्थात् जीवन का संघर्ष अत्यधिक कटु है वहाँ बूढ़ों को भार समझा जाता है । उदाहरणार्थ, एक्कीमों प्रदेश में बूढ़ों को उनकी सन्तान बर्फ के घर में बन्द करके या अन्य उपायों से मार डालता है क्योंकि वे फिर समुदाय के उत्पादक - कार्य में भाग लेने में असमर्थ होने के कारण परिवार या समुदाय के लिए बोझ बन जाते हैं ।
यह बात वहाँ के बूढ़े लोग जानते हैं कि अपनी असमर्थता पर लज्जा अनुभव करते हैं इसीलिए एक निश्चित आयु पार कर लेने के बाद बहुधा वे स्वयं ही अपनी सन्तान से यह अनुरोध करते हैं कि उन्हें मार डाला जाए । भारत की जनजातियों में भी सामान्यतः बड़े चूहों की ही स्थिति सम्मान की होती है । शासन - प्रबन्ध में इनका विशेष योगदान होता है । जनजातीय शासन प्रवन्ध बहुधा गोत्रों के आधार पर होता है और प्रत्येक गोत्र का एक मुखिया होता है । इस मुखिया को सलाह - परामर्श देने के लिये बड़े - बूढ़ों की एक परिषद् होती है ।
( 3 ) सम्पत्ति - भेद ( Distinction Wealth )
व्यक्ति की स्थिति को निश्चित करने में सम्पत्ति एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आधार है । परन्तु स्मरण रहे कि सम्पत्ति या धन की धारणा प्रत्येक युग और समाज में अलग - अलग होती है । उदाहरणार्थ, लोहा, कोयला, पेट्रोल आदि औद्योगिक समाज के लिए बहुमूल्य हो सकते हैं, परन्तु वे ही एक जनजातीय समाज के लिये, जोकि उनको प्रयोग करना नहीं जनता, कौड़ी मूल्य के भी नहीं हैं ।
उसी प्रकार एक पशुपालक समाज के लिये पशु की संपत्ति है, कृषि प्रधान देश के लिये जमीन, हल और बैल - श्रेष्ठ सम्पत्ति हैं और औद्योगिक समाज के लिये मशीन, मिल और कारखाना । इतना ही नहीं , कोई युग था जबकि पशुओं को सम्पत्ति का आधार माना जाता था, उसके बाद गुलामों की संख्या अधिकार और सम्पत्ति की द्योतक हो गई , परन्तु आधुनिक युग में वे आधार नष्ट होकर अन्य होकर अन्य अनेक आधार विकसित हो गए हैं ।
फिर भी स्थिति - निर्धारण के क्षेत्र में सम्पत्ति , चाहे उसका रूप कुछ भी हो , अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है । प्रायः देखा जाता है कि वे लोग , जिनके और कोई गुण नहीं होते , सम्पत्ति पर अधिकार होने के कारण समाज में ऊँची स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं । ऐसी अनेक जनजातियाँ हैं जिनमें व्यक्ति सामाजिक प्रतिष्ठा या ऊँची स्थिति तब प्राप्त करता है जब वह अपनी सम्पत्ति का अधिकाधिक त्याग कर देता है ।
( 4 ) नातेदारी ( Kinship )
लिंग तथा आयु के अतिरिक्त आदिम समाजों में नातेदारी भी के व्यक्ति को एक विशेष प्रस्थिति प्रदान करने का महत्त्वपूर्ण आधार है । साधारणतया एक आदिवासी गाँव अथवा समूह में व्यक्ति का मूल्याँकन उसके माता - पिता और दूसरे स्वजनों को दृष्टि में रखते हुए किया जाता है ।
समूह में यदि किसी व्यक्ति को दण्डित किया जाता है तो उसके स्वजनों को भी अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता । प्राणीशास्त्रीय आधार पर भी यह विश्वास किया जाता रहा है कि बच्चे को व्यक्तित्व सम्बन्धी गुण अपने माता - पिता से ही प्राप्त होते हैं । विभिन्न आदिवासी समूहों में प्रस्थिति निर्धारण में नातेदारी एक महत्त्वपूर्ण आधार अवश्य है लेकिन जनजातियों में, जहाँ यौन सम्बन्धों में बहुत ढील पायी जाती है, व्यक्ति की प्रस्थिति निर्धारण में नातेदारी को कोई व्यावहारिक महत्व नहीं होता ।
उदाहरणार्थ टोडा जनजाति में एक स्त्री अनेक पुरुषों से विवाह करती है । इस दशा में यह ज्ञात नहीं किया जा सकता कि उस स्त्री से जन्म लेने वाले बच्चे का वास्तविक पिता कौन है । सामाजिक नियमों के अनुसार स्त्री के गर्भकाल के पाँचवों महीने में उसका जो भी पति पूरसुपिमि संस्कार के द्वारा उसे धनुष - बाण भेंट करता है उसी को जन्म लेने वाले बच्चे का पिता मान लिया जाता है ।
इसी प्रकार ट्रोबियण्ड द्वीप में स्त्रियों को यौन सम्बन्धों के क्षेत्र में बहुत अधिक स्वतन्त्रता मिली होने के कारण बच्चे के वास्तविक पिता को ज्ञात कर सकना बहुत कठिन होता है । यहसभी दशाएँ प्रस्थिति निर्धारण में नातेदारी के महत्त्व को सन्देहपूर्ण बना देती है । इसके बाद भी इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आदिम समाजों में व्यक्ति की प्रस्थिति का निर्धारण परिवार की प्रस्थिति से कुछ - न कुछ सीमा तक अवश्य प्रभावित होता है।
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